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“અહો! શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૨૨૨
ન્યાયગ્રંથ
'વાદાર્થ સંગ્રહ ભાગ-૪
: દ્રવ્ય સહાયક : સુવિશાળ ગચ્છાધિપતિ પૂ. આ. શ્રી વિજય રામચંદ્ર-ભટૂંકર
કુંદકુંદસૂરીશ્વરજી મહારાજના શિષ્યરત્ન વર્ધમાનતપોનિધિ પૂ. ગણિવર્ય શ્રી નયભદ્રવિજયજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી
શ્રી ભારજા જૈન સંઘ (રાજસ્થાન)
જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૭૨
ઈ. ૨૦૧૬
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अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ
ક્રમાંક
પૃષ્ઠ
કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणि म. सा.
001
002
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017
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05.
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029
श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता
| श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजितपृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
शिल्परत्नम् भाग - १
शिल्परत्नम् भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
दीपार्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
| न्यायप्रवेशः भाग-१
दीपार्णव पूर्वार्ध
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभा
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा.
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा.
पू. मानतुंगविजयजी म.सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
| श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारती गोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
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().
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302
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202
480
30 | શિન્જરત્નાકર
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री प्रासाद मंडन
| पं. भगवानदास जैन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ पू. लावण्यसूरिजी म.सा. | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ પૂ. ભવિષ્યસૂરિની મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. 036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. 037 વાસ્તુનિઘંટુ
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા 038 તિલકમશ્નરી ભાગ-૧
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 તિલકમગ્નરી ભાગ-૨
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી તિલકમઝરી ભાગ-૩
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી સપ્તભફીમિમાંસા
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર
| સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ 044 વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી ન્યાયસમુચ્ચય
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
પૂ. દર્શનવિજયજી 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
પૂ. દર્શનવિજયજી 054 | જ્યોતિર્મહોદય
સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
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(04)
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|
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
स
पू. लावच
218.
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी upl stGirls sरी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-
टीर-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056| विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા
| पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
| श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
. श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
|
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/४. श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन 0748न सामुद्रिन पांय jथो
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी | 376
4. 14.
060
322
532
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075
076
સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
077
1 ભારતનો જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય
079
શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - १
081 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - २
082 ह शिल्पशास्त्र भाग - 3
O83 आयुर्वेधना अनुभूत प्रयोगो भाग-१
જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૧
જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૨
084 ल्याए 125
ORS विश्वलोचन कोश
086 | Sथा रत्न छोश भाग-1
0875था रत्न छोश भाग-2
હસ્તસગ્રીવનમ્
088
089
090
એન્દ્રચતુર્વિશનિકા
સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
शुभ.
शुभ.
गुभ.
गुभ.
शुभ
श्री साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
श्री विद्या साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
सं.
श्री मनसुखलाल भुदरमल
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
पू. कान्तिसागरजी
श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
गु४.
शुभ.
गुठ
शुभ,
गु४.
सं.हिं श्री नंदलाल शर्मा
गुभ.
गुभ.
सं
सं.
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
पू. मेघविजयजीगणि
पू.यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी
आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
374
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194
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238
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322
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560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272
सं.
240
254
282
466 342 362 134 70
316 224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता / टीकाकार भाषा | संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी
सं./गु | हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि | पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी |सं. जैन सत्य संशोधक
सं./हि
514 454 354 337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754 84 194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब
गुज. | साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. | हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. ब्रज. बी. दास बनारस 133 | | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसुरिजी
गुज. यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. | शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी | गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151| सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. ब्रीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय
सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274
168 282
182 384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
|
पृष्ठ 304
122
208 70
310
शा
462 512 264
| तीर्थ
144 256
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण
| संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156| प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव
| पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत | पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास । तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प पू. ललितविजयजी
संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक
पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी | साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय
गिरिधर झा
न्याय संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम्
पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध
शिवराज | ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
75 488 | 226 365
संस्कृत
190
480 352 596 250
391
114
238 166
368
88
356
168
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________________
क्रम
181
182
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमलाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
192
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
विषय
पुस्तक नाम
काव्यप्रकाश भाग-१
काव्यप्रकाश भाग-२
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
183
184 नृत्यरत्न कोश भाग-१
185 नृत्यरत्न कोश भाग- २
186 नृत्याध्याय
187 संगीरत्नाकर भाग १ सटीक
188 संगीरत्नाकर भाग २ सटीक
189 संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
190 संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी जैन ग्रंथो
193 न्यायविंदु सटीक
194 शीघ्रबोध भाग-१ थी ५
195 शीघ्रबोध भाग-६ थी १०
196 शीघ्रबोध भाग- ११ थी १५ 197 शीघ्रबोध भाग - १६ थी २० 198 शीघ्रबोध भाग- २१ थी २५ 199 अध्यात्मसार सटीक
200 | छन्दोनुशासन
201 मग्गानुसारिया
कर्त्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत
पूज्य मम्मटाचार्य कृत
उपा. यशोविजयजी
श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री
नृपति
श्री अशोकमलजी
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
श्री सारंगदेव
नारद
-
-
-
श्री हीरालाल कापडीया
पूज्य धर्मोतराचार्य
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य ज्ञानसुन्दरजी
पूज्य गंभीरविजयजी
एच. डी. बेलनकर
श्री डी. एस शाह
भाषा
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत/अंग्रेजी
संस्कृत
गुजराती
संस्कृत
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
हिन्दी
संस्कृत/ गुजराती
संस्कृत
संस्कृत/गुजराती
संपादक/प्रकाशक
पूज्य जिनविजयजी
पूज्य जिनविजयजी
यशोभारति जैन प्रकाशन समिति
श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री वाचस्पति गैरोभा
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग
मुक्ति-कमल जैन मोहन ग्रंथमाला
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा नरोत्तमदास भानजी
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
पृष्ठ
364
222
330
156
248
504
448
444
616
632
84
244
220
422
304
446
414
409
476
444
146
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
Page #11
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VĀDĀRTHA-SAMGRAHA
(FOURTH PART)
AKHYATA-SHAKTI-VĀDA
BY RAGHUNĀTH SHIROMANI BHATTĀCHĀRYA
WITH SIX COMMENTARIES (1) Akhyāta-vāda-rahasya-BY MATHURĀNĀTH. (2) Ākhyāta-vāda-tippani-BY RĀMCHANDRA.(3) Ākhyāta-vāda-tippani-DY RAGHUDEVA. (4) Vyākhyā-BY JAYARĀM. (5) Vyākhyā-BY NYAYA-VĀCHASPATI. (6) Vyākhyā-BY RĀMKRISHNA.
· EDITED BY MAHĀDEVA GANGĀDHAR BĀKRE
Printed and Published by Natvarlal Itcharam Desai at THE "GUJARATI" PRINTING PRESS, Sassoon Bldg. Elphinstone Circle,
Fort, BOMBAY, No. 1.
V. S. 1987:
A, D. 1931
Page #12
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________________
To be had from
The Manager THE "GUJARATI" PRINTING PRESS Sassoon Buildings, Eli hinstone Circle,
Fort, Fombay No. 1,
| Registered under the Copy Right Act. )
Page #13
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श्रीरघुनाथशिरोमणिभट्टाचार्यकृते
वादार्थसंग्रहे आख्यातशक्तिवादः (चतुर्थो भागः)
१ मथुरानाथतर्कवागीशविरचिता आख्यातवादरहस्य-२रामचन्द्रन्यायवागीशभट्टाचार्यविरचिताख्यातवादटिप्पणी३ रघुदेवभट्टाचार्यकृताख्यातवादटिप्पणी-४ जयरामभट्टाचार्यकृत व्याख्या-५ न्यायवाचस्पति कृत व्याख्या-६ रामकृष्णनिर्मिता व्याख्या- इति अटीका समन्वितः
मुम्बयां फोर्टसर्कलाख्य प्रविभागे सासूनभवने 'नटवरलाल इच्छाराम देसाई ' इत्यनेन स्वीये 'गुजराती'
मुद्रणयन्त्रालये मुद्रयित्वा तत्रैव प्रकाशितः ।
संवदन्दः १९८७
शकाब्दः १८५३
Page #14
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________________
पुस्तक प्राप्तिस्थानम् गुजराती प्रिंटिंग प्रेस
सासुन बिल्डिंग एलफिन्स्टन सर्कल,
कोट, मुंबई 9
66
ر"
Page #15
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वादार्थसग्रहः
(चतुर्थो भागः) शिरोमणिकृताख्यातशक्तिवादः।
व्याख्याषट्युतः १३
मथुरानाथी आख्यातस्य यत्नो वाच्यः पचति पाकं करोतीति यत्नार्थककरोतिना सर्वाख्यातविवरणात् । व्यवहारादिव बाधकं विना विवरणादपि युत्पत्तेः किङ्करोतीत्यादियत्नप्रश्ने पचतीत्यायुत्तरस्य यत्नार्थकत्वं विनानुपपत्तेश्च । अचेतने रथो गच्छतीत्यादौ च अनुकूलव्यापारे लक्षणेति प्राचः ॥ १॥
अथ शिरोमणिकृताख्यातशक्तिवादविवृतिः। कुञ्चिताधरपुटेन वादयन् वंशिकां प्रचलदङ्गुलपतिः । * मोहयनखिलवामलोचनाः पातु कोऽपि नवनीरदच्छविः ॥
श्रीमता मधुरानाथ-तर्कवागीशधीमता।
आख्यातशक्तिवादस्य क्रियते विटतिः शुभा ॥ आख्यातस्य शक्ति निरूपयति-आख्यातस्येति।आख्यातं यत्नत्वावच्छिनशक्यताकमित्यर्थः, तेन वक्ष्यमाणहेतोर्न वैयधिकरण्यम् । आख्यातत्वञ्च सङ्केतविशेषसम्बन्धेन आख्यातपदवत्वं, न तु जातिः, तित्वादिना साड्र्यात मानाभावाच । शक्ततावच्छेदकञ्च न तत्, किन्तु प्रत्येकं तित्वादिकमेव, आख्यातत्वप्रकारणाज्ञानदशायां तित्वादिना ज्ञानात् शाब्दबोधमात्रस्य शक्तिभ्रमजन्यत्वप्रसङ्गात् , तित्वादिना प्रकारेणाज्ञानदशायां तत्प्रकारेण ज्ञानात् शाब्दबोधानुदयस्य सर्वसिद्धत्वात् । यत्नत्वञ्च प्रत्तित्वं, प्रत्तित्वं च रागजन्यतावच्छेदकतया सिद्धं, अहं यते अहं प्रटत्तोऽस्मि अहं करोमीत्यनुव्यवसायसाक्षिको नित्ति-जीवनयोनिव्याटत्तो जातिविशेषः, निवृत्तिजीवनयोनियत्नयोः रागाजन्यत्वात् तथा
१ यत्नवाचकत्वम् इ. पा. २ 'शक्तिग्रहात् ' इ. पाठ. ३ तीति प्रश्ने इ. पाठ. ४ त्युत्तर. पाठः।
Page #16
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________________
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
नुव्यवसायविरहाच्च । चेष्टाजनकतावच्छेदकः स एव निवृत्तेश्चेष्टाजनकत्वविरहात्। सुपुप्तौ शरीरकर्मणः चेष्टात्वे मानाभावात् , तत्रापि चेष्टावस्यानुभवसिद्धत्वे रागजन्यतावच्छेदकप्रटत्तित्वव्यापको निटत्तिव्याटत्तो जीवनयोनियत्नसाधारणो जातिविशेष एव चेष्टाजनकतावच्छेदकः, स च नाख्यातस्य शक्यतावच्छेदक: तथासत्याख्यातस्य कृधातुपर्यायत्वानुपपत्तेः । सुपुप्तौ जीवनयोनियत्नसत्त्वेऽपि स्वारसिककरोतिव्यवहाराभावेन रागजन्यतावच्छेदकप्रत्तित्वस्यैव कृयातुशक्यतावच्छेदकत्वात् । एतेन 'प्रत्ति-निवृत्ति-जीवनयोनिसाधारणं गुणविभाजकं प्रयत्नत्वमेव आख्यातस्य शक्यतावच्छेदकम् । न चैवं पाकगोचरनित्तिदशायामपि पचतीत्यादिः प्रयोगः स्यादिति वाच्यं । निटत्तेः क्रियानुकुलत्वाभावात् क्रियानिष्टसाध्यत्वाख्यविलक्षणविषयत्वानिरूपकत्वाच्च । तथाच व्यवहारासंभवात् आख्यातार्थप्रयत्न-धात्वर्थयोस्तादृशसम्बन्धेनैवान्वयस्य साकासत्वात् योग्यताभ्रमात् तथा प्रयोगस्येष्टत्वात् । प्रत्तित्वस्य शक्यतावच्छेदकत्वेऽपि लक्षणया योग्यताभ्रमात् तदानीं तादृशप्रयोगस्य दुर्वारत्वात् ' इति कस्यचिन् प्रलपितमप्यपास्तम् । तथा सति आख्यातस्य कृधातुपर्यायत्वानुपपत्तेः गुणविभाजकप्रयत्नत्वस्य जातित्वे मानाभावेन प्रतित्वमपेक्ष्य तस्य गुरुत्वाच । न च प्रत्तित्वस्य शक्यतावच्छेदकत्वे चैत्रो निःश्वसितीत्यादौ कथं श्वासानुकूलप्रयत्नानुभव इति वाच्यम् । तत्र श्वासाश्रयत्वमात्रप्रतीतेः शरीरक्रियाविशेषस्य श्वासत्वात् । न च तथापि प्रत्तित्वस्य शक्यतावच्छेदकत्वे परमेश्वरो वेदं वक्ति परमेश्वरो वदमुच्चारयति परमेश्वरो वेदं प्रयुड्रे इत्यादौ कथं वेदाभिन्नशब्दानुकूलयत्नवत्वानुभवः वेदजनककण्ठायभिघातानुकूलयत्नवस्वानुभवो वा इति वाच्यम् । कार्यसामान्य प्रत्यतिलघुतया व्याप्यधर्मतया च प्रवृत्तित्वस्यैव जनकतावच्छेदकत्वेऽपि भागवतप्रयत्नेऽपि प्रत्तित्वस्य धर्मिग्राहकप्रमाणसिद्धत्वात् । यद्वा तत्र वचादिधातोरेव यत्नसामान्यमर्थः, अनुकूलत्वं विषयत्वं वा कर्मविभक्त्यर्थः, आख्यातस्याश्रयत्वमर्थः, आख्यातस्यैव वा यत्नसामान्ये लक्षणा वचादिधातुश्च कण्ठायभिघातपर एव। . __ केचित्तु परमेश्वरपदं तदीयकण्ठपरं, वचादिधातोः कण्ठायभिघात एवार्थः, आख्यातस्य आश्रयत्वमेवार्थः, आख्यातस्यैव वा परम्परासंबन्धविशेपेणाश्रयत्वमर्थः, तथाच परमेश्वरपदं यथाश्रुतमेवेत्याहुः।
तथासति प्रतिपादकताविशेषसम्बन्धेन कृधातुमत्त्वादिति हेतुरूयः । विशेषेत्युपादानात् आत्मादौ न व्यभिचारः । नन्वयं हेतुरसिद्ध इत्यत आह-पचतीति । पचति पाकं करोतीत्यादिवाक्यमध्यवर्तिना यत्नार्थककरोतिना यत्नशक्तकृधातुना सर्वाख्यातानां लट्वादिरूपसकलाख्यातविभाजकतावच्छेदकधर्मावच्छिन्नानां विवरणात् स्वशक्यप्रतिपादकताप्रमाजननात् । आदिपादत् पश्वति पाकं करिष्यति अपचत् पाकमकरोत् इत्यादिपरिग्रहः, आदिपदापूरणे पार्क
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१३ ग्रन्थः] व्याख्याषटकयुतः करोतीत्यत्र करोतिना पक्ष्यतीत्यादेरविवरणादसङ्गतत्वापत्तेः । सर्वाख्यातविवरणादित्यस्य सर्वैराख्यातविवरणादित्यर्थः, इति केचित् । अयं भावः, पचति पाकं करोतीत्यादिविवरणेषु पचतिपदं स्वपरतया पचपदपरं तिपदपरञ्च, पा. कपदसमभिव्याहारेण कृधातुः पाकसमानार्थकत्व-कृसमानार्थकत्वपरः, आश्रयत्वमाख्यातार्थः, एवञ्च पचपदं पाकसमानार्थकं, तिपदं कृसमानार्थकमित्यादिबोधः । एवं सर्वत्रैव विवरणे चरमपदे एव तत्पदसमभिव्याहारेण तत्त
समानार्थकत्वे लक्षणा । अतएव येन समानार्थकतया यत् बोध्यते तत् तस्य विवरणमिति प्रामाणिकाः । ननु तथापि शक्यप्रतिपादकताविशेषसम्बन्धेन कृधातुमत्वं लक्षणादिना कृधातुशक्यप्रतिपादके शब्दे अनैकान्तिकमित्यत आह, व्यवहारादिवेति। बाधकं विना स्वसाध्यबाधकं यद्विशेषणं तदभाववत्त्वविशेषणसहकारेण, व्युत्पत्तेः व्युत्पत्तिसंभवात् शक्तिग्रहसंभवादिति यावत् । गवा. दिपदव्यवहारो यथा गवादिपदशक्यत्वस्वरूप-स्वसाध्यस्य बाधकं यद्विशेषणं लक्षणा-शक्तिभ्रमजन्यप्रतिपत्तिविषयतासम्बन्धेन गवादिव्यवहारवच्वं तदभाववखे सतीति विशेषणविशिष्टीभूय प्रतिपाद्यतासम्बन्धेन गवादौ गवादिपदशक्तिसाधकः, तथा कृधातुमत्त्वादिरूपविवरणमपि प्रत्तित्वावच्छिन्नशक्यताकत्वादिरूपस्वसाध्यस्य बाधकं यद्विशेषणं लक्षणा-शक्तिश्रमजन्यस्वशक्यप्रतिपत्तिजनकतासम्बन्धेन कृधातुमत्वं तदभाववत्वे सतीति विशेषणविशिष्टीभूयस्वशक्यप्रतिपादकताविशेषसम्बन्धेन प्रवृत्तावाख्यातादेः शक्तिसाधकमित्यर्थः, तथाच निरुक्तबाघकाभाववत्त्वं हतौ विशेषणं देयमिति भावः । अतएव “ शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोषाप्तवाक्याब्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद्वितेर्वदन्ति सानिध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः" ॥ इति पठन्ति । तत्रानुमानपदं व्यवहारादीतरानुमानपरं, तेन व्यवहा. रादेर्न पृथगुपादानविरोधः ।। ___ सांप्रदायिकास्तु नन्वाख्यातस्य किं शक्यमित्यत आह, आख्यातस्येति। यत्न आख्यातस्य वाच्य इति यथाश्रुत एवार्थः । ननु तस्याख्यातपदवाच्यत्वे किं मानमित्यत आह, 'पचतीति, अभेदे तृतीया, अन्वयश्चास्य विवरणे, विवरणं स्वसमानार्थकत्वज्ञापन, ज्ञापनं ज्ञानानुकूलः शब्दः, प्रमाप्यत्वं पञ्चम्यर्थः, तथाच विवरणमेव मानमिति भावः । ननु विवरणस्य शक्तिप्रमापकत्वं न शब्दविधया शक्तेः पदार्थत्व-वाक्यार्थत्वयोरभावादत आह-व्यवहारादिवेति। तथाचानुमानविधयैव तस्य शक्तिसाधकत्वमिति भावः । अनुमानञ्चोक्तरूपमिति व्याचक्रः । ___ ननु विवरणेन कृधातुशक्यप्रतिपादकत्वं तिबादेर्न बोधितं, अपि तु कृधातुप्रतिपायप्रतिपादकत्वं तच्च लक्षणया कृधातोः प्रतिपाद्यस्य व्यापारादेः प्रतिपादकत्वेऽपि निर्वहतीत्यरुचेराह-किं करोतीति । किविषयकत्वप्रकारकप्रत्तित्वविशिष्टविशेष्यकप्रभे सतीत्यर्थः । किंविषयकत्वं जिज्ञासितविषयकत्वं, किंशब्दस्य जिज्ञासितवाचकत्वात् । 'यलार्थकत्वं विना' आख्यातस्य प्रवृत्तित्व
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
विशिष्टार्थकत्वं विना, अनुपपत्तेरिति जिज्ञासानिवर्तकत्वानुपपत्तरित्यर्थः । यद्पविशिष्टे जिज्ञासितस्य तत्सम्बन्धः प्रभवाक्येन बोध्यते परिशिष्टे विशिष्य तत्सम्बन्धज्ञानेनैव जिज्ञासानिवृत्तरिति भावः । तथाच आख्यातं प्रत्तित्वावच्छिन्नशक्यताकं प्रवृत्तित्वविशिष्टे जिज्ञासाया निवर्त्तकस्य ज्ञानस्य जनकत्वात् इत्यनुमानप्रकारोऽवसेयः । तत्रापि लक्षणा-शक्तिभ्रमाजन्यत्वेन ज्ञानं विशेषणीयं, तेन लक्षणया प्रवृत्तिबोधके शब्दे न व्यभिचारः । न च लक्षणाशक्तिभ्रमावजन्यप्रदृत्तित्वविशिष्टविषयकज्ञानजनकत्वादित्येवास्त्विति वाच्यं, हेत्वन्तरसम्भवस्य हेत्वन्तरादूषकत्वादिति निगर्वः । ननु पूर्वहेतौ निरुक्तबाधकाभाववत्व विशेषणम् अत्र तु लक्षणाशक्तिभ्रमाधजन्यत्वं ज्ञानविशेषणमप्रसिद्ध, प्रत्तित्वस्याख्यातशक्यतावच्छे. दकत्वे रथो गच्छतीत्यादिवाक्यस्यायोग्यत्वापत्त्या अनुकूलव्यापारादावाख्यातस्य शक्तः रथादेरचेतनतया चैतन्याबनवच्छेदक्तया च तत्र प्रटत्तिमत्त्वासंभवात् । अपचत्यपि चैत्रादौ कालिकादियत्किञ्चित्सम्बन्धेन प्रवृत्तिमत्त्वमादाय चैत्रः पचतीत्यादिन्यवहारवारणाय समवायावच्छेदकतान्यतरसम्बन्धेनैव कर्तृपदार्थे आख्यातार्थयत्नान्वयस्य साकासत्वमित्यभ्युपेयत्वात् , आत्मा पचतीत्यादिप्रयोगानभ्युपगमे समवायोऽपि नान्तर्भावनीयः, परमेश्वरो वेदं वक्तीत्यादौ पर. मेश्वरपदस्य तच्छरीरपरत्व एव योग्यत्वं न तु परमात्मपरत्व इति चाकामेन स्वीकरणीयमित्याशङ्कां प्राचीनमतमाश्रित्य परिहरति-अचेतनइत्यादिना । 'अचेतने' अचेतनविशेष्यकाख्यातार्थप्रकारकबुद्धिजनके, 'अचेतनत्वं' समवायावच्छेदकत्वान्यतरसम्बन्धन चैतन्यवतो भिन्नत्वं, तेन चैत्रः पचतीत्यादेर्न सङ्ग्रहः, तण्डुलः पच्यत इत्यादेर्व्यवच्छेदार्थमुक्तं रथो गच्छतीत्यादाविति, तेन कर्तरहिताख्यात इति लभ्यते, 'चः' त्वर्थः। अनुकूलव्यापारे लक्षणेति अनुकूलव्यापारे निरूढलक्षणेत्यर्थः । यादृशलक्षणया प्रयोगे कथायां वादिनो न निग्रहः सैव लक्षणा निरूढा । अनुकूलत्वस्य धात्वाख्यातार्थव्यापारयोः संसर्गतया स्फोरणायानुकूलत्वेनोपादानं, न तु लक्ष्यतावच्छेदके तदन्तर्भावः । व्यापारत्वञ्च कार्यत्वं तच्च प्रतियोगितासम्बन्धेन ध्वंसवत्त्वं, प्रागभाववत्वं वा व्यापारत्वम् ॥ १ ॥
. रामचन्द्रतर्कवागीशकृतव्याख्या। आख्यातस्यति । आख्यातत्वं शक्ततावच्छेदकं यत्नत्वञ्च शक्यतावच्छेदकमित्यर्थः, तत्राख्यातत्वं लत्वं वर्णत्वव्याप्यजातिविशेषः, त्यादयो लकारादशाः, तथाचाप्राप्तस्य पचतीत्यादावादेगेन त्यादिना आदेशिनो लकारस्य स्मरणादेव यत्नस्वविशिष्टस्योपस्थिति-शाब्दबोधौ विशेषदर्शिनः । भ्रान्तस्य च त्यादावेव यत्नत्वविशिष्टशक्तिभ्रमादन्वयबोधः। न च त्यादेः ककारादेशत्वमादाय विनिगमकाभावः, सर्वज्ञेन पाणिनिमुनिना त्यादीनां लकारादेशत्ववोधनं न तु ककारादीनामित्यस्यैव विनिगमकत्वादिति संप्रदायविदः । आख्यातपदात् त्यादयो बोडव्या इत्याकारकवैयाकरणपरिभाषाविषयत्वसम्बन्धेनाख्यातपदवत्त्वमेवा
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१३ ग्रन्थः]
व्याख्याषट्कयुतः ।
ख्यातत्वं तेन रूपेण त्यादिषु तथा परिभाषा कृता न तु ककारादीनामित्यस्यैव विनिगमकत्वादिति, तित्वादिना वा यत्लत्वविशिष्टगोचरपदार्थस्मृतिशाब्दबोधावभान्तस्य, भ्रान्तस्य च तित्वादिना शक्तिभ्रमादेव तावित्यन्ये(?)। विनापि लत्वा. ख्यातपदवत्त्वयोर्ज्ञानं पचतीत्यादावभ्रान्तस्य शाब्दबोधदर्शनेन (न) लत्वादिना शक्तिः तथाच तित्वादिकमेवाख्यातत्वम् । न चैवं तिबादिभेदेन शक्तिभेदकल्पने गौरवं, प्रामाणिकतया तस्यादोषत्वात् । न च तिप्तसादीनां विष्णु-नारायणशब्दादीनामिव पर्यायतापत्तिः, इष्टत्वादित्यपरे । वेदत्वादिवदाख्यातत्वमखण्डोपाधिरिति नव्याः। एतेन धातुत्व-विभक्तित्वादयो व्याख्याताः । यत्नत्वञ्च घट करोमि घटाय यतते इत्यादिप्रतीतिसिद्धजातिविशेषः । न च यत्नत्वं प्रवृत्तिजीवनयोनियत्नसाधारणो जातिविशेषः इति सिद्धान्तः तद्व्याप्यापि जीवनयोनियत्लव्यात्तप्रटत्तित्वाख्यजातिरस्ति तथाच तव्याप्यप्रत्तित्वजातेरप्याख्यातशक्यतावच्छेदकत्वसंभवेन तदादाय विनिगमनाविरह इति वाच्यम् । तथा सति मुषमिकाले चैत्रो निश्चसितीति प्रयोगाभावप्रसङ्गात् तदानीं प्राणक्रियारूपनिषासानुकूलप्रवृत्तेरभावात् प्रवृत्तिहेत्विष्टसाधनताज्ञानादेस्तदानीमभावेन प्रत्युत्पादासम्भवात् । नहि यत्नत्वस्य शक्यतावच्छेदकत्वेऽप्ययं दोषः, निश्वासानुकूलजीवनयोनियत्नस्य धर्माधर्मसहितात्ममनोयोगमात्रजन्यस्य सुषुप्तिकालेऽप्युत्पत्तेः। न च नित्याख्ययत्नत्वस्य कुत्राप्याख्यातपदाप्रतिपाद्यतया यत्नत्वस्यातिप्रसक्तत्वेन न शक्यतावच्छेदकत्वमन्यथा सत्त्व-गुणत्वादेरप्याख्यातशक्यतावच्छेदकत्वमनुकूलताविशेषस्य संसर्गत्वाच्च पचतीत्यादौ न ज्ञानादीनां बोधः इत्यस्य सुवचत्वादिति वाच्यम् । पचतीत्यादौ सत्व-गुणत्वादिनैव यत्नस्य शाब्दबोधाभ्युपगमे पचतीत्यादिशाब्दबोधानन्तरं चैत्रः पाकानुकूलयत्नवान्न वेति संशयादिप्रसङ्गात् अप्रसङ्गाश्च चैत्रः पाकानुकूलगुणवान वेत्यादेरिति निवृत्तिसाधारणमपि यत्नत्वमेव शक्यतावच्छेदकं स्वीक्रियते । न च ईश्वरः पचतीति प्रयोगापत्तिः कार्यमानहेतुभूताया ईश्वरकृतेः पाकस्याप्यनुकूलत्वादिति वाच्यम् । ईश्वरकृतिव्यावृत्तस्य पाकानुकूलत्वस्यैव पचतीत्यादौ वाक्यार्थत्वाभ्युपगमात् । अस्तु वा ईश्वरो जगत् सजतीत्यादिवदीश्वरः पचतीत्यादिप्रयोगे इष्टापत्तिरिति ।
'यत्तु रागजन्यतावच्छेदकं प्रवृत्तित्वावान्तरबैजात्यमेवाख्यातशक्यतावच्छेदकमिति पाकानुकूलतादृशविजातीयप्रत्तेरीधरावृत्तित्वादीश्वरः पचतीति नं प्रयोगः इति तदसत्, तथा सतीधरो जगत् सृजतीति प्रयोगाभावप्रसङ्गात् सुषुप्तिदशायां चैत्रो निश्चसितीति प्रयोगाभावप्रसङ्ग इत्यस्याप्युक्तत्वाच्च इति दिक् ।
नन्वाख्यातस्य यत्नत्वविशिष्टे शक्तिग्रहः कुत इत्याकाङ्क्षायामाह-पचतीत्या. दि। यत्नार्थकेति। यत्नार्थको यःकरोतेः कृधातुस्तेन सर्वाख्यातार्थकथनादित्यर्थः। ननु विवरणम्य शक्तिग्राहकत्वे अपसिद्धान्तः शक्तिग्राहकमध्ये विवरणस्यागणनाद त्यत आह, बाधकं विनेति । गौरवान्यलभ्यत्वादिरूपवाधकाभावे सतीत्यर्थः, तेन
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वादार्थसंग्रहः
६
[ ४ भाग:
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स्थाली पचतीत्यादा पाकानुकूलव्यापारस्य विवरणेऽपि न व्यापारत्वविशिष्टे शक्ति: यत्तत्वापेक्षया व्यापारत्वस्य गुरुत्वमेव बाधकमेवं पचति पाकयत्नवान् इत्यादिना धर्मो विवरणेऽपि तत्रान्यलभ्यत्वमेव बाधकमिति भावः । तदाह “शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानकोषाप्तवाक्याद्व्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सानि - भ्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः” ॥ 'विवृतिः' विवरणमित्यर्थ इति, तथाच शक्तिग्राहकाणां मध्ये विवरणस्यापि शक्तिग्राहकत्वमुक्तमिति न सिद्धान्तविरोधः । विवरणस्य शक्तिग्राहकता च व्यवहारस्येव अनुमानोत्थापकतया । तथा हि पचतीत्यादावाख्यातपदं यत्वविशिष्टे शक्तं यत्रत्वविशिष्टार्थककृधातुप्रतिपाद्यार्थक शब्दत्वादित्यायेवानुमानम्, अत्रच कृधातुप्रतिपाद्यार्थकत्वरूपं विवरणं हेतुघटकमिति शक्तिग्राहकाanirgacaत्वमेव विवरणस्य शक्तिग्राहकत्वपदार्थ इति भावः । न च व्यवहा - रस्य शक्तिग्राहकत्वाभावेन व्यवहारादिवेति दृष्टान्तविरोध इति वाच्यम् । घटपदं घटत्वविशिष्टे शक्तं लक्षणायजन्य घटत्वविशिष्टबोधजनकपदत्वादित्यनुमाने घटत्वविशिष्टोवकत्वरूपव्यवहारस्य हेतुघटकतया शक्तिग्राहकानुमानोत्थापकत्वसंभवात् । 'व्युत्पत्तेः' शक्तिग्रहात् व्युत्पत्तिपदस्य शक्तिवाचकत्ववत् शक्तिग्रहवाचकत्वादिति भावः । ननु नैयायिकानां यत्रत्वविशिष्टे आख्यातस्य विवरणवत् मीमांसकानां व्यापारेऽपि विवरणात् व्यापारत्वविशिष्टेऽपि शक्तिः स्यादिति न विवरणस्य शक्तिग्राहकतेत्यत आह-किं करोतीति । कृतित्वविशिष्टधर्मिक-किचिर्मप्रकारकजिज्ञासाविषयः किंशब्दार्थः, 'किमिति क्रियाविशेषणं, तथाच किं करोतीत्यस्य तादृशजिज्ञासाविषयाभिन्नकृतिमानित्यर्थः, क्रियाविशेषणस्याभेदेनान्वयस्य व्युत्पन्नत्वात् । न च किमित्यत्र द्वितीयाया अनुकूलत्वमर्थः, तथा सति विषयेणोत्तरस्यानुपपत्तिप्रसङ्गादिति भावः । अस्तु वा विषयत्वमेव द्वितीयार्थः, तादृशजिज्ञासा च किंशब्दार्थ इति । यत्नार्थकत्वं विनेति । पचतीत्यस्य यनत्वविशिष्टार्थकत्वविरहे पचतीत्यतो यत्तत्वविशिष्टधर्मिक पाकप्रकारकबोधो न स्यात् तथाच प्रश्नप्रतिपादितजिज्ञासानिवर्त्तकज्ञानजनकवाक्यत्वरूपमुत्तरत्वं पचतीति वाक्ये न स्यादित्यर्थः । नन्वाख्यातस्य यत्रत्वविशिष्टार्थकत्वे रथो गच्छतीत्यादिवाक्यस्यायोग्यत्वापत्तिः अचेतने रथादौ गमनानुकूलकृतेर्बाधादित्यत आह-अचेतन इत्यादि । अचेतनविशेष्यकत्रोधजनक इत्यर्थः । अनुकूलेत्यादि । तथाच रथेोगच्छतीत्यादौ गमनानुकूलव्यापारात्मकनोदनाभिघातादिरेव रथादावस्तीति नायोग्यतेति भावः । इदञ्च प्राचीनमतम् ॥ १ ॥
रघुदेवभट्टाचार्यकृता आख्यातवादट्टीका ।
प्रणम्य नीरदश्याममुद्दामगुणमन्दिरम् । आख्यातवादसद्वयाख्या रघुदेवेन तन्यते ॥ १ ॥
नैयायिकः परमतं निराकर्तुं स्वमतं व्यवस्थापयति - आख्यातस्येत्यादिना ।
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१३ ग्रन्थः ]
व्याख्यापट्कयुतः ।
यत्नो वाच्यः यत्नत्वविशिष्टो वाच्यः, यत्नत्वं शक्यतावच्छेदकमिति यावत् । यथाश्रुते यत्नस्य व्यापारान्तर्गतत्वेन व्यापारशक्तिवादिमतव्यवच्छेदाप्रतीतेः । शक्ततादछेदकं चाख्यातत्वम् । तच्च रूढिसंबन्धेनाख्यातपदवत्त्वम् । यदि च रूढिसंबन्धेनाख्यातपदवत्त्वं लकारेष्वेव अभियुक्तानां तत्रैवाख्यातपदप्रयोगात्, तथा च पचन्नित्यादावपि कृतिबोधापत्तिः । तत्रापि लकारस्थाने शत्रादेर्दर्शनेन रूढिसंबन्धेनाख्यातपदवतो लकारस्य सत्वादिति विभाव्यते; तदा विशिष्य तिषूत्वादिकमेव शक्ततावच्छेदकं बोध्यम् । एतेन दशलकारसाधारणं लत्वमेव शक्ततावच्छेदकमिति परास्तम् । तस्यैक्याभावात् भावे वा पचन्नित्यादावपि कृतिबोधप्रसङ्गादिति । तथा च यत्नत्वावच्छिन्नविषयकशाब्दत्वावच्छिन्नं प्रति यत्नत्वावछिन्नविशेष्यक रूढिसंबन्धघटिताख्यातपदवत्त्वावच्छिन्ननिरूपितशक्तिविषयकज्ञानजन्ययत्नोपस्थितित्वेन हेतुत्वं कल्पनीयमिति ध्येयम् । ननूपदर्शित कार्यकारणभावकल्पने शुद्धाख्यातपदाद्यत्नविषयकशाब्दबोधापत्तिरिति चेन्न । संभवत्येवं T यदि हि पाकाद्यनुकूलविषयक शाब्दत्वावच्छिन्नं प्रति तिबादिपदनिष्ठपचादिधात्वव्यवहितोत्तरत्वरूपानुपूर्वीज्ञानस्य हेतुत्वं न कल्प्यते । वस्तुतस्तु शुद्धाख्यातपदजन्ययत्नोपस्थितिकाले पाको यत्नश्चेति निराका वाक्यात्पाकानुकूलयत्नविषयकशाब्दबोधवारणाय तादृशकार्यकारणभावकल्पनाया आवश्यकत्वेनोपदर्शिताख्यातपदनिरूपितशक्तिज्ञानजन्योपस्थित्या यत्नशाब्दबोधे जननीये पचतीत्याद्यानुपूर्वीज्ञानस्य सहकारित्वकल्पनेनैव केवलाख्यातपदाद्यत्न विषयकशाब्दबोधवारण संभवात् ।
S
केचित्तु आख्यातस्य यत्नवाचकत्वे पाकगोचरनिवृत्त्याख्ययत्नकाले चैत्रः पचतीत्यादिप्रयोगस्य योग्यत्वापत्तिमुद्भावयन्ति तन्न श्रद्दधीमहि । प्रवृत्त्यभावातिरिक्तनिवृत्त्याख्ययत्ने मानाभावात् । वस्तुतस्तु निवृत्त्याख्ययत्नाङ्गीकारेऽपि न क्षतिः । यतः पचतीत्यादिवाक्यात्पाकानुकूलकृतेरेव शाब्दबोधोत्पत्त्या निवृत्त्याख्ययत्नकाले पाकानुकूलकृतेरभावेन तदानीं तादृशप्रयोगस्य तथाविधप्रमात्मकशाब्दबोधाजनकतयायोग्यत्वं सूपपादमेवेति । ये तूपदर्शितापत्तिभिया प्रवृत्तित्वमेवाख्यातपदशक्यतावच्छेदकमुपवर्णयन्ति । तन्न । तेषां मते इष्टसाधनताज्ञानजन्यतावच्छेदककोटिप्रविष्टत्वेन सिद्धायाः प्रवृत्तित्वाख्यजातेरीश्वरीयकृतिसाधाये मानाभावेनेश्वरो वेदं वक्तीति वाक्याच्छाब्दबोधानिर्वाहः परिचिन्तनीयः । न च तत्राख्यातस्य कृतौ लक्षणया नानुपपत्तिरिति वाच्यम् । उपदर्शितरीत्या तादृशशक्त्यैव वाक्यजन्यशाब्दबोधस्य निर्वाहे लक्षणाकल्पनस्यान्याय्यत्वात् । न चाख्यातस्य यत्नत्वविशिष्टशक्तत्वे चैत्रः पचतीत्यादिवदीश्वरः पचतीत्यादिप्रयो
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वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
.गापत्तिवारणायावश्यमाख्यातस्य प्रवृत्तित्वविशिष्टे शक्तत्वमुपगन्तव्यमिति वाच्यम् । आत्मा पचतीत्यादिप्रयोगवत्तस्यापि वारणसंभवात् । तथाहि -आख्यातस्य यत्नत्वविशिष्टवाचकत्वे आत्मा पचतीत्यादिप्रयोगापत्तिरित्यत्र तथाविधप्रयोगः शब्दार्थः, तथाविधशब्दजन्यप्रमात्मकशाब्दबोधो वा । नाद्यः । कण्ठताल्वाद्यभिघातरूपशब्दकारणसत्त्वे तथाविधशब्दे इष्टापत्तेः । नान्त्यः । तथाविधशाब्दबोधस्यापादकाभावात् । योग्यताज्ञानमेवापादकमिति तु नाशङ्कनीयम् । यतस्तथाविधशाब्दबोधाप्रसिद्धया तादृशबोधं प्रति तादृशयोग्यताज्ञानत्वेन हेतुत्वक- पनस्य निष्प्रयोजनकत्वात् ।
ननु पाकानुकूलकृतिमांश्चैत्र इत्यादिशाब्दबोधं प्रति तत्समानाकारयोग्यताज्ञानस्य धर्मितावच्छेदकभेदेन हेतुत्वकल्पने गौरवात् समानधर्मितावच्छेदकताप्रत्यासत्त्यैव तथाविधयोग्यताज्ञानशाब्दबोधयोर्हेतुहेतुमद्भावः समुचितः । तथा च 'पाकानुकूलकृतिप्रकारतानिरूपितविशेष्यतावच्छेदकतासंबन्धेन शाब्दत्वावच्छिन्नं प्रति पाकानुकूलकृतिप्रकारतानिरूपितविशेष्यतावच्छेदकतासंबन्धेन ज्ञानत्वेन हेतुत्वमिति योग्यताज्ञानशब्दबोधयोः हेतुहेतुमद्भावे व्यवस्थिते तादृशसंबन्धेन पाकानुकूलकृतिप्रकारकज्ञानस्य आत्मत्वे सत्त्वात्तत्र तादृशबोधापत्तौ स्वीक्रियमाणायां फलतस्तादृशपाकानुकूलकृतिमानात्मेति तादृशबोधापत्तिरिति तु मा शङ्किष्ठाः । अवच्छेदकतासंबन्धावच्छिन्नतादृशकृतिप्रकारताकशाब्दबोधं प्रति तथाविधयोग्यताज्ञानस्य हेतुतायाः कल्पनीयतया आत्मा पचतीत्यादौ विशेषदर्शिनां तादृशयोग्यताज्ञानविरहेण तथाविधप्रमात्मकशाब्दबोधापत्तेरशक्यत्वात् । एवं चेश्वरः पचतीत्यादिवाक्यजन्यतादृशशाब्दबोधापत्तिवारणस्यापि सुलभत्वात् । नचैवं सति ईश्वरो वेदं वक्तीति प्रयोगाद्बोधानुपपत्तिः, ईश्वरेऽवच्छेदकता संबधेन कृतेरभावादिति वाच्यम् । तत्र समवायसंबन्धेन कृतिप्रकारकशाब्दबोधं प्रति तथाविधानुपूर्वीज्ञानस्य हेतुत्वकल्पनादीश्वरः पचतीत्यादितस्तथाविधशाब्दबोधस्यानुत्पादेन तथाविधकल्पनाया असंभवात् । ऋजवस्तु आत्मा पचतीश्वरः पचतीत्यादिवाक्यजन्यशाब्दबोधेऽपि ष्टापत्तिमङ्गीकुर्वन्तीत्यलमधिकेन ।
ननु यत्त्वविशिष्टे आख्यातपदस्य शक्तौ किं प्रमाणमत आह-पचतीत्यादि । किं करोतीत्यनन्तरं क्रमेणेति शेषः । सर्वाख्यातविवरणादिति । दशलकाराणामर्थकथनादित्यर्थः । पूर्वोच्चरितवाक्यस्योत्तरवाक्येनार्थकथनं विवरणमि-यस्य तलक्षणत्वादिति भावः ।
ननु कथं विवरणस्य शक्तिग्राहकत्वं शब्दविधयानुमानविधया वा । नाद्यः
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१३ ग्रन्थः] व्याख्याषट्कयुतः । पाकं करोतीत्यादिवाक्यस्य पाकविषयकयत्नमात्रबोधकत्वेन यत्ने आख्यातस्य शक्त्यबोधात्मकतया तस्य शक्तिग्रहे शब्दविधया प्रमाणत्वासंभवात् । नान्त्यः । साध्यहेतुप्रयोगासंभवादिति चेन्न । आख्यातपदं यत्नत्वविशिष्टे शक्तम् , बाधकं विना यत्नत्वविशिष्टार्थककरोतिप्रतिपादितार्थकत्वात् , पाकत्वविशिष्टशक्तपाकपदप्रतिपादितार्थकपचधातुवत् । यद्यद्यद्विशिष्टार्थबोधकपदप्रतिपादितार्थकं तत्तद्विशिष्टे शक्तमिति सामान्यव्याप्त्या विवरणस्यापि शक्तिग्राहकत्वसंभवात् । ननूपदर्शितानुमानमप्रयोजकमत आह-व्यवहारादिवेति । बाधकं विना अन्यलभ्यत्वप्रतिसंधानं विना । इदं तु धर्मिण्याख्यातस्य शक्तिव्यवच्छेदार्थमुक्तम् । व्युत्पत्तेरिति । शक्तिग्रहसंभवादित्यर्थः । तथा च विवरणहेतुकानुमानस्य शक्त्यग्राहकत्वे तुल्ययुक्त्या व्यवहारहेतुकानुमानस्यापि शक्त्यग्राहकतया घटत्वादिविशिष्टे घटपदादेरपि शक्तिविलोपप्रसङ्गादिति भावः। . - ननु विवरणं तत्रैव शक्तिग्राहकं यत्र नान्यलम्यत्वप्रतिसंधानवार्ता प्रकृते तुपाको यत्नजन्यः पाकत्वादित्यनुमानादपि यत्नस्य लाभसंभवेनान्यलभ्यत्वात् अन्यलभ्यस्यापि आख्यातपदशक्यत्वे किमपराद्धं धर्मिणेत्यत आह-किं करोति इत्यादि । यत्नप्रश्ने यत्नत्वविशिष्टेजिज्ञासितसंबन्धबोधकशब्दप्रयोगे, पचतीत्युत्तरस्योत्तरकालभाविपचतीत्यादिवाक्ये उपदर्शितप्रश्ननिवर्तकत्वस्य, यत्नार्थकत्वं विना यत्नत्वधिशिष्टे पाकसंबन्धबोधं विना । अयं भावः-यद्धर्मविशिष्टे यद्धर्मव्याप्यधर्मावच्छिन्नस्य संबन्धो यत्प्रश्नवाक्यात्प्रतीयते तद्धर्मविशिष्टे तद्धर्मव्याप्यधर्मावछिन्नसंबन्धश्चेत्तदुत्तरवाक्यात्प्रतीयते, तदा तदुत्तरवाक्यस्य तत्प्रश्ननिवर्तकत्वं संभवति । यथा घटत्वविशिष्टे जिज्ञासितसंबन्धबोधके कस्माद्बट इति प्रश्ने घटत्वविशिष्टे दण्डजन्यत्वबोधक 'दण्डात् घटः' इत्युत्तरवाक्ये तन्निवर्तकत्वम् । प्रकृते च आख्यातस्य यत्नत्वविशिष्टावाचकत्वे व्यापारशक्त्या पचतीतिवाक्यात्पाकानुकूलव्यापारबोधाभ्युपगमे यत्नत्वविशिष्टे पाकसंबन्धबोधाभावात्तद्वाक्यस्य यत्नत्वविशिष्टे जिशासितसंबन्धबोधक किं करोति' इति प्रभवाक्यनिवर्तकत्वानुपपत्त्या अन्यलभ्यत्वेप्याख्यातस्य यत्नत्वविशिष्टे शक्तिरावश्यकीति । - ननु रथो गच्छतीत्यादावाख्यातस्य यत्नबोधकत्वासंभवेन व्यापारे शक्तिरावश्यकीत्यत आह-अचेतन इति । अचेतनार्थमुख्यविशेष्यकबोधजनक इत्यर्थः । अनुकूलव्यापार इति । अत्रानुकूलत्वोत्कीर्तनं तु गमनस्य तेन संबन्धेन व्यापारेऽन्वयस्फोरणाय नतु तदन्तर्भावेनापि लक्षणीयता व्यर्थत्वात् । तत्र गमनस्यान्वये पदार्थ: पदार्थेनान्वेति नतु पदार्थैकदेशेनेति व्युत्पत्तिविरोधाच्च ॥ १ ॥
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
जयरामभट्टाचार्यकृताव्याख्या। न्यायपञ्चाननः श्रीमाञ्जयरामः समासतः ।
आख्यातवादव्याख्यानमातनोति मनोरमम् ॥ अनुकूलव्यापारत्वमाख्यातशक्यतावच्छेदकमिति केचित् । अनुकूलत्वस्य संसर्गत्वाद्वयापारत्वमात्रं तथेत्येके । अनुकूलत्वमात्रं तथेत्यन्ये । धातोरर्थः फलमनुकूलव्यापारादिकमाख्यातस्येति मण्डनः । तत्तत्फलावच्छिन्नव्यापारविशेषस्तत्तद्धात्वर्थः । संख्यावर्तमानत्वादिकं क्वचिदाश्रयत्वं चाख्यातार्थ इति गुरवस्तत्सर्व निराचिकीर्षुः प्रतिजानीते-आख्यातस्येति । आख्यातत्वं संकेतविशेषसंबन्धेन आख्यातपदवत्त्वम् । एतेन विभक्तित्वादयो व्याख्याताः । तिबाद्यन्यतमत्वं वा तत् । इदं च साध्यकोटिनिविष्टं न तु शक्ततावच्छेदकं विनाऽपि तेन रूपेण ज्ञानं, तिप्त्वादिना ज्ञानादेव तिबादितोऽर्थप्रत्ययेन तिप्त्वादेरेव तत्त्वात् । ... परे तु तिप्त्वाद्यवच्छिनस्य संकेतभ्रमादेव बोधः । शक्ततावच्छेदकानन्त्ये शक्त्यानन्त्यापत्त्या सर्वत्र तत्तत्पदान्यतमत्वस्यैव शक्ततावच्छेदकत्वादित्याहुः ।
यत्तु लट् , लिट् , लुट् , लट् , लेट् , लोट् , लङ्, लिङ्, लुङ्, लङ्, । इतिदशलकारसाधारणलत्वावविच्छन्नस्य यत्ने, आदेशभूततिबादिवृत्तिना तिप्त्वादिना एकवचनत्वादिना वाऽवच्छिन्नस्यैकत्वादौ लट्त्वाद्यवच्छिन्नस्य वर्तमानत्वादौ शक्तिः । इत्थं च पचतीत्यादौ तिबाद्यादेशस्मारितलडादेव यत्नादिप्रत्ययः । लडादेशयोरपि शतृशानचोः कर्तरि शक्तिरादेश्यर्थकृतस्तत्राभेदान्वयाऽसंभवादिति तन्न । ईदृशादेशादेशिभावसंबन्धाधीनादेशिस्मृते<घाद्युत्तरलत्वादिना यत्नानुभावकत्वस्य च कल्पने गौरवात् । वेदादिप्रयुक्ततिबाद्यन्यतमत्वेन शक्तत्वौचित्याच्च । किं च तिवादीनामेकैकत्र शक्तिरन्यत्र लक्षणया शक्तिभ्रमादा बोध इत्यस्तु, त्वयापि तिबादी शक्तिभ्रमस्वीकारात् । तिबादयो लस्यादेशा वस्य वेत्यत्र मुनिवचनातिरिक्तं प्रमाणमादर्शनीयम् । वचसा वचस इत्यादावनुभावकत्वेन तृप्तस्यादेशिनो देवेन देवत्येत्यादावादेशेन स्मरणं युक्तं तस्मात्प्रकृते संख्यावर्तमानत्वाद्यनुभावकतावच्छेदकतिप्ल्यादिनैव यत्नानुभावकत्वम् । अनुभावकतायाः शक्ततायाश्चैकमवच्छेदकम् । एतेन लादय आदेशिनो निरर्थका एवेति वैयाकरणमतमप्यपास्तम् । आदेशित्वे मानाभावात् । लस्य वादेर्वा तत्वमित्यत्र विनिगमकाभावाच ।
यत्तु एकवर्णपदत्वमेव शक्ततावच्छेदकम् । अस्तु वा पदमात्रस्य चरमवर्णत्वमेव तथा, अन्यत्तु तात्पर्यग्राहकं, समुदाये शक्तत्वव्यवहारस्तु समासादाविव
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१३ ग्रन्थः] व्याख्याषट्कयुतः। गौण इति तन्न । तथा सति कलशादिपदस्यासाधुत्वापत्तेः । न च व्याकरणव्युत्पाद्यत्वात्तथा, शक्त्यभावे लक्षणाया अप्ययोगादर्थवत्त्वाभावे प्रातिपदिकसंज्ञाभावेन तद्वयुत्पाद्यत्वस्याप्ययोगात् । न च विजयः पराजयः इत्यादिद्योतकघटितसमुदाय इव चरमवर्णशक्तावपि कलशादिसमुदाये प्रातिपदिकसंज्ञासंभवः । तत्र कृत्तद्धितसमासाश्चेति प्रातिपदिकसंज्ञाविधानात् । न चैतत्सूत्रमर्थवदितिसूत्रस्य प्रपञ्च एव न तु विधायकम् । देवानित्यादेः प्रातिपदिकसंज्ञावारणाय अप्रत्यय इत्यस्य प्रत्ययतदन्तभिन्नार्थकतया समासादौ प्रत्ययान्ते तत: प्रातिपदिकसंज्ञाया असंभवादित्यधिकं शब्दपक्षधरीयप्रकाशे ।
यत्तु अतीतेऽपि यत्ने वर्तमानत्वादिबोधपरत्वेन पचतीत्यादिप्रयोगापत्तेर्वतमानत्वादियत्नयोरेवोचारणान्तर्भावेन शक्तिः पुष्पवन्तादिवत् । इत्थं च तिप्त्वादिकमेव शक्ततावच्छेदकमिति । तन्न । रथो गच्छति गगनेन स्थीयते इत्यादौ वर्तमानत्वबोधानापत्तेः । अतीते यत्ने पचतीति प्रयोगापादनं चातीते व्यापारादौ रथो गच्छतीत्यादिप्रयोगापादनेन तुल्यम् । मिलितानुभावकताशक्त्या तुल्यसमाधानं च । नहि शक्तिवल्लक्षणाऽप्येकोचारणान्तर्भावेन संभवति तिप्त्वतस्त्वाद्यनेकावच्छिन्नानन्तविधवर्तमानत्वादौ यत्नमन्तर्भाव्यानन्तशक्ते: कल्पनामपेक्ष्य आख्यातत्वावच्छिन्नस्य यत्ने लट्त्वाद्यवच्छिन्नस्य वर्तमानत्वादौ शक्तिकल्पनेव लघीयसी । वस्तुतो यत्ने शक्तौ वर्तमानत्वादौ निरूढलक्षणैवेति दिक। ___ यत्नो वाच्य इति । अत्र यत्नत्वावच्छेदन वाच्यत्वान्वयादन्वयितावच्छेदकस्य यत्नत्वस्य प्रकृते स्वरूपसंबन्धरूपवाच्यतावच्छेदकत्वलाभस्तेन व्यापारशक्तिवादिनाऽपि यत्ने वाच्यतोपगमान्न सिद्धसाधनाद्यवकाशः । आख्यातस्येत्यनन्तरं यत्नत्वेनेति वा पूरणीयम् । पचतीत्यादि । पाकं करोतीत्यादौ निविष्टेन करोतिना कृञ्धातुना शक्त्योभयबोधकताकस्य जानातीत्यादिघटकाख्यातमिनस्य सर्वाख्यातस्य विवरणात् । भावव्युत्पत्त्यार्थबोधादित्यर्थः । वस्तुतः करोतिनेति तृतीयाभेदेन तथा च यत्नार्थककृञ्धातुकविवरणवत्त्वादित्यर्थः । यच्च समानार्थकतया यस्य बोधकं तत्तस्य विवरणं, भवति हि पचतीत्यस्य चरमपदलक्षणया स्वपरत्वात्पाकं करोतीत्यस्य च चरमपदलक्षणया स्वसमानार्थकपरत्वात्तयोरभेदेनान्वयबोधः । प्रायशो विवरणस्थले बहुव्रीहिसमासोत्तरं प्रथमान्ततास्वीकारात् । वृक्षो महीरुह इत्यादौ प्रसिद्धवृक्षादिपदार्थे महीरुहपदवाच्यत्वादिबोधान्न विवरणत्वम् । तदयं प्रयोगः । यत्नः यत्नत्वं च आख्यातस्य शक्यः शक्यतावच्छेदकं वा आख्यातविवरणवत्वात् । शक्तत्वं तदवच्छेदकत्वं वा
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१२
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
हेतोः संबन्ध: । विवरणे यत्नार्थककृञ्धात्वभेदकथनं चासिद्धिशङ्काव्युदासाय । अत्राप्रयोजकत्वशङ्कामपाकरोति-व्यवहारादिवेति । आवापोद्वापाभ्यामनुमानेन शक्तिग्राहकत्वसाम्यम् । व्युत्पत्ते: शक्तिप्रमातः । गङ्गायां तीरे इत्यादिविवरणात् शक्तिप्रमानुदयादाह-बाधकं विनेति । इत्थं यद्यत्पदविवरणवत्तत्तत्पदशक्यमिति सामान्यमुखव्याप्तौ तत्र व्यभिचारवारणाय हेतावपि बाधकामावो निवेश्यत इति भावः । ननु यत्नाश्रयेऽपि पचति पाकयत्नवानिति विवरणसत्वाद्वयभिचारः । कर्तुः प्रथमान्तपदलभ्यत्वं बाधकमिति चेत् यत्नस्याक्षेपलभ्यत्वं, तथा । किंच करोतिविवरणं सन्दिग्धं, मीमांसकैर्व्यापारवानित्येव विवरणादत आह-किं करोतीति । किमित्यस्य क्रियाविशेषणत्वात् कीदृग्यत्न इत्यर्थः । यथाश्रुते कर्मप्रश्ने पाकमित्येवोत्तरं स्यात् अत एवोक्तं यत्नप्रश्ने इति । तेनाश्रयत्वांशेऽपि प्रश्नविषयताभावलाभान्न पचतीत्युतरे न्यूनत्वम् । वस्तुतः का कृतिरियादिकृतिस्वरूपप्रभवारणाय किं करोतीति कर्मविशिष्टव्यापारप्रश्नवारणाय च यत्नप्रश्न इति । अत्र जिज्ञासाविषयविषयिणी कृतिरिति प्रश्नवाक्यार्थः । किंपदस्य जिज्ञासाविषयत्वविशिष्टे शक्तेः । जिज्ञासा च प्रकृते सविषयकत्वव्याप्यधर्मप्रकारकशानेच्छा । कृतिः सविषयिणीति व्याप्त्या कृतेः सविषयकत्वेनोपस्थितौ तद्विशेषधर्मप्रकारकजिज्ञासाया औत्सर्गिकत्वात् । यद्यपि कृतेश्च सविपयकत्वेन सामान्यतस्तद्वयाप्यधर्मवत्त्वेन च ज्ञातत्वात् , पाकविषयककृतिज्ञानत्वादिना चानुपस्थितेस्तादृशजिज्ञासा दुर्घटा । तथाऽपि सविषयकत्वव्याप्यधर्माशे निरवच्छिन्नप्रकारताकज्ञानत्वेनेच्छा बोध्या। अत एव पचतीत्युत्तरवाक्यात्तादृशयत्किचिज्ज्ञान एव तस्या निवृत्तिः । न च प्रश्नवाक्यात् द्वितीयार्थो विषयित्वं प्रकारतयोत्तरवाक्यात्तु संसर्गतया भासते इति वैषम्यम् । स्वरूपतो विषयित्वांशे ज्ञानमात्रस्यैवेष्टत्वेन तद्वैषम्यस्याकिंचित्करत्वात् । यत्तु तादृशज्ञानान्तरस्याप्यसिद्धत्वेनैवेच्छेति । तन्न । तद्युत्तरवाक्यात्तादृशज्ञानेऽपि ज्ञानान्तरस्यासिद्धत्वात् इच्छाया अनिवृत्त्यापत्तेरिति दिक् । प्रश्नोपक्रमबुद्धिविषयधर्मवति किमः शक्तिः । प्रश्नोपक्रमबुद्धिः प्रश्नजनकजिज्ञासाजनकबुद्धिः, सा च सामान्यधर्मेण ज्ञातस्यानिर्धारितविशेषरूपेणोपस्थितिस्तथा च को घट इत्यादरनिर्धारितविशेषधर्मवान् घट इत्यर्थः । जिज्ञासालाभस्तु किंपदेन शक्यतावच्छेदकानुगमकप्रविष्टत्वेनाक्षेपादिति प्राञ्चः । पचतीत्युत्तरस्येति । पचतीत्यस्य यत्नप्रश्नोत्तरत्वं यत्नार्थकत्वं विनाऽनुपपन्नम् । तत्वस्य तत्वनियतत्वात् । तस्य तदर्थकत्वं च तद्घटकाख्यातशक्त्यैवेत्याशयः । अचेतनेति अचेतनविशेष्यकबोधजनके
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१३ ग्रन्थः] व्याख्याषट्कयुतः ।
अन्यदीयगमनानुकूलनोदनादिमति गच्छतीत्यप्रयोगात् जानातीच्छति-यतते-द्वेष्टि-विद्यते-निद्रातीत्यादौ च क्रियानुकूलकृति-व्यापारयोरप्रतीतेः गत्यादिमत्त्वमात्रप्रतीतेश्चाश्रयत्वे नश्यतीत्यादौ च प्रतियोगित्वे निरूढलक्षणा। चैत्रः पचति तण्डुलः मैत्रः पच्यते तण्डुल इत्यादावन्वयाबोधात् धात्वर्थप्रातिपदिकार्थयोर्भेदेन साक्षादन्वयस्याव्युत्पन्नतया संबन्धमर्यादया तद्भानस्यासंभवादिति तु नव्याः॥२॥ तादृशि तण्डुल: पच्यते इत्यादौ न लक्षणेत्यत आह-रथ इति । तेन कर्तृविहिताख्यात इति लभ्यते । चस्त्वर्थः ॥ १ ॥
(मथु०) व्यापारे निरूदिलक्षणामतं दृषयन् मतान्तरमाह-अन्यदीयेत्यादिना नव्या इत्यन्तेन । अन्यदीयत्वं रथादिनिष्ठत्त्वं, नोदनादिमतीति, निश्चल इति शेषः । आदिपदादभिघातादृष्टवदात्मसंयोगादिपरिग्रहः । अप्रयोगादित्यादेः पञ्चम्यन्तत्रयस्य 'भाश्रयत्वे निक्रादिलक्षणा' इत्यग्रेतनेनान्वयः । ननु वि. शिष्टाधारत्वसंबन्धेनैव कर्तृपदार्थे गमनवद्यापारान्वयस्य साकासात्वात् गमनविशिष्टव्यापारस्य च निश्चले विरहानायमतिप्रसङ्ग इत्यत आह-जानातीत्यादि। तथाचावंश्यकल्पनीयाश्रयत्वे निरूदिलक्षणयैवोपपत्तौ नानुकूलव्यापारे निरूदिलक्षणा कल्प्यत इति भावः । अत्र चक्षुर्जानातीत्यादौ व्यापारस्यापि प्रत्ययादुक्तमिच्छतीति। अत्र याग-श्राद्धलक्षणेच्छायां तदनुकूलप्रवृत्तेरपि प्रत्ययादुक्तं यतते द्वेष्टीति । यत्न द्वेषयोस्तु प्रत्तिजन्यत्वमसंभाव्येवेति भावः । उक्तेषु प्रवृत्तिव्यापारयोरप्रतीतावपि आत्म-मनोयोगादिरूपो व्यापार आत्मनि संभवत्येव, अतिप्रसङ्गनिरासोऽपि धात्वर्थविशिष्टनिरूपिताधारत्वस्य संबन्धत्वनियमाभ्युपगमादेव संभवतीत्यनुशयेनोक्तं विद्यते निद्रातीति। विदेः कालसंबन्धित्वमर्थः, तदनुकूलकतिव्यापारयोश्च न घटत्वादी संभवः, एवं मेध्याख्यनाडीविशेषावच्छेदेनात्ममनःसंयोगो निद्रा, मेध्यात्वञ्च पुरीततिसाधारणो नाडीविशेषत्तिजातिविशेषः, तेन सुषुप्तौ निद्रातीति प्रयोगो नानुपपन्नः। तादृशनिद्राश्रयत्वव्यवहारश्चात्मनि मनोव्यावृत्तेनात्मत्वविशिष्टसमवायसंबन्धेन, शरीरे च स्वसमवायिसमवेतादृष्टारभ्यत्वलक्षणपरंपरोसंबन्धेन, असाधारणतदनुकूलताश्रयो व्यापारश्च न क्वचिदात्मनि संभवतीति भावः । वस्तुतस्तु, विद्यते इत्यस्य पूर्व निद्रातीति पाठः निद्रा च मेध्याख्यनाडीविशेषमनःसंयोगः, तदाश्रयत्वव्यवहारश्च आत्मनि स्वसमवायिसमवेतशरीरारम्भकादृष्टवत्वरूपेण, स्वसमवाय्यारम्भकादृष्टवत्वरूपेण
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१४
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
वा परम्परासंबन्धेन, शरीरे च स्वसमवायिसमवेतद्रव्यत्वलक्षणेन परम्परासंबन्धेन, असाधारणतदनुकूलताश्रयो व्यापारश्च न क्वचिदात्मनिसंभवतीति भावः । यथा स्वसमवायिसमवेतशरीरारम्भकादृष्टवत्त्वादिरूपपरम्परासंबन्धेन तादृशनिद्राश्रयत्वमात्मनः तथा तदनुकूलव्यापारस्प नाडीक्रियादेरप्यात्मनि तेन संबन्धेन सत्त्वसंभवादुक्तं विद्यत इति । कालसंबन्धित्वरूपस्य विद्यमानत्वस्य चानुकूलव्यापारो न कश्चिद् घटत्वादौ संभवतीति भावः।
यत्तु विदेः सत्तार्थकतया तदनुकूलव्यापारस्यैवासंभव इति भाव इति, तन्न, सत्ताजातेस्तदर्थत्वे अविधतेत्यादौ यस्तन्याधतीतत्वाध(न)न्वयापत्तेः ।
ननु जानातीत्यादावाश्रयत्वस्य रथो गच्छतीत्यादौ गमनादिविशिष्टव्यापारवत्त्वस्यापि प्रत्ययात् तत्रापि निरूढिलक्षणा दुर्वारैवेत्यत आह-गत्यादीदि। रथो गच्छतीत्यादौ गत्याद्याश्रयत्वमात्रप्रतीतेरित्यर्थः। आदिपदादर्थस्त्यजतीत्यादौ त्यागादेः परिप्रहःन पूर्वोकेषु जानातीत्यादिषु ज्ञानादेः परिग्रहः, मात्रांशस्य पुनरुक्तताप. त्तेः। अतएव जानातीत्यस्य पूर्व गच्छतीति पाठः प्रामादिकः, क्वचिश्चात्र मात्रपदसंवलितो न पाठः जानातीत्यस्य पूर्व गच्छतीत्यपि पाठः । तत्र गच्छतिजानातीत्यादौ धात्वर्थातकूलकृतिव्यापारयोरप्रतीतावप्याश्रयत्वस्य प्रतीतौ न तत्र लक्षणासंभव इत्यत उक्तं गत्यादीति, आदिना ज्ञानादिपरिग्रहः इति ध्येयम् । 'आश्रयत्वइति' निरूदिलक्षणा इत्यग्रेतनेनान्वयः, ज्ञानादीनां चतुर्णामाश्रयत्वं
समवायेनावच्छेदकतया च बोध्यम् । तेनात्मनि चैत्रादिशरीरे च जानातीत्यादिप्रयोगोपपत्तिः। न वा घटो जानातीत्यादिप्रयोगापत्तिः।गत्यादेराश्रयत्वं च समपायेनैव वाच्यं तेन यथाकथञ्चित् संबन्धेनाश्रयत्वमादाय नातिप्रसङ्गः । न चैव. मात्मा गच्छतीत्यादिप्रयोगो न स्यादिति वाच्यम् । इष्टत्वात् । अहं गच्छामि त्वं गच्छसीत्यादौ उच्चारयित्रादिशरीरस्यैव चैत्रत्वादिरूपेणास्मदादिपदशक्यतया नानुपपत्तिः । अतएव आत्मा पचतीत्यादिप्रयोगवारणाय अवच्छेदकतासंबन्धेनैव कर्तृपदार्थस्य आख्यातार्थयमान्वयस्य साकाङ्क्षत्ववादिनयेऽपि त्वं पचसि अहं पचामीत्यादौ नान्वयानुपपत्तिः । उच्चारयित्रादिशरीरस्यैव चैत्रत्वादिरूपेण युष्मदादिशब्दवाच्यतया अवच्छेदकतासंबन्धेनैव प्रत्तेस्तत्रान्वयसंभवादिति ध्येयम् । ननु तथाप्यनुकूलव्यापारे निरूढ़िलक्षणा आवश्यकी, वर्णो नश्यतीत्यादौ वर्णादिषु वर्तमानोत्पत्तिकनाशविशिष्टव्यापारवत्वप्रतीतेः । तादृशव्यापारवत्ता च नाशकतावच्छेदकसंबन्धेन इत्यत आह-नश्यतीत्यदाविति । तत्त्वेनैवानुभवा. दिति भावः । यद्यपि प्रतियोगितासंबन्धेन आश्रयत्वमेवार्थस्तत्रापि संभवति आत्मा निद्रातीत्यनुरोधेन संबन्धितासाधारणाश्रयत्वस्यैव लक्ष्यत्वात् । तथापि प्रतियोगितात्वप्रकारेणैवानुभवस्य तत्र सर्वजनसिद्धत्वात् तत्परित्यागः । ननु रथो गच्छति चैत्रो जानातीत्यादौ वर्णो नश्यतीत्यादौ च धात्वर्थ-कर्तृपदार्थ
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१३ ग्रन्थः ] व्याख्याषट्कयुतः। योश्च संसर्गमर्यादया आश्रयत्व-प्रतियोगित्वयोर्भानसंभवात् किंतत्र लक्षणा. भ्युपगमेन, आख्यातस्य तु वर्तमानत्वं संख्या च यथायथमर्थोऽस्तु इत्यत आहचैत्र इति । अन्वयावोधादिति। धात्वर्थे कर्मतासंबन्धेन तण्डुलस्य कर्ततानिरूपकत्वसंबन्धन चैत्रस्यान्वयावोधात् । एवं धात्वर्थपाकस्य कर्तृतासंबन्धेन चैत्रे कर्मतासंबन्धेन च तण्डुले अन्वयाबोधाचेत्यर्थः । इदमुपलक्षणं ज्ञानं चैत्र इत्यादौ आश्रयतासंबन्धेन चैत्रादौ ज्ञानादेरन्वयाबोधाच्चेत्यपि द्रष्टव्यम् । एतेन पचति तण्डुल इत्यादौ कर्मतासंबन्धेन तण्डुलादेर्धात्वर्थपाकविशेष्यकत्वेनान्वयबोधवारणाय धात्वर्थस्य नामार्थविशेष्यतया अंन्वयबोधस्याव्युत्पन्नत्वात् , प्रकृते च नामार्थकर्त्तविशेषणतया गमादिधात्वर्थस्यान्वये न किमपि बाधकमित्यपि प्रत्युक्तम् । स्तोकं पचतीत्यादौ धात्वर्थ-नामार्थयोरभेदसंसर्गेणान्वयबोधदर्शनादुक्तं भेदेनेति, अभेदातिरिक्तसंबन्धेनेत्यर्थः, अभेदस्तादात्म्यं, 'साक्षादन्वयस्य' साक्षावेनान्वयस्य, ' अव्युत्पन्नतया' शब्दाजन्यतया, नामार्थान्वितस्य विभक्त्यर्थस्य धात्वर्थे धात्वर्थान्वितस्य विभक्त्यर्थस्य च नामार्थे बोधस्य शब्दजन्यत्वादुक्तं साक्षादिति । तद्भानेति । आश्रयत्व-प्रतियोगित्वयोर्भानेत्यर्थः । अत्र प्रा. तिपदिकमव्ययातिरिक्तत्वेन विशेष्यं, तेन न कलशं भक्षयेदित्यत्र न्यायनये नत्रर्थस्य विशेषणताविशेषसंबन्धेन धात्वर्थे अन्वयः । गुरुनये अनुयोगितासंबन्धेन धात्वर्थस्य नमर्थे अन्वयो नानुपपन्नः । अतएव ज्ञानवदिच्छा इत्यादावपि वत्यर्थस्य धात्वर्थे अनुयोगितासंबन्धेन प्रतियोगितया च साक्षादन्वयो नानुपपत्रः । न चाभेदातिरिक्तसंबन्धेन पाकज्ञानादिप्रकारक-चैत्रादिविशेष्यकः शाब्दबोधः पचति चैत्रः ज्ञानं चैत्र इति वाक्यात् योग्यतातात्पर्यादिज्ञानसत्त्वेऽपि कुतो न जायते सति कारणस्तोमे कार्यानुत्पादस्यासंभवादिति वाच्यम् । यादृशानुपू. तिस्ताहशान्वयबोधोऽनुभवसिद्धस्तादानुपूर्यास्तत्र हेतुतया यावद्विशेषकारणविरहादेव ततस्तदनुत्पादात् ।
केचित्तु धात्वर्थनिष्ठविषयतानिरूपिततादात्म्यातिरिक्तसंबन्धावच्छिन्ननिपातातिरिक्तपदार्थनिष्ठविषयतासंबन्धेन शाब्दबोधोत्पत्तिं प्रति धातूत्तरप्रत्ययजन्योपस्थितिविशेष्यतासंबन्धेन कारणम् । यद्वा तादृशविषयतानिरूपितोक्तसंबन्धा. वच्छिन्ननामार्थनिष्ठविषयतासंबन्धेन शाब्दबोधोत्पत्तिं प्रति निपातजन्योपस्थितिविशेष्यतासंबन्धन कारणमतो न तस्मात् तादृशबोधः इत्याहुः। तदसत्, धात्वर्थनामार्थयोरनुगतानतिप्रसक्तयोर्वचत्वादिति ध्येयम् ॥ २ ॥
(राम) एतन्मतं, दुषयितुं स्वमतं दर्शयितुञ्चाह-अन्यदीयेत्यादि । अन्यदीयेत्यादिकमारभ्य नव्याइत्यन्त एको ग्रन्थः । रथीयगमनानुकूलनोदनादिमति निश्चले हस्तादावित्यर्थः । ननु गमनोपहितव्यापार एव गच्छती. त्यस्यार्थो वाच्य इति नोक्तदोष इत्यत आह-ज्ञानातीति । 'गच्छतीत्यादित्रिकसुदाहरणबाहुल्यप्रदर्शनाय । ननु जानातीत्यादौ ज्ञानानुकूलो व्यापार आत्मनि
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वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
मनोयोगादिरेव प्रतीयतामित्यत आह-विद्यत इति । धात्वर्थस्य वर्त्तमानकालसंबन्धादेरनुकूलव्यापारस्य गगनादौ बाधात् गगनं त्रियत इत्यस्यानुपपत्तिरित्यर्थः । निद्रातीति । मेध्यानामनाडीविशेषेण मनसः संयोगो निद्रा, सच संयोग आत्मनि स्वाश्रयमनः प्रतियोगिकविलक्षण संयोगलक्षणपरम्परासंबन्धेन वर्त्तते इत्ययं पुरुषो निद्रातीति प्रयोग उपपद्यते । विलक्षणसंयोगश्च तत्तदात्मीयादृष्टा कृष्टमनसि तत्तदात्मीयताव्यवहारनियामकतया सिद्धः केवलमात्म-मनसोरेव । एवं मनः प्रतियोगिकसंयोगेन मनो न मनसीति मेध्या निद्राति मनो निद्राति इत्यादयो न प्रयोगाः । न च निरुक्तपरम्परासंबन्धेन मेध्यान्तःकरणसंयोगो यथा आत्मनि वर्त्तते तथा तदनुकूलव्यापारो मेध्याक्रिया मनःक्रिया वा स्वजन्यमेध्यान्तःकरणसंयोगाश्रयमनःप्रतियोगिक विलक्षणसंयोगेनात्मनि वर्त्तते इत्यत्र -क्रियानुकूलव्यापारबोधः संभवत्येवेति वाच्यम् । तादृशपरम्परासंबन्धेन तदनु-कूलव्यापारस्यात्मनि विशिष्टबुद्धयभावेन तादृशपरम्परायाः संबन्धत्वे मानाभावात् । मेध्यान्तःकरणसंयोगस्य च उक्तपरम्परासंबन्धेनात्मनि विशिष्टबुद्धया उक्तपरम्परायाः संबन्धत्वमावश्यकमन्यथा स्वनिद्राया विशिष्टबुद्धयनुत्पादापत्तेः । अत एव यत्र प्रयत्नयोग्यनायवच्छेदेन प्रयत्ने जाते तेन प्रयलेन तन्नाड़ीकर्म जायते तेन च कर्मणा तन्नाड्या मनसि मेध्यायां वा नोदनाभिघातौ जायेते ततो मनसो मेध्याया वा कर्मोत्पत्तिः तदनन्तरं उत्तरदेशे मनसि मेध्यायां वा मेध्याया मनसा वा संयोगस्तत्र मेध्या - मनः संयोगानुकूलायास्तत्तन्नाढ्यवच्छिन्नकृतेरात्मनि संभवेन कथं तादृशकृतेरप्रतीत्यभिधानमित्यपास्तम् । ईदृशानुकूलत्वसंबन्धेन धालस्याख्यातार्थे अन्वयविरहात् । अन्यथा तण्डुलक्रयणानुकूलकृतावपि तुल्यन्यायेन - पाकादेरनुकूलत्वसंबन्धेनान्वयापत्या अपचत्यपि तादृशक्रयकर्त्तरि पचतीतिप्र- त्ययप्रसङ्गात् । अत्र च क्रियानुकूलकृति - व्यापारयोरप्रतीतेराश्रयत्वे निरूढलक्षणेत्यर्थः । गच्छतीत्यादो कर्नाख्याते आश्रयत्वे निरूढलक्षणा वाच्येत्यर्थः । क्रियानुकूलकृति - व्यापारयोः प्रतीतौ शक्तयैव बोधः स्यादिति निरूढलक्षणायां मनाभाव - एव स्यादित्यप्रतीत्यन्तमुक्तं, लक्षणाया निरूढत्वञ्चानादितात्पर्याना दिप्रयोगयोः सामानाधिकरण्यम् । न चैवमनादितात्पर्यानादिप्रयोगयोः सत्त्वे घटादौ घटपदादिवत् कर्त्राख्यातस्याप्याश्रयत्वे शक्तिरेव कल्प्यतामिति वाच्यम् । यत्र लघ्वर्थे गुर्वर्थे चानादितात्पर्यानादिप्रयोगौ तुल्यौ तत्र लाघवेन लघ्वर्थे शक्तिर्गुर्वर्थे निरूढलक्षणेति सर्वसिद्धम्, अन्यथा नीलादिपदस्य नीलरूपादाविव नीलरूपवदादावपि शक्तिप्रसङ्गात् अनादितात्पर्यानादिप्रयोगयोरुभयत्र तुल्यत्वात् तथाच प्रकृतेऽप्याख्यातस्य कृतौ आश्रयत्वे च तयोस्तुल्यत्वे कृतावेव शक्तिकल्पनं युक्तं न त्वाश्रयत्वे, आश्रयतात्वस्य जातीतरत्वेन कृतित्वजात्यपेक्षया गुरुत्वात् । सामा- विशेषत्ववम् जातित्ववदितरत्वेत्यादावपि लाघव - गौरवपदार्थत्वादिति भावः । इत्थञ्च निरूढत्वेन शक्तिकल्पनप्रसक्तिवारणाय निरूढेत्युक्तं, तथाच निरू
न्यत्व - 1
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१३ ग्रन्थः ]
व्याख्याषट्कयुतः ।
आख्यातस्य
दापि अनादितात्पर्यानादिप्रयोगसमानाधिकरणाप्याश्रयत्वांशे वृत्तिलक्षणैव न तु शक्तिरुक्तयुक्तेरिति निरूढलक्षणेत्यस्यार्थी बोध्यः, अन्यथा निरूढत्वप्रदर्शनस्यानुपयोगित्वापत्तेरिति दिक् । गच्छतीति, गच्छतीत्यादिप्रयोगनियतत्वमेव निरूढत्वमित्यपि कचित् । ननु गच्छतीत्यादौ क्रियानुकूलकृतिव्यापारयोरप्रतीत्या आख्यातस्य कृतिव्यापारबोधकत्वाभाव एवायाति न तु तत्राश्रयत्वे निरूढलक्षणेत्यत आह, गत्यादीति । आदिपदेन ज्ञानादिपरिग्रहः, मतुबर्थ आश्रयत्वं, मात्रपदच संपातायातं, गत्याश्रयत्वप्रतीतेरेव तत्राश्रयत्व - लक्षणासाधकत्वात् । यद्वा अननुगत्या आश्रयत्वप्रतीतिमात्रं यदि आश्रयत्वनिरूढलक्षणासाधकं तदा गङ्गायां घोष इत्यादौ तीरादिबोधकत्वेन गङ्गापदादेरपि तीरादौ निरूढलक्षणापत्तिरित्याशङ्कामपाकर्तुं मात्रपदमुक्त, तथाच गङ्गायां घोष इत्यादौ गङ्गापदात् कदाचित् तीरबोधः कदाचिच्च गृहादिबोध इत्येकत्राप्यनादिप्रयोगानादित्पर्ययोरभावेन न निरूडुलक्षणा । गच्छतीत्यादौ सर्वस्मिन् काले सर्वेण पुरुषेण गत्याश्रयत्वमेव प्रतीयते न त्वर्थान्तरमिति तत्राश्रयत्वे निरूद्रलक्षणेत्यर्थः ।
यत्तु अचेतनस्थलीये रथोगच्छतीत्यादौ गत्याश्रयत्वं सचेतनस्थलीये चैत्रो गच्छतीत्यादौ च गमनानुकूलकृतिरर्थः, सापि आत्मा गच्छतीत्यादौ समवायेन चैत्रो गच्छतीत्यादाववच्छेदकतासंबन्धेनेति तत्तुच्छम् । तथासत्यर्थतो भेदेन व्युत्पत्तिभेदकल्पनापत्तेस्तस्मादेतनाचेतनसाधारणमाश्रयत्वमेव गच्छतीत्यादावर्थः । आश्रयतात्वञ्च सर्वाश्रयत्वसाधारणमेकं तेन च रूपेण क्वचित् समवायसम्बन्धावनं कचिदवच्छेदकता सम्बन्धावच्छिन्नं कचित् परम्परासम्बन्धावच्छिन्नमाश्रयत्वं प्रतीयते, आयं चैत्रो गच्छतीत्यादौ, द्वितीयं चैत्रो जानातीत्यादौ, तृतीयं चैत्रो निद्वातीत्यादौ । ननु घटो नश्यतीत्यादौ नाशामुकूलकृतिव्यापारयोर्बाधादेव नान्वयः । न च संयोगादिनाशानुकूलव्यापारस्य क्रियादेर्घटादिवृत्तित्वेन नं तत्र बाधः, तथा सति विद्यमानेऽपि तादृशे घटे अयं घटो नश्यतीति प्रयोगप्रसङ्गात् । एतेन गच्छतीत्यादौ गत्याश्रयत्वादिवत् नश्यतीत्यादावपि नाशाश्रयत्वमर्थ इत्यपास्तम् । तथासति विद्यमाने संयोगादिशालिनि अयं नश्यतीत्यादिप्रयोगप्रसङ्गादित्यत आह- नश्यतीत्यादाविति । प्रतियोगित्व इति । न चैवमपि भाविनाशप्रतियोगितामादाय विद्यमानेऽपि घंटे नश्यतीति प्रयोगापत्तिः, आख्यातार्थवर्त्तमानत्वस्य धात्वर्थनाशान्वयित्वस्वीकारात् । एवमन्यद्बोध्यम् । न च गच्छतीत्यादौ गत्यादेराश्रयतासंबन्धेन नश्यतीत्यादौ प्रतियोगिता संबन्धेन नाशस्य च प्रथमान्तपदोपस्थाप्य एव साक्षात् प्रकारतया अन्वयोऽस्तु किमाश्र यत्व-प्रतियोगित्वयोर्निरूढलक्षणयेत्यत आह- धात्वर्थेति । तथाच धात्वर्थगत्यादेराश्रयत्वादिसंबन्धेन प्रातिपदिकार्थचैत्रादावन्वयस्य धात्वर्थेत्यादिव्युत्पत्तिविरोधेनासंभवात् तत्र तत्राश्रयत्वादौ निरूढलक्षणावश्यकीत्यर्थः, स्तोकं पचतीत्यादौ क्रियाविशेषणस्य स्तोकस्याभेदसंबन्धेन धात्वर्थे पाके साक्षादन्वयादाह-भेदेने
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१८ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः ति । अभेदातिरिक्ततत्तद्विभक्त्यर्थसंबन्धेनेत्यर्थः, घटमानयेत्यादौ घटविशिष्टक. मत्वं कर्मतासंबन्धेन घटादिकञ्चानयने धात्वर्थे प्रकारतया भासते तथैव कर्मत्वादीनां प्रकारत्वसंसर्गत्वाख्यविषयताद्वयानुभवादित्यत उक्तं---साक्षादिति । विभक्त्यर्थान्वयं विनेत्यर्थः, अत्र निपाताव्ययातिरिक्तत्वेन प्रातिपदिकं विशेष. णीयं तेन चैत्रो बहुलं पचति न स्तोकमित्यादौ धात्वर्थ पाके प्रातिपदिकार्थस्य स्तोकभेदस्याश्रयतासंबन्धेनान्वयेऽपि न क्षतिः । तद्भानस्य गच्छतीत्यादावाश्र. यत्वादिभानस्य । नन्वीदृशव्युत्पत्तौ मानाभाव इत्याशङ्कायां धात्वर्थेत्यादिव्युत्पत्तो युक्तिमाह-चैत्रःपचतीत्यादि। तथाचेदृशव्युत्पत्त्यनङ्गीकारे चैत्रः पचति तण्डुल इत्यत्र चैत्रः कर्मत्वसंवन्धेन तण्डुलीयपाकानुकूलकृतिमान् इत्याकारकस्य मैत्रः पच्यते तण्डुल इत्यत्र कर्तृत्वसंबन्धेन मैत्रीयपाकजन्यफलवान् तण्डुल इत्याका रकस्य चान्वयबोधस्यापत्तिरित्यर्थः । यद्यप्यत्र तादृशान्वयवोधस्याप्रसिद्धतया आपत्तिर्न संभवति क्वचित् प्रसिद्धस्यैवान्यत्रापाद्यत्वात् तथापि विभक्तिजन्यकमत्वाद्यनुपस्थितिविशिष्टतण्डुलपदादिजन्योपस्थित्यधिकरणक्षणो यदि कर्मता. संबन्धेन तण्डुलप्रकारकपाकविशेष्यकान्वयबोधसामग्रीक्षण: स्यात् तदा तादृशान्वयबोधोत्पत्तिक्षणाव्यवहितपूर्वक्षण: स्यादित्यापत्तिर्वाध्या । तादृशान्वयबोधः तथा पचतीत्यादावव्ययीभूततथापदोपस्थापितस्य तण्डुलस्य कर्मतासंबन्धेन पाके यत्रान्वयस्तत्र प्रसिद्धः । • यतु कर्मत्वादीनां संबन्धत्वे मानाभाव इत्यापायाप्रसिद्धिरिति, तत्तुच्छं, तथा सति तण्डुलं पचतीत्यादौ कर्मत्वादेर्द्विविधविषयत्व सिद्धान्तविरोधापत्त्या कर्मत्वादीनां संबन्धत्वाभ्युपगमात् । न च तथापि चैत्रः पचतीत्यादेरसा. धुत्वेन साधुत्वज्ञानविरहादेव तत्र न तादृशान्वयबोध इति वाच्यं, साधुत्वभ्रमदशायामापत्तिसंभवात् । साधुत्वज्ञानस्य शाब्दबोधहेतुत्वे मानाभाव इति मतेनेदमिति कश्चित् । एतेन कर्मत्वादीनां संवन्धत्वाभात्रेऽपि घटो जानाती. त्यादौ विषयत्वसंबन्धेन घटे ज्ञानान्वयापत्तेश्चैत्रो ज्ञायत इत्यादौ समवायेन चैत्रे ज्ञानान्वयापत्तश्च वारणाय जानातीत्यादावाश्रयत्वे निरूढलक्षणा स्वीक्रियते इति गुणानन्दमतमपास्तम् ।आश्रयत्व-विषयत्वलक्षणानङ्गीकारेऽपि जानातीत्यादिसमभिव्याहारस्याश्रयतासंबन्धेन ज्ञानप्रकारकशाब्दत्वावच्छिन्नं प्रति शायत इत्यादिसमभिव्याहारस्य च विषयतासंबन्धेन च ज्ञानप्रकारकशाब्दत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुताभ्युपगमेन तादृशापत्तिवारणात् ।
गुरवस्तु चैत्रः पचति तण्डुल इत्यापतिप्रसङ्गवारणाय साक्षात्तदर्थप्रकारेण पात्वर्थविशेष्यकान्वयबोधो माऽस्तु, गच्छतीति जानातीत्यादौ च साक्षादात्वर्थप्रकारेण नामार्थविशेष्यकान्वयबोधे बाधकाभाव एव, तस्मात् गच्छतीत्यादावाश्रयत्वप्रकारकशाब्दबोधस्यानुभवसिद्धत्वेनाश्रयत्वादौ निरूढलक्षणा स्वीक्रियत इत्यत्र दीधितिकृतस्तात्पर्यम् । मणिकृतश्चाश्रयत्वसंबन्धनैव चैत्रादौ ज्ञानादेरन्वयं वदन्ति
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१३ ग्रन्थः]
व्याख्याषट्कयुतः ।
तैराश्रयत्वप्रकारकानुभवानङ्गीकारात् । एवं नश्यतीत्यादौ प्रतियोगित्वलक्षणा. नङ्गीकारे घटो न नश्यतीत्यादौ नत्रान्वयानुपपत्तिः। तथाहि यद्याश्रयतासंबन्धेन नाशस्याभावः प्रत्येतव्यस्तदा स्वटत्तिसंयोगादिनाशस्य घटे सत्त्वेन बाधापत्तिः । अथ प्रतियोगितासंबन्धन नाशस्याभावः प्रतीयतामिति चेत्, न, निरूपकत्वादिवत् प्रतियोगित्वादेः प्रतियोगितावच्छेदकसंबन्धत्व विरहात् । प्रतियोगित्वे लक्षणास्वीकारे च नाशप्रतियोगित्वस्य स्वरूपसंबन्धेनाभाव एव प्रतीयते तत्र च न कोऽपि दोषः । एवं घटं जानातीत्यादौ कर्मत्वस्य केवलसंबन्धत्वे घटं न जानातीत्यादौ नमर्थान्वयानुपपत्तिविषयत्वस्य प्रतियोगितावच्छेदकसंबन्धत्वाभावादेवमन्यद्बोध्यमित्याहुः। __नव्यास्तु चैत्रो ज्ञानमित्यादौ समवायसंबन्धेन चैत्रविशेष्यकज्ञानप्रकारकान्वयबोधवारणाय चैत्रविशेष्यक-ज्ञानप्रकारकशाब्दबुद्धि प्रतिज्ञाधातूत्तरविभक्तिजन्याश्रयत्वोपस्थितित्वेन हेतुता वाच्या, तथाच चैत्रोजानातीत्यादौ आश्रयत्वलक्षणाविरहे तादृशोपस्थितिविरहादेव नान्वयः इत्याश्रयत्वलक्षणाङ्गीक्रियते, एवं पाकस्तण्डुल इत्यादौ पाकविशेष्यक-तण्डुलप्रकारकशाब्दबोधवारणाय पाकविशेष्यकतण्डुलप्रकारकशाब्दबुद्धिं प्रति तण्डुलपदोत्तरविभक्तिजन्य-कर्मत्वायपस्थितित्वेन हेतुता वाच्येति तदभावादेव चैत्रः पचति तण्डुल इत्यादौ कर्मत्वादिसंवन्धेन पाकादौ तण्डुलप्रकारकान्वयबोधो न जायते, यदा च तत्रापि तण्डुलपदोत्तरप्रथमाविभक्तौ कर्मत्वादिलक्षणा क्रियते तदा जायत एव पाकादौ तण्डुलप्रकारको बोधः । नन्ववं तण्डुलं पचतीत्यादौ विभक्तिजन्य-कर्मत्वोपस्थितिसहकारेण पाकादौ कर्मतासंबन्धेन तण्डुलप्रकारकान्वयबोधोऽस्तु न तु कर्मताविशेष्यकतण्डुलप्रकारको बोधः। तण्डुलं पचतीत्यादिसमभिव्याहारस्य पाकविशेष्यकतण्डुलकर्मकत्वप्रकारकशाब्दत्वापेक्षया लाघवेन पाकविशेष्यककर्मतासंसर्गकतण्डुलप्रकारकशाब्दत्वादीनां कार्यतावच्छेदकत्वकल्पनाया एव न्याय्यत्वादिति चेत् सत्यमेतत् , यदि नानुभवविरोधो भवेदिति । वयं तु केवलं तण्डुलमित्यादौ कर्मतांशे तण्डुलप्रकारकबोधस्यानुभवसिद्धतया तण्डुलमिति वाक्यस्य कर्मताविशेष्यकतण्डुलप्रकारकशाब्दत्वं कार्यतावच्छेदकं वाच्यं, तथाच तण्डुलं पचतीत्यादावपि सामग्रीबलादेव तण्डुलकर्मकत्वेन पाकविशेष्यकान्वयबोधोऽवश्यं वाच्यः । न च कर्मत्वं तण्डुलीयं पाकस्तण्डुलीय इत्यन्वयबोधः स्यान्महावाक्यार्थबोधे कर्मवविशेष्यकत्वप्रवेशे गौरवादिति वाच्यम् । तथा सति तण्डुलं पचतीत्यादौ एकवाक्यताभङ्गप्रसङ्गात् विधेयभेदस्य वाक्यभेदकत्वात् । किञ्च चैत्रो मांसं पचति न तण्डुलमित्यादौ पाके नंअर्थतण्डुलकर्मवाभावस्य प्रतीत्यर्थ कर्मतांशे तण्डुलस्य प्रकारता वाच्या कर्मत्वादेवयनियामकतया कर्मतासंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक-तण्डुलाभावबोधस्यासंभवात् आश्रयत्वादिसंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकतण्डलाभावबाधाभ्युपगमे च तण्डुलपाकस्थलेऽपि तथा प्रयागप्रसङ्गादिति वदामः ।
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२०
वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
यत्तु विभक्तिजन्यकर्मत्वोपस्थितित्वेन पाकविशेष्यकतण्डुलप्रकार कशाब्दबोचे न हेतुता तदादिना तण्डुल कर्मक पाकशान्दवोस्थले व्यभिचारादिति, तदसत् पाकोदेश्य कतण्डुलकर्मत्वविधेयकशाब्दत्वादीनामेव तादृशोपस्थितिकार्यतावच्छेदकत्वाभ्युपगमेन व्यभिचारविरहादिति । एतेनाव्ययादिपदात्तण्डुलप्रकारेण पाकविशेष्यकबोवे व्यभिचारेण विभक्तिजन्योपस्थितेस्तादृशहेतुता न संभवतीत्यपास्तं, निपाताद्यजन्यत्वस्य कार्यतावच्छेदके निवेशनीयत्वात् । अस्तु वा असाधुप्रथमा विभक्तिकत्वमेव प्रकृते विभक्तित्वम् अव्ययोत्तरं प्रथमोपस्थितत्वेन प्रथमा - विभक्तेरेव साधुत्व स्वीकारात् । तथाच अव्यय-निपातयोरपीदृशविभक्तित्वेन विभक्तिजन्योपस्थितिस्तत्राप्यस्तीति नोक्तव्यभिचारः । न च तथापि जानामि सीता जनकप्रसूतेत्यादौ विभक्तिजन्यकर्मत्वोपस्थितिं विनापि ज्ञाने कार्यतासंवन्धेन सीतादेरन्वयेन व्यभिचार इति वाच्यम् । तत्र प्रथमाविभक्तौ कर्मत्वक्षलणास्वीकारात् सुव्विभक्तौ न लक्षणेति सिद्धान्तस्य च सुव्विभक्तिलक्षणया यज्ञादौ सङ्कल्पवाक्यादिकं न कर्त्तव्यमित्यर्थकत्वात् । एकदेशिनस्तु चैत्रोज्ञानं पाकस्तण्डुल इत्यादौ भेदान्वयबोधवारणाय विभक्तिजन्यकर्मत्योपस्थितेर्न हेतुता येनोक्तस्थले व्यभिचारः स्यात् किन्तु ज्ञानादिप्रकारेण चैत्रादिशाब्दं प्रति चैत्रो ज्ञानमित्यादि - वाक्यजन्यज्ञानाश्रुपस्थितिः प्रतिवन्धिका तादृशोपस्थितिकालेऽपि चैत्रोजानातीत्यादिवाक्यजन्यज्ञानायुपस्थित्या तादृशान्वयबोधदर्शनेन चैत्रोजानातीत्यादिवाक्यजन्योपस्थितीनामिव अव्यय - तदादिपद - जानामिसीतेत्यादिवाक्यजन्योपस्थितीनामपि फलवन उत्तेजकत्वं कल्पनीयमिति न कोऽपि दोष इत्याहुः ॥ २ ॥
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(रघु० ) तत्र व्यापारलक्षणावादिमतं दूषयति — अन्यदीयेति । रथगमनानुकुलनोदयाख्यसंयोगादिमति निश्चलपुरुषेऽयं पुरुषो गच्छतीत्यप्रयोगादित्यर्थः । तथा चाख्यातस्य व्यापारलक्षणावादिमतेऽपि तादृशनिश्चलपुरुषेऽपि गमनानुकूलनोदनाख्यसंयोगादिरूपव्यापारवत्तया पुरुषो गच्छतीत्यादिप्रयोगापत्तिरितिभावः । ननु तादृशपुरुषे तथाविधप्रयोगापत्तिर्नाम तथातिधवाक्यजन्यप्रमात्मकबोधापत्तिः । सा च तादृशपुरुषस्य निश्चलतादशायामुद्भाव्यतेऽन्यदा वा । अन्त्ये इष्टापत्तेः । आद्ये तत्कालान्तर्भावेन तादृशशाब्दबोधाप्रसिद्धया आपत्यसंभव इत्यत आह-- रथो गच्छतीत्यादि । जानातीत्यादि ।
केचित्तु सामानाधिकरण्यसंबन्धेन वर्तमानगमनविशिष्टे व्यापारे आख्यातस्य लक्षणाकल्पनान्नोपदर्शितापत्तिरित्यत आह गच्छतीत्यादीत्याहुः । कृतिव्यापारयोरित्यादि । * कृतेरप्रतीतेर्व्यापारस्य चाप्रतीतेरित्यर्थः । अत्र प्रथमप्रतीकं जानातीत्यारभ्य द्वेष्टीत्यन्तेनान्वेति द्वितीयप्रतीकं तु विद्यते निद्रातीत्यन्तेन ।
*क्वचित्कृतिबाधव्यापार लक्षणाकल्पनागौरवाभ्यां क्वचिच्च कृतिव्यापारयोबधेन कृतिव्यापारयोः प्रतीत्यसंभवादित्यर्थः । इति पाठ: 'ननु जानातीत्यादौ आख्यातस्य' इत्यतः प्राक्तन ग्रन्थस्थाने ।
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१३ ग्रन्थः ]
व्याख्यापटकयुतः।
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२१
ननु जानातीत्यादिचतुष्टयस्य व्यापारे आख्यातस्य लक्षणयैवोपपत्तौ तत्राश्रयत्वे लक्षणाकल्पनमनर्थकमिति चेन्न । अत्यन्तव्यापारे (?) लक्षणाकल्पनापेक्षया आश्रये तत्कल्पनाया लघुत्वात् । विद्यते निद्रातीत्यादौ आख्यातस्य व्यापारबोधकत्वप्रसक्तिरेव न वर्तमानकालसंबन्धित्वस्य विदधात्वर्थस्य सिद्धामन:संयोगरूपस्य निद्रापदार्थस्य चानुकुलो यो व्यापारस्तत्पुरुषादावभावादिति भावः ।
ननु जानातीत्यादौ आख्यातस्य आश्रयत्वे लक्षणाकल्पने चैत्रोऽयं घट जानातीति प्रयोगकाले घटज्ञानाभाववति मैत्रे मैत्रोऽयं घटं जानातीति प्रयोगापत्तिः । एककालीनत्वसंबन्धावच्छिन्नतदाश्रयत्वस्य तदानीं मैत्रेऽपि सत्वात् तत्तत्संबन्धावच्छिन्नाश्रयत्वे लक्षणाकल्पने पुनरतीव गौरवात् । तदपेक्षया व्यापारे लक्षणाकल्पनमेव ज्यायोऽतिप्रसङ्गस्य तूपदर्शितरीत्या वारणीयत्वात् । यदि चाख्यातस्याश्रयत्वत्वेनाश्रयत्वसामान्य लक्षणा जानातीत्यादौ चाश्रयत्वत्वरूपेण समवायसंबन्धावच्छिन्नाश्रयत्वस्यैव बोधस्तथैव कार्यकारणभावकल्पनात्तथापि व्यापारे लक्षणापेक्षया गौरवापत्तिरित्यत आह-गत्यादिमत्त्वेति । आदिना ज्ञानादिमत्त्वपरिग्रहः । मात्रपदेन व्यापारव्यवच्छेदः । तथा चानुभवानुरोधेनागत्या तत्तत्संबधावच्छिन्नाश्रयत्वे लक्षणा तथाविधगुरुतरकार्यकारणभावो वा कल्प्यत इतिभावः। - केचित्तु ननूपदर्शितस्थलेषु व्यापारस्येवाश्रयत्वस्याप्यप्रतीतेरलं तत्र लक्षणयेत्यत आह-गत्यादिमत्त्वेतीत्याहुः । नन्वाख्यातस्य मुख्यार्थबाधस्थले सर्वत्राश्रयत्वे लक्षणाकल्पनं न संभवति । घटो नश्यतीत्यादौ प्रतीत्यसंभवात् । घटस्य नष्टत्वेन नाशाश्रयत्वाभावात् प्रतियोगितासंबन्धेन नाशत्वावच्छिन्नं प्रति प्रतियोगिनस्तादात्म्यसंबन्धेन हेतुत्वानुरोधेन नष्टस्यापि प्रतियोगितासंबन्धेन नाशाश्रयत्वाङ्गीकारे पुनर्लाघवात् प्रतियोगित्व एव लक्षणाकल्पनस्योचितत्वादित्यतस्तथैव आह-नश्यतीत्यादौ चेति । निरूढेति अनादिसिद्धेत्यर्थः।।
ननूपदर्शितबहुप्रयोगसत्त्वे तत्र शक्तिरेव किंमिति न कल्प्यत इति चेत् यत्नत्वरूपलघुशक्यतावच्छेदकसंभवेन तत्तत्संबन्धघटिताश्रयत्वत्वावच्छिन्ने शक्तिकस्सने गौरवज्ञानरूपप्रतिबन्धकस्य दत्तजलाञ्जलिः प्रसज्येत । न चाश्रयत्वस्यातिरिकत्वमभ्युपेत्य तदवच्छिन्नशक्तिकल्पने बाधकाभाव इति वाच्यम् । तर्हि व्यापारत्वमतिरिक्तमभ्युपेत्य तदवच्छिन्ने शक्तिकल्पनस्योचितत्वात् । न चेष्टापत्तिः । तथा सति विनिगम नामावादनन्ततद्धर्मावच्छिन्ने शक्तिकल्पनामपेक्ष्य लाघवात्लसयत्नत्वावछिन्न एवाख्यातस्य शक्तिकल्पने बाधकाभावात् । एतेन समवायित्वमतिरिक्तं स्वीकृत्य तदवच्छिन्ने आख्यातस्य शक्तिरन्यत्र लक्षणेत्यपा
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२२ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः स्तम् । उपदर्शितविनिगमनाविरहेण तत्तदनन्तधर्मावच्छिन्ने शक्तिकल्पनाप्रयुक्तगौरवस्य जागरूकत्वादित्यग्रे वक्ष्यामः ।
ननु चैत्रो जानातीत्यादावाश्रयत्वे निरूढलक्षणाकल्पनं निरर्थकमेव । तत्राश्रयता संबन्धेन चैत्रे ज्ञानरूपधात्वर्थस्यान्वयेनैवोपदर्शितान्वयबोधोपपत्तेः । तत्राश्रयत्वप्रकारकानुभवस्त्वसिद्ध एवेति चिन्तामणिकारमते दूपणमाह-चैत्रः पचतीत्यादि । अन्वयात्रोधादिति । चैत्रः पचति तण्डुल इत्यादौ कर्मतासंबन्धन पाके तण्डुलस्य, मैत्रः पच्यते तण्डुल इत्यत्र पाके कर्तृतासंबन्धेन मैत्रस्यान्वयाननुभवादित्यर्थः । धात्वर्थप्रातिपदिकार्थयोरित्यादि । धात्वर्थनामार्थयोरभेदातिरिक्तसाक्षात्संबन्धेनान्वयबोधस्याव्युत्पन्नतयेत्यर्थः । अत्र स्तोकं पचतीत्यादावभेदसंबन्धेन धात्वर्थे नामार्थस्तोकस्यान्वयाद्वयुत्पत्तिभङ्गोऽतोऽभेदाविरिक्तेति । ननु तत्र विशेषणविभक्तरेवाभेदोऽर्थस्तत्रैव स्तोकस्यान्वयोऽभ्युपेयते तथाच तत्राभेदातिरिक्तत्वविशेषणानुपादानेऽपि न दोषः। नामार्थप्रत्ययार्थयोरेव तत्रान्वयबोधस्योत्पन्नत्वादिति चेत् । सत्यम् । विशेषणविभक्तेः साधुत्वार्थकत्वेऽभेदार्थकत्वासंभवात् । तस्या अभेदार्थकत्वेऽपि लुप्तविभक्तिमननुसंदधा. नस्य स्तोक पाक इत्यादावभेदसंबंन्धेन पाके स्तोकान्वयबोधस्यानुभवसिद्धतया तत्रैवाभेदातिरिक्तत्वविशेषणव्यावृत्तिदानसंभवात् । तत्र लुप्तविभक्तेरनुसंधानं विना शाब्दबोधानङ्गीकारे गतं राजपुरुष इत्यादौ राजपदस्य राजसंबन्धिनि लक्षणया तत्रापि तथा वक्तुं शक्यत्वात् । तण्डुलं पचतीत्यादौ पाके तण्डुलकर्मत्वस्येव कर्मतासंबन्धेन तण्डुलस्यापि बोधोत्पत्या तंत्र व्युत्पत्तिभङ्गप्रसङ्गवारणाय साक्षादिति । नामार्थधाल्वर्थोभयान्वितविभक्त्यर्थातिरिक्तेत्यर्थः । ननु तथापि ' न कलझं भक्षयेत्' इत्यत्र विध्यर्थबलवदनिष्टाननुबन्धित्वविशिष्टेऽष्टसाधनत्वान्वितनञर्थाभावस्य धात्वर्थे कलञ्जभक्षणादावन्वयात्तत्रैव व्युत्पत्तिभङ्गपरिहारोऽशक्य इति चेन्निपातातिरिक्तत्वं नाम्नि विशेषणीयम् ; स्वीकुर्वतां वा नञ्पदस्याभाववति लक्षणा, तस्याभेदसंबन्धेन धात्वर्थे अन्वय इति । संबन्धमदियेत्यादि । चैत्रो जानातीत्यादौ धात्वर्थनामार्थयोः संसर्गमर्यादया वाश्रयत्वस्य भानासंभवादित्यर्थः । तथा चैतादृशव्युत्पत्त्यनुरोधेन नामार्थनिष्ठाभेदातिरिक्तसंबन्धावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितविशेष्यतावच्छेदकतासंबन्धेन शाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति विभक्तिपदनिरूपितवृत्तिज्ञानजन्योपस्थितेः प्रकारतासंबन्धेन हेतुत्वं कल्पनीयम् । एवं धात्वर्थनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासंबन्धेन शाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति विभक्तिपदनिरूपितवृत्तिज्ञानजन्योपस्थितेः प्रकारतासंबन्धेनेत्यपी.
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१३ ग्रन्थः] व्याख्याषट्कयुतः ।
२३ ति न चैत्रो जानाति इत्यादावाश्रयतासंबन्धेन धात्वर्थज्ञानस्य नामार्थे अन्वयबोघसंभव इति भावः ।
अथ चिन्तामणिकारमतानुयायिनः-चैत्र: पचति तण्डुल इत्यादौ कर्मतासबन्धेन तण्डुलस्य पाके अन्वयबोधवारणाय नामार्थनिष्ठतथाविधप्रकारतानिरूपितविशेष्यतावच्छेदकतासंबन्धेन शाब्दबुद्धित्वावछिन्नं प्रति विभक्तिपदनिरूपितशक्ति(वृत्ति)ज्ञानजन्योपस्थितेः प्रकारतासंबन्धेन हेतुत्वकल्पनमस्तु; धात्वर्थनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यतावच्छेदकतासंबन्धेन शाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति तथाविधोपस्थितेः हेतुत्वकल्पनं निष्प्रामाणिकत्वात् नादरणीयम् । तथा च चैत्रो जानातीत्यादावाश्रयतासंबन्धेन धात्वर्थस्य नामार्थेऽन्वयबोधे बाधकाभावात् आश्रयत्वे आख्यातस्य निरूढलक्षणाकल्पनं किमिति तु न जानीमहे । नन्वाख्यातस्य आश्रयत्वे लक्षणानङ्गीकारे जानातीत्यादावाश्रयत्वप्रकारकान्वयबोधानुभवापलापप्रसङ्ग इति चेत्, प्रायः स्वमात्रानुभवबलात्तथा बाधकमुद्भावयसीत्याहुः ।
अत्र विवदन्ते बहवः-जानातीत्यादावाख्यातस्य घटादौ स्वारसिकलक्षणाज्ञानकाले ज्ञानीयो घटादिरिति शाब्दबोधोत्पत्त्यर्थ घटादिविशेष्यकज्ञानप्रकारकशाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति ज्ञाधातुसमभिव्याहृताख्यातज्ञानजन्यघटाद्युपस्थितेर्हेतुत्वकल्पने घटत्वपटत्वादिभेदेनानन्तकार्यकारणभावकल्पनापत्त्या गौरवात्तदपेक्ष्य तदनिवेश्य ज्ञाननिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यतावच्छेदकतासंबन्धेन शाब्दबुद्धिं प्रति आख्यतपदनिरूनितवृत्तिज्ञानजन्योपस्थिते: प्रकारतासंबन्धेन हेतुत्वकल्पनैव ज्यायसी । तथा च तादृशक्लप्सकार्यकारणभावात् कथं चैत्रो जानातीत्यादावाश्रयतासंबन्धेन चैत्रे ज्ञाधात्वर्थस्यान्वय इति तत्राख्यातस्याश्रयत्वे लक्षणावश्यकीति । यत्तु घटत्वपटत्वादिकमनिवेश्य तथाविधकार्यकारणभावकल्पने ज्ञानीयो घट इति योग्यताज्ञानबलात्तथाविधाख्यातपदजन्यघटोपस्थितिदशायां ज्ञानीयो घट इति शाब्दबोधस्य समवायसंबन्धेन आत्मन्यापत्तिर्दुरा, यदि च विशेष्यतावच्छेदकनिष्ठप्रत्यासत्त्या शाब्दबुद्धियोग्यताज्ञानयोरपि कार्यकारणभावः कल्प्यते तथापि भिन्नविषयकानुमितिसामग्र्यभावरूपकारणताबलात्तदा तथाविघशाब्दबोधापत्तेरात्मनि ब्रह्मणोऽपि दु:समाधेयतेत्यवश्यं घटपटत्वादिकं निवेश्य तथाविधसमभिव्याहारज्ञानजन्योपस्थितिशाब्दबोधयोः कार्यकारणभावकल्पनमिति किं बाधकम् । चैत्रो जानातीत्यादौ चैत्रे आश्रयतासंबन्धेन ज्ञानस्यान्वय इति तन्न, उपदर्शितशाब्दबोधपदजन्योपस्थित्योर्विषयभेदेन कार्यकारणभावकल्पने तत्तद्विषयकत्वैः सह विनिगमनाविरहेण कार्यकारणभावानन्त्यात् कार
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
णतावच्छेदकगौरवाच तदुपेक्ष्य घटत्वादिवृत्तिविषयतासंबन्धेन ज्ञानत्वावच्छिन्नं प्रति घटत्वादिवृत्तिविषयतासंबन्धेन ज्ञानत्वेन हेतुत्वान्तरकल्पनस्य सम्यक्तया आपत्त्यसंभवात् ।
तथाहि-विरोधसामग्र्यभावेन ज्ञानीयो घट इति शाब्दबोधे जननीये ज्ञाधातुपदसमभिव्याहृताख्यातपदजन्योपस्थितिविशिष्टघटत्वप्रकारकज्ञानादेः सहका. रित्वं कल्पनीयम् । घटत्वप्रकारकज्ञाने च तथाविधोपस्थितिवैशिष्टयं च प्रकारतासंबन्धेन यत्स्वाधिकरणं तन्निरूपितविषयतासंबन्धावच्छिन्नवृत्तित्वरूपसामानाधिकरण्यसंबन्धेन । तथा च तादृशाख्यातपदजन्यघटाद्युपस्थितिकाले तथाविधसामानाधिकरण्यसंबन्धेन तादृशाख्यातपदजन्योपस्थितिविशिष्टं यद्धटत्वज्ञानं तत्स्वरूपसहकार्यभावेन न विरोधसामग्र्यभावरूपकारणबलादात्मनि ज्ञानीयो घट इति शाब्दबोधापत्तिः । न च तथापि पुरुषान्तरस्याख्यातपदज्ञानजन्यघटाधुपस्थितिकाले पुरुषान्तरात्मनि विरोधिसामग्र्यभावरूपकारणबलात् ज्ञानीयो घट इति शाब्दबोधापत्तिर्दुर्वा रेति वाच्यम् । एकात्मसमवेतस्यान्यात्मन्यापत्तिवारणार्थ तत्तदात्मसमवेतत्वावच्छिन्नं प्रति तादात्म्यसंबन्धेन तत्तदात्मत्वेनापि हेतुत्वस्यावश्यकतया नञ्तत्पुरुषीयोपदर्शिताख्यातपदजन्योपस्थितिविशिष्टतत्पुरुषीयघटत्वप्रकारकज्ञानत्वावच्छिन्नविशिष्टतत्तदात्मविशिष्टविरोधिसामग्र्यभावस्य । ज्ञानीयो घट इति शाब्दबोधसामग्रीत्वाभ्युपगमेन कथमपि अनुपपत्त्यभावात् । घटत्वप्रकारकज्ञानत्वावच्छिन्नवैशिष्टयं च तत्तदात्मन्येककालीनत्वसंबन्धेन विरोधिसामग्र्यभावे तत्तदात्मवैशिष्टयं च तादात्म्यविशेषणतोभयघटितसामानाधिकरण्यसंबन्धेन बोध्यम् । तथा च ज्ञानत्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितविशेष्यतावच्छेदकतासंबन्धेन शाब्दबुद्धित्वावछिन्नं प्रति प्रकारतासंबन्धेन तथाविधाख्यातपदजन्योपस्थितेहेतुत्वस्य निर्दुष्टतया तादृशहेत्वभावाचैत्रो जानातीत्यादौ आश्रयतासंबन्धेन ज्ञानान्वयबोधासंभवेन तत्राख्यातस्याश्रयत्वे लक्षणावश्यकीति सारम् । __केचित्तु चैत्रो जानातीत्यादौ चैत्रे आश्रयतासंबन्धेन ज्ञानान्वयाभ्युपगमे प्रस्थितमाख्यातस्य कृतिशक्त्यापि । चैत्रः पचतीत्यादावपि स्वानुकूलकृतिमत्त्वसंबन्धेनैव चैत्रे पाकान्वयबोधस्य वक्तुमुचितत्वात् । यदि च धात्वर्थस्य नामार्थेन्वयोऽव्युत्पन्न इति तथाविधबोधस्यासंभवेनाख्यातस्य कृतिशक्तिरावश्यकीति विभाव्यते तदा जानातीत्यादावप्याश्रयत्वे लक्षणाकल्पनमावश्यकमित्याहुः । इदमत्र चिन्तनीयम् । चैत्रः पचतीत्यादौ स्वानुकूलकृतिमत्त्वसंबन्धेन चैत्रे पाकान्वये चैत्रो न पचतीत्यादौ स्वानुकूलकृतिमत्त्वसंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकपाकाभाव •
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१३ ग्रन्थः]
व्याख्याषट्कयुतः।
२५
बान् चैत्र इति बोधो वाच्यः । तथा तादृशसंबन्धस्य वृत्त्यनियामकत्वात् वृत्त्यनियामकसंबन्धस्य च प्रतियोगितानवच्छेदकतयाऽसंगतिरेवेति दुर्वारमाख्यातस्य कृतिवाचकत्वम् । चैत्रो जानातीत्यादौ चाश्रयतासंबन्धेन चैत्रे ज्ञानान्वये आश्रयतासंबन्धस्य वृत्तिनियामकत्वात् चैत्रो जानातीत्यादौ न किंचिद्बाधकमिति ॥ २ ॥
(जय०) नव्यमतमाह-अन्यदीयेत्यादि । नोंदनादीत्यादिनाऽदृष्टवदास्मसंयोगादिसंग्रहः । ननु नोदनस्य द्विष्ठत्वेऽपि नोद्य एव गमनोत्पादकत्वनियामको यो नोदनस्य संबन्धस्तेनैव तस्यान्वयः । आस्तां वागमनविशिष्टव्यापारान्वय इत्यत आह-जानातीति । चक्षुर्जानातीत्यादौ व्यापारे जनकत्वे वा लक्षणादर्शनान्नाश्रयत्वलक्षणानियमोऽतआह-इच्छनीति । यागश्राद्धादिलक्षणेच्छायां तदनुकूलकृतेरपि बोधादाह-यतत इति । यत्ने द्वेषे वा यत्नजन्यत्वमसंभवीति भावः । ननूक्तेषु कृतेरसंभवेऽपि विशेषज्ञानेष्टसाधनत्वादिज्ञानमनःसंयोगादिलक्षणव्यापाराणामेव ज्ञानादिक्रियाविशिष्टानामन्वयोऽस्त्वत आह-विद्यते इति । विदे: सत्तार्थकतया तदनुकूलाप्रसिद्धनात्र तत्संभव इति भावः । ननु सत्ताजातिन तदर्थत्तथा सति लङाद्यर्थातीतत्वाद्यनत्वयापत्तेः । किंतु कालसंबन्धस्तदनुकूलव्यापा. रस्तु प्रसिद्ध एवेत्यत आह-निद्रातीति । मेध्याख्यनाज्यवच्छेदेनात्ममनोयोगस्य निद्रानुयोगितया तन्नाडीमनोयोगस्य तत्त्वेन परंपरया तदाश्रयत्वस्यात्मन्यन्वयो बोध्यः । निद्रानुकलोऽसाधारणव्यापारस्तु नात्मनि । अदृष्टं तु साधारणमेवेति भावः । नच मनो निद्रातीति स्यात् । अनुयोगिताविशेषेण तदाश्रयत्वस्यैव तद्वयवहारप्रयोजकत्वात् । क्रिया धात्वर्थों ज्ञानादिरप्रतीतेरित्यस्यासंभवेनेत्यादिः । नातो गत्यादिमत्त्वमात्रेति मात्रांशेन पौनरुक्त्यम् । कथंचित्सर्वत्र व्यापारसंभवेऽप्यननुभवादेव तत्त्याग इति तदर्थात् । गत्यादीत्यादिना ज्ञानादिसंग्रहः। गतिमत्त्वमात्रप्रतीतिश्चाचेतनाभिप्रायेण । चेतने तदनुकूलकृतेरपि प्रत्ययात्। पथि गच्छति काशी गच्छती. त्यादेः काशीगमनप्रयोजकयत्नपरत्वेनैव निर्वाहात् । न चैवमन्यगमनानुकूलनोदनादिमति तन्नोदनप्रयोजकयत्नसत्त्वाद्गच्छतीति स्यात् । प्रयोगानुसारेण प्रयोजकताविशेषस्यैव गमनकृत्योः संबन्धत्वस्वीकारात् । नोदनाख्यव्यापारस्य त्वेकत्वात्। रयत्पुरुषो गच्छतीत्यपि तदर्थत्वे दुर्वारम् । वस्तुत आत्मा गच्छतीत्यप्रयोगाचेतनेऽपि गत्यादियोगे आश्रयत्वमेवार्थ: । चैत्रो गच्छति त्वं गच्छस्यहं गच्छामीत्यादौ शरीरविशेष एव चैत्रादिपदार्थः। युष्मदस्मदोरपि तत्र संबोध्योचारयितृत्वावच्छेदकशरीरपरत्वात् । काशी गच्छतीत्यादेश्च काशीनिष्ठसंयोगप्रयोजकगमना. श्रयत्वमर्थः । जानातीत्यादौ च समवायेनाश्रयत्वमेवार्थः, कालो जानाती
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२६
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
त्याद्यप्रयोगात् । चैत्रो जानातीत्यादौ शरीरविशेषाविच्छन्न आत्मैव चैत्रपदार्थः । क्वचिदवच्छेदकत्वेनाश्रयत्वमप्यर्थ इत्यन्ये ।
ननु नश्यतीत्यादौ नाश्रयत्वमर्थः प्रतियोगिनो नाशाद्यनाश्रयत्वात् ; नाप्यनुकूलव्यापारः, घटो नश्यतीत्यादौ कपालं नश्यतीत्यस्यैवापत्तेरत आह-नश्यतीत्यादि । निरूढेति । तत्त्वं चानादिप्रयोगवत्त्वं मुख्यार्थबाधाद्यनपेक्षत्वं वा क्वचिन्मुख्यप्रयोगापवादकत्वम् , हेत्ववयवे धूमादित्यादौ धूमादिपदस्थाने धूमज्ञानादिपदस्य, यत्नपरतया गच्छतीत्यादेश्च प्रयोगादिति बोध्यम् । न चानयत्वादावपि शक्तिरेवास्तु । लाघवाद्यनत्वजातिविशिष्टे शक्तौ लक्षणयैव तद्बोधसंभवात् ।
नन्वाश्रयत्वादिकं संबन्धतयैव भासतां किं लक्षणयेत्यत्राह-चैत्र इत्यादि । कर्मतासंसर्गेण तण्डुलस्य कर्तृतासंसर्गेण मैत्रस्य पाकेऽन्वयाबोधादित्यर्थः । न नश्यतीत्यादौ नअर्थान्वयानुरोधादपि प्रतियोगित्वादिकमर्थः । प्रतियोगित्वादेव त्यनियामकतया आश्रयत्वाभावबोधसंभवादिति बोध्यम् । प्रातिपदिकार्थेति । निपातान्येत्यादिः । तेन नातिरात्रे षोडशिनं गृह्णातीत्यादौ भेदान्वयेऽप्यदोषः । स्तोकं पचतीत्यादौ स्तोकपाकयोरभेदान्वयादाह-भेदेनेति । तादात्म्यभिन्नसंबन्धेनेत्यर्थः । प्रकारीभूतविभक्त्यर्थविशेषणतापन्नस्य प्रकृत्यर्थस्य यत्र विशिष्टवैशिष्टयबोधे तात्पर्य तत्र प्रकृत्यर्थविशेष्यीभूतविभक्त्यर्थान्वयिन्यपि प्रकृत्योंऽन्वेति । अन्यथा चैत्रो जानातीत्यादी ज्ञानाश्रयत्वप्रकारकबोवेऽपि ज्ञानस्य धर्मिण्यप्रकारत्वात्समानप्रकारकविरोधिज्ञानाभावेन ज्ञानाश्रयत्वस्य ज्ञानव्याप्यत्वाग्रहदशायां चैत्रो ज्ञानवान्नवेति संशयः स्यादत उक्तं साक्षादिति । स्वविशेष्यीभूतविभक्त्यर्थान्वयं विनेत्यर्थः ।
परे तु नामान्वितस्य विभक्त्यर्थस्यान्वयो धात्वर्थेऽपीत्यत: साक्षादिति । भेदसंबन्धावच्छिन्ननामार्थप्रकारतानिरूपितशाब्दबोधीयविशेष्यताया धात्वर्थवृत्तिताया अव्युत्पन्नत्वेनेति समुदायार्थ इत्याहुः । तदानस्याश्रयभानस्य । यद्यपि तण्डुलः पचति मैत्रः पच्यते इत्यत्राख्यातेन कर्मत्वकर्तृत्वाद्यनभिधानादनभिहिताधिकारीयद्वितीयातृतीययोरेव साधुत्वमित्यसाधुत्वज्ञानादेव न शाब्दधीस्तथाऽपि तदज्ञानदशायां तादृशशाब्दबोधः स्यादित्याशय इत्येके । कर्मत्वादिप्रकारकबोध एव तादृशासाधुत्वज्ञाने विरोधीति तत्संसर्गकबोधापादने न किंचिदनिष्टमित्यन्ये।
वस्तुतस्तु एतादृशव्युत्पत्तिमूलमेव तत्तदनुशासनम् । नामार्थधात्वर्थयोः साक्षादनन्वयात्स्वार्थप्रवेशेन तण्डुलं पचतीत्यादेरेकवाक्यतानिर्वाहकद्वितीयाधनुशासनादर्थसाधुत्वायैव तदुवयोगसिद्धेः । अथ द्वितीयादेः कर्मत्वादिशक्तिसि
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१३ ग्रन्थः] व्याख्याषट्कयुतः। द्धावेवं युक्तं तत्रैव मानाभावस्तण्डुलं पचतीत्यादेः कर्मत्वादिप्रकारकबोधस्य संदिग्धत्वात्कर्मणि द्वितीयेत्याद्यनुशासनं च कर्मत्वादिसंसर्गेण धात्वर्थविशेष्यकतत्तन्नामार्थप्रकारकबोधे द्वितीयादिसमभिव्याहृततत्तन्नामजन्योपस्थितेर्नियामकत्वपरम् । द्वितीयादेः कर्मत्वादिशक्तौ कर्मत्वादिविशेष्यकावान्तरबोधे द्वितीयादिजन्यकर्मत्वाधुपस्थितेर्जनकत्वे चातिगौरवात् । युक्तं चैतत् । कथमन्यथा तण्डुलः पचति तण्डुलस्य पचतीत्यादितः कर्मत्वादौ [ निषिद्ध ? ] लक्षणाज्ञानादपि न शाब्दधीस्तथा च तण्डुलः पचतीत्यादौ द्वितीयाद्यभावादेवानन्वय इति तण्डुलं पचतीत्यादौ कर्मत्वादिसंसर्गेणान्वयो दुरि इति चेन्न । चैत्रः काशीं गच्छति न प्रयागं, घटो दण्डान्न तन्तोः, चैत्रस्येदं न मैत्रस्य, पृथिव्यां गन्धो न जले, इत्यादौ नार्यान्वयानुरोधाद्वितीयादेः कर्मत्वशक्तेस्तद्विशेष्यकबोधहेतुत्वस्य च सिद्धौ कर्मत्वादिसंसर्गकबोधे मानाभावाद्भेदेन निपातान्यनामार्थप्रकारकबोधे निपातप्रत्यया. न्यतरजन्योपस्थितेः समानविशेष्यत्वप्रत्यासत्त्या हेतुत्वात्तदसंभवाच । . न चैवमपि नामार्थप्रकारको धात्वर्थविशेष्यको बोधो न स्याचैत्रो जानातीत्यादौ धात्वर्थप्रकारकनामार्थविशेष्यकस्तु स्यादिति वाच्यम् । चैत्रः पचतीत्यादौ घटो नश्यतीत्यादौ च धात्वर्थस्य प्रत्ययार्थेऽन्वयाद्धात्वर्थप्रकारकबोधेऽपि निपातप्रत्ययान्यतरजन्योपस्थितेर्हेतुत्वकल्पनात् । चैत्रः पाक इत्यादौ कर्तृत्वादिसंसर्गेण पाकादेरनन्वयाय तथा हेतुत्वकल्पनावश्यकत्वाच्च । वस्तुतो भेदेन निपातप्रत्ययेतरपदार्थप्रकारकबोधे प्रत्ययनिपातान्यतरजन्योपस्थितिहेतुरिति एक एव कार्यकारणभावः । यद्वा निपातातिरिक्तार्थविशेष्यकतादृशबोधं प्रति प्रत्ययजन्योपस्थिति: प्रत्ययातिरिक्तार्थविशेष्यकतादृशबोधं प्रति निपातजन्योपस्थितिः कारणं वाच्यमिति न कोऽपि दोषः । न च ननादिनिपातार्थस्याप्यभावादेर्निपातेतराभावादिपदार्थत्वाद्धटोऽभाव इत्यादाविव घटो नेत्यादावण्यनन्वयोऽन्वय एव वा दृष्टान्तेऽपि स्यादिति वाच्यम् । निपातेतरेत्यादेनिपातपदाद्यप्रयोज्येत्यर्थादिति दिक् । ___ यत्तु तण्डुलं करोतीत्यादौ शक्तिभ्रमालक्षणया वा. द्वितीयार्थे पाके तण्डुलप्रकारकबोधे प्रत्ययजन्योपस्थितेः कारणत्वकल्पनात्तण्डुलस्तण्डुलं वा पचतीत्यत्र न तथा बोधः । एवं जानातीत्यत्र शक्तिभ्रमालक्षणया वा आख्यातार्थे आश्रयत्वादिविशिष्टे चैत्रत्वादिविशिष्ट एव वाश्रयत्वसंबन्धेन ज्ञानप्रकारकबोधे प्रत्ययजन्योपस्थिते: कारणत्वकल्पनाच्चैत्रो जानातीत्यत्र चैत्रादिपदप्रतिपाद्ये नाश्रयतया शानान्वय इति तन्न । यत्र तण्डुलं करोतीत्यादौ तण्डुलपदस्य तण्डुलावयवे द्वितीयायास्तण्डुले कृधातोः पाके लक्षणा, जानाति गच्छतीत्यादौ चाख्यातस्यैव
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२८ वादार्थसंग्रहः
[४ भाग ज्ञानगमनादौ, तत्र धात्वर्थे नामार्थे च तत्तत्कारकबोधे व्यभिचारात्तादृशलक्षण:ज्ञानादिकालीनतत्तदानुपूर्वीज्ञानविशिष्टवोधे तत्कारणत्वं च तण्डुलं पचति चैत्रो जानातीत्यादितस्तथाबोधे न बाधकम् । न च भेदेन तण्डुलादिविशिष्टपाकादिबोधकतत्तत्समभिव्याहारविशेषज्ञानरूपविशेषसामग्र्यभावान्नात्र तथा बोधः इति वाच्यम् । द्वितीयाद्यन्ततण्डुलादिसमभिव्याहृतपच्यादेरपि कर्मत्वादिसंसर्गेण • तण्डुलादिविशिष्टपाकादिबोधकत्वस्य संभवात्तण्डुलादिविशिष्टकर्मत्वाद्यवान्तरवो. • धादिकल्पने गौरवस्य प्रागुक्तत्वात् । तस्मात्प्रागुक्तमेवानुसतव्यम् । ___ अथ विपरीतव्युत्पन्नस्य घटः कर्मत्वमित्यादितस्तण्डुलः पंचतीत्यादित
शाब्दबोधान्नामार्थप्रकारकवोधे प्रत्ययादिजन्योपस्थितेः कारणत्वे व्यभिचारः ; 'न च तत्र मानस एव बोधः, पदजन्यपदार्थोपस्थितरुपनयविधया हेतुत्वाच शाब्दबोधत्वारोपमात्रमिति वाच्यम् । संशयसामग्रीदशायां मानसनिश्चयासंभवात् । भवति हि चैत्रो गौररूपवान्न वेति सन्दिहानस्य चैत्रो गौररूपवानित्यादिवाक्यान्निर्णयः । न च व्युत्पन्नपुरुषीये व्युत्पत्तिविशिष्टे वा तादृशबोधे तस्याः कारणत्वं, व्युत्पत्तिश्च भेदेन नामार्थबोधे प्रत्ययजन्योपस्थितिः कारणमित्यादिका- र्यकारणभावशानम् । यदि च सद्युत्पन्नस्यासद्व्युत्पन्नत्वेनाभिमतस्य तादृशबोधे कारणत्वज्ञानं विपरीतव्युत्पन्नस्यापि इति विभाव्यते तदा संस्कृतपुरुषीयतथाशाब्दबोधे कार्यकारणभावज्ञानं व्युत्पत्तिः । तदुक्तं शब्दालोके मित्रैः ‘साक्षाजनक• त्वज्ञानं व्युत्पत्तिरिति' । व्याकरणसंस्कृतपुरुषीयवाक्यार्थबुद्धावेव तद्वाक्यस्य सामर्थ्य मिति चेति वाच्यम् । विपरीतव्युत्पन्नस्यापि व्युत्पन्नपुरुषीयशाब्दबोधापत्तेः । प्रत्ययजन्योपस्थिते निकायाः सत्त्वात् । मैवम् । व्युत्पत्त्यव्युत्पत्त्योरपि व्युत्पन्नाव्युत्पन्नयोर्बोधे हेतुत्वात् । एवं तात्पर्यज्ञानादिकं व्युत्पन्नादिबोधे हेतुरिति ज्ञानसहकृतमेव तात्पर्यज्ञानादिकं व्युत्पन्नादिबोधे हेतुस्तथा यादृशशाब्दबोधे यादृशानुपूर्वीज्ञानं कारणं तत्तत्कारणत्वज्ञानमपि कारणम् । वस्तुतस्तु तादृशशाब्दबोधे अकारणत्वज्ञानमसाधुत्वज्ञानपर्यवसन्न प्रतिबन्धकमेव नातो व्याकरणसंस्कृतत्वादिज्ञानविधुराणां शाब्दबोधानुपपत्तिः। न वा अपभ्रंशादसाधुत्वेनाज्ञातात . शाब्दबोधो दुर्घट इति दिक् । ___ परे तु एको वृक्षः पञ्च नौका भवन्ति इत्यत्र पञ्चनौकाऽभेदान्वयस्य विरुद्धवचनावरुद्धे वृक्षेऽसंभवात् पञ्चनौकाभवनाश्रयो वृक्ष इति बोधो वाच्यः । एवं मैत्रेणौदनः पक्त्वा भुज्यते इत्यत्र ओदनस्य कर्मतया पाकेऽन्वय एव ओदनकर्मकपाकस्यानन्तर्यबोध: संभवति इति धात्वर्थे नामार्थस्य भेदान्वयोऽपि
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१३ ग्रन्थः]
व्याख्याषट्कयुतः ।
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कृत्रश्च यत्नाभिधायकत्वं क्रियाजन्यत्वप्रतिसंधानाविशेषेऽपि यत्नजन्यत्वाजन्यत्वप्रतिसंधानात् पटाकुरयोः कृताकृतव्यवहारात् ज्ञानादिवदाश्रयपरतृजन्तकर्तृपदस्य यत्नाश्रयबोधकत्वाच्च । क्रियायास्तदनुकूलव्यापारस्य वा कृमर्थत्वे तदाश्रयःकारकमात्रं वा कर्तृपदार्थः स्यात् । अथ रथो गच्छति गमनं करोति बीजादिना अङ्कुरादिः कृत इति विनापि यत्नं कृतः प्रयोगान्न तस्य यत्नवाचकत्वं, कर्तृपदे च कृतो यत्ने निरूढिलक्षणा, यदि क्रियाद्याश्रयमात्रेण न तत्प्रयोगः, एवश्चाचेतनेऽपि पचतीत्यादिप्रयोगात् क्रियानुकूलव्यापारप्रतीतेर्बाधकं विना गौणत्वायोगात् जनकव्यापार एवाख्यातार्थः, तण्डुलक्रयणादेश्च न पाकादिजनकत्वमिति नातिप्रसङ्गः । कथं तर्हि पचतीत्यादौ पाकजनकयत्नानुभव इति चेत् , यत्नाविनाभूतपाकादिना क्रियाविशेषकारणस्य यत्नस्यानुमानात् । पचति पाकविषयकयत्नवानिति तात्पर्यविवरणम् । अन्यथा धर्मिणोऽपि वाच्यतापत्तेः ॥३॥ स्वीकार्यस्तथाच धात्वर्थनामार्थयोर्भेदान्वयबोधे ज्ञातत्वेनैव विरोधित्वमुनेजिकास्तत्फलबलेन तत्तदुपस्थितयः स्वीकार्याः । एवं च जानातीत्यादिसमभिव्याहृतज्ञानस्थाप्युत्नेजकत्वादाश्रयत्वसंसर्गेणेति ज्ञानादिप्रकारको बोधो मणिकृदुक्तो नानुपपन्नः । आख्यातार्थोऽत्र संख्यावर्तमानत्वादिकमेव । संख्यान्वयोऽपि प्रथमान्तपदोपस्थाप्ये । तेन भावनान्वय्यभावेऽपि न तदन्वयानुपपत्तिरित्याहुः ॥ २ ॥
(मथु०) करोतेः प्रत्तिवाचकत्व एव कृधातुशक्यप्रतिपादकत्वेन प्रत्तित्वविशिष्टविशेष्यकजिज्ञासानिवर्त्तकज्ञानजनकत्वेन वा हेतुना आख्यातस्य तद्वाचक्रत्वं सिध्यति, तस्य क्रियादिवाचकत्वे क्रियादिवाचकपदे प्रथमहेतोर्व्यभिचारात् द्वितीयहेतोश्च किं करोतीतिप्रभस्य यत्नविषयकत्वासिद्धया पक्षटत्तित्वासिद्धेरतः कृषओऽपि प्रवृत्तिवाचकत्वमाचार्ययुक्तिभ्यां व्यवस्थापयति-कृञश्चेति । 'यत्नाभिधायकस्वं' प्रवृत्तित्वविशिष्टाभिधायकत्वम् । नन्विदमसिद्ध क्रियाया एव तच्छक्य.
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३० वादार्थसंग्रहः
[४ भागः वात् । पाकं करोतीत्यादौ स्तोकं पचतीत्यादाविवाभेदः संसर्गः, पाकौ करोति पाकान् करोति पाकः क्रियते इत्यादौ च कर्मविभक्तरेवाभेदोऽर्थः, तथाचा. दप्रकारकोऽन्वयबोधः इत्यत आह-क्रियेति । क्रिया' अवयव विश्रामानुकूलःस्पन्दः। यत्नजन्यत्वाजन्यत्वेति । यत्नजन्तत्वं यत्ननिरूपितफलोपधानात्मकजन्यत्व-साध्यत्वाख्यविषयत्वोभयसंबन्धवत्त्वं, 'यलाजन्यत्वञ्च' यननिरूपिततादृशोभयसंबन्धवद्भिन्नत्वं, तादृशोभयत्वेन तादृशोभयसंबन्धविशिष्ट एव कृधातुसमभिव्याहृतनिष्ठाप्रत्ययेन बोध्यते, भ्रभात् प्रत्तस्य गुरुतरभारोत्तोलनादौ कृतव्यवहारवारणाय फलोपधानात्मकजन्यत्वप्रवेशः, नान्तरीयके कृतव्यवहारवारणाय साध्यत्वाख्यविषयत्वप्रवेशः । अतएव नान्तरीयके मत्तो भूतं न तु मया कृतमिति व्यवहारः। व्यवहारं प्रति व्यवहर्त्तव्यज्ञानस्यैव हेतुत्वात् प्रतिसंधानप्रवेशः । तथा च क्रियायाः कृअर्थत्वे क्रियाजन्यत्वस्यैव तादृशव्यवहारविषयतावच्छेदकतया तजन्यत्वप्रतिसंधानदशायां निरुक्तयलाजन्यत्वप्रतिसंधानादकृतव्यवहारानुपपत्तिरिति भावः । इदमुपलक्षणं नान्तरीयकेऽपि मया कृतमिति व्यवहारप्रसङ्गान्मया न कृतमिति व्यवहारप्रसङ्गाचेत्यपि बोध्यम् । ज्ञात्रादिवदिति ज्ञातृपदादिवदित्यर्थः। 'आश्रयपरेति, तथाच कृतः कृतिमतिशक्तावपि सविषयधातूत्तरस्य तस्याश्रयत्वे निरू दिलक्षणा, अन्यथा कनेंत्यत्र कृतिकर्ता इत्यन्वयः स्यात् स चायोग्य इति भावः ।
नन्विदमेवासिद्ध किन्तु कर्तृपदं क्रियाश्रयबोधकमनुकूलव्यापाराश्रयबोधक वेत्यत आह-क्रियाया इति । 'क्रिया' स्पन्दः, अनुकूलव्यापारस्य वेति पाठः, तदनुकूलव्यापारस्येति पाठः प्रामादिकः । घटं करोति घटस्य कत्तेत्यादौ स्पन्दा. नुकूलव्यापारस्य अर्थत्वानभ्युपगमात् पाकं करोतीत्यादिस्थलविशेष एव तदभि. धानमतस्तादृशपाठेऽपिन दोष इत्यपि कश्चित् । प्रथमे दोषमाह-तदाश्रय इति । क्रियाश्रय इत्यर्थः, तथाच तण्डुलः पाककर्ता इत्या व व्यवहारः स्यादिति भावः । एतच्च साक्षाद्विलित्यनुकूलस्य स्पन्दस्य पाकत्वमते । द्वितीये दृषणमाह-कारकमात्रं वेति । स्थाली-काष्ठादेरपि पाकानुकूलसंयोगादिसत्त्वात् पाकादिकर्तृव्यवहारः स्यादिति भावः। __कृधातोराख्यातस्य च जनकव्यापारत्वमेव शक्यतावच्छेदकमिति केचिद्वदन्ति तन्मतं शङ्कते-अथेति । रथोगच्छति गमनं करोतीति, तथाच तद्विवरणवशात् यत्नो न कृअर्थः, किन्तु जनकव्यापार एवार्थः । रथो गमनं करो तीत्यादौ च कर्मविभक्तनिरूपितत्वमेवार्थः, कृअर्थैकदेशे जनकयने च तदन्वयः, आख्यातस्याश्रयत्वमर्थः, गमनविशिष्टनिरूपिताधारत्वसंबन्धेन रथादौ तदन्वयः, तेनान्यदीयगमनानुकूलनोदनादिमति निश्चले गमनं करोतीति न व्यव. हार इत्येवमाशयः । बीजादिनेति । निष्ठत्वं तृतीयार्थः, अन्वयश्चास्य कृमर्थे व्यापारे, जन्यत्वरूपेण जन्यमानं निष्ठार्थः । न चैवं क्रियाजन्यत्वप्रतिसंधान
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१३ ग्रन्थः] व्याख्याषट्कयुतः दशायां निरुक्तयत्नाजन्यत्वप्रतिसंधानादथैरे अकृतव्यवहारो न स्यादिति वाच्यं, तदानीं तदव्यवहारे तत्र कृओ यले लाक्षणिकत्वात् निरुक्तोभयत्वेन निरुक्तोभयसंबन्धविशिष्टस्य च निष्ठार्थत्वात् । अतएव नान्तरीयके मया न कृतमिति व्यवहारोऽपि व्याख्यातः । क्रियाजन्यत्वमादाय तत्र कृतव्यवहारे इष्टापत्तिरित्येवमाशयः । नन्वेवं कारकमात्र एव कर्तृव्यवहार इत्यत आह-कर्तृपदे चेति । निरूढिलक्षणेति प्रवृत्तौ निरूढिलक्षणेत्यर्थः, भवतां कारकपदे कृओ व्यापार इव । अन्यथा कर्मादौ कारकव्यवहारो न स्यादिति भावः । यदीति । क्रियाद्याश्रयमात्रे, क्रियादिरूपजनकव्यापाराश्रयमात्रे कर्मादाविति यावत् , न तत्प्रयोगः, न कर्तृपदप्रयोगः । वस्तुतस्तु कर्मादावपि कारकपदप्रयोग इव कर्तृपदप्रयोगोऽभ्युपेयः, अतएव “ विवक्षातः कारकविभक्तयो भवन्ति" इति शाब्दिकाः । इत्यभिप्रायो यदीत्यनेन मुचितः । एवंचेति, कृयो यनावाचकत्वे इत्यर्थः । जनकल्यापार एवाख्यातार्थ इत्यग्रेतनेनान्वयः, उक्तहेतुद्वयस्य प्रत्तित्वविशिष्टे शक्तिसाधकत्वाभावादिति भावः । व्यापारत्वञ्च धर्मत्वं, तच्च यमसाधारणमपि, तेन परमेश्वरो वेदं वक्तीत्यादिप्रयोगोपपत्तिः । अत्र यत्नानुभवोऽनुभवसिद्ध इत्यभिप्रायेण । अन्यथा परमेश्वरपदस्य शरीरपरत्वे वेदाभिन्नशब्दानुकूलकण्ठाभिघातव्यापारवानिति बोधो व्यापारबोधकत्वेऽपि स्यात् । असाधारणजनकताया एव शक्यतावच्छेदकतया च नेश्वरः पचति कृष्णः पचतीत्यादिप्रयोगः । अन्यथा प्रवृत्तिवादिनामप्यप्रतीकारात् प्रवृत्तित्वस्य भगवानेऽपि सत्वात् ईश्वरो वेदं वक्तीत्यादौ वेदाभिन्नासाधारणशब्द जनकता भगवद्यतेऽपि स्वीकरणीया अतो न दोषः, आत्मा पचतीत्यादिप्रयोगे चेष्टापत्तिरिति निगर्वः । ननु तथापि विनिगमकाभावात् शक्तिसाधकहेतुनैव प्रवृत्तित्वविशिष्टे शक्तिः सेत्स्यतीत्यत आह-अचेतनेऽपीति । अग्नि-काष्टादावपीत्यर्थः । पचतीत्यादिप्रयोगात् व्यापारत्वे बुद्धि विशेष्यतासंबन्धेन पचतीतिप्रयोगसत्त्वात्, रथो प्रच्छतीत्यादावाश्रयत्वप्रतीतेरेव नव्यैरुक्तत्वात् तत्परित्यागः । ननु तत्राख्यातस्य व्यापारे लक्षणा इत्यत आह-क्रियेति । क्रिया' पाकः, गौणत्वं लक्षणाजन्यत्वम् । नन्वेवं तण्डुलक्रयणादेरपि पाकानुकूलत्वात् तदानीमपि पचतीत्यादिप्रयोगः स्यादित्यत आह-तण्डुलेति । एतेन शक्यतावच्छेदकजनकत्वदले अनन्यथासिद्धत्वांशस्य प्रवेशे प्रयोजनं छलतो दर्शितम् । .. जनकप्रवृत्तित्वस्याख्यातशक्यतावच्छेदकत्ववादी शङ्कते-कथमिति। तीति
आख्यातस्य जनकप्रवृत्तित्व विशिष्टाशक्तत्वे इत्यर्थः। ‘पचतीत्यादौ' चैत्रः पचतीत्यादौ, ' पाकजनकयत्नानुभवः ' पाकजनकप्रत्तित्वेनानुभवः, “यत्नाविनेत्यादि । चैत्रत्वादिविशिष्टजनकतासंबन्धेन पाकजनकव्याप्येनेत्यर्थः। क्रियाविशेषकारणस्येति पाठः, पाकलक्षणक्रियाविशेषजनकस्य यत्नस्येत्यर्थः । कियाविशेषेणेति तृतीयान्त
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
पाठेऽपि कारणत्वान्वितनिरूपितत्वस्य तृतीयार्थत्वादयमेवार्थः, तथाच चत्रः पाकजनकयलवान् पाकवत्त्वादित्यनुमानप्रकार इति भावः ।।
केचित्तु-यत्नाविनाभूतेति तादात्म्यसंबन्धेन जनकयत्नध्याप्येनेत्यर्थः, "क्रियाविशेषेण धातूपस्थापितपाकादिविशेषणत्वेन, कारणस्य जनकत्वविशिष्टस्य अनुमानात् जन्यतासंबन्धेनानुमानात् । अयं पाको जनकयत्नवान् पाकान् इत्यनु. मानप्रकारः । सौरादिपाकेऽप्यन्ततो भगवालस्यैव सत्त्वात् न व्यभिचारः । तदनन्तरं च अनुमानोपस्थितस्य जनकताविशिष्टयलस्य एकदेशे जनकत्वे निरूपितत्वसंबन्धेन धातूपस्थापितस्य पाकस्य विशेषणतया अन्वयः शाब्द इति भावः । एतेनानुमानापाको जनक्रयत्नवानिति प्रतीत्युपपादनेऽपि पाकजनकयत्न इति 'विलक्षणानुभवस्यानुपपनत्वादिदमसङ्गतमिति परास्तम् । अग्रे च अथैवमित्यत्र वर्तमानपदं पाकवत्त्वस्याप्युपलक्षणम्-इति ध्याचक्रुः ।
नन्वेवं पचति पाकजनकयलवानिति विवरणमसंगतं तेन प्रकृततिप्पदस्य यत्नपदोस्थापकत्वबोधनादित्यत आह-पचतीति। तात्पर्यविवरणमिति। परंपरया यत्नपदशक्यप्रतीतिप्रयोजकताप्रकारकतदिच्छयोधरितत्वस्य तिप्पदं बोधकं न तु तदुपस्थितिजनकताबोधकमित्यर्थः । यद्वा तात्पर्यविवरणमिति तत्परत्वमात्रबोधकं यत्नपदशक्यप्रतीतौ तिप्पदज्ञानोत्तरत्वमात्रबोधकमिति यावत् , न तु तिप्पदे तदुपस्थितेर्जनकत्वबोधकमित्यर्थः । ननु विवरणेन स्वप्रतिपायोपस्थापकत्वमेव विद्रियमाणे बोध्यते इत्यत आह-अन्यथेति | विवरणस्य स्त्रप्रतिपायोपस्थापकत्वबोधकत्वनियमे इत्यर्थः । धर्मिणोऽपि आख्यातार्थविशे. प्यत्वेनाभिमतस्य यत्नाश्रयस्यापि, वाच्यतापत्तेः भवन्मते आख्यातस्य वाच्यतापत्तेः, मतुप्पदशक्योपस्थापकत्वस्य यथोक्तविवरणेन तिपोऽबोधनात् न तनियम इति भावः ॥ ३ ॥
(राम०) ननु करोतेर्यत्नार्थकत्वे निरुक्तविवरणबलादाख्यातम्य कृतिवाचकत्वं सिध्यति तदेव च न सिद्धं परेण तस्येव करोतेरपि व्यापारार्थकत्वाभ्युपगमा. दित्यत आह-कृअश्चेति। कृधातोरित्यर्थः। यत्नाभिधायित्वं यनशक्तत्वम्। अतः “ कृताकृतविभागेन कर्तृरूपव्यवस्थया। कृयो यनाभिधायित्वं न व्यापारप्रस. क्तता' इत्याचार्यकारिकोक्तकृताकृतविभागेनेति प्रथमयुक्तिमाह-क्रियेति । अत्रायं भावः-पटादिः कृतोऽङ्करादिर्न कृत इत्यादौ कृत इत्यस्य यदि क्रियाजन्यत्व. विशिष्टोऽर्थः तदा पट इव अङ्करेऽपि कृतव्यवहारापत्तिः, आरम्भकसंयोगादिरूपक्रियाजन्यत्वप्रतिसंधानस्य व्यवहर्त्तव्यतावच्छेदकविशिष्टज्ञानविधया भवन्मते कृतव्यवहारनियामकस्य तत्र सत्त्वादिति क्रिया न कृधातोरर्थः । ननु कृधातोर्यला. र्थकत्वेऽपीश्वरीययनजन्यत्वमादाय उभयत्र कृतव्यवहारापत्तिर्दुरैवेत्यत आहयत्नजन्यत्वेति । ईश्वरीयकृतेरनुपस्थितिदशायामङ्कुरे यलाजन्यत्वभ्रमात्मकप्र.
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१३ ग्रन्थः]
व्याख्याषट्कयुतः ।
३३
तिसंधानेनाकृतव्यवहारो जायते इतरथा तु पट इव तत्रापि कृतव्यवहार एव जायते इति भावः । अतएव प्रतिसंधानपर्यन्तानुधावनम् । न च कृधातोः क्रियार्थकत्ववादिमतेऽपि यदाकुरे क्रियाजन्यत्वप्रतिसंधानं नास्ति अथ च क्रियाजन्यत्वा. भावस्य भ्रमात्मकप्रतिसंधानं तदेवाछुरे कृतव्यवहारो भविष्यतीति वाच्यम् । अ. नुभवविरोधात्। क्रियाजन्यत्वप्रतिसंधानस्योभयत्र तुल्यत्वेऽप्यकुरेऽकृतव्यवहारस्य सर्वसिद्धत्वादिति उक्तकारिकोक्ता कर्तृरूपव्यवस्थयेति द्वितीयां युक्तिमाहज्ञात्रादीति । ज्ञाधातोर्ज्ञानं तृच्प्रत्ययस्य चाश्रयोऽर्थ इति ज्ञातृशब्दस्य ज्ञानाश्रयबोधकरववदित्यर्थः आश्रयपरः आश्रयलाक्षणिकः । तृच् अन्ते यस्य तदाश्रयपरत. जन्तपदं तस्येत्यर्थः, तथा च कृधातोर्यनार्थकत्वाभावे कर्तपदाद्यनाश्रयबोधो न स्यादिति कृधातोर्यनोऽर्थ इष्यते इत्यर्थः । ननु कृधातोः कृत्यर्थकत्वे पत्तेत्यादिवत् तृचः कर्तृबोधकत्वेन कर्तृपदाय लानुकूलकृतिमानित्यर्थ एवावगन्तव्यो न तु कृत्याश्रयः आश्रयस्य तृजर्थत्वाभावात् । न च यत्नानुकूलकृत्याश्रयबोध एव वक्तव्यः बाधितत्वात् । अस्मदादो कर्तरि यतानुकूलकृतिमत्त्वस्याभावादित्याशङ्कामपाकत्तुं ज्ञानादिवदिति दृष्टान्तप्रदर्शनं कृतं; तथाच तृचो यथा ज्ञात्रादिस्थले आश्रयबोधकता तथा कर्तृपदस्थलेऽपि आश्रयबोधकत्वमिति कर्तृपदाद्यनाश्रयबोधोनानुपपन्न इति भावः।
क्रियायाः कृअर्थत्वे दोषान्तरं क्रियानुकूलव्यापारस्य तदर्थत्वे दोषं चाह-क्रियाया इत्यादि । तदनुकूले ति क्रियानुकूलेत्यर्थः, 'तदाश्रयः' पाकक्रियाद्याश्रयः, तण्डुलादिः कर्तृपदार्थः स्यादित्यन्वयः। क्रियानुकूलव्यापारस्य कर्तपदार्थत्वे दोषमाह कारकमानं वेति, मात्रपदं कृत्स्नार्थकं, तथाच क्रियानुकूलव्यापाराश्रयस्य कर्तपदार्थत्वे कारकसामान्यस्यैव क्रियानुकूलव्यापारवत्तया कर्तृपदार्थता स्थादित्यर्थो लभ्यते । यद्यपि क्रियायास्तदनुकूलव्यापारस्य वा कृमर्थत्ववादिनये क्रियाश्रयः कारकमात्रं वा कर्तपदार्थः स्यादिति न बाधकं तन्नये तयोरिष्टापत्तिसंभवात् तथापि क्रियात्वं तत्तद्वात्वर्थत्वं तदनुकूलव्यापारत्वञ्च तत्तद्वात्वर्थानुकूलव्यापारत्वं तदुभयमपि यनत्वजात्यपेक्षया गुरुतरमिति यत्नत्वमेव तदुभयापेक्षया लघुत्वेन कृधातुशक्यतावच्छेदकमुच्यते इत्यत्र तात्पर्यम् ।
. शङ्कते-अथेति। तथाच रथो गमनं करोतीत्यादौ रथो गमनानुकूलव्यापारवानित्याद्यर्थोऽवगम्यते इत्यनायत्या उक्तलाघवं त्यत्तवापि कृधातोापारार्थकत्वमुपेयमिति भावः । कृताकृतविभागेनेत्यादियुक्त्या कृतिवाचकत्वं निराकरोति बीजादिनेति। तथाच कृषः कृत्यर्थत्वे बीजादेः कृत्यर्थे बाधितत्वं स्यादिति भावः । नन्वेवं कर्तृपदे का गतिरित्यते आह-कर्तृपदे चेति, निरूढेति। नन्वेवं यत्नेपि प्रयोगसत्त्वे लाघवेन यत्ने कृधातोः शक्तिर्व्यापारे लक्षणेत्येव किं न स्यादिति चेत्, प्रयोगप्राचुर्यस्य शक्तिनियतत्वेन तद्भलेन कृषो व्यापारे शक्तौ सिद्धायामन्यायस्यानेकार्थत्वमिति(?)न्यायेन न यत्ने शक्तिः कल्प्यते । न च प्रयोगप्राचुर्य यत्नेऽपि वर्त्तते,
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३४
वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
तथा सति गङ्गापदादेरपि तीरशक्तत्वापत्तेस्तत्रापि गङ्गापदप्रयोगप्राचुर्यस्य वक्तुं शक्यत्वात् । किञ्च प्रयोगमात्रं यदि शक्तिग्राहकं तदा काष्ठादौ व्यापारवाचिकृधातुघटितकारक पदप्रयोगबलेन कृधातोर्व्यापारशक्तेनैयायिकानामपि प्रसङ्गादिति ।
ननु क्रियाश्रये तदनुकूलव्यापाराश्रयमात्रे वा कर्तृपदप्रेयोगे इष्टापत्तिरेवति कथं कर्त्तृपदे कृञो यले निरूढलक्षणा वाच्येत्यत आह-यदीति । न तत्प्रयोगः न कर्तृपदप्रयोगः वैयाकरणमते विवक्षातः कारकाणि भवन्तीत्यस्याभ्युपगमेन करणीभूतष्ठापि कारकप्रयोग इष्ट एवेति यदीत्युक्तम् । एवञ्चेति कृधातोofferraraकले स्थिते तद्विवरणबलेनाख्यातस्यापि व्यापारशक्तत्वे चेत्यर्थः । ' अचेतनेऽपि' वह्निकाष्टादावपि । कृताकृतविभागेनेत्यादिबाधकस्य निरासात् यत्नत्वजात्यनभ्युपगमाद्गौरवमपि नास्तीति बाधकं विनेत्यस्य नासिद्धिरिति भावः । गौणत्वेति लाक्षणिकत्वेत्यर्थः । गौणत्वायोगादिति पञ्चम्यन्तं जनकव्यापार एवाख्यातार्थ इत्यत्र हेतुत्वेन बोध्यं, व्यापारत्वमिह जन्यत्वं धर्मत्वं वा अतः पचतीत्यादेः पाके जनकयनाऽर्थकधर्मबोधकतयोपस्थितिः संभवतीति । नन्वेवं तण्डुलकणकालेऽपि पचतीति प्रयोगः स्यात् पाकजनकीभूततण्डुलक्रयणात्मकव्यापारस्य तदानीं सवादित्यत आह- तण्डुलेति । अन्यथासिद्धतया तस्य न पाकजनकत्वमित्यर्थः । इत्थञ्चानुकूलव्यापारस्याख्यातार्थत्वे चायं दोषः तण्डुलकयणस्थ पाकानुकूलत्वादिति तदुपेक्षितमित्यपि सूचितम् ।
नैयायिकः शङ्कते - कथं तहीति । पाकजनकेति । यद्यपि यस्यापि पाकजनकव्यापारत्वेनानुभवे बाधकाभावस्तथापि चैत्रः पचतीत्यादौ पाकजनकथनानुभवः कथं स्यादित्याशङ्कार्थः । यनाविनेति पाकजनकयनाविनाभूतेनेत्यर्थः । अविनाभूतत्वं व्याप्यत्वं, कारणस्य पाकादिकारणस्य । तेन चैत्रः पाकजनकयल - वान् पाकवत्त्वादित्यनुमानं फलितम् । पाकवत्ता च अयं पाकचैत्रीय इत्यादिप्रतीतिनियामकस्वरूपसंबन्धेन, अतो नासिद्धिरिति ध्येयम् ।
ननु मास्तु करोतिना विवरणबलेनाख्यातस्य यत्नवाचकत्वं कृञो व्यापारवाचकत्वं कृतिवाचकत्वं वेति विवाददशायां कृञः कृतिवाचकत्वसंशयात् पचतिपाकजनकयत्नवानिति विवरणबलात् स्यादेवाख्यातस्य यत्नवाचकत्वमित्यत आह- पचतीति । पाकयत्नवानिति पाकजनक यत्नवानित्यर्थः । तात्पर्यविवरणं पचतीत्यतः पाकजनकव्यापारप्रतीतौ तेन व्यापारेणानुमितो यः पाकजनकयत्नस्तस्य ज्ञापनम् । अन्यथेति विवरणविषयतामात्रेणाख्यातस्य यत्ने शक्तिस्वीकार इत्यर्थः । धर्मिणः पाकजनकयत्नवतः, वाच्यतापत्तेः आख्यातवाच्यतापत्तेः, तस्यापि पाकयत्नवानिति मतुपा विवरणादिति भावः ॥ ३ ॥
(रघु०) ननूपदर्शित विवरणादिबलादाख्यातस्य यत्नवाचकत्वं तदैवायाति यदि कृञो यत्नार्थकत्वं तदेव तु कुतस्तस्य व्यापारत्वविशिष्टे शक्तिकल्पने बाधकाभावा
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१३ ग्रन्थः]
व्याख्याषट्कयुतः ।
दित्यत आह—कृयश्चेत्यादिना । क्रियाजन्यत्वेति । संयोगरूपव्यापारजन्यत्वप्रतिसंधानाविशेषेऽपीत्यर्थः। तथा च कृधातोर्व्यापारार्थकत्वे पटाकुरादौ व्यापारजन्यत्वप्रतिसंधानकाले कृतिजन्यत्वप्रतिसंधानाप्रतिसंधानाभ्यां पटः कृतोऽङ्कुरो न कृत इति व्यवहारः सर्वानुभवसिद्धो न स्यात् तन्मते तदाङ्कुरे व्यापारजन्यत्वज्ञानसत्वेन व्यापारजन्यत्वरूपव्यवहर्तव्यताज्ञानाभावादिति भावः । कृधातोर्यनार्थकत्वे युक्त्यन्तरमाह-ज्ञानादिवदिति । ज्ञाता इत्यादौ यथा आश्रयबोधकतृजपदसमभिव्याहृतज्ञाधातुपदान्ज्ञानाश्रयश्चैत्र इति बोधस्तद्वत्कर्तेत्यत्राप्याश्रयबोधकतृचपदसमभिव्याहृतकृधातुपदात्कृत्याश्रय इति बोध उत्पद्यते, स च कृतो यत्नार्थकत्वं विना न संभवतीति तस्य यत्नार्थकत्वमावश्यकमिति भावः । इदमत्रावधेयम्-तृजादिपदस्य कर्तर्येव शक्तिः । न चलाघवात्तजादिपदस्य कृतौ शक्तिरङ्गीक्रियतामिति वाच्यम्। तथा सति पक्ता चैत्र इत्यादौ चैत्रे तृचपदार्थकृते: समवायसंबन्धेनान्वयबोधासंभवात् । नामार्थधात्वर्थयोरिव नामार्थयोरपि अभेदातिरिक्तसंबन्धेनान्वयबोधस्याव्युत्पन्नत्वात् , अन्यथा घट: कर्मत्वमित्यादिनिराकाङ्क्षवाक्यादपि कर्मतायामाधेयतासंबन्धेन घटान्वयबोधप्रसङ्गात् । अत्र तृचो नामत्वं नास्तीति तु न संभावनीयम् । स्याद्यन्तत्वेन तस्यापि नामत्वात् । तदाहरभियुक्ताः स्याद्यन्तमिह नामेष्टमित्यादि। ज्ञाता इत्यादौ तु कृते नानुकूलत्वाभावेन ज्ञानानुकूलकृत्याश्रयाबोधासंभवात् सविषयवाचकधातुपदसमभिव्याहारस्थले तृचआश्रयत्वे लक्षणावश्यकीति । ननु ज्ञाता इत्यादौ तृचो लक्षणाङ्गीकारेऽपि कर्तेत्यत्र तृच्शक्त्यैव कृत्याश्रयबोधोऽस्तु किं कृधातोर्यत्नशक्त्येति चेन्न । तथा सति कर्तेत्यत्र धातुवैयर्थ्यापत्तेः । तस्यावैयर्थे तत्पदात् व्यापारानुकूलकृत्याश्रय इति बोधापत्तेश्च । न च तत्र कृधातुपदं तात्पर्यग्राहकमिति वाच्यम् । प्रत्ययानां प्रकृत्यान्वितस्वार्थबोधकत्वव्युत्पत्तेरिति । ननु कर्तृपदात्कृत्याश्रयबोधश्चेत्संभवति तदैव कुलो यत्नार्थकत्वमायाति तदेव न, तत्तत्पदात् तत्तस्त्रियाश्रयस्य तदनुकूलव्यापाराश्रयस्य बोधस्यैवाङ्गीकारादित्यत आह-क्रियाया इत्यादि । कृधातोः क्रियार्थकत्वमभ्युपेत्य कर्तृपदाक्रियाश्रयमात्रे कर्तृव्यवहारः स्यात् । तस्य क्रियानुकूलव्यापारार्थत्वमभ्युपेत्य कर्तृपदात् तादृशध्यापाराश्रयबोधाङ्गीकारे च कारकमात्रे कर्तृव्यवहारः स्यात् । कारकमात्रस्यैव तथाविधव्यापाराश्रयत्वादिति भावः। ___ कृत्रो व्यापारशक्तिवादिमीमांसकः प्रत्यवतिष्ठते-अथेति । अङ्कुरः कृत इति प्रयोगस्य कृञो यत्नार्थकत्वेऽपीश्वरीयकृतिमादाय संभवेन तस्य व्यापारार्थकतासाधकत्वायोगादाह-बीजादिनेति । तथा च कृजो व्यापारार्थकत्वं विना
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः बीजादिकरणकव्यापारजन्योङ्कुर इति बोधजनकस्य बीजादिनाङ्कुरः कृत इति प्रयोगस्यासंभवात् तस्य तदभिधायकत्वमावश्यकमिति भावः । ननु तथा सति कारकमात्रे कर्तृव्यवहारोऽशक्यपरिहार इत्यत आह-कर्तृपदे चेति । अत्र षष्ठयर्थे सप्तमी तस्याश्च घटकत्वमर्थः, पदपदं च वाक्यपरं, तथा च कर्तृरूपवाक्यघटकस्य कृञ इत्यर्थः । यदीति, वस्तुतः कारकमात्रस्य कर्तृपदार्थत्वे क्षतिविरहः, विवक्षात: कारकाणि संभवन्तीति शाब्दिकव्युत्पत्तेरेवातिप्रसङ्गभञ्जकत्वादिति भावः । ननु कृधातोरनन्तसंयोगविभागरूपव्यापारशक्तत्वापेक्षया लाघवात् यत्नशक्तत्वमेवोचितम् । उपदर्शितस्थले च व्यापारे लक्षणाङ्गीकारे नानुपपत्तिरिति चेन्न । बहुषु स्थलेषु तथा प्रयोगाभावेन तत्र शक्तिग्राहकाभावात् , अन्यथा पटपदालक्षणया कदाचित् घटबोधसंभवेन तस्यापि तत्र शक्तिकरूपना स्यादिति न किंचिदेतत् । • धातोापारवाचकत्वं व्यवस्थाप्याख्यातस्यापि तद्वाचकत्वं व्यवस्थापयतिएवं चेति । कृधातोापारशक्तत्वेन करोतीति विवरणादेयत्नत्वविशिष्टे आख्या. तपदशक्तिकल्पनाभावे चेत्यर्थः । अचेतनेऽपीति । काष्ठादावपीत्यर्थः । बाधकं विनेति । व्यापारे आख्यातस्य शक्तिकल्पने बाधकं विनेत्यर्थः । गौणत्वायोगादिति । व्यापारे आख्यातस्य लक्षणकल्पनाया अन्याय्यत्वादित्यर्थः । जनकव्यापारेति । शक्यतावच्छेदककोटी जनकत्वांशनिवेशस्तु पचतीत्यादिवाक्यजन्यबोधजनकत्वस्य प्रकारविधया भानानुभवाभिप्रायेण । तदर्थ इति । आख्यातपदार्थ इत्यर्थः । नन्वत्र गुरुजनकत्वमपेक्ष्य पूर्वकालवृत्तित्वमात्रं शक्यतावच्छेदककोटौ निवेशनीयं लाघवादित्यत आह-तण्डुलेति । तथा चोपदर्शितापत्तिवारणार्थ गुरुत्वेऽप्यनन्यगतिकतयाऽनन्यथासिद्धनियतपूर्ववृत्तित्वरूपजनकत्वस्यैवाख्यातपदजन्यतावच्छेदककोटौ निवेशनमुचितमिति भावः ।
तहीति ।आख्यातस्य यत्नत्वविशिष्टावाचकत्व इत्यर्थः । यत्नाविनाभूतेति। यत्नजन्यत्वव्याप्यो य: पाकादिक्रियाविशेषस्तेन हेतुना तत्कारणीभूतस्य यत्नस्यानुमानादित्यर्थः । अत्र पाकादिक्रियाहेतुत्वोत्कीर्तनं च तादात्म्यसंबन्धस्य व्याप्यताघटकत्वमभ्युपेत्य। तथा च पाको यत्नजन्य: पाकादित्यनुमानापाके यत्नजन्यत्वसिद्धिकाले तुल्यवित्तिवेद्यतया यत्ने पाकजन्यत्वसिद्धया पचतीत्यादौ पाकजनकयत्नानुमवनिर्वाह इति भावः । नन्वाख्यातस्य व्यापारवाचकत्वे पचतीत्युत्तरं पाकजनकयत्नवानिति विवरणासङ्गतिरित्यत आह-पचतीति । तात्पर्यविवरणमिति । तात्पर्यविषयीभूतार्थविवरणमित्यर्थः । न च यादृशवाक्यस्थपदाच्छ
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१३ ग्रन्थः]
व्याख्याषट्कयुतः।
क्तिलक्षणान्यतररूपवृत्त्या यादृशार्थबोधः स एव तस्य तात्पर्यविषयीभूतः । प्रकृते च पचतीत्यादिवाक्यघटकीभूतपदात् वृत्त्या यत्नाबोधे कथं तत्र तत्तात्पर्यविषयत्वमिति वाच्यम् । धूमोऽस्तीति वाक्यस्य तत्प्रयोज्यानुमितिविषयीभूतवह्नितात्पर्यकत्ववत्पचतीत्यादिवाक्यस्यापि स्वप्रयोज्यानुमितिविषयीभूतयत्नतात्पर्यकत्वसंभवात् । तात्पर्य चास्माच्छब्दादेतर्थबोधो भवत्वित्यादिवाक्येनाभिलप्यमानाएतच्छब्दप्रयोज्यत्वप्रकारिका एतदर्थबोधोत्पत्तीच्छा इति ।
ननु विवरणस्य परंपरया तात्पर्यविषयीभूतार्थपरत्वकल्पने सर्वत्र तस्यासंभवे शक्तिग्राहकत्वमनुपपन्नं स्यादत आह-अन्यथेति । अन्यलभ्यार्थस्यापि विवरणाच्छक्तिकल्पन इत्यर्थः । तथा च यत्रान्यलभ्यत्वं नास्ति तत्रैव विवरणस्य शक्तिग्राहकत्वमायातीति भावः ॥ ३ ॥
(जय०) आख्यातविवरणस्य हेतोः पक्षधर्मतां साधयति-कुनश्चेति । अत्र कृताकृतविभागेनेति कारिकांशं प्रमाणयतिक्रियेति । क्रिया धात्वर्थमात्रम् । प्रकृते चावयवसंयोगादिलक्षणा ग्राह्या । अङ्घरस्यापि ईश्वरयत्नजन्यत्वेन कृतत्वात् तत्प्रतिसंधानेन वस्तुगत्या कृतव्यवहारास्पदत्वाचाह-प्रतिसंधाना. दिति । तथा च वस्तुगत्या तादृशत्वेऽपि कृतिजन्यत्वप्रतिसंधानाभावकाले क्रियाजन्यत्वप्रतिसंधानात् कृतव्यवहाराभावान्न क्रियाया: कृअर्थत्वं (किंतु) कृतैरेवेति भावः । कृञः कृतोपि कर्तृशक्त्या कर्तृपदात्कृतिकर्तेति बोधः स्यादित्याशङ्का दृष्टान्तेन निरस्यन् विशेषदर्शिनं प्रत्युक्तव्यवहारस्याप्रमाणत्वात्कर्तृरूपव्यवस्थयेति तदंशं प्रमाणयति-ज्ञानेति । सविषयकधातूत्तरकर्तृकृवामाश्रये निरूढलक्षणाया ज्ञात्रादिस्थले कृप्तत्वात्कृजो यत्नार्थकत्वे एव यत्नाश्रयः कर्तृपदार्थों भवतीत्यर्थः । क्रियाया इत्यादि । क्रिया पाकच्छिदादि तदनुकूलव्यापारः पाकाद्यनुकूलव्यापारः । अत्र क्रियायाः कृअर्थत्वेऽभेदस्तदनुकूलव्यापारस्य तत्त्वे तु निरूपितत्वं पाकं करोतीत्यादौ द्वितीयार्थ इति बोध्यम् । प्रथमं दूषयतितदेति । क्रियाश्रय इत्यर्थस्तथा च तण्डुलः पाककर्तेति व्यवहारः स्यान्न चैत्रादिरिति भावः । द्वितीयं दूषयति-कारकमात्रमिति । कारकमात्रस्यैव क्रियानुकुलव्यापारवत्त्वादन्यथा कर्तृत्वव्याहतेरिति भावः । अङ्कुरः कृत इत्येतावन्मात्रस्येश्वरयत्नजन्यत्वेनाप्युपपत्तेरित्याह-बीजा दिनेति । तस्य कृञः । कर्तृपदे चेति । तव कारकपदे क्रियानुकूलव्यापार इवेति भावः। क्रियादीति, आदिपदादनुकूलव्यापारपरिग्रहः । अचेतने रथादौ गमनस्य तण्डुलकाष्ठस्थाल्यादौ च. पाकस्य कर्तृत्वव्यवहारो भवत्येव । तदुक्तं वैयाकरणैः-विवक्षावशात्कारकाणि
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
__ अथैवं यत्नस्य वर्तमानत्वं न प्रतीयेत तस्यापदार्थत्वात् । अन्यत्र धात्वर्थक्रियायां स्वार्थव्यापारे वा भवन्तीत्यभिप्रेत्य यदीत्युक्तम् । आख्यातस्य अनुकूलव्यापारार्थकत्वे प्रमाणमाहएवं चेति । कृलो यत्नाबोधकत्वेन यत्नत्वविशिष्टशक्तिसाधकहेतोरसिद्धत्वे चे. त्यर्थः । ननु तथाऽपि शक्तिसामान्यसाधकहेतोरेव विनिगमकाभावाद्यत्नत्वविशिष्टे शक्तिः सिध्यत्वित्यत्राह-अचेतनेऽपीति । तण्डुलादावित्यर्थः । रथो गच्छतीत्यादौ गत्यादिमत्त्वमात्रप्रतीतेरेवोक्तत्वात्तत्परित्यक्तम् । बाधकं विनेति । यत्नशक्तेरसिद्धावन्यलभ्यत्वादिति बाधकाभावादिति भावः । जनकव्यापारो जनकव्यापारत्वविशिष्ट: । व्यापारत्वं चात्र जन्यत्वादिमात्रमितरांशवैयर्थ्यात् । अत्र यत्नत्ववदात्मसंयोगादेापारस्य ईश्वरे सत्वादीश्वरः सृजति वेदं वक्तीत्यादेर्नानुपपंत्तिरिति बोध्यम् । जनकत्वांशेऽनन्ययासिद्धत्वांशफलमादर्शयति-तण्डुलेति । नातिप्रसङ्गः तण्डुलक्रयादिदशायां तमादाय न पचतीति प्रयोगप्रसङ्गः । अन्यथा तवापि तदनुकूलकृतिमादाय तत्प्रसङ्गादिति भावः । तर्हि आख्यातस्य यत्नत्वविशिष्टाबोधकत्वे। पाकेति । पाकजनकयत्नत्वेनानुभव इत्यर्थः । यत्नेति । पाकजनकेत्यादिः । पाकादिनेत्यादिपदात्पाकानुकूलव्यापारपरिग्रहः । अयं काल: पाकजनकयत्नवान् पाकादिमत्त्वादित्यनुमानं बोध्यम् । यत्तु पाको यत्नवान् पाकात् । जन्यत्वतादात्म्ये साध्यसाधनतावच्छेदके इति । तन्न । पाकप्रकारकयत्नप्रतीत्यसंपत्तेः । प्रसिद्धसाध्यके साध्यविशेष्यकानुमानस्यासंभवादिति बोध्यम् । नन्वेवमपि करोतिना विवरणान्मास्तु यत्नवाचकत्वम् । पाकयत्नवानिति विवरण तु स्यादित्यत्राह-पचतीति । पचतीति वाक्यं पाकयत्नवानिति वाक्यार्थतात्पयकमिति तात्पर्यविवरणान्न वाक्यार्थः । स चानुमानलभ्यार्थेऽपि तात्पर्यसंभवादविरुद्धो वहिपरे धूमोस्तीति वाक्य इवेत्यनुमानलभ्यत्वान्न तत्र शक्तिसिद्धिरिति भावः । अन्यथाऽन्यलभ्यस्यापि विषयस्य शक्यत्वे । धर्मिणोपीऽति । पचतीत्येतावन्मात्रस्य पाकयत्नवानिति विवरणात् यत्नाश्रयस्य कदाचिदनुमानल. भ्यस्य कदाचित्समभिव्याहतप्रथमान्तपदलभ्यस्याख्यातवाच्यतापत्तेरित्यर्थः ॥३॥
(मथु०) अथैवमिति । एवं प्रवृत्तित्वविशिष्टस्य आख्यातानुपस्थाप्यत्वे, वर्तमानत्वमाख्यातोपस्थापितं वर्तमानत्वं, यलस्य प्रवृत्तित्वविशिष्टस्य, अपदाथत्वात् पदानुपस्थितत्वात् “ शाब्दीयाकाङ्केति नियमादिति भावः। अर्थाध्याहारवादिमतमालम्म्य कदाचिदपदार्थेऽप्यन्वयो वक्तुं शक्यते इत्यतो व्युत्पत्तिबिरोधमप्याह-अन्यत्रेति।
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३९
लडादेर्वर्तमानत्वाद्यनुभावकत्वस्य व्युत्पन्नत्वाच्च । न च पाकजनकवर्त मानव्यापारेण पाकजनकवर्तमानयनानुमानं यत्नविगमेऽपि व्यापारा नुवृत्तेः । धर्मिविशेषनिष्ठता च यत्नस्य न प्रतीयेत तद्यधिकरणव्यापारस्यापि पाकजनकत्वात्, चैतन्या विनाभूतचैत्रत्वादिविशेषितेन तेन यत्नानुमानमिति चेन्न, सत्यं, चैत्रत्वाद्यप्रतीतावपि शोभनः पचतीत्यादौ शोभनादेः पाकजनकयत्नवत्त्वप्रतीतेरिति चेत् सत्यं तत्राख्यातस्य जनकयने लाक्षणिकत्वात् । मैवं, जेनकव्यापार मपेक्ष्य लाघवेन जनकयत्नस्यैव शक्यत्वात् । यत्नं विहाय जनकमात्रे शक्तिरस्तु लाघवात् तथाचाचेतनेऽपि प्रयोगो मुख्य एवेति चेत्, न, अपचत्यपि पाकजनकादृष्टवति पचतीति प्रयोगापत्तेः । पाकजनकाह - ष्टजनककृतेश्च न पाकजनकत्वं मानाभावात् । अतएव क्षित्यादेः कृत्यादिजन्यत्वे साध्ये तज्जनकादृष्टजनककृत्यादिनाअर्थान्तरप्रसङ्गोऽपिप्रत्युक्तः । भावे वा तादृशकृतिनिवारणायादृष्टाद्वारकत्वेनजन कतायास्त्वयापि वाच्यत्वात् । यत्नमात्रं शक्यं विषयित्वं जनकत्वं वा संबन्धमर्याद्या भासत इति तु नव्याः ॥ ४ ॥
१३ ग्रन्थः ]
व्याख्याषट्कयुतः ।
केचित्तु नन्वध्याहृतपदाद्यत्नोपस्थितौ वर्त्तमानत्वस्यान्वयो भविष्यतीत्यत आह-अन्यत्रेति । इत्याहुः ।
अन्यत्र चैत्रः पचतीत्यादेरन्यत्र क्रियायां स्पन्दे, एतच्च चलति - गच्छतीत्यादौ । इदमुपलक्षणं जानातीत्यादावपि धात्वर्थे वर्त्तमानत्वान्वयो बोध्यः । स्वाव्यापारे वेति । वाशब्दश्चार्थे, एतच्चाग्निः पचतीत्यादौ । लडादेरित्यादिपदाख्यातान्तरोपसंग्रहः, वर्त्तमानत्वादीत्यादिपदादतीतत्व- भविष्यत्त्वोपसंग्रहः । न च पचतीत्यादावपि धात्वर्थे वर्त्तमानत्वाद्यन्वये को दोष इति वाच्यम् । साक्षाद्विक्लित्तिजनकस्य स्पन्दस्य पाकत्वमते पाकभविष्यत्तादशायां तदनुकूलकर्त्तृव्यापा
१ अविनाभावम २ कर्तृज । ३ द्वारकत्वेन जनकतायारूढयापि वाच्यत्वादिति पाठः ।
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः रस्य विद्यमानतादशायामपि पचतीतिप्रयोगात् पक्ष्यतीत्यप्रयोगात् कर्तृव्यापारस्यातीतत्वदशायां तादृशपाकस्य वर्तमानत्वदशायां पचतीत्यप्रयोगादपचदित्यपि प्रयोगाच्च । नन्वेवमग्निना पच्यते चैत्रेण पच्यते इत्यादौ यत्र वर्तमानत्वाद्यन्वय तत्राख्यातेन व्यापार-कृत्योरबोधनात् , साक्षाद्विक्लित्तिजनकस्पन्दस्य पाकत्वमते पाकानुकूलव्यापारासत्त्वदशायां पाकसत्वेऽपि तादृशप्रयोगाभावेन कर्तृव्यापारसस्वदशायाँ पाकासत्त्वेऽपि तादृशप्रयोगसत्त्वेन च धात्वर्थे तदन्वयस्य वक्तुमशक्यत्वात् , न च तत्र सुबर्थव्यापारादावेव तदन्वय इति वाच्यं तथासत्युक्तव्युत्पत्तिभङ्गापत्तेः, तथा तृतीयाद्यन्तपदासमभिव्याहृत-पच्यतेतण्डुल-इत्यादौ वर्तमानत्वायनन्वयप्रसंगस्य दुर्वारत्वाच । न च तत्रानन्वितवमेव वर्तमानत्वादिकमिति वाच्यम् । पाकानुकूलकर्तृव्यापारस्यातीतत्वानागतत्वदशायामपि पच्यतेऽयं तण्डुल इत्यादिव्यवहारापत्तरिति चेत् । न । तत्र वर्तमानव्यापारजन्यत्वादिरूपपारिभाषिकवर्त्तमामत्वादेराख्यातार्थत्वात् तस्य च धात्वर्थेऽन्वयात् , धातोः पाकानुकूलव्यापारे लाक्षणिकतया धात्वर्थ एव वर्तमानत्वाद्यन्वयसंभवाञ्चेति भावः । __ नन्वेवं काल: पाकजनकवर्तमानयत्नवान् पाकजनकवर्तमानव्यापारवत्त्वादित्यनुमेयं, यदा पाकजनकयत्क्षणत्तिव्यापारस्तदा पाकजनकतत्क्षणत्तियत्न इति सामान्यमुखी च व्याप्तिरित्याशय निराकरोति-न चेति। यत्नविगमेऽपीति। तथाच संयोगात्मकपाकजनकव्यापारवत्यपि क्षणे पाकजनकयलाभावाव्यभिचार इति भावः । ननु संसारस्यानन्तत्वात् सर्वदेव पाकजनक्रयत्नसत्त्वात् स्थूलकालस्य वर्तमानत्वघटकत्वाद्वा न व्यभिचारः । यद्वा चष्टोत्पत्तिक्षणो वर्तमानत्वघटक: तद्विशिष्टव्यापारवत्वं च हेतु: विशेषमुखी च व्याप्तिरतो न व्यभिचार इत्यत आह-धर्मीति। चैत्रादिनिष्ठतेत्यर्थः, तथाच पाकजनकवर्तमानयलवान् चैत्र इति धीनस्यादिति भावः । ननु चैत्रः पाकजनकवतमानयत्नवान् पाकजनकवर्तमानव्यापारवत्त्वात् इत्याद्यनुमेयं, स्थूलकालो विशिष्य चेष्टोत्पत्तिक्षणो वा वर्तमानत्वघटकः तेन न व्यभिचार इत्यत आह-तयधिकरणेति । यलव्यधिकरणस्यापि स्थाल्यादिकाष्ठाग्न्यादिसंयोगस्येत्यर्थः, संसारस्यानन्तत्वात् तथाच व्यभिचार इति भावः । ननु चैत्रत्वे सतीत्यनेन हेतुर्विशेषणीय इत्याशङ्कते-चैतन्योत। अचेतनेऽपि चैत्रत्वादिसंकेतसत्त्वादुक्तं चैतन्याविनाभूतेति । चैत्रत्वादीति, चैत्रत्वं स्वरूपतो विशेषणं, तेन चैत्रत्वत्वेन चैत्रत्वस्य शब्दानुपस्थितत्वे न क्षतिः । तेन पाकजनकवर्तमानव्यापारेण यत्नानुमानम् । शोभनादेरिति । शोभनत्वस्य स्थाल्यादिसाधारणतया शोभनत्वे सति तादृशव्यापारवत्वं न यत्नानुमापकमिति भावः । इदमुपलक्षणं, चैत्रः पचतीत्यादौ शाब्दबोधात्मकतादृशप्रतीतेरानुभविकत्वाचेत्यपि मन्तव्यम् । तत्रेति । यत्र यत्नशाब्दबोधस्तत्रेत्यर्थः । जनकव्यापारत्वस्य शक्यतावच्छेदकत्वेऽपि क्वचिल्लक्षणाया आवश्यकत्वे लाघवं किमित्याशयेन जनक्रयत्ने शक्तिवाद्येव दूषयति-मैवमिति ।
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१३ ग्रन्थः ]
व्याख्याषट्कयुतः।
४१
जनकव्यापारः जनकव्यापारत्वं, जनकयत्नस्य जनकप्रत्तित्वस्य, शक्यत्वात् शक्यतावच्छेदकत्वात् , जनकत्वप्रवेशस्याविशिष्टत्वेऽपि प्रवृत्तित्वस्य जातितया तदपेक्ष्य धर्मरूपस्य व्यापारत्वस्य उपाधित्वाद्दुरुत्वमिति भावः । जनकयत्न. त्वस्य शक्यतावच्छेदकत्वेऽपि जनकत्वप्रवेशस्यावश्यकतया जनकत्वमेव शक्यतावच्छेदकमस्तु लाघवात् किं यत्नत्वप्रवेशेनेत्यभिप्रायेण शङ्करते-'यत्नं विहायेति । यत्नं यत्नत्वं, मात्र सामान्ये । तथाचेति जनकसामान्ये शक्तो चेत्यर्थः । अचेतनेऽपीति, व्यापारानुबन्धिविशेष्यता सप्तम्यर्थः, अचेतनमुख्यविशेष्यकेऽपीत्यर्थः। प्रयोगः पचतीत्यादिप्रयोगः, अग्निः पचतीत्यादिप्रयोगोऽपीति समुदि. तार्थः । अपचत्यपीति । पाकजनकादृष्टवति भोक्तरि । पचतीतिप्रयोगः स्यादिति । ननु यत्नशक्तिवादिनस्तवापि तददृष्टजनककृतिकाले तामादाय तत्र तत्प्रयोगो दुर्वारः जनकताविशेषनिवेशेनातिप्रसङ्गवारणं तु ममापि नाशक्यमित्यत आह-पाकजनकेति । अतएव । जनकादृष्टजनककृतेः स्वाजनकत्वादेव । कृत्यादिजन्यत्व इति, आदिपदादिच्छादिपरिग्रहः । साध्ये कार्यत्वेन हेतुना साध्ये तजनकेति शित्यादिजनकेत्यर्थः । अभ्युपेत्याह-भावे वेति । तादृशेति , पाकजनकादृष्टजनकेत्यर्थः । त्वयापि जनकसामान्ये शक्तिवादिना त्वयापि, अन्यथा तदा तादृशप्रयोगापत्तेस्तत्रापि दुरत्वाददृष्टमादायातिप्रसङ्गस्तु तव दुर्वारः, अदृष्टस्यादृष्टमद्वारीकृत्यैव पाकजनकत्वादिति भावः । ननु कार्यस्य समवायो जनकस्य विषयतेति संबन्धनियतफलोपधानात्मकजनकतानिवेशात् अदृष्टमादाय नातिप्रसङ्ग इत्यतो नव्यमतमाह-यत्नमात्रं शक्यमिति । प्रवृत्तित्वमात्रं शक्यतावच्छेदकमित्यर्थः । न च प्रवृत्तित्वस्यैव शक्यतावच्छेदकत्वे पच्यत इत्यादौ पाकजन्यफलशालित्वरूपपाकादिकर्मत्वप्रतीतिः कथं स्यादिति वाच्यम् । तत्रात्मनेपदस्य कर्मवे लाक्षणिकत्वात् , कर्मत्वं फलवत्त्वं, तच्च फलमेव, जन्यतासंबन्धेन पाकादेर्धात्वर्थस्य तत्रान्वयः, फलत्वं च कार्यत्वं, प्रतियोगितासंबन्धेन प्रागभावादिमत्त्वमिति यावदिति भावः । विषयित्वं जनकत्वं वेति तात्पर्याधीनो व्यवस्थितो विकल्पः संबन्धान्तरेणान्वयस्य निराकासत्वबोधकः, न तु पूर्वास्वरसे विकल्पः, तेन जनकत्वस्य विषयित्वमपेक्ष्य गुरुत्वेऽपि चरमनिर्देशो नानुपपन्नः । ___ अथैवमस्मदादीनां पाकानुष्ठानदशायां परमेश्वरः पचतीत्यपि प्रयोगापत्तिः, तत्कृतेः सर्वविषयकतया कार्यमात्रजनकतया चास्मदादिकर्तृकपाकस्यापि तद्विषयस्वात्तजन्यत्वाच्च । न च प्रत्तित्वस्य शक्यतावच्छेदकस्य तत्कृतावभावात् न तथा प्रयोग इति वाच्यम् । तत्रापि धर्मिग्राहकमानसिद्धत्वात् । न चाख्यातार्थयनकर्तृपदार्थयोरवच्छेदकतासंबन्धेनैवान्वयस्य साकाङ्क्षत्वात् न तथा प्रयोगः, आत्मा पचतीत्यपि प्रयोगो नेष्यते, अहं पचामि त्वं पचसीत्यादौ उच्चारयित्रादिशरीर. मेव चैत्रत्वादिना अस्मदादिपदशक्यं, परमेश्वरो वेदं वेत्तीत्यत्रापि परमेश्वरपदं शरीरपरं न तु परमात्मपरमिति वाच्यम् । तथापि तदानीं कृष्णः पचतीति
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वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
प्रयोगापतेर्दुर्वारत्वादिति चेत् न, साध्यताख्यविषयिताविशेषस्य चेष्टादिद्वारा फलोपधानाख्यजनकताविशेषस्य च संसर्गत्वनियमात् भगवत्कृतिश्च नास्मदादिकृतपाकस्य तादृशविषयितावती तादृशजनकतावती वा; अतएव पाकत्वेन पाकविषयिण्याः कृतेश्च पाकत्वविषयतानियमेऽपि पचेः पाकत्वे लक्षणायां पचतीति प्रयोगो न योग्यः, न वा उपादानतादिरूपपाकादिविशेष्यताकप्रवृत्तिसत्त्वेऽपि पचतीति प्रयोगो योग्यः, न वा क्रियान्तरगोचरप्रवृत्तिदशायां स्वरूपयोग्यतामादाय पचतीत्यादिप्रयोगः, नापि पाकजनकादृष्टजनककृतिमादाय पचतीत्यादिप्रयोगः । न च तथापि विषयिताया अपि संसर्गत्वे पाकायनुत्पत्तावपि पाकादिसाध्यकप्रवृत्तेर्वर्तमानत्वातीतत्वदशार्या पचत्यपचदित्यादिप्रयोगापत्तिर्दु
४२
वारा पचतीत्यादावाख्यातार्थवर्तमानत्वादेराख्यातार्थयत्नादावेवान्वयस्य निरूद्वित्वादिति वाच्यम् । विषयितासंबन्धमादाय तत्र तदानीं तादृशप्रयोगस्य इष्टत्वात्, फलोपधानात्मकजनकतासंसर्गस्य विषयत्व एव तत्र तदानीं तथा प्रयोगस्यायोग्यत्वाभ्युपगमात् । अतएव विषयितायाः संसर्गत्वे भ्रान्त्या वृष्ट्यादिसाध्यप्रवृत्तिमति पुरुषे वर्षतीति प्रयोगापत्तिर्भ्रमादुत्थानसाध्यकप्रवृत्तिमति निगनवदेहे उत्थानानुत्पत्तावपि उत्तिष्ठतीति प्रयोगापत्तिरित्यपि निरस्तम् । साध्यत्वाख्यविषयितासंसर्गमादाय तत्र तादृशप्रयोगस्येष्टत्वात्, फलोपधानात्मकचेष्टादिद्वारकजनकता विशेषसंसर्गविषयकत्व एव तादृशप्रयोगस्यायोग्यत्वाभ्युपगमादिति भावः ।
केचित्तु विषयित्वस्य संसर्गत्वे सर्वमेतदोषमभिसन्धायैव जनकत्वं वेत्यभिहितमित्याहुः ।
केचित्तु - साध्यत्वाख्यविषयिता द्विविधा स्वरूपयोग्यतात्मिका फलोपधानात्मिका च । तत्र फलोपधानात्मिकायाः साध्यत्वाख्यविषयिताया एव प्रकृते संसर्गत्वाभ्युपगमानोक्तातिप्रसङ्गः । अतएवं भोजनाद्यनुत्पत्तिस्थले भोजनादि - साध्यकप्रवृत्तिसत्वेऽपि भोजनं करोति भोजनं क्रियते इत्यादयो न व्यवहाराः फ लोपधानाख्यसाध्यत्वाख्यविषयिताया एव कृधातुप्रयोगे कर्मप्रत्ययार्थत्वात् । न च साध्यत्वाख्यविषयित्वादेः तादृशद्वैविध्ये मानाभावइति वाच्यम् । क्रियानुत्पतिदशायां तादृशप्रतीत्यभावस्य मानत्वादित्याहुः । तदसत् । क्वचित् स्वरूपयो ग्यतात्मक साध्यतावती प्रवृत्ति:, क्वचित् फलोपधानात्मकतद्वतीत्यत्र नियामकस्य दुर्वारत्वादिति दिक् ।
वस्तुतस्तु साध्यताख्यविषयता - फलोपहितजनकत्वोभयसंबन्धेनैव धात्वर्थस्य कृतावन्वयोऽभ्युपेयः, अन्यथा जनकतायाः संबन्धत्वकल्पे विषयतासम्बन्धकल्पोक्तपूर्वदोषोद्धारेऽपि नान्तरीयकमीनभोजनादौ मीनं भुङ्ग इत्यादिप्रयोगस्य दुर्वारत्वात्, दीधितिकारलिखनं तु वाकारस्य समुच्चयार्थतैवेत्युपपादनीयमिति 'विभावनीयम् ॥ ४ ॥
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१३ ग्रन्थः ] व्याख्याषट्कयुतः।
(राम) शङ्कते-अथैवमिति । एवं यत्नत्वविशिष्टस्याख्यातवाच्यत्वविरहे, यत्नस्य यत्नत्वविशिष्टस्य, तस्य यलत्वविशिष्टस्य, अपदार्थत्वात् पचती. त्यादावाख्यातानुपस्थाप्यत्वात् । तथाच शाब्दीह्याकांक्षेति न्यायेन तस्यापदार्थत्वे तत्र वर्तमानत्वेन शाब्दबोधविषयता न स्यादित्यर्थः । इदं च न्यायनये दूषणं, अर्थाध्याहारमते पदानुपस्थितस्य शाब्दविषयत्वं संभवतीति तन्मतेऽपि यत्ने वर्तमानत्वप्रतीत्यनुपपत्ति दर्शयति-अन्यत्रेति । स्वार्थव्यापारादन्यत्र धात्वर्थे जानातीत्यादौ । स्वार्थव्यापारे वेति, अग्निः पचतीत्यादौ पाकातुफूलव्यापारे । लडादेरित्यादिनाख्यातान्तरपरिग्रहः। वर्तमानत्वादीत्यादिपदेनातीतत्व-भविष्यत्वयोः परिग्रहः। तथाचाख्यातार्थवर्त्तमानत्वादेः प्रतिनियतान्वयव्युत्पत्तिविरोधा[उमाने? पत्ने]तदन्वयो भवन्मते (पि न)संभवतीति भावः। ननु चैत्रः पचतीत्यतश्चैत्रः पाकजनकवर्तमानव्यापारवानित्यन्वयबोधे जाते तत एव पक्षधर्मताज्ञानात् पाकजनकवर्तमानण्यापारत्वावच्छेदेन पाकजनकवर्तमानयलव्याप्तिप्रकारकस्मरणसहितात्
चैत्रःपाकजनकवर्तमानयलवानित्यनुमितिर्भविष्यति, तथाच चैत्रः पचतीत्यादौ चैत्रः पाकजनकर्वतमानयत्नवानिति प्रत्ययस्य नानुपपत्तिस्तादृशानुमितेरेव तादृशप्रत्ययवादित्याशय निराकुरुते-न चेति । निराकरणहेतुमाह-यत्नविगमेऽपीति । पाकजनकवर्तमानयलविरहेऽपीत्यर्थः, व्यापारानुत्तेः पाकजनकव्यापारस्य सचादित्यर्थः । एतावता पाकजनकवर्तमानव्यापारस्य पाकजनकवर्तमानयत्नस्य च कालिकी व्याप्ति निराकृता ।
ननु चैत्रः पचतीत्यादौ कृतिनिष्ठानुकूलताविशेषसंबन्धेन व्यापारत्वविशिष्टे धात्वर्थपाकान्वयो वाच्यस्तथाच तादृशानुकूलतासम्बन्धन पाकविशिष्टव्यापारः पाकजनकव्यापार एव यत्न एव, स च यत्नविगमे न तिष्ठत्येवेति कालिकव्याप्तो नोक्तव्यभिचार इत्यत आह-धर्मिविशेषेति । चैत्रः पचतीत्यादौ चैत्रादेः समवायेन पाकजनकवर्तमानयलवत्ता न प्रतीयेतेत्यर्थः । कालिकसंबन्धेन व्यापकताज्ञानात्कालिकसंबन्धेनव काले पाकजनकयत्नानुमितेरेवोत्पत्तेरिति भावः । ननु तादृशव्यापार प्रति ताशयत्नः समवायेन व्यापक इति व्यापकताज्ञानादेव धर्मिविशेषनिष्ठताप्रतीतिर्भवतीत्यत आह-ताधिकरणति । पचतीति वाक्यात् पाकजनकवर्तमानयत्नानधिकरणवृत्तेापारस्यापि पाकजनकत्वेन प्रतीतेरित्यर्थः । अत्रायं भावः-चैत्र:पचतीत्यादौ यत्ननिष्ठानुकूलताविशेषसंबन्धेन पाकस्य व्यापारेऽन्वयः, काष्ठं पचतीत्यादौ चानुकूलतासामान्येन संबन्धेन पाकस्य व्यापारेऽन्वय इति स्वाकारे व्युत्पत्ते दापच्या गौरवं स्यादित्युभयसाधारण्यायानुकूलतासामान्यसंसर्गेण व्यापारे पाकान्वयो वाच्यस्तथाचानुकूलतासामान्येन पाकविशिष्टव्यापारस्य चैत्रः पचतीत्यादौ प्रतीयमानस्य पाकजनकवर्तमानयले व्यभिचारितया न तेन तदनुमानं विशेषदर्शिनां स्यादिति ।
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वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
ननु चैत्रः पाकजनकवर्तमानयत्नवान् पाकजनकवर्तमानव्यापारवत्त्वादित्यनुमितिर्जायतामित्याशङ्कते -चैतन्येति । अविनाभूतं व्याप्यं यचैत्रत्वादि तद्विशेपिसेनेत्यर्थः । तेन - पाकानुकूलवर्त्तमानव्यापारेण । यत्नानुमानं पाकजनकवर्तमानयत्नानुमानम् । शोभनत्वं सुन्दरत्वं, शोभन इति काष्ठादिसाधारणं बोध्यम्, तथाच शोभनत्वे सति पाकजनकवर्त्तमानव्यापारवत्त्वं शोभनकाष्ठादौ पाकजनकवर्त्तमानयत्ने व्यभिचारीति तत्र तादृशानुमानानुपपत्तिरित्यर्थः । न च तत्रापि चैत्रत्वादिविशेषितेन तदनुमानं तत्र चैत्रत्वादेः शब्दादनुपस्थितेः प्रमाणान्तरेण च तदा नियमतस्तदनुपस्थितौ मानाभाव एव । तथाच शोभनः पचतीत्यादौ प्रमाणान्तरेण चैत्रत्वाद्यनुपस्थितिदशायां तदनुमानानुपपत्तिरिति भावः ।
अथैवमिति पूर्वपक्षी समाधानमाह - सत्यमिति । तत्र शोभनः पचतीत्यादौ । इत्थं च काष्ठं पचति अग्निः पचतीत्यादिबहुतरप्रयोगे मुख्यत्वसंपादनाय परमा- ख्यातस्य व्यापारे शक्तिः कल्प्यते, शोभनः पचतीत्यादिप्रयोगानां चाल्पत्वेन तत्र लक्षणाकल्पनैव युक्तेति पूर्वपक्षिहृदयम् । लाघवेनेति । जन्यत्वं धर्मत्वं वा व्यापारत्वमपेक्ष्य यत्नत्वस्य लघुत्वेनेत्यर्थः । ननु पततीत्यादौ पतनानुकूलगुरुत्ववदिति, स्पन्दत इत्यादौ च स्पन्दानुकूलवेगवदिति प्रतीयते इति गुरुत्वत्वं वेगत्वं चाख्यातशक्यतावच्छेदकं स्यात् यत्नतुल्यत्वादिति चेत्, तत्र तत्र तेन तेन रूपेण प्रतीते - रानुभविकत्वे इष्टापत्तेः। वस्तुतः पततीत्यादौ पतनाश्रयत्वादेरेव प्रतीतेरानुभविकत्वादिति भावः । जनकयत्नत्वे जनकत्वं प्रविष्टमिति तदेवाख्यातशक्यतावच्छेदकं स्याल्लाघवादित्याशङ्कते - यत्नं विहायेति । लाघवात् जनकयत्नत्वापेक्षया जनकत्वस्य लघुत्वात् । यत्नत्यागे बीजान्तरमप्याह- तथाचेति । जनकत्वमात्रस्याख्यातशक्यतावच्छेदकत्वे चेत्यर्थः, अचेतनेऽपि काष्ठं पचति अग्रिः पचतीत्यादावाख्याते प्रयोगो मुख्य एव भवतीत्यर्थः । ननु जनकयत्नस्य शक्यत्वेऽपि पाकजनकादृष्टजनककृतेरपि पाकजनकतया स एव दोपः स्यादित्यत आह-पाक : जनकेति । अतएव तजनकादृष्टजनककृतेस्तज्जनकत्वे मानाभावादेव । क्षित्यादेरिति । क्षितिः कृतिजन्या कार्यत्वात् घटवदित्यनुमानबलेनास्मदादिकृतिजन्यताबाधेन भगवत्कृतिजन्यता सिध्यतीति सिद्धान्तः स च तज्जनकादृष्टजनककृतेस्तज्जनकत्वे भग्नः स्यात्, बाधाभावेनादृष्टजनकास्मदादिकृतिजन्यतामादायार्थान्तरप्रसङ्गेन भगवत्कृते र सिद्धयापत्तेरिति दोषो निरस्त इत्यर्थः । अभ्युपेत्याह-भावे वेति । तज्जनकादृष्टजनककृतौ तज्जनकत्वस्य प्रामाणिकत्वे वेत्यर्थः । त्वयापीति । जनकात्रे आख्यातशक्तिवादिनापि । वाच्यत्वादिति । अन्यथा पाकजनकादृष्टजनकयत्नस्यापि पाकजनकत्वेन तमादाय अपचत्यपि पाकजनका - दृष्टजनकीभूतगङ्गास्नानादिगोचरयत्नवति पचतीति प्रयोगप्रसङ्गस्य तवापि दुर्वारत्वादिति भावः । वस्तुतः कार्यभूतपाकस्य समवायः कारणीभूतकृतेर्विषयतेत्येवंसामानाधिकरण्यप्रत्यासत्यवच्छिन्नजनकत्वस्य शक्यतावच्छेदकत्वेन नोक्तगङ्गाना
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१३ ग्रन्थः ]
नादिगोचरकृतिमादायातिप्रसङ्गस्तस्य पाकसमवायिस्थाल्यादिविषयकत्वाभावेन
व्याख्याषट्कयुतः ।
४५
निरुक्तसामानाधिकरण्यप्रत्यासत्त्यवच्छिन्नपाकजनकत्वासंभवादिति तत्वम् । नवदृष्टव्यावृत्तं विलक्षणजनकत्वमेवाख्यातशक्यतावच्छेदकं वाच्यमतो न पाकजनकादृष्टमादायोक्तातिप्रसङ्ग इत्यतो नव्यमते यत्ने शक्तौ युक्तिं दर्शयति यस्नमात्रमिति । यत्नत्वमात्रमाख्यातशक्यतावच्छेदकमित्यर्थः । मात्रपदेन जनकयत्नत्वस्य जनकत्वस्यचाख्यातशक्यतावच्छेदकत्वव्यवच्छेदः । तयोर्यत्नत्वजात्यपेक्षया गुरुत्वादिति भावः । धात्वर्थपाकादेर्यले केनसंबन्धेनान्वय इत्याकाङ्क्षायामाह - विषयित्वमिति । तथाच पचतीत्यादौ विषयितासंबन्धेन पाकविशिष्टयत्नवानित्यर्थः । नन्वेवं पचतीत्यादौ पचेः पाकत्वलक्षणायामपि पाकत्वविषयक यत्नवानित्यन्वयबोधापत्तिः । पाकविषयिण्यास्तत्तत्कृतेः पाकत्वविषयकत्वनियमात् । न च विशेष्यत्वाख्यमेव विषयित्वं संसर्गः तथापि निगडनिश्चलदेहस्या मवातजडीकृतकलेवरस्य चोत्थानविषयककृतिर्जायते उत्थानं तु न जायते निगडबन्धनामवातादिना दोषेण प्रतिबन्धादिति सिद्धान्तस्तथा च यदा निगमिश्रलदेहस्योत्थानविषयिणी कृतिस्तदा निगडनिश्चलदेह उत्तिष्ठतीति प्रयोगापत्तिः । एवमामवातजडीकृतकलेवरस्योत्थान विषयिकृतिदशायामामवातजडीकृतकलेवर उत्तिष्ठतीति प्रयोगः स्यात् । एवं ' वृष्टौ कृतिसाध्यत्वभ्रमे वृष्टिविषयिणी कृति - यते वृष्टिस्तु न जायते वृष्टिं प्रति वृष्टिविषयककृतेः स्वरूपायोग्यत्वात् इति मते चैत्रे दृष्टिविषयकृतिदशायां चैत्रोवर्षतीति प्रयोगापत्तिरित्यत आह- जनकत्वं वेति । फलोपहितजनकत्वमित्यर्थः तेन निगडनिश्चलदेद्दादावतिप्रसङ्गाभाव इति
भावः ॥ ४ ॥
( रघु० ) एवमिति । तत्रोपदर्शितानुमानेन पाकजनकयत्नानुभवनिर्वाहेऽपीत्यर्थः । यत्नस्येति । पाकजनकयत्नस्येत्यर्थः । नन्वनुमानादुपस्थिते तथाविघयत्ने आख्यातोपस्थापितवर्तमानत्वस्यौत्तरकालिकशाब्दबोधोऽभ्युपगम्यत इत्यत आह-तस्येति । अपदार्थत्वात् पदानुपस्थितत्वात् । तथा च पदानुपस्थितार्थस्य शाब्दबोधाविषयत्वनियमेन तथा कल्पनाया असंभवादितिभावः । ननु तत्र यत्नबोधकपदमध्याहृत्य तथाविधबोधोऽङ्गीकार्य इत्यत आह- -अन्यत्रेति । जानाति रथो गच्छति इत्यादावित्यर्थः । व्युत्पन्नत्वादिति । शाब्दबोधपदजन्यपदार्थोपस्थित्यो स्तादृशकार्यकारणभावस्य सिद्धत्वादित्यर्थः । तथा च जानातीत्यादावाश्रयत्वे वर्तमानत्वान्वयवारणार्थं विशेष्यतावच्छेदकतासंबन्धेनाश्र - यत्वोपस्थापकाख्यातपदनिरूपितवृत्तिज्ञानजन्यवर्तमानत्वप्रकार कशाब्दबोधं प्रति प्रकारतासंबन्धेन ज्ञादिधातुनिरूपित वृत्तिज्ञानजन्योपस्थितेर्हेतुत्वकल्पनेन, रथो गच्छतीत्यादौ धात्वर्थे वर्तमानत्वान्वयवारणार्थं विशेष्यतावच्छेदकतासंबन्धेन
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वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
व्यापारोपस्थापकाख्यातपदनिरूपितवृत्तिज्ञानजन्यवर्तमानत्वप्रकारकशाब्दबोधं प्रति आख्यातपदनिरूपितवृत्तिज्ञानजन्योपस्थितेः प्रकारतासंबन्धेन हेतुत्वकल्पनेन च तत्राध्याहृतपदार्थे यत्ने वर्तमानत्वान्वयबोधासंभव इति भावः । ननु व्यापारोपस्थापकाख्यातपदज्ञानजन्य वर्तमानत्वप्रकारकशाब्दबोधं प्रति यत्नपदजन्योपस्थितेरपि विशेष्यतासंबन्धेनातिरिक्तहेतुता कल्पनान्नानुपपत्तिरिति, चेत्तादृशातिरिक्तकार्यकारणभावकल्पनापेक्षया आख्यातस्य यत्नत्वविशिष्टे शक्तिकल्पनाया एव लघीयस्त्वात् ।
४६
नन्वयं कालः पाकजनकवर्तमानयत्नवान्पाकजनकवर्तमानव्यापारवत्त्वादित्यनुमानात् पचतीत्यादौ पाकजनकवर्तमानयत्नानुभवनिर्वाह इत्याशङ्कय निराकरोतिन चेति । यत्नविगमेऽपीति । तथा च व्यभिचारात् व्याप्तिग्रहासंभवेन तथाविधानुमितिर्न संभवतीति भावः । ननु तथाविधवर्तमानयत्नविशिष्टकालिक विशेषणतासंबन्धेन तादृशव्यापारस्य हेतुत्वमङ्गीकार्यम् ततो नोक्तानुपपत्तिरत आहधर्मिविशेषेति । चैत्रादिव्यक्तिवृत्तिता चेत्यर्थः । ननु चैत्रस्तथाविधवर्तमानयनवान् तथाविधवर्तमानव्यापारवत्त्वादित्यनुमानेन चैत्रे वर्तमानयत्नानुभवनिर्वा हो भविष्यतीत्यत आह - तद्वयधिकरणेति । तथाविधयत्नव्यधिकरणकाष्ठादिव्यापारस्यापीत्यर्थः । चैतन्याविनाभूतेति । चैतन्यव्याप्येत्यर्थः । इदं तु स्वरूपकथनपरं न तु हेतुतावच्छेदककोटौ निविष्टं, तस्य तत्र निवेशे प्रयोजनाभावादिति । शोभनादेरित्यादि । न च सौन्दर्यापरपर्यायशोभनत्व विशिष्ट1 तथाविधव्यापारस्यैव तत्र तथाविधवर्तमानयत्नानुमापकत्वमुपेयमिति वाच्यम् । काष्ठादेरपि सौन्दर्यसंभवेन तथाविधविशिष्टहेतुसंभवे व्यभिचारस्य दुर्वारत्वात् । यत्तु तथाविधयत्नविशिष्टसमवायादेर्हेतुतावच्छेदक संबन्धत्वाभ्युपगमान्न व्यभिचारावकाश इति तदसत् । तस्य संबन्धतायां प्रमाणाभावात् पचतीत्यादौ सर्वत्र तत्संबन्धघटितव्याप्तिग्रहसत्वे प्रमाणाभावाच्च ।
तन्त्राख्यातस्येति । पचतीत्यादावाख्यातस्य जनकयत्ने लक्षणाया अङ्गीकार्यत्वादित्यर्थः । लाघवेनेति । अनन्यथासिद्धनियतोत्तरवर्तित्वरूपजन्यत्वात्मकस्य व्यापारत्वस्य आख्यातपदशक्यतावच्छेदकत्वकल्पने गौरवात् तदपेक्ष्य कार्यसामान्यजनकतावच्छेदकत्वेन सिद्धाया यत्नत्वजातेरेव तच्छक्यतावच्छेदककोटिप्रवेशनस्योचितत्वमिति भावः । ननु सर्वमिदं संभवति जन्यत्वत्यो क्तरूपत्वे तदेव न तस्यातिरिक्तत्वाङ्गीकारात् । तथा चातिरिक्तजन्यत्वात्मकव्यापारत्वस्य आख्यातपदशक्यतावच्छेदककोटिप्रविष्टत्वे न किंचिद्बाधकमुत्पश्यामः ।
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१३ ग्रन्थः]
व्याख्याषट्कयुतः।
४७
साधकं च रथो गच्छतीत्यादौ लक्षणाया अकल्पनमिति चेत्सत्यम् । व्यापारत्वस्याख्यातपदशक्यतावच्छेदककोटिप्रविष्टत्वे अनन्तसंयोगविभागादिरूपजन्यसामान्ये आख्यातपदशक्यत्वकल्पने गौरवात् तदपेक्ष्य यत्नमात्रे तच्छक्तिकल्पने लाघवस्यातिस्फुटत्वात् । यत्नस्यापि व्यापारतया तत्र तच्छक्तिकल्पनस्याप्यावश्यकत्वात् ।
केचित्तु आख्यातस्य समवायमात्रे शक्तिः समवायत्वं शक्यतावच्छेदकं तच्चातिरिक्त, मुख्यप्रयोगश्च रयो गच्छतीत्यादौ पचतीत्यादौ जनकयत्ने लक्षणेत्याहुः । तदपि न सम्यक् । अनन्तश:समवाये तच्छक्तिकल्पने गौरवात् । न च समवायस्यैकतया न गौरवावकाशो लाघवं चानन्तशक्तिकल्पानापेक्षया स्फुटमेवेति वाच्यम् । एकस्मिन्समवाये आख्यातशक्तिकल्पने केवलचैत्रस्य घटज्ञानवतादशायां चैत्रो घटं जानातीति वन्मैत्रो घटं जानातीति प्रयोगापत्तेः। भवन्मते आत्मत्वादिसमवायापेक्षया. ज्ञानादिसमवायस्य वैलक्षण्याभावेन आत्मत्वादिसमवायवति क्षेत्रात्मनि ज्ञानाभावदशायामपि ज्ञानसमवायसत्वात्। यदि चाख्यातपदार्थसमवायान्वये तत्तदात्मनिरूपितत्वविशिष्टस्वरूपस्य संबन्धत्वमङ्गीकृत्योक्तबाधकोद्धार: संभाव्यते तथापि अतिरिक्तसमवायत्वमाख्यातपदशक्यतावच्छेदकमुत विशेष्यतासंबधेन तन्मात्रविशेष्यकज्ञानादिकमित्यत्र विभिगमनाचिरहेण गौरवं दुरुद्धरमेव । यत्नशक्तिवादिमते तु यत्नत्वस्य जातितया तदितरस्य यत्नसाधारणस्य गौरवेण शक्यतावच्छेदकत्वस्यासंभवदुक्तिकतया लाघवस्य ब्रह्मणोऽपि अशक्यवारणीयत्वमेवेति सुधीभिरन्यत्स्वयमूह्यम् ।
शंकते- यत्नं विहायेति । लाघवादिति । अनकयत्नशक्तिवादिनापि जनकाशे शक्तिकल्पनस्यावश्यकतया जनकशक्तिवादिमते एतदतिरिक्तशक्त्यकल्पनेन लाघवसंभवादित्यर्थः । तथा चेति जनकमात्रे शक्तिकल्पने चेत्पर्यः । अचेतनेत्यादि । रथो गच्छतीत्यादौ गमनजनकनोदनाख्यसंयोगादे रथादौ सत्वेनाख्यातस्य शक्त्यैव तथाप्रयोगसंभवेन तत्राश्रयत्वादी लक्षणाकल्पनापि नास्तीति भावः । अपचत्यपीति । न च साधारणजनके शक्तिरुररीकरणीया अदृष्टस्य साधारणकारणतया तद्वति पाकशून्यपुरुषे पचतीति प्रयोगापत्तिरिति वाच्यम् । गौरवात् । ननु पाकजनकादृष्टजनककृतेरपि पाकजनकतया यागादिगोचरकृतिकालेऽपि पचतीति प्रयोगापत्तिरिति शंका वारयति-पाकजनकादृष्टजनकेति । मानाभावादिति । तस्याः पाकादिजनकादृष्टाजनकत्वेन पाकप्रयोजकतयान्यथासिद्धत्वेन. बाधादिनानुमानादिप्रमाणस्यानवतारादित्यर्थः । अत
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४८
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
एवेति । तजनकादृष्टजनककृतेस्तजनकत्वे प्रमाणाभावादेवेत्यर्थः । क्षित्यादेरित्यादि । क्षितिः सकर्तृका कार्यत्वादितीश्वरानुमाने इत्यर्थः । तजनकेति, क्षित्यादिजनकेत्यर्थः । अर्थान्तरप्रसङ्गोऽपीति, इदमापाततः तत्र सकर्तृकत्वस्य अहष्टाद्वारककृतिजन्यत्वार्थकतयानुपपत्त्यभावादिति ।
ननु कृतीष्टसाधनताया विध्यर्थत्ववादिसौन्दडमते तजनकादृष्टजनककृतेरपि तजनकत्वस्य वेदबोधितत्वेन दुरपह्नवत्वात्कथमतिप्रसङ्गोद्धार इत्यत आह-- भावे वेति । तजनकादृष्टजनककृतेस्तजनकत्वे प्रमाणसद्भावे वेत्यर्थः । तादृशकृतिवारणायेति, तादृशकृतिकाले तथाविधप्रयोगवारणायेत्यर्थः । त्वयापीति । जनकमात्रे शक्तिवादिनापि इत्यर्थः । ननु जनकयत्ने आख्यातस्य शक्तिकल्पने शक्यतावच्छेदकगौरवात्तदपेक्ष्य केवलयत्नत्वविशिष्टे शक्तिकल्पनस्योचितत्वात्तथैवाह-यत्नमात्रमिति । यत्नत्वविशिष्टमात्रमित्यर्थः । न चाख्यातस्य यत्नत्वविशिष्टमात्रवाचकत्वे आख्यातपदयत्नपदयोः पर्यायतापत्तिः तच्छक्यतावच्छेदकावछिन्नशक्तत्वस्य तत्पर्यायतापदार्थत्वादिति वाच्यम् । इष्टत्वात् । ननु विषयत्वस्य धात्वर्थसंसर्गताभ्युपगमे पाकानुपधायकपाकगोचरयत्नवति पुरुषे पचतीति प्रयोगापत्तिरित्यत आह-जनकत्वं वेति । फलोपधायकत्वं वेत्यर्थः । फलोपधायकत्वंच तत्तद्वयक्तित्वावच्छिन्नजनकत्वमतिरिक्तं वेत्यन्यदेतदिति भावः ॥ ४ ॥
(जय० ) एवं यत्नस्यानुमानिकत्वे । तस्य यत्नस्य यत्नत्वेनापदार्थत्वात् । अर्थाध्याहारवादिमतालम्बनेनापदार्थेऽप्यध्याहृतयत्ने पदार्थसंभावितमन्वयं व्युत्पत्तिविरोधेन प्रत्याचष्टे-अन्यत्रेति । चैत्रः पचतीत्यादेरन्यत्र जानातीत्यादौ, धात्वर्थक्रियायां काष्ठं पचतीत्यादौ, स्वार्थव्यापारे आख्यातसामान्यस्य वर्तमानत्वातीतत्वाद्यनुभावकत्वस्य क्लृप्तत्वात् । तदुभयभिन्नेऽध्याहृतयत्नेऽर्थाध्याहारवादिमतेऽपि नात्वया । आश्रयत्वादिबोधकाख्यातजन्ये वर्तमानत्वादिप्रकारकशाब्दबोधे धातुजन्योपस्थितेापारबोधकाख्यावजन्ये । तत्राख्यातजन्यव्यापारोपस्थिते: समानविशेष्यत्वप्रत्यासत्त्या कारणत्वकल्पनरूपव्युत्पत्तिविरोधापत्तेरिति भावः । यत्नविममेऽपीति । वह्निसंयोगाद्यात्मकव्यापारवति काले पाकानुकूलयत्नाभापायभिचार इत्यर्थः । ननु पाकक्रियाफलोपधानावच्छिन्नव्यापारेण तदनुकूलो यत्नोऽनुमेयः । किंच नास्त्येव व्यभिचारोऽन्तत ईश्वरयत्नसत्त्वादत आहधर्मीति । ननु चैत्रः पाकजनकयत्नवान् पाकजनकव्यापारजनकत्वादित्यनुमानेन सा प्रतीयेतेत्यत्राह—तव्यधिकरणस्येति । यत्नव्यधिकरणस्य वह्निसंयोगादेः सत्वात्तद्वति वयादौ दैशिकव्याप्तेर्व्यभिचार इति भावः । अचेतनेऽपि
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१३ ग्रन्थः]
व्याख्याषद्कयुतः ।
४९
चैत्रादिसंकेतसत्त्वादत आह---चैतन्याविनेति । वस्तुत आदिपदव्यवस्थाकथनमेतत् । तेन, पाकजनकव्यापारेण । शोभन इति । अत्र शब्दाच्छोभनत्वं प्रतीयते तद्विशिष्टे पाकजनकव्यापारवत्त्वं च । शोभनत्वं वह्नयादावपीति व्यभिचारस्तदवस्थ एव । चैत्रत्वादिप्रतीतिस्त्वेतादृशवाक्यप्रयोगकाले न शब्दात् प्रमाणान्तरकृतनियमेति भावः । ।
ननु व्यभिचारिहेतुनाऽपि व्यभिचाराग्रहदशायामन्ततो व्यभिचारस्थानान्यत्वविशेषितेन वा तेन तदनुमाय वर्तमानपाकेन कारणतयाक्षिप्तवर्तमानयत्नस्यान्ततो मानसोऽपि चैत्रादौ विशिष्टबोध: स्यादिति चेन्न । व्याप्त्यादिप्रतिसंधानं विनाऽपि तादृशयत्नानुभवात् अन्यथा वैशेषिका एव विजयेरन् । मनसा च तन्निर्णयः सर्वत्र न संभवति संदेहसामग्रीसत्त्वात् । किं च तदंशे शाब्दत्वानुभवो नोभयथाऽपीति दिक् ।
तत्र शोभनं पचतीत्यादौ, यत्नानुभावकप्रमाणान्तराभावशालिनि । अथानुकुलव्यापारे शक्तावपि लक्षणया यत्नयतीतिर्वांच्या । तथा च लाघवाद्यत्न एव शक्तिरस्तु । काष्ठं पचतीत्यादौ व्यापारप्रतीतिर्लक्षणयेत्यभिप्रेत्य समाधत्तेमैवमिति । लाघवेनेति । व्यापारत्वस्य प्रकृते जन्यत्वाद्यात्मकस्यापि यत्नत्वापेक्षया गुरुत्वमिति भावः । पतति स्पन्दते इत्यादौ च पतनस्पन्दनानुकूलगुरुत्ववेगयोर्न तत्वेन प्रतीतिः किं तु व्यापारत्वेनेति गुरुत्ववेगत्वयोर्जातित्वेन लाघवमकिंचित्करम् । भवतु वा कदाचित्ताभ्यामपि प्रतीतेर्विनिगमकाभावात्तयोरप्याख्यातशक्यतावच्छेदकत्वम् । अन्यथा यत्नत्वमपि तथा न स्यान्नियमतस्तेनापि रूपेणाप्रतीतेस्तथाऽपि न व्यापारत्वस्य तथात्वमित्यत्र तात्पर्य बोध्यम् । ___ शङ्कते-~-यत्नमिति । यत्नत्वमित्यर्थः । जनकयत्नत्वे प्रविष्टस्य जनकत्वस्यैव शक्यतावच्छेदकत्वादिति भावः । अनुगुणान्तरमाह-तथा चेति । अचेतनेऽपीति । तण्डुलादावपि पाकजनकवह्निसंयोगादिसत्त्वादिति मावः। ननु यत्नशक्तावप्यदृष्टद्वाराऽदृष्टजनककृतेः पाकजनकत्वात्तदापत्तिस्तुल्येत्यत्राहपाकजनकादृष्टजनकेति। अत एव, स्वजनकादृष्टजनककृतेः स्वजनकत्वाभावादेव अर्थान्तरमुद्देश्यासिद्धिः । तत्र ह्यनन्तादृष्टजनककृतेः क्षितिजनकत्वक ल्पनापेक्षया क्षितिजनकत्वेनैककृतिकल्पनैव लघीयसीति लाघवादेककृतिसिद्धी तदाश्रयेश्वरकल्पनं फलमुखत्वान्न दोषायेतीश्वरसिद्धिः । स्वजनकादृष्टजनककृते: स्वजनकत्वे तु तृप्तेन तत्कृतिजन्यत्वेनैव साध्यसिद्धौ नेश्वरसिद्धिः स्यादिति भावः ।
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः क-कर्मणी लकारवाच्ये, चैत्रः पचति पच्यते तण्डुल इति सामानाधिकरण्यानुरोधात् अन्यथा पचतीत्यत्रापि कर्त्तरि तृतीया पच्यत इत्यत्र क. मणि द्वितीया स्यात् तयोरनभिहिताधिकारीयत्वात्
ननु तत्रादृष्टद्वारककृतिजन्यत्वस्य यत्र समवायेन कार्य तत्र विषयता कृतिरित्येवं प्रत्यासत्तिनियतजन्यत्वस्याद्यघटादिदृष्टतुल्यसाध्यत्वात्तत्सिद्धिः स्यात् अत आह-भावे वेति । त्वयापीति । तवाऽपि अदृष्टाद्वारकत्वेन तजनककृतिवारणं समानमिति तदपेक्षया यत्नत्वनिवेश एव लघीयानिति भावः । ननु निरूपितत्वविशेषसंसर्गेण पाकादेर्धात्वर्थस्याख्यातार्थे प्रयोजकत्वे प्रयोजके चान्वयान्नातिप्रसङ्गः । अन्यथा परंपरया कृतावपि कचित्प्रयोगः कचिन्नेत्यत्र तवाप्यसंगतेरित्यतः स्वमतमाह-यत्नमात्रमिति । । ननु पचधातोः पाकत्वे लक्षणायामपि पचतीतिव्यवहारः प्रमाणं स्यात् पाकत्वविशिष्टविषयकयत्नस्य पाकत्वविषयकस्वनियमात् , विशेष्यतैव संसर्ग इति चेत्तथाऽपि वृष्टयाद्यर्थ यतमानस्य वृष्टिविशेष्यककृत्युत्पादेऽपि स्वरूपायोग्यतया ततो वृष्टयनुत्पादे वर्षतीति, निगडनिश्चलदेहे च उत्थानानुत्पत्तावपि तद्विषयककृतिमादायोत्तिष्ठतीति व्यवहारः स्यान्न स्याच्चान्यविशे यककृत्या शर्कराभोजने तां भुङ्क्ते इत्यत आह-जनकत्वमिति । जनकत्वं च प्रागुक्तयुक्त्या प्रयोजकत्वाविशेषरूपं बोध्यम् । वृष्टयादिप्रयोजकत्वं नास्मदादिकृतेरिति नातिप्रसङ्गः। विशेष्यितायाश्च विशेष्यतावच्छेदकैक्येनैक्यान्न विशेष्यितासंसर्गत्वेनापि तत्पक्षे अतिप्रसङ्गभङ्ग इति भावः ॥ ४ ॥
(मथु०) वैयाकरणमतमुत्थापयति-कर्तृ-कर्मणी इति । लकारः आख्यातम् इति सामानाधिकरण्यानुरोधादिति, इति अत्र, चैत्र-तण्डुलादिपदाख्यातपदयोरेक धमिबोधकत्वानुरोधादित्यर्थः, विभिन्न प्रतिनिमित्तकयोरेकर्मिबोधकत्वलक्षणस्य शाब्दसामानाधिकरण्यस्यात्र सामानाधिकरण्यपदार्थत्वात् ।
ननु चैत्र-तण्डुलपाख्यातपदयोरेकथर्मिबोधकत्वमेवासिद्ध तथाच लाघवात् प्रवृत्तित्वमाख्यास्तय शक्यतावच्छेदकमित्यत आह-अन्यथेति । तयोरेकधम्यबोधकत्वे इत्यर्थः।
केचितु इति सामानाधिकरण्याउरोधादित्यत्र चैत्र-तण्डुलपदार्थाख्यातार्थयोरभेदसंसर्गकान्वयानुरोधात् । नन्विदमेवाप्रसिद्ध तथाच लाधवात् प्रवृत्तित्वमेवाख्यातस्य शक्यतावच्छेदकमित्यस्वरसात्साधकान्तरमाह-अन्यथेति । कर्तृ-कर्मणोरनभिधाने इत्याहुः।
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१३ ग्रन्थः] व्याख्याषट्कयुतः । कृत्यभिधानस्याविशिष्टत्वात् । कर्तृ-कर्मसङ्ख्याभिधानानभिधानाभ्यां नियमः-न चैवं चैत्रेण दृष्टो घट इत्यादौ विनापि तिडं सङ्ख्याप्रतीतेः क्लप्तशक्तेः सुप एवं सङ्ख्योपस्थितिसंभवे तिङो न तदभिधायकत्वमिति वाच्यम् । चैत्रो मैत्रश्च गच्छत इत्यादी विनापि तादृशमुपं द्वित्वादिप्रत्ययात् लाघवादेकवचनत्वादिनैव एकत्वादी शक्तत्वाच्च-इत्यपि नास्ति, कृता सङ्ख्यानभिधानात् । किंच एकत्वादिसंख्याभिधाने न नियमः पदार्थतावच्छेदकावच्छिन्नस्याकाङ्कादिवशात् कर्तृकर्मसाधारण्येनान्वयबोधस्य दुर्वारत्वात् । ककत्वत्वादिनाभिधानेऽपि कर्नादेरप्यभिधेयत्वं, शक्तौ शक्ततावच्छेदकशक्यतावच्छेदकयोश्च गौरवमधिकम् । तस्मादाख्यातत्वेन कर्तरि, आत्मनेपदत्वेन च कर्मणि एकवचनत्वादिना तत्तदूपेण वा एकत्वादी शक्तिः; एकपदोपात्तत्वाच संख्याया वाच्यगामित्वम्। कर्तृ-कर्मबोधकत्वं च एकदाऽव्युत्पन्नम् , अतएव मैत्रः पच्यते तण्डुल इत्यादयो न प्रयोगाः । कर्तरि य कोऽसाधुत्वाच्च पच्यते चैत्र इत्यादयोऽपि कर्तरि नेति वैयाकरणाः ॥५॥ तयोः तृतीया-द्वितीययोः । अनभिहिताधिकारीयत्वादिति कर्तृ-कर्मणोरनभिदान शिवाढशिष्टत्वादित्यर्थः । ननु द्वितीयातृतीयानुशासनस्याख्यातेन कृत्यनभिधाने कर्मणि द्वितीयेत्येवार्थ-इत्यतआह-कृत्यभिधानस्योति । अविशिष्टत्वादिति भवन्मते कर्तृकर्माख्यातसाधारणत्वादित्यर्थः । तथाच तण्डुलं पचतीत्यत्रापि द्वितीया चैत्रेण पच्यते इत्यत्रापि तृतीया न स्यादित्यर्थः । एतच कर्माख्यातस्यापि कृतिबोधकत्वमिति प्राचीनमतानुसारेण, तन्मते अन्वयबोधप्रात: रश्चाग्रे व्युत्पादनीयः।।
वस्तुतस्तु कृत्यनभिधानाभिधानस्य तृतीया-द्वितीयानियामकत्वे चैत्रो घर्ट जानातीत्यादावपि कर्तरि तृतीयापत्तेः, कर्मणि द्वितीयानापत्तेः । न चाख्यातेन मुख्य-भाक्तसाधारणकर्मत्वाभिधानानभिधानाभ्यामेव तृतीया-द्वितीयालियम
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५२ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः इति वाच्यम् । चैत्रेण भूयते इत्यादी भावाख्यातस्थले कर्तरि तृतीयानुपपत्तेरिति ध्येयम् ।
नियमान्तरमाशङ्कय निराकरोति कर्तृकर्मसंख्येत्यादिना । इत्यपि ना. स्तीत्यन्तेनान्वयः । कर्तृगतसङ्घयायाः प्रत्ययेनाभिधाने कर्तरि प्रथमा, तेन तदन. भिधाने तृयीया, एवं प्रत्ययेन कर्मगतसंख्याया अभिधाने कर्मणिप्रथमा तदन. भिधाने तत्र द्वितीया इति नियम इत्यर्थः। अन्तरा शडूते-जचेति । सुप एव प्रथमाविभक्तित एव, संख्योपस्थितिसंभव इति चैत्र: पचति तण्डुलः पच्यते इत्यादौ संख्योपस्थितिसंभव इत्यर्थः । न तदभिधायकत्वं न संख्याभिधायकत्वम् । तथाच तृतीयाद्वितीयापत्तिस्तदवस्थेति भावः। यद्यपि घट एता. वतैव संख्यायां सुपः क्लप्तशक्तिकत्वमुपदर्शितं भवति किं चैत्रेण दृष्ट इत्यनेन, तथापि कृता संख्यानभिधानादिति वक्ष्यमाणदृषणेऽस्य विशिष्टोपदर्शनस्य फलं भविष्यति । । केचित्तु क्रियारहितं वाक्यमेव नास्तीतिमते घटइत्यत्र क्रियापदाध्याहार. स्यावश्यकत्वे अस्तीत्यादि तिङन्तमेवाध्याहर्तव्यम् । तथाच विनिगमनाविरह इति कदाचित् यादतस्तदुपेश्य सक्रियमेव वाक्यमुदाहृतम् । न च तथापि चैत्राभ्यां पच्यते, तण्डुलान् पचतीत्यादि विहाय कृदन्तपर्यन्तानुधावनं विफलमिति वाच्यम् । प्रथमायाः संख्याशक्तिसिद्धेरैव प्रकृतोपयोगित्वात् प्रथमेतरसुब्विभक्तेः संख्याशक्तिसिद्ध्या तिङः संख्याशक्तिनिराकरणाशक्यत्वादित्याहुः ।
इत्यादाविति । आदिपदात् चैत्रो मैत्री विष्णुमित्रश्च गच्छन्तीत्यस्य परिग्रहः। तादृशेति द्वित्वादिबोधकेत्यर्थः द्वित्वादिपदाद्बहुत्वपरिग्रहः । नचात्र सुपैव द्वित्वादिबोधसंभवः, सुब्विभक्तौ न लक्षणेति प्रवादस्य यद्विभक्त्यर्थे यद्विभक्तेर्व्यत्यया. नुशासनं तद्विभत्त्यर्थातिरिक्त विभक्त्यन्तरशक्ये तद्विभक्तर्न लक्षणेत्येव विषयत्वादिति वाच्यम् । सुपो द्वित्वादिषु लक्षणानुसंधानं विनापि द्वित्वादिप्रत्ययादिति
केचित्तु चैत्रादिपदोत्तरसुपो द्वित्वादिलक्षणायां चैत्रपर्याप्तमैत्रपदोत्तरसुपो द्विस्वादिलक्षणायां मैत्रपर्याप्तेर्द्वित्वादेरेव प्रतीत्या चैत्र-मैत्रोभयपर्याप्तद्वित्वाधला. मात् चैत्र-मैत्रोभयमिति प्रतीतिर्न स्यात् स्याच चैत्रद्वयं मैत्रद्वयमित्येव प्रतीतिः सुविभक्तेः प्रकृत्यर्थगतमात्रसंख्याबोधकत्वनियमात् । न चैवं चैत्र-मैत्रपदोत्तर(सवर्थ) संख्या कथं चैत्रादावन्वेतीति वाच्यम् । द्वन्द्वसमासायतिरिक्तस्थल । एव तथा नियमादित्याहुः।
यत्तु चैत्रो मैत्रश्च गच्छत इत्यादौ लक्षणयैवाख्यात द्वित्वादिप्रत्ययसंभवात् किन्तस्य तत्र शक्तिकल्पनेन । न चात्र वा द्वित्वादावाख्यातस्य लक्षणा दृष्टौ घटौ दृष्टा घटा इत्यत्र प्रथमाया वा द्वित्वादिषु लक्षणेत्यत्र विनिगमनाभावात् उभयोरेव शक्तिसिद्धिरिति वाच्यम् । संख्यातिरिक्तस्य प्रथमाविभक्तेः शक्यस्या
भावः।
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१३ ग्रन्थः]
व्याख्याषट्कयुतः ।
५३
प्रसिध्या तत्र प्रथमाविभक्तेः संख्यायां लक्षणाया वक्तुमशक्यत्वात् शक्यसंबन्धस्यैव लक्षणात्वादिति । तन्न । प्रथमाविभक्तेः संख्यायां लक्षणाया वक्तुमशक्यत्वेऽपि शक्तिभ्रमस्य सुवचतया विनिगमनांविरहस्य दुरित्वादिति ।
नन्वतावता आख्यातद्विवचनादेवित्वादी शक्तिरायातु तदेकवचनस्य एकत्वे शक्तौ तु किमानं, तथाच तत्रैव तृतीया-द्वितीयानियमार्थ कादिराख्यातपवाच्यः स्यादित्यत आह-लाघवादिति । सित्वादिना एकत्वादिषु शक्तिकल्पने शक्ततावच्छेदकबाहुल्यापच्या लाघवादेकवचनत्वादिनैव प्रथमैकवचनादेरेकत्वादिषु शक्तिः, तथाचायातमाख्यातैकवचनादेरप्येकत्वादिपु शत्तयेत्यर्थः । अत एव 'बेकयोद्विवचनैकवचने' इत्यनुशासनम् । यद्यप्येकवचनत्वं नैकत्वशक्तत्वमात्माश्रयार, नाप्येकत्वबोधकत्वं पदमात्रस्यैव लक्षणादिना एकत्वबोधत्वात् ; तथापि सङ्केतविशेषसंबन्धेनैकवचनपदवत्त्वमेकवचनत्वादि, 'तान्येकवचन-द्विवचन बहुवचनान्येकशः' इत्यनुशासनेन तिङ्मुबेकवचनादिपदस्य सङ्केतितत्वात् । न चैवं तेन रूपेण ज्ञानं विना सित्वादिना ज्ञानादेकत्वादिप्रत्ययो न स्यादिति वाच्यम् । विना शक्तिभ्रममिष्टत्वादिति भावः । - अत्र नव्याः-सित्वादिना प्रातिस्विकरूपेण सुब्बिभक्तेरेकत्वादिषु शक्तावपि तिवादिना तिड्विभक्तेरेकत्वादिषु शक्तिरावश्यकी चैत्रः पचतीत्यादावगृहीतसु
संख्याशक्तिकानां कदाचित्तिबादेरेकत्वादिनिष्ठत्तिज्ञानादेकत्वादिबोधो भवत्यविवादम् । तथाच तिबादेः प्रवृत्तित्वं शक्यतावच्छेदकमेकत्वत्वादिकं वेत्यत्र विनिगमकाभावादुभयोरेव तच्छक्यतावच्छेदकत्वसिद्धेः । एकत्वत्वादेः शक्यतावच्छेदकत्वेऽपि प्रत्तित्वप्रकारेण बोधस्य लक्षगादिना सुवचत्वात, प्रटत्तित्वप्रकारकतिबादिजन्यबोधस्येव एकत्वादिप्रकारकतजन्यबोधस्यापि स्वारसिकत्वस्य प्रामाणिकसिद्धत्वात् । अन्यथा बोषस्य स्वारसिकत्वमादाय विवादे पवादिपदस्यापि प्रत्येकमादाय विनिगमनाविरहेण लाघवात हरिणत्वादेरशक्यतावच्छेदकतापत्तेः नानार्थीच्छेदापत्तेश्च । एवं च प्रथमैकवचन-द्विवचन बहुवचनानां वा एकत्व-द्वित्व-बहुत्वेषु शक्तिः, तिडेकवचन-द्विवचन बहुवचनानां वा इत्यत्र विनिगमकाभावादेकत्वादिषु शक्तिसिद्धिः, चैत्रः पचतीत्यादौ अगृहीतसुसंख्याशक्तिकानां कदाचित्तिबादेरेकत्वादिनिष्ठत्तिज्ञानादप्येकत्वादिबोधस्य , सर्वसिद्धत्वात् । न च तदत्तिज्ञानं लक्षणाज्ञानरूपं शक्तिभ्रमरूपं वेति वाच्यम् । तद्वत्तिज्ञानं लक्षणाज्ञानादिरूपं प्रथमैकवचनदावेकत्वादिषु वृत्तिज्ञानं वा शक्तिभ्रमरूपमित्यत्र विनिगमकाभावात् प्रत्येकमादाय विनिगमकाभावेन तिडेकवचनादेईहुल्यस्याकिंचित्करत्वादिति वदन्ति ।
केचित्तु केवलात् पचति-पचत इत्यादितः तिङः कर्तरि लक्षणादिना वा वैयाकरणमते तिङः शक्त्या वा एकः पाककतेंत्यादिबुद्धेरनुभवसिद्धत्वादाख्या
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
तस्यैकत्वादौ शक्तिसिद्धिः । नच तत्रैकत्वादिविशिष्टकर्त्तयैव लक्षणा शक्तिभ्रमोवेति वाच्यम् । केवलकर्तरि लक्षणादिनापि तादृशवोधस्यानुभवसिद्धत्वादित्याहुः ।
केचित्तु वारि तिष्ठति स्वस्तिष्ठति इत्यादौ विनापि लुप्तसुपः प्रतिसंधानं एकत्वादिप्रतीतेरेकत्वादिषु तिङः शक्तिसिद्धिरित्याहुः। ___ कृतेति । तथाच चैत्रेण दृष्टो घट इत्यादावपि कर्मणि द्वितीया स्यान्न प्रथमा, चैत्रः पक्तत्यादावपि कर्तरि तृतीया स्यान्न प्रथमेति भावः । तस्मात् प्रत्ययेन सं. ख्याभिधानानभिधानं न प्रथमातृतीयानियामकं, किन्तु प्रत्ययेन कर्तृ-कर्मणोरभिधानानभिधानमेव तनियामकमिति वैयाकरणनिगमः। नन्वाख्यातस्थल एव तथा वक्तव्यं, कृत्स्थले तु कर्तृकर्मणोरभिधानानभिधानाभ्यामेव नियम इत्यत आहकिश्चेति । संख्याभिधाने इति, आख्यातजन्यसंख्याप्रकारकबोधे-इत्यर्थः न नियम इति, कृतिशक्तिवादिनां विशेष्यतानियमो नास्तीत्यर्थः क्वचित्कतैव तद्विशेष्यः क्वचित्कर्मत्यत्र नियामकस्य दुर्वचत्वादिति भावः। एतदेवाह-पदाथेति । आख्यातोपस्थापितस्यैकत्वत्वाचवच्छिन्नस्वेत्यर्थः । कर्त-कर्मेति । तथाचोभयत्रैव संख्यान्वयात् देवदत्त: पचति तण्डुलमित्यत्र कर्मणि प्रथमा देवदत्तेन पच्यते तण्डुल इत्यत्र कर्तरि प्रथमा स्यादिति भावः । ननु कटेकत्वत्वादिना शक्यत्वाद् योग्यतैव नियामिका इत्यत आह-ककत्वत्वादिनेति । अभिधेयत्वं, विशेषणविधया शक्यत्वम् । यदि च कृतिविशिष्टैकत्वं कर्बकत्वं तदा संसर्गविधया शक्यत्वम् । ननु मुख्यविशेप्यविधयैव मया शक्यत्वं नाभ्युपे. यते इत्यत आह-शक्ताविति। ककत्वाद्योः संबन्धो मम वाक्यार्थः तव च तत्रापि शक्तिविषयत्वम् । किञ्च मम एकवचनत्वादिना सुप-तिसाधारणं संख्यायां शक्तित्रयं, तव आख्यातैकवचनत्वादिना ककत्वादिषु शक्तित्रयं, आत्मनेपदैकवचनत्वादिना कमैकत्वादिषु शक्तित्रयं, सवेकवचनत्वादिना एकत्वा. दिषु शक्तित्रयमिति नव शक्तय इत्यर्थः । शक्ततेति । ममैकवचनत्वादिना शक्तत्वं, तव चाख्यातैकवचनत्वादिना कर्तरि विहितैकवचनत्वादिना वा शक्तत्वम् इति शक्ततावच्छेदकगौरवमित्यर्थः । तत्तद्रूपेणैव शक्तत्वस्याग्रे वक्ष्यमाणत्वात् शक्ततावच्छेदकशरीरमुभयमत समानमित्यत आह-शक्यतेति । ममैकत्वत्वादिना शक्यत्वं, तव कत्रकत्वत्वादिना शक्यत्वमिति शक्यतावच्छेदकगौरवमित्यर्थः। इदमुपलक्षणं कठेकत्वत्वादिना शक्यत्वे च योग्यताश्रमात् कर्त-कर्मसाधारण्येनान्वयस्य दुर्वारत्वमित्यपि बोध्यम् ।
नव्यास्तु नन्वाख्यातस्य एकत्वत्वादिना पृथगेकत्वादौ न शक्तिः किंतु आख्यातैकवचनस्य ककत्वेन ककस्मिन् शक्तिः, आख्यातद्विवचनस्य कर्तद्वयत्वेन कर्तृद्वये शक्तिः, आख्यातबहुवचनस्य कर्तृबहुत्वेन कर्तृबहुषु शक्तिः । आत्मनेपदैकवचनस्य कर्मैकत्वेन कमैकस्मिन् शक्तिः, आत्मनेपदद्विवचनस्य कर्मद्वयत्वेन
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१३ ग्रन्थः]
व्याख्याषट्कयुतः ।
कर्मद्वये शक्तिः, आत्मनेपदवहुवचनस्य कर्मबहुत्वेन कर्मबहुषु शक्तिः । तथाच कर्तृकर्मशक्तिवादिनां वैयाकरणानां कर्तृ-कर्मगोरभेदसंसर्गेणान्वयनियामकस्यैव अस्माकमपि ककादीनां तादात्म्यसंबन्धेनान्वये नियामकत्वान्नातिप्रसङ्गस्तदवस्थ इत्यत आह-कर्बकत्वादिनेति । कāकत्वत्वादिनेति पाठस्तु प्रामादिकः। अभिधानेऽपि, आख्यातस्य शक्तावपि । अभिधेयत्वं शक्तिविशेष्यत्वम् । नन्वत्र इष्टापत्तिः किंतु केवलकर्तृत्वादेः शक्यतावच्छेदकत्व एव विवाद इत्यत आहशक्ताविति । व्याख्यानं च पूर्वोक्तमिति प्राहुः ।
वैयाकरणः स्वमतनिष्कर्षमाह-तस्मादिति । आख्यातत्वेनेति पचते इत्या दावात्मनेपदेनापि कर्तृवोधनादिति भावः । आत्मनेपदत्वेनेति, परस्मैपदत्वेन कदाचिदपि कर्माबोधनादिति भावः । एकवचनत्वादिनेति । आदिना द्विवचनत्व-बहुवचनत्वपरिग्रहः । एकवचनत्वादिरूपेणाज्ञानदशायां तिप्स्वादिप्रकारकज्ञानाद्विना शक्तिधममेकत्वादिबोधो यद्यनुभवसिद्धस्तदा त्वाह-तत्तदूपेणवेति । एवमाख्यातत्वादेः शक्ततावच्छेदकत्वाभिधानमप्यापाततः वस्तुतस्तु प्रागुक्तयुक्त्या तिप्वादिकमेत बोध्यम् । ननु भवतामपि संख्यान्वयनियमः कथमित्यत आह-एकति । चस्त्वर्थे, एकेनैवाख्यातपदेनोपस्थापितत्वाच्च इत्यर्थः । वाच्यगामित्वमिति संख्या-कालायतिरिकाख्यातबोध्यान्वयित्वमित्यर्थः । तथाच विशेष्यतावच्छेदकतासंबन्धेन आख्यातजन्यसंख्याप्रकारकशाब्दबोधोत्पत्ति प्रति कालत्वैकत्वत्वापत्तिप्रकारतासंबन्धेनाख्यातजन्योपस्थितेः कारणतया नान्यत्र तदन्वयः । चैत्रः पचतीत्यादौ एकचैत्रः एकपाकक-भिन्न-इत्यायेवान्वयबोधः। अत एव सुपेकवचन-तिडेकवचनद्योरुभयोरेव सार्थकतेति भावः । .
केचित्तु कर्तृत्वावच्छिन्नविशेष्यतासंबन्धेनाख्यातपदजन्यसंख्याप्रकारकशाब्दबोधोत्पत्तिं प्रति आख्यातपदजन्यकर्तृत्वप्रकारकोपस्थितिः कर्मत्वावच्छिन्नविशेप्यतासंबन्धेनाख्यातपदजन्यसंख्याप्रकारकशाब्दबोधोत्पत्तिं प्रति आख्यातपदजन्यकर्मत्वोपस्थितिर्विशेष्यतासंबन्धेन कारणं, तदुभयातिरिक्तविशेष्यतासंसाधे. नाख्यातजन्यसंख्याप्रकारकशाब्दबोधोत्पत्तेरलीकतया यावद्विशेषकारणवाधादेव संख्याकालादौ न संख्याया अन्वय-इत्याहुः ।।
ननु पक्ष्यत इति प्रयोगस्य कर्तृ-कर्मोभयसाधारणतया चैत्रः पक्ष्यते तण्डुल इत्यादौ चैत्र: पाककर्ता तण्डुलः पाककर्मेति बोधो जायतामात्मनेपदस्य कर्तृकर्मोभयवाचकवादित्यत आह-कर्तकर्मेति । बोधकत्वं स्मारकत्वम् । अछ. त्पन्नम् , एकाख्यातपदविषयकज्ञानस्यासिद्धम् । पदज्ञानस्य उदोषकविषयव पदार्थस्मारकतया फलबलेन तत्तज्ज्ञानव्यक्तिभिन्नाख्यातपदज्ञानस्वैव कर्तृकर्मोद्बोधकत्वात् , अन्यथा न्यायनयेऽपि तत्र कर्तृत्व-कर्मत्वबोधस्य दुर्वारत्वादिति भावः । चैत्रः पक्ष्यते तण्डुल इस्यत्रापि पक्ष्यतेपदस्यानुसत्या कर्तृ
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वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
कर्मस्मरणादुक्तमेकदेति । चैत्रः पश्यते तण्डुलं मैत्रेण पश्यते तण्डुलः इत्यत्र समूहालम्बनाख्यातपदद्वयज्ञानस्यैकदैव कर्मकर्तृ स्मारकत्वादेकेत्याख्यातपदविशेषणं, मैत्रेण पक्ष्यते ओदनः चैत्रस्तेमनं इत्यादिष्वप्याटत्यैव कर्तृ- कर्मत्रीयः । यद्वा बोधकत्वमनुभावकत्वमव्युत्पन्नमकाख्यातपदविषयकै कज्ञानजन्यकर्तृकर्मोपस्थितेरसिद्धं, पदज्ञानजन्यकर्तृ-कर्मोपस्थितेः शाब्दबुद्धिकारणतायां तत्तदुपस्थितिव्य्तिभिन्नत्वविशिष्टजन्यत्वस्य संसर्गत्वादिति भावः । न प्रयोगा इति । न विना आवृत्ति, चैत्रः पाककर्ता तण्डुलः पाककर्मेति बोधजनका इत्यर्थः । एतच्चापा ततः सति तात्पर्यज्ञाने आवृत्तिं विनापि तादृशबोधस्येष्टत्वादिति ध्येयम् । ननु तथापि चैत्रः पच्यत इत्यत्र चैत्रः पाककर्तेति बोधो दुर्वारः आत्मनेपदस्य कर्तर्यपि शक्तत्वादित्यत आह- कर्त्तरीति । असाधुत्वात्, अनाकाङ्क्षितत्वात् । यगायसमभिव्याहृतानुपूर्व्या एव तत्राकाङ्क्षात्वादन्यथा न्यायनयेऽपि तत्र कर्तृत्वबोधस्य दुर्वारत्वादिति भावः । चस्त्वर्थः, इत्यादयोऽपि न प्रयोगाः, इति संबध्यते, न कर्तृबोधका इति तदर्थः । इदमुपलक्षणं, कर्मणि शपोऽसाधुत्वात् तण्डुल: पचते इत्यादयोऽपि न कर्मवोधका इत्यपि मन्तव्यम् ॥ ५ ॥
( राम० ) वैयाकरणमतमाह- कर्तृकर्मणी इति । । लकारः आख्यातं, arraveratri लत्वेन परिभाषितत्वादित्यर्थः । कर्तृत्वं कर्मत्वं च समवायेन विषयतया वा कृतिरेव शक्यतावच्छेदिकेति, पचतीत्यादौ समवायेन कृतिप्रकारेण, पच्यते इत्यादौ च विषयतया कृतिप्रकारेण तत्तदर्थबोधस्यानुभविकत्वादित्यर्थः । इति इत्यत्र सामानाधिकरण्येति चैत्रपदाख्यातपदयोभित्र रूपाभ्यां चैत्रत्व - कृतिभ्यामेकस्य चैत्रस्य धर्मिणो बोधकत्वमेव शाब्द समानाधिकरण्यं, चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादौ च तण्डुलपदाख्यातपदयोभित्ररूपाभ्यां तण्डुलत्व - विषयतासंबन्धेन कृतिभ्यामेकस्य तण्डुलधर्मिणो बोधकत्वं शाब्दसामानाधिकरण्यमनुभवसिद्धं तदनुरोधाच्चाख्यात सामान्यस्य समवायेन कृतिः शक्यतावच्छेदिका आत्मनेपदस्य च विषयतासम्बन्धेन कृतिः शक्यतावच्छेदिकेति समुदायार्थः । यद्वा सामानाधिकरण्यानुरोधादित्यस्य चैत्रादिपदार्थे तादात्म्यसंबन्धेनाख्याता
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प्रकारको स्यानुरोधादित्यर्थः । अन्यथेति आख्यातस्य कर्त्तरि कर्मणि च शक्त्यनङ्गीकारे इत्यर्थः । तयोः तृतीया - द्वितीययोः अनभिहिताधिकारीयसूत्राभ्यां • साधुत्वेन प्रतिपादनादित्यर्थः । आख्यातेन कर्तुरनभिधाने समभिव्याहतप्रातिपदि तृतीया, एवं आख्यातेन कर्मणोऽनभिधाने समभिव्याहृतप्रातिपदिके द्वितीया इति तृतीया - द्वितीयादिविधायकसूत्रस्यार्थस्तथा च कृतिः कर्मत्वं वा यथाख्या
शक्यं न तु कर्त्ता कर्म वा तदा तृतीया - द्वितीयाविधायकसूत्रबलेन चैत्रः पचतीत्यादौ तृतीया चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादौ द्वितीया स्यादेवं च चैत्रेण तण्डुलं पचति चैत्रेण पच्यते तण्डुलमित्यादिप्रयोगस्यापि साधुत्वापत्तिर्नचेष्टापत्तिस्तथा सति यज्ञादौ तादृशप्रयोगेऽप्यसाधुशब्दप्रयोगकृतदोष विरहप्रसङ्गादित्यर्थः । अत्र
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१३ ग्रन्थः] व्याख्याषट्कयुतः। हेतुमाह-कृत्यभिधानेति । कृत्यभिधानेत्यनन्तरं मात्रपदाध्याहारेण कर्माख्यातस्थले कर्माख्यातस्थले च कर्तुः कर्मणश्चानभिधानेऽस्य भवन्मते तुल्यत्वादित्यर्थः करणीयः । यद्वा ननु कृतेरन भिधाने तृतीया कृतेरभिधाने द्वितीयेत्यनभिहिताधिकारीयसूत्रार्थो वाच्यः इति नोक्त दोष इत्यत आह-कृत्यभिधानस्येति । अविशिष्टत्वादिति चैत्रः पचतीत्यादाविव चैत्रेण पच्यते इत्यत्रापि कृत्यभिधानस्याविशिष्टत्वादित्यर्थः । तथाच चैत्रेण पच्यते इत्यत्रापि तृतीया न स्यादित्यर्थः । ननु कर्तगतसङ्ख्यायाः प्रत्ययेनानभिधाने तृतीया एवं कर्मगतसंवयायाः प्रत्ययेनानभिधाने द्वितीयेत्यनभिहिताधिकारीयसूत्रार्थोवाच्य इति नोतातिप्रसङ्ग इत्याशङ्कय निराकुरुते-कर्तृ-कर्मेत्यादि । अत्र च कर्तृकर्मेत्यायः इत्यपिनास्तीत्यन्त एको ग्रन्थः । नन्वाख्यातस्य सङ्ख्यावाचकवे उक्तनियमः संभवति तत्र च प्रमाणं नास्तीत्याशङ्कय निराकुरुते-न चेति । यद्यपि चैत्रेण दृष्ट इत्यस्योपदर्शनं निरर्थकं घट इत्यत्रैव सुपः क्लप्तसंख्याशक्तिकत्वात् तथापि कृत्समभिव्याहारस्थले सुपः सङ्ख्याबोधकत्वे प्रदर्शिते कृतः संख्याशको मानाभाव इत्युक्तं भवति । तथाच कृता संख्यानभिधानादिति वक्ष्यमाणदूषणस्य स्फुटता भवतीत्यभिप्रायेण तदुपदर्शनमिति ध्येयम् । संख्याप्रतीतेरिति । एकोघटश्चैत्रतिदर्शनविषय इत्यन्वयबोधे एकत्वसंख्यादिप्रतीतेरित्यर्थः । इदं च क्लसशक्तरित्यत्र शक्तिकल्पने हेतुः । सुप एवेति । प्रथमाविभक्तेरेवेत्यर्थः। सन्योपस्थितिसंभवे इति, चैत्रोगच्छति ग्रामोगम्यत इत्यादौ एकत्वादिप्रतीतिसंभव इत्यर्थः, न संख्याभिधायकत्वमाख्यातस्य न संख्याबोधकत्वम् । चैत्रो मैत्रश्चेति । इत्यादावित्यादिपदेन चैत्रोमैत्रोदेवदत्तश्च गच्छन्तीत्यादिसंग्रहः तादृशसुपमिति, द्वित्वादिबोधकसुपमित्यर्थः । तथाच अत्र द्वित्वादिसंख्यावाचकपोऽभावादकामेनाप्याख्यातस्य संख्यावाचकत्वमङ्गीकार्यमिति भावः ।न चोक्तप्रयोगे लक्षणयैव एकवचनात् द्वित्वादिसंख्याबोधसंभवे किमनुरोधेनाख्यातस्य संख्यावाचकत्वमङ्गीकार्यमिति वाच्यम् , लक्षणाबीजाद्यप्रतिसंधानदशायामपि उक्तवाक्यात् द्वित्वादिसङ्खयान्वयबोधस्य सर्वानुभवसिद्धत्वात् । अन्यथा अन्यत्रापि शक्त्युच्छेदप्रसङ्गात् । ननु उक्तवाक्यप्रामाण्यानुरोधादाख्यातद्विवचनादत्विादिसंख्यावाचकत्वस्य सिद्धत्वेऽपि आख्यातैकवचनस्य संख्यावाचकत्वं न सिद्धयतीत्यत आह-लाघवादिति । सित्वायनन्तधर्मेषु शक्ततावच्छेदकत्वकल्पनापेक्षया आख्यातैकवचनसाधारणैकवचनत्वस्य शक्ततावच्छेदकत्वे लाघवादित्यर्थः, एकवचनत्वं च लक्षणाणहाजन्यैकत्वसंख्यावोधजनकतावच्छदेकानुपूर्वीमत्वमिति नान्योन्याश्रयादिकमिति । संप्रदायविदस्तु चैत्रोगच्छतीत्यादौ सुबेकवचनस्य शक्तिप्रतिसंधानं विनापि संख्यान्वयबोधस्य सर्वजनानुभवसिद्धत्वेन सुबे. कवचनस्येव आख्यातैकवचनस्यापि संख्यावाचकत्वं निर्विवादमिति वदन्ति । कृतेति । तथाच कमर्वाचिकृत्प्रत्ययघटितवाक्ये कर्मपदस्य द्वितीयान्तता कर्तृ
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः वाचिकृत्प्रत्ययघटितवाक्ये कर्तृपदस्य तृतीयान्तता स्यादिति भावः । ननु आख्यातघटितवाक्य एव तादृशनियमः कृत्प्रत्ययघटितवाक्यस्थले तु नियमान्तरमेवेत्यतआह-किश्चेति । एकत्वादिसंख्याभिधान इति, आख्यातजन्य एकत्वादिसंख्याप्रकारकान्वयबोध इत्यर्थः न नियमः, कृतिशक्तिवादिनां मते न विशेष्यत्वनियमः, तथाच कुत्रचित्कर्तुः कुत्रचित्कर्मणश्च तद्विशेष्यत्वे विनिगमकस्य वक्तुमशक्यत्वादिति भावः। एतदेव स्पष्टयति-पदार्थतावच्छेदकावच्छिन्नस्येति । आख्यातोपस्थापितस्यैकत्वत्वाधवच्छिन्नस्येत्यर्थः । आकाङ्गादिवशात्, आकासादिसाचिव्यात् । कर्तृ-कर्मेति, तथाचोभयत्रैव संख्यान्वयात चैत्रः तण्डुलं पचति इत्यत्र कर्मपदं प्रथमान्तं स्यात् स्याच चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यत्र कर्तपदं प्रथमान्तमिति भावः । कत्रैकत्वत्वादिनेति । यद्यपि देवदत्तेऽप्याख्यातार्थसङ्ख्यान्वयापत्त्या चैत्रेण देवदत्तोऽयं गच्छतीत्यादिप्रयोगापत्तिरेव, तथापि स्वप्रकृत्यर्थक्रियाकर्वेकत्वत्वादिना शक्तिकल्पने तात्पर्यम् । नचैवं स्वत्वाननुगमस्यापि सत्त्वेन तदनभिधाने न्यूनता, प्राचां मते यत्र-तत्त्वादिवत् स्वत्वस्याप्यनुगतत्वेन तन्मतमाश्रित्यैतदभिधानात् । क देरपीति । आदिपदेन कर्मपरिग्रहः विशिष्टस्य शक्यत्वे विशेषणांशेऽपि शक्तिरावश्यकीति भावः । अभिधेयत्वं शक्यत्वं, तथाच दृश्चिकभिया पलायमानस्येत्यादिन्यायावतार इति भावः । इदमुपलक्षणमयमश्वस्तमश्वं गच्छतीत्यादावुभयकर्मजसंयोगस्थले स्वप्रकृत्यर्थक्रियाकर्तृत्वस्य कर्तृ-कर्मताधारणतयाख्यातस्य निष्ठत्वांशे स्वप्रकृत्यर्थत्वांशे च शक्तिसंबन्धक. ल्पने गौरवम् । एवं कत्रेकवचनाख्यातत्वादिकं शक्ततावच्छेदकमिति शक्ततावच्छेदंकगोरवम् । एवं शक्यतावच्छेदकगौरवं च स्फुटमेव, ककत्वत्वादेः शक्यतावच्छेदकत्वादिति । तथाच कāकत्वत्वादिना शक्तिकल्पने कर्तरि कर्मणि च विशेपणतया शक्तिः स्वीकृतैव भवता; अधिकं च तव शक्त्यादिगौरवमिति समु. दायार्थः। .
वैयाकरणः स्वमतमुपसंहरति-तस्मादिति । एकवचनत्वस्याखण्डस्यानभ्युपगमे त्वाह-तत्तद्रूपेणेति । सित्वादिनैव तित्वादिना वेत्यर्थः । आख्यातत्वं. च दशलकारसाधारणं लत्वमन्यत्रेति प्रागेवोक्तं तत्रैवामुसंधेयम् । नन्वेवं कर्तकमसाधारण्येन सङ्घयान्वयस्य दुरित्वादिति दोषस्यापरीहार एवेत्यतआहएकेति । एकेनाख्यातपदेन कर्तृ-सङ्ख्ययोरभिधानात् कृति-वर्तमानत्ववत् कर्तृसंख्ययोरेव परस्परमन्वयः आसत्तेरुत्कटत्वादिति संप्रदायः । .. नव्यास्तु कर्नाख्यातजन्यसंख्याप्रकारकशाब्दत्वावच्छिन्नं प्रति आख्यातजन्यकर्बुपस्थितित्वेन हेतुत्वं लाघवात् । अन्यथा तादृशशाब्दत्वावच्छिन्नं प्रति चैत्रादिपदजन्योपस्थितीनामनन्तानां परामर्शानुमितिवत् कार्य-कारणभावकल्पने महागौरवप्रसङ्गादित्यत्र तात्पर्यमित्याहुः ।
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१३ ग्रन्थः] व्याख्याषट्कयुतः ___ नन्वाख्यातसामान्यस्य कर्तृशक्ततया आत्मनेपदस्यापि कर्तृबोधकत्वं कर्मबोधकत्वं च तस्य प्रसिद्ध तथाचैकदा कर्तृ-कर्मतात्पर्ये चैत्र: पक्ष्यते तण्डुलं इत्यादिप्रयोगापत्तिरित्यत आह-कर्तृकर्मेति । अव्युत्पन्नमिति, एकदा तदुभयबोधाय कार्य-कारणभावाकल्पनादिति भावः । न चैकस्याख्यातस्यैकदा कर्तृ-कर्मबोधकत्वाभावे मैत्रेण तण्डुलः पक्ष्यते चैत्रस्तु तेमनं इत्यादावेकस्मादाख्यातात् तण्डुले चैत्रकर्तृकपाककर्मत्वस्य मैत्रे तेमनकर्तृत्वस्य च समूहालम्बनशाब्दबोधो न स्यादिति वाच्यम् । आख्यातान्तराध्याहारस्थल एवेशसमूहालम्बनशादबोधाङ्गीकारात् । यत्र च नाध्याहारस्तत्रैकस्मादेवाख्यातादात्त्या क्रमेणैव कर्तृत्वस्य कर्मत्वस्य च शाब्दबोधो न समूहालम्बनम् । नचात्तिस्वीकारे एकस्याख्यातस्य एकदा कर्तृकर्मबोधकत्वाभावव्युत्पत्तिभङ्ग एव, एतादृशव्युत्पत्तावेकानुसंधानावच्छिन्नतयैकस्याख्यातस्य विशेषितत्वादिति दिक् । ननु मास्तु उक्तव्युत्पत्तिविरोधेनैकदोभयबोधकत्वं, तथापि चैत्रे पाककर्तृत्वमात्रतात्पर्यदशायां चैत्रः पच्यते इति प्रयोगः स्यादित्यत भाह-कर्तरीति । असाधुत्वाचेत्यत्र चोऽवधारणे ॥५॥
(रघु०) वैयाकरणमतमाह-कर्तृकर्मणीति । लकारवाच्ये आख्यातवाच्ये इतीति इत्यत्रेत्यर्थः । सामानाधिकरण्यानुरोधादिति, नामाख्यातयोरेकर्मिबोधकत्वरूपसामानाधिकरण्यबोधस्यानुभवसिद्धत्वादित्यर्थः । नन्वेतादृशानुभवे मानाभाव इत्यत आह-अन्यथेति । क ख्यातकर्माख्यातयोः कर्तृकर्मणोरनभिधायकत्वे इत्यर्थः । तयोरिति । द्वितीयातृतीययोरित्यर्थः । अनभिहिताधिकारीयत्वादिति । कर्तृकमानभिधायकाख्यातसमभिव्याहारे अभिहितत्वादित्यर्थः । यत्राख्यातेन क; नाभिधीयते तत्र तृतीया, यत्र चाख्यातेन कर्म नाभिधीयते तत्र द्वितीयाभियुक्तसंमतेति भावः । नन्वाख्यातस्य कृत्यभिधायकत्वानभिधायकत्वे एव द्वितीयातृतीययोर्नियामके स्तः । तथा च व्यर्थमाख्यातस्य कर्ताद्यभिधायकत्वमित्यत आह-कृत्यभिधानस्येति । अविशिष्टत्वादिति, कर्माख्यातसाधारणत्वादित्यर्थः । तथा च नैयायिकनये कर्माख्यातस्यापि कृतिवाचकतया तत्र ततीया न स्यादिति भावः । न च नैयायिकनये कर्माख्यातस्य कर्मत्वार्थकतया कथमेतदिति वाच्यम् । प्राचीननैयायिकनय एवैतदभिधानात् । स्फुटीभविष्यति चेदमुपरिष्टात् ।
शंकते-कर्तृकर्मेत्यादि । नियमः द्वितीयातृतीययोस्तदभावयोश्च नियम इत्यर्थः । यत्र धातूत्तरप्रत्ययेम कर्तृगतसंख्याभिधीयते तत्र कर्तरि न तृतीया । यत्र कर्तृगतसंख्या नाभिधीयते तत्र कर्तरि तृतीया । एवं यत्र धातूत्तरप्रत्ययेन कर्मगता संख्याभिधीयते तत्र कर्मणि न द्वितीया । तेन यत्र कर्मगतसंख्या नाभिधीयते तत्र कर्मणि द्वितीयेति भावः । चैत्रेण दृष्टो घट इत्यादाविति ।
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः न च सुप: संख्याभिधायकत्वे चैत्रो रूपवानित्युदाहरणं त्यक्त्वा चैत्रेण दृष्टो घंट इत्येताबद्दूरपर्यन्तानुधावनमफलमिति वाच्यम् । नहि क्रियारहितं वाक्यमस्तीति न्यायेन चैत्रो रूपवानित्यादौ गच्छतीतिक्रियामध्याहृत्य तिव सर्वत्र संख्याबोधसंभवेऽलं सुप: संख्याभिधायकत्वेनेति शंकानिराकरणासंभवेन सुपः संख्याभिधायकत्वे सक्रियतया तथाविधवाक्यपर्यन्तानुधावनस्यानैष्फल्यादिति । क्लृप्तशक्ते: सुप एवेति, अवश्य संख्याक्प्तशक्तेः सुप्पदादित्यर्थः । न तदभिधायकत्वमिति । न संख्याभिधायकत्वमित्यर्थः । तथा च देवदत्तो गच्छतीत्यादावपि तिङ: संख्यानभिधायकत्वेन तृतीया स्यादिति भावः । तादृशं सुपमिति द्वित्वादिसंख्याबोधकं सुप्पदमित्यर्थः। द्वित्वादिप्रत्ययादिति । तथा च तत्र द्वित्वादिबोधान्यथानुपपत्त्या तिङोऽपि संख्यावाचकत्वमित्यर्थः ।
यत्तु चैत्रो मैत्रश्च गच्छत इत्यादौ मैत्रपदोत्तरसुब्बिभक्तद्वित्वादिलाक्षणिकतया द्वित्वादिबोधसंभवे तिङः संख्याभिधायकत्वं नियुक्तिकमिति तदश्रद्धेयम् । विनिगमनाविरहेण चैत्रपदोत्तरसुब्विभक्तेरपि द्वित्वादिबोधस्यावश्यकत्वे चैत्रद्वयं मैत्रद्वयं गच्छत इत्यापत्तिर्दुवारा स्यात् । तत्रैकवचनोपस्थितैकत्वान्वितचैत्रादौ कथं तिकुपस्थाप्यद्वित्वादेरन्वय इति तु नाशंकनीयम्, तत्रैकत्वस्याविवक्षितत्वादिति । ननु तथाप्युपदर्शितयुक्त्या तिङो द्वित्वाभिधायकमस्तु एकत्वाभिधायकत्वं तु तस्य नियुक्तिकमित्याशंकामपाकर्तुमाह-लाघवादेकवचनत्वादिनैवेति । तया चैकवचनत्वविशिष्टसुप्त्वस्यैकत्वशक्ततावच्छेदकत्वकल्पने गौस्वात्तपहाय एकवचनत्व एव एकत्वशक्ततावच्छेदकत्वकल्पनमुचितमिति । एकवचनत्वं चाभियुक्तैरेकवचनत्वेन परिभाषितत्वं, तच तिबादिसाधारणमिति. तिबादेरप्येकत्वबोधकत्वमक्षुण्णमिति भावः ।
केचित्तु पचतीत्यादावाख्यातपदालक्षणया शक्त्या वा कर्तृबोधेऽपि तत्र नियमत एकत्वबोधस्यानुभवसिद्धत्वात्तिप एकत्वबोधकत्वमावश्यकम् । न च तत्राख्यातस्यैकत्वविशिष्टकर्तरि लक्षणेति वाच्यम् । नियमतः प्रतीयमानेऽप्यर्थे लक्षणाकल्पने यत्नेऽप्याख्यातस्य शक्तिकल्पनस्य नियुक्तिकत्वं, लक्षणयैव तत्र यत्नबोधसंभवादित्याहुः । कर्तृकर्मगतसंख्याभिधानानभिधानाभ्यामित्यारभ्य नास्तीत्यन्तशंकाग्रन्थोपरि वैयाकरण: समाधत्ते--कृतेत्यादि। तथा च सुब्धिभक्ति विना कृत्प्रत्ययावस्थानासंभवात् कृत्प्रत्ययोत्तरसुप एव संख्याबोधसंभवे कृत: संख्याबोधकत्वं नियुक्तिकम् । न च विनिगमनाविरह इति वाच्यम् । एकवचनत्वेन सुपस्तत्र शक्तेरन्यत्र क्लप्तत्वात् । एवं चैत्रो ग्रामं गतवानित्यादौ
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mar
१३ ग्रन्थः] गमिधातूत्तरकृत्प्रत्ययस्य संख्यानभिधायकत्वेन तृतीयापत्तेब्रह्मणोऽप्यशक्यवारणत्वादिति भावः ।
ननु यत्र आख्यातेन कर्तृगतसंख्याभिधीयते तत्र प्रथमा । यत्र तेन कर्तृगतसंख्या नाभिधीयते तत्र तृतीयेति । एवं कर्मणि प्रथमादिनियमो वाच्यः । कृत्प्रत्ययस्थले च क देरभिधानानभिधानाभ्यां तथा नियमो वाच्यः । तत्र च न कोऽपि दोष इत्यत आह-किं चेति। न नियम इति । काख्यातेन कर्तृगतसंख्यैवाभिधीयते न तु कर्मगतसंख्या । एवं कर्माख्यातेन कर्मगतसंख्यैवाभिधीयते न तु कर्तृगतसंख्येति नियमालाभ इत्यर्थः । ननु तादृशनियमालाभे का क्षतिरित्यत आह–पदार्थतावच्छेदकावच्छिन्नस्येति। एकत्वत्वावच्छिन्नस्येत्यर्थः । आकाङ्कादिवशादिति । एकवचनत्वावच्छिन्नशक्तिवशादित्यर्थः । तथा च चैत्रो ग्रामं गच्छतीत्यत्राख्यातेन कर्मगतसंख्याबोधने बाधकाभावेन तत्रापि कर्मणि प्रथमा स्यात् । एवं चेत्रेणौदनः पच्यत इत्याख्यातेन कर्तृगतसंख्याबोधने बाधकाभावेन तत्रापि कर्तरि प्रथमापत्तिरिति भावः । . ननु ककेवचनत्वावच्छिन्नस्य ककत्वत्वं शक्यतावच्छेदकमेवं कर्मैकवचनत्वावच्छिन्नस्य कर्मकत्वत्वं शक्यतावच्छेदकमिति वाच्यम् । तथा च शक्यतावच्छेदकशक्ततावच्छेदकभेदान्न सर्वत्र कर्तृकर्मसाधारणैकत्वबोध इत्यत आह-कटेकत्वत्वादिनाभिधाने विति । कर्बकत्वत्वादिना कर्डकत्वादौ कत्रेकवचनत्वावच्छिन्नादेः शक्तिकल्पने त्वित्यर्थः । आदिना कमैकत्वत्वादिपरिग्रहः । अभिधेयत्वं शक्यतावच्छेदककोटिप्रविष्टत्वम् । इदमुपलक्षणम् । कादिपदस्यापि शक्यतावच्छेदककोटिप्रविष्टत्वमित्यपि बोध्यम् । नन्वेतेन किमायातमत आहशक्ताविति । शक्तावित्यस्य गौरवमित्यग्रेतनेनान्वयः। तथा च कर्नादिघटितधर्मविशिष्टे शक्तिकल्पनेन तत्पदघटितधर्मस्य शक्ततावच्छेदकत्वकल्पनेन, कादिपदघटितधर्मस्य शक्ततावच्छेदकत्वकल्पनेन च महागौरवं नैयायिकमते। वैयाकरणमते स्वेकत्वत्वादिना शक्यता, एकवचनत्वादिना शक्ततेति लाघवमतिस्फुटमिति भावः । वैयाकरणमतमुपसंहरति–तस्मादिति । तत्तद्रूपेण वेति तित्त्वादिना वेत्यर्थः ।
नन्वेवं सति वैयाकरणमते कथं न कांद्याख्यातस्थले कर्मादौ संख्यान्वय इत्यत आह-एकपदेति। कादिसंख्ययोरेकाख्यातपदोपस्थाप्यत्वादित्यर्थः । वाच्यगामित्वमिति । क ख्यातस्थले संख्याया: कादिष्वन्वयित्वमित्यर्थः । तथा
१ एकत्वत्वावच्छिन्ननिरूपितशक्तिवशादिति पाठः।
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ခု
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
च एकपदोपस्थाप्यानामर्थानामसति बाधके एकत्रापरान्वय इति नियमेनैकत्वादिनिष्ठप्रकारतानिरूपितकर्तृनिष्ठविशेष्यतासंबन्धेन कर्ताख्यातपदज्ञानजन्यशाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति काख्यातपदज्ञानजन्यकर्नुपस्थितेर्विशेष्यतासंबन्धेन हेतुत्वस्य, एवमेकत्वादिनिष्ठप्रकारतानिरूपितकर्मनिष्ठविशेष्यतासंबन्धेन कर्माख्यातपदज्ञानजन्यशाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति कर्माख्यातपदजन्यकर्मोपस्थितेर्विशेष्यतासंबन्धेन हेतुत्वस्य च कल्पनीयतया क ख्यातस्थले न कर्मादौ संख्यान्वय इति भावः।
ननुकर्तर्याख्यातत्वेन कर्मणि चात्मनेपदत्वेन शक्तिकल्पने चैत्रः पच्यते तण्डुल इत्यादि प्रयोगापत्तिः । तत्राख्यातस्य आख्यातत्वेन कर्तरि शक्ततया कर्तुरुपस्थितिसंभवेनात्मनेपदत्वेन च तस्य कर्मशक्ततया कर्मणोऽप्युपस्थितिसंभवेन तयोस्तत्र चैत्रतण्डुलादावभेदसंबन्धेनान्वयबोधे बाधकाभावादित्यत आहकर्तृकर्मत्यादि । एकदाऽव्युत्पन्नमिति एकस्मिन्काले एकस्याक्लृप्तमित्यर्थः । तथा च तदाख्यातपदज्ञानजन्यकर्तृत्वप्रकारककर्तृशाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति कर्मबोधगृहीततात्पर्यकतदाख्यातपदज्ञानत्वादिना, एवं तदाख्यातपदजन्यकर्मत्वप्रकारककर्मविषयकशाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति कर्तृबोधगृहीततात्पर्यकतदाख्यातपदज्ञानत्वादिना च प्रतिबन्धकत्वस्य कल्पनीयतया नैकदा आख्यातपदात् कर्तृकर्मणोर्बोधापत्तिरिति भावः ।
केचित्तु तदाख्यातजन्यकर्तृत्वप्रकारककर्तृविशेष्यकशाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति कर्मत्वबोधकसुब्विभक्तिसमभिव्याहृतधातुसमभिव्याहृततदाख्यातपदज्ञानजन्यकत्रेपस्थितेरेवं तदाख्यातपदजन्यकर्मत्वप्रकारककमशाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति च तृतीयान्तपदसमभिव्याहृतधातुपदसमभिव्याहृततदाख्यातपदज्ञानजन्यकर्मोपस्थितेश्च हेतुत्वस्य कल्पनीयतया नैकदा एकारव्यातपदात् कर्तृकर्मणोरन्वयबोधः । चैत्रः चैत्रेण तण्डुलं तण्डुलः पक्ष्यते इत्यादि प्रयोगे चेष्टापत्तिस्तत्रावृत्त्यान्वयबोधे कस्याप्यविवादादित्याहुः ।
ननूपदर्शितरीत्या मैत्रः पक्ष्यते तण्डुल इत्यादिप्रयोगवारणेऽपि मैत्रः पच्यते तण्डुलमित्यादिप्रयोगापत्तिर्दुरैव, तत्र कर्मताबोधे गृहीततात्पर्यकाख्यातपदज्ञानाभावात् कर्मताबोधकाब्विभक्तिसमभिव्याहृतधातुसमभिव्याहृतपदजन्यकत्रुपस्थितिसत्वाच कर्तृबोधे बाधकाभावादित्यत आह-कर्तुरिति । तथा च कर्तृत्वप्रकारककर्तृशाब्दबोधकतावच्छेदककोटावाख्यातपदांशे यगाद्यसमभिन्याहृतत्वमपि निवेशनीयमिति नोपदर्शितप्रयोगापत्तिरिति भावः ॥ ५ ॥
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१३ ग्रन्थः]
आख्यातशक्तिवादः ।
( जय० ) वैयाकरणमतमुस्थापयति-कर्तृकर्मणी इति । लकार आख्यातम् । सामानाधिकरण्येति । आख्यातस्य कर्तृकर्मशक्यत्व एव नामाख्यातयोभिन्नप्रवृत्तिनिमित्तयोरेकर्मिबोधकत्वरूपं सामानाधिकरण्यमुपपद्यत इति भावः । ननु कृत्यभिधानानभिधानाभ्यामेव कत्रभिधानानभिधानयोः कर्माभिधानानभिधानयोश्च नियमो भविष्यति तत्राह-कृत्यभिधानेति । कर्मप्रत्ययेनापि कृतेरभिधानमिति प्राचीनमतेनेदं, स्वमते तत्र तृतीयाया एव कृत्यभिधायकत्वं बोध्यम्। _ नैयायिकमतं दूषयति-कर्तृकर्मसंख्येति, इत्यपि नास्तीत्यन्तेन। नियम इति । आख्यातेन कर्तृकर्मसंख्याया अभिधाने प्रथमाऽनभिधाने तृतीयाद्वितीये इति नियम इत्यर्थः । तथा चाभिहिते कर्मणीत्याद्यनुशासनेऽभिहितसंख्यान्वयित्वमेवाभिहितत्वमिति भावः। न तदभिधायकत्वं, संख्याभिधायकत्वम्। तथा च चैत्रः पचतीत्यादौ तृतीया स्यादिति भावः । तादृशसुपं द्वित्त्वादिबोधकसुपम् । न चात्रैक(त्व)धर्मितावच्छेदककद्वित्वधीः, कुतः १ एकत्वस्याविवक्षितत्वात् । विवक्षितत्वेऽप्येकत्र द्वयमितिरीत्या बोध इत्यन्ये । एकैकत्वमात्रावच्छेदेनैव न द्वित्वधीरिति ।
नन्वत्रास्तु सुबेकवचनस्य द्वित्वे लक्षणा, न च सुब्विभक्तौ लक्षणासत्वे धृतिः स्वाहेत्यादौ प्रथमादेश्चतुर्थ्याद्यर्थे लक्षणया प्रयोगसंभवाद्वयत्ययानुशासनं व्यर्थ स्यादिति न तत्र लक्षणेति वाच्यम् । तद्वैयर्थ्यापत्त्या संख्याभिन एव सुब्विभक्तेर्लक्षणानुपगमात् । एकस्यां दारा इत्यादिप्रयोगात् । वस्तुतो व्यत्ययानुशासनं न प्रथमादेश्चतुर्थ्यादिस्मारकत्वसंबन्धबोधकं तदर्थशक्तिग्राहक वा श्रूयमाणप्रथमादितो लक्षणया चतुर्थ्याद्यर्थबोधसंभवे पदान्तरस्मृतेः शक्त्यन्तरस्य वा कल्पनाया अन्याय्यत्वात् । किं तु यस्या विभक्तरर्थे या विभक्तिर्विधीयते तद्विभक्त्यर्थे तदन्यविभक्तेर्लक्षणयाऽसाधुत्वमित्येतत्परतया सार्थकम् । अत एव घटं जानातीत्यादौ द्वितीयादेविषयित्वादौ लक्षणा निष्प्रत्यूहेति चेत्तथा सुब्बिभक्तेः प्रकृत्यर्थमात्रगतसंख्याबोधकत्वनियमात् चैत्रोमैत्रश्च गच्छत इत्यादितश्चैत्रद्वयमैत्रद्वयबोधापत्तेः । न च चैत्रमैत्रपदे चैत्रमैत्रान्यतरपरे संभेदे नान्यतरवैयर्यमिति वाच्यम् । बोधवैषम्यात् । वस्तुत एकस्मिन्नेकवचनमित्यादिसमाख्याद्यनुशासनबलादेकत्वादौ शक्तिसिद्धेयोरित्याद्यनुशासनं एकवचनादावसाधुत्वज्ञापकमिति नात्र लक्षणासंभवः । एतेन चैत्रमैत्रपदे शक्त्या चैत्रमैत्रयोर्लक्षणया मैत्रचैत्रयोर्बोधके इति न बोधवैषम्यमिति दिक् । १ इदं वाक्यचन्द्रिकायामस्तीति भादर्शपुस्तके टिप्पणी ।
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६४ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः नन्वेवमपि द्वित्वादिषु आख्यातद्विवचनादेः शक्तिः कल्प्यतां नत्वेकवचनाख्यातस्यैकत्वे इत्यत आह-लाघवादिति । सुत्वाम्त्वादिना शक्तिकल्पने च नानाशक्तिः स्यात्सुबेकवचनत्वेन तत्त्वे तु गौरवादेकवचनत्वेनैव तत्त्वमित्याख्यातैकवचनस्याप्येकत्वे शक्तिरागतेति भावः । नन्वत्र किमेकवचनत्वं नैकत्वशक्तत्वमात्माश्रयप्रसङ्गात् । न च संकेतविशेषसंबन्धेन एकवचनपदवत्वं तत् । तद्रूपेणाशानदशायां सुत्वादिना ज्ञानादेकत्वादिप्रत्ययः शक्ततावच्छेदकभ्रमादे. वेति वाच्यम् । एकवचनपदस्यानन्त्याच्छक्त्यानन्त्यप्रसङ्गात् । शक्ततावच्छेदकभेदात् । किं चैकवचनत्वेनाज्ञानेऽपि सुत्वादिना ज्ञानाद्भवेदेकत्वादिधीः । सुत्वादिनाऽज्ञाने चैकवचनत्वादिना ज्ञानेऽपि नेति सुत्वादिकमेवान्वयव्यतिरेकाभ्यां शक्ततावच्छेदकं (एक) वचनादिपरिभाषाविशेषविषयत्वादिज्ञानं च एकत्वशक्तत्वज्ञापकतयोपयुज्यते । तदवच्छेदेन व्याकरणादेकत्वादिव्युत्पत्तेः । अत एव स्वादेरेकवचनत्वेनाज्ञानदशायां क्वचिन्नैकत्वादिधीद्विवचनत्वादिना ज्ञाने च द्वित्वादिशक्तत्वभ्रमादित्वादिधीः । संज्ञाकरणस्य चैतदपि फलं यत्तत्संज्ञया बहूनां निर्देश: । प्रत्येकं निर्देशे ग्रन्थबाहुल्यापत्तेः। __ अत्र वदन्ति-सुत्वादिकमेव शक्ततावच्छेदकं तथाऽपि तिप्त्वादिकं तथा पचतीत्यतः पाककर्ता एक इति बोधात् । न च कर्तरि लक्षणावश्यकत्वादेकत्वविशिष्टकर्तर्येव साऽस्तु विशिष्टे लक्षणाप्रतिसंधानविरहेऽपि तथा बोधात्, वै. याकरणानां शक्तिभ्रमेण बोधाच्च । न चैकत्वांशेऽपि शक्तिभ्रमो बाधकाभावात् । न चैवं कर्तर्यपि शक्तिरस्तु तत्र कदाचित्कृतिप्रकारकबोधस्याप्यनुभवसिद्धत्वात् , कृतौ लाघवात् शक्तौ कर्तुः शक्तिभ्रमाल्लक्षणातश्च लाभसंभवस्यैव बाधकत्वात् । न चैवं सुपि कृसैकत्वादिशक्तेस्तिङि भ्रमादेकत्वादिबोधसंभवान्न तिबादेः शक्तिः । घटपदे शक्तौ कलशपदे तदभावप्रसङ्गात् , स्वरसतस्तदर्थप्रतीतिस्तुल्यैव । किं च विनिगमनाविरहादेव तिबादेः शक्तिसिद्धेः सुप एव फलत्वा(तत्त्वा)रोपाच्छाब्दबोधस्य सुवचत्वात्। न च तिङां बाहुल्यं, तथाऽपि प्रत्येक विनिगमकाभावात् । न च सुपा सार्वत्रिकत्वमेव विनिगमकम् । पचतीत्यत्रैव तदभावात् , वारि दृश्यत इत्यत्र लुप्तविभक्तिप्रतिसन्धानं विनाऽपि तिडैकत्वप्रत्ययाच्च । तत्र लुप्तस्य प्रतिसन्धानं कल्प्यत इति चेत् चैत्रेण दृष्टो घट इत्यत्राप्यस्तीतितिप्रतिसन्धानस्य संभवात् । न चैवं गङ्गापदस्यापि तीरे शक्तिरस्तु । तत्र तद्ग्रहे प्रमात्वे बाधकाभावाद्विनिगमनाविरहाच्चेति वाच्यम् । तत्र विरुद्धकोशादेरेव बाधकत्वात् । न चेह तथा, द्वयेकयोर्द्विवचनैकवचन इति सामान्यत एवानुशासनसत्त्वात्।
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३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः !
६५ यत्त्वाख्यातस्यैकत्वाद्यशक्तत्वे बह्वः पतिः एकः पचन्तीत्यादिवानन्यस्यापि ग्यत्वं स्यात् । आख्यातोपस्थापितभावनामात्रस्यान्वयसंभवात् । तस्मादेकत्वादिख्याभावनयोरेकत्रोच्चारणान्तर्भावेन शक्तिराख्यातस्य पुष्पवन्तादिपदवदिति यख्यान्वयिन्येव भाक्नान्वयात्तत्रायोग्यत्वम् । न चैवमेकस्मिन् दाराः पश्यन्ति पापो विद्यन्ते इत्यादौ संख्याया अप्यन्वयो न स्यादिति वाच्यम् । अत एव त्राप्यवयवादिवृत्तेस्तद्गुणादिवृत्तेर्वा बहुल्वस्य परंपरयाऽपि स्वीकारात् । न चवमवयवादिबहुत्वमादाय एको गच्छन्तीत्यादिप्रयोगापत्तिः । एकत्वधर्मितापच्छेदककबहुत्वप्रकारकप्रत्ययेच्छायाः कारणत्वोपगमादिति तन्न । तथाऽपि मनुष्यो गच्छन्तीत्यादि वाक्यादेकत्र द्वयमिति न्यायेन बहुत्वैकत्वयोरन्वयसंनवात् तथा प्रयोगापत्तिरतः शब्दासाधुत्वमेवोपेथमिति बहवो गच्छति इत्याशवपि तथा । किं च जानातीत्यादावाश्रयत्वलाक्षणिकाख्याते का गतिः ? स्वार्थसंख्यान्वयिन्येव भावनान्वव इति नियम एवैकत्रोचारणेत्यादेरर्थ इति चेत् न । दौ गच्छत इत्यादौ सर्वथैवासंभवात् । उद्देश्यतावच्छेदकस्य विधेयत्वासंभवेन त्र संख्याया अनन्वयात् ।
यदप्युपकुंभं दृश्यते दृश्येते दृश्यन्ते वारि दृश्यते दृश्यन्ते इत्यादावेकत्वादेवाचितिबादिसमभिव्याहारेणैकत्वादिवाचितुरः कल्पयितुं शक्यत्वात्तिबादेरेफत्ववाचितासिद्धिरिति । तदपि न । द्वित्यादिवशकतया गृहीततिवादेः समभव्याहारेण तत्कल्पनाभावादेकत्ववाचितया गृहीतस्वादिसमभिव्याहारेण कल्पनाच्चैकत्ववाचितया गृहीततिबादीति वाच्यम् । तथा च कुतस्तद्वाचितासिद्धिरिति द्वत्वादिशक्ततया गृहीतान्यतिवादिसमभिव्याहारातत्कल्पनमित्ययाहुः । (?) ___ यत्तु पचतीत्यादौ वारि दृश्यत इत्यादौ च तिबादेरेकत्वबोधेऽपि न तत्र शक्तिः । अन्यथा पचतीतिवाक्यात्पाककर्ता एकः पाककर्ता चैत्र एक इति बोधे कर्तृचैत्रादेरपि आख्यातशक्यत्वापत्तेः । अथ चैत्रः पचतीति वाक्यश्रवणे कर्तुश्चैत्रादेश्चान्यतो बोधावधारणेनाश्रयांशे चैत्रे च शक्त्यभावनिर्णयात् भ्रमत्वं विशेषादर्शनकालीनकल्पनाया इत्युच्यते तर्हि प्रकृतेऽपि तुल्यं, चैत्रः पचति चैत्रो दृष्ट इत्यादिविशेष्यसमभिव्याहृतविभक्तिभ्यामेवैकत्वबोधसंभवात् , अनुशासनं त्वेकत्वे प्रतिपाद्ये एकवचनमित्येवं रूपं न तिवादेरेकत्वशक्तिग्राहकं समभिव्याहृतैकवचनान्तविशेष्यपदादेवैकत्वप्रतीतिसंभवात् , शब्दिकरणादेरिव कतरि । द्विवचनस्य तु द्वित्वे शक्तिरनुशासनबलादेव, चैत्रोमैत्रश्चेत्यादौ तदलाभात् क्यजादेरिवात्मेच्छादाविति । तन्न । प्रागुक्तयुक्तरेकत्वशक्तिसिद्धेः।
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६६
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
कर्तरि तु न शक्तिर्गौरवात् । न वा चैत्रादावनुशासनानुग्रहाभावादिति दिक् ॥
कृतेति । तदुत्तरसुप एव संख्योपस्थितिसंभवात् कृतो न संख्यायां शक्तिरिति चैत्रो ग्रामं गत इत्यादावपि तृतीया चैत्रेण ग्रामो गत इत्यादावपि द्वितीया स्यादिति भावः । नन्वाख्याते न केर्तृसंख्याभिधानानभिधानाभ्यां नियमो भविष्यतीत्यत आह-किं चेति । न नियमः । कर्तुरेव काख्यातेन कर्मण एव कर्माख्यातेन संख्याभिधीयत इति नियमो न, संभवतीति शेषः । असंभवमेवोपपादयति--पदार्थतेति। एकत्वत्वाद्यवच्छिन्नस्येत्यर्थः । कर्तृकर्मेति। तथा च कर्तृकर्मविहिताभ्यामप्याख्याताभ्यां कदाचित्कर्मकर्तृगतसंख्याबोधसंभवाचत्रेण पचति तण्डुलश्चैत्र: पच्यते तण्डुलमित्यपि स्यादिति भावः । ___ ननु कत्रैकत्वत्वादिना शक्यत्वयोग्यतावशादेव न साधारण्यमत आह---क.. केति । आदिपदात्कमैकत्वत्वपरिग्रहः । अभिधेयत्वमिति विशेषणतयेति शेषः । ननु कृतिमदेकत्वत्वमेव शक्यतावच्छेदकम् । कृतिमत्त्वं च सामानाधिकरण्येन । सामानाधिकरण्यं च कर्तृकमैकत्वयोः कृतिसमवायिनि कृतिविशेष्ये च समवेतत्वमिति कर्नादेर्नाभिधेयत्ववार्ताऽपीत्यत आह-शक्ताविति । ममैकवचनत्वादिनैकत्वादी शक्तित्रयमाख्यातत्वेन कर्तर्यात्मनेपदत्वेन कर्मणीति शक्तिपञ्चकम् । तव कर्नादिविहितैकत्वत्वादिना च कर्त्रकत्वादी शक्तिषटं सुबेकवचनत्वादिना चैकत्वादौ शक्तित्रयम् , आख्यातत्वेन कृतावित्येका , आत्मनेपदस्थले च तस्या विशेष्यान्वय इति व्युत्पत्त्यन्तरं, फलविशेष्यस्य कर्मत्वे तत्रापि शक्त्यन्तरमिति दशैकादश वा शक्तय इति शक्तौ गौरवम् । ममैकवचनत्वादिना शक्तत्वं तव कर्तरि विहितैकवचनत्वं शक्ततावच्छेदकम् । तत्तद्रूपेणैवेतिमते तुल्यत्वाच्छक्यतेत्युक्तम् । अत्र चैत्रं ग्रामं नयति मैत्र इत्यादौ कर्मणोऽपि कर्तृ. त्वात्तत्तक्रियाकāकत्वत्वादिना शक्यत्वस्य वाच्यत्वादतिगौरवं शक्यतावच्छेदके, शक्त्यानन्त्यं च बोध्यम् ।
ननु तवैव कथं संख्यान्वयनियम: ? कथं वा न गौरवमत आह—तस्मादिति । आख्यातत्वेनेति । आत्मनेपदस्यापि कर्तरि प्रयोगादिति भावः । आत्मनेपदत्वेनेति । परस्मैपदस्य कुत्रापि कर्मण्यप्रयोगादिति भावः । एकवचनत्वादेर्दुर्वचत्वादाह-तत्तद्रूपेणेति । एवमाख्यातत्वादेरपि दुर्वचत्वे तिप्त्वा दिकं तथेति बोध्यम् । एकपदेति । तथा च तत्तदाख्यातजन्यसंख्याप्रकारकबोधे तत्तदाख्यातजन्यकर्तृकर्मोपस्थितेः कारणत्वान्नान्यत्र संख्यान्वय इति भावः । अत्र चैत्रश्चैत्रं जानातीत्यादौ कर्मणो[ऽभिधायि] विषयत्वरूपकर्मत्वेन नाभिधानमाश्रयत्वरूपभाक्तकर्तृत्वेनैव तदभिधानादिति बोध्यम् ।
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१३ ग्रन्थः]
आख्यातशक्तिवादः।
अत्र वदन्ति-भावनाविशेष्ये संख्यान्वयःसमानपदोपात्तत्वेन एकान्वयित्वस्योचितत्वात् । भावनायाश्च विशेष्यत्वेनान्वययोग्यः कर्मत्वाचनवरुद्धः प्रथमान्त
कर्तृकर्मेति । एकदेति । दृढतरबोधसामग्र्याः प्रतिबन्धकत्वं फलबलात्कल्प्यते । यद्वा—सकर्मकधातूत्तराख्यातजन्ये कर्तृबोधे कर्मबोधकविभक्तिसमभिव्याहृताख्यातजन्यकर्तुपस्थितेः, कर्मबोधे च तृतीयान्तपदसमभिव्याहृताख्यातजन्यकर्मोपस्थितेः कारणत्वे तात्पर्य, तेन ' मैत्रेण तेमनं चैत्रस्तण्डुलं पक्ष्यते ध्रुवम् ' इत्यतो बोधः सुघटः । एतत्कल्पे चैत्रः पचतीत्यादौ तण्डुलमित्याद्यध्याहारेणैव बोध इति बोध्यम् । अत इति । इतरथा पक्ष्यत इत्यस्य कर्तरि कर्मणि च साधुत्वान्मैत्रः पाककर्ता तण्डुलः पाककर्मेति बोधस्य ततो दुर्वारत्वादुभयत्र प्रथमा स्यादेवेति भावः । नन्वेवमपि कर्तृमात्रतात्पर्यकान्मैत्रः पच्यत इत्यतः कर्तृमात्रबोधः स्यादत्राह-कर्तरीति । चस्त्वर्थः ॥ ५ ॥
(मथु०) लाघवादाख्यातस्य यत्न एव शक्तिः संख्याभिधानानभिधानाभ्यामेव प्रथमा-तृतीयादिनियमस्तत्र च संख्यायाः कर्तृकर्मसाधारण्येनान्वयबोधापत्तिरेव मूलबाधिका अतस्तामेवोडरति,-भावनेति। आख्यांतार्थभावनाविशेष्ये इत्यर्थः । तादृशभावनाविशेषणीभूतधात्वर्थादिवारणाय विशेष्येति, तथाच तादृशभावनाया विशेष्यत्वेनान्वये यन्नियामकं तदेव संख्यान्वयेऽपि नियामकं, विशेष्यत्वं च प्रतियोगितेतरसंबन्धेन बोध्यं तेन न पचतीत्यादौ न नअर्थे सं. ख्यान्वय इति भावः । भावना चात्र यत्नो व्यापार आश्रयत्वादिश्च न तु यत्नमात्र, तेनाग्निः पचति चैत्रो जानातीत्यादौ लक्ष्यार्थस्यापि संग्रहः, वर्तमानत्वादेः कृतिसाध्येष्टसाधनत्वादेश्चासंग्रहः ।
केचित्तु कालेष्टसाधनत्वायतिरिक्ताख्यातार्थो भावना इत्याहुः । तदसत् । तथा सति कर्मविभक्त्यर्थस्य फलस्यापि भावनात्वेन पच्यते तण्डुल इत्यादी व्यभिचारभयेनाग्रे मतान्तरानुसरणस्यासङ्गतत्वापत्तेरिति ध्येयम् ।
एकान्वयित्वस्येति। एकविशेष्यान्वयित्वस्यानुमितत्वादित्यर्थः । अनुमानप्रकारच-आख्यातोपस्थापितसंख्या भवनाविशेष्यान्वयिनी कालायतिरिक्तत्वे सति तदुपस्थापकपदस्मारितत्वात् भावनादिवदिति भावः ।
नन्वाख्यातार्थभावनाया एव विशेष्यत्वेन कुत्रान्वय इत्यत आह-भावनायाश्चेति । प्रथमान्तपदानुपस्थाप्यस्यापि धात्वर्थादेर्भावनायां विशेषणत्वेनान्वयादुक्तं विशेष्यत्वेनेति । कर्मत्वाद्यनवरुद्ध इति । अत्र प्रथमान्तपदोपस्थाप्यत्वमात्रोपादाने तण्डुलः पचति चैत्र इत्यादौ प्रथमायाः कर्मत्वे शक्तिभ्रमेण
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
लक्षणाज्ञानेन वा यदा तण्डुलकर्मकेत्यादिवोधस्तदापि तण्डुले भावनान्वयापत्तिरतः कर्मत्वाबनवरुद्ध इति, कर्मत्वायविशेषणीभूत इत्यर्थः । तेन पक्वं भुज्यते तण्डुलस्य ‘पाको भवतीत्यादौ पाककर्म-तण्डुलकर्मादिविशेष्यकतदन्वयो नानुपपन्नः । कर्मत्वादिपदं च स्वरूपकथनमविशेषणत्वमात्रं विवक्षितम् । अत एव यदा साक्षात्परम्परासाधारणपञ्चनौकानिरूपितारम्भकताश्रयत्वप्रकारकान्वयबोधे वक्तुरभिप्रायः, तदा एको वृक्षः पञ्च नौका भवतीत्येव प्रयोगः, तत्र नौकायाः प्रथमार्थनिरूपितत्वविशेषणतया तत्र भावनान्वयासंभवेनाख्यातार्थसंख्यान्वयासंभवात् । यदा च पञ्चनौकासु रक्षनिरूपितोत्पत्त्याश्रयत्वप्रकारकान्वयबोधे वक्तुरभिप्रायः तदा तु भवन्तीत्येव प्रयोगः । प्रथमस्य साक्षात्परंपरासाधारणत्वस्य उपादानात् साक्षादृक्षारम्भकमहावयवानां नाशेऽपि न क्षतिः, द्वितीयस्य तस्योपादानात्साक्षात्परंपरया वृक्षारम्भकतान्यानामेव खण्डावयविनां साक्षान्नौकारम्भकत्वेऽपि न क्षतिः । (१)
केचित्तु एकवृक्षपदं परंपरैकवृक्षारम्भकारभ्यद्रव्यपरं, धातुपदं च साक्षादार. म्भकतापरमेव । यद्वा नौकापदं साक्षात् तदारम्भकपरं, धात्वर्थश्चाभेद इत्याहुः । नौकायाः संयुक्तायाः संयुक्तावयविप्रचयरूपत्वे तु नौकापदं तादृशविलक्षणसंयो. गपरमित्यमलप्रकृतेन । __न चैवं भूतले घटो नास्तीत्यादौ घटस्याभावांशे विशेषणत्वादाख्यातार्थाश्र. यत्वस्याभाव एवान्वयात् घटे संख्यान्वयोऽपि न स्यादिति वाच्यम् । तादृशम्युत्पत्तिवैचित्र्येण तत्र भावनाविशेष्यप्रतियोगिन्येत्र संख्यान्वयादतएवानुपपत्त्या विशेषणतासंबन्धेन भूतलवृत्तित्वाभावस्य प्रतियोगितासंबन्धेन भूतलनिष्ठाभावस्य वा घटे विशेषणतयैवान्वयाभ्युपगमाचेति भावः । धात्वर्थकृतिसाध्यत्वेटसाधनत्व-वर्तमानत्वादीनामपि कर्मत्वाचनवरुद्धतया तत्र तदन्वयवारणाय प्रथमान्तपदोपस्थाप्येति । तथाच तद्विशेष्यक-भावनाप्रकारकशाब्दबोधे तदुपस्था. पकपदे प्रथमाविभक्तिसमभिव्याहारो धातूत्तरमाख्यातं चाकाङ्क्षा । तस्याश्च तन्मुख्यविशेष्यक-भावनाप्रकारकशाब्दत्वं कार्यतावच्छेदकम् । अतः प्रथमार्थकर्मत्वादिविशेषणीभूते तण्डुलादौ न तदन्वयः । द्विविधविषयताशालिवोपश्च तात्पर्यसत्वे इष्यत एव । अत एवायमेव दृश्यत इत्यादौ एवकारार्थान्यविशेषणत्वेन उपस्थितस्य भावनाविशेष्यत्वेनान्वयो नानुपपन्नः । ननु तथापि चैत्रः पचतः चैत्रः पचन्तीत्यादौ चैत्रादिषु कथं न भावनान्वयः । न चाख्यात-प्रथमयोर्वचनसाम्यस्यापि तन्त्रत्वमिति वाच्यम् । चैत्रो मैत्रश्च गच्छत इत्यादौ व्यभिचारादिति । मैवम् । आख्यातैकवचनोपस्थाप्यस्य यत्नादेः प्रथमैकवचनान्तोपस्थाप्य एवान्वयः, तद्विवचनोपस्थाप्यस्य भावनादेः क्वचित् द्विवचनान्तोपस्याप्ये क्वचिदेकवचनान्तद्वयोपस्थाप्येऽपीत्यभ्युपगमात् । एवमन्यत्रापि शब्दैक्यस्यानुपा. देयत्वादिति भावः।
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१३ ग्रन्थः आख्यातशक्तिवादः ।
६९ पदोपस्थाप्यः। तथैवाकाशितत्वात्। चैत्रः पचति पच्यते तण्डुल इत्यादौ कर्तृ-कर्मणी प्रथमान्तपदोपस्थाप्य. तया भावनाविशेष्ये इति तत्रैव संख्यान्वयः। चैत्रेण सुप्यते गगनेन स्थीयते इत्यादौ प्रथमान्तपदाभावात् धात्वर्थस्य भावनायां विशेषणतयैवान्वयस्य व्युसन्नत्वात्,भावनाया बाधितत्वाच, भावनाविशेष्यवि
केचित्तु दृश्यते चैत्रः पचति, गच्छति चैत्रः पचतीत्यादौ एकत्र द्वयमितिवदेकाख्यातार्थमुद्देश्यतावच्छेदकीकृत्यापराख्यातार्थान्वयवारणाय-कर्मत्वाद्यनवरुद्ध इति । आख्यातोपस्थाप्यकर्मत्वाद्यविशिष्टइत्यर्थः, तेन पक्कं भुज्यते, तण्डुलस्य पाको भवतीत्यादौ पाककर्मत्वतण्डुलकर्मत्वादिमति भावनाया अन्वयो नानुपपन्नः । नचैवं धृत्युद्देश्यकत्यागे दर्शनविषयत्वतात्पर्येण प्रयुक्ते धृतिः स्वाहा ज्ञायते इत्यादावन्वयापत्तिः, तत्र प्रथमाया एव चतुर्थ्यर्थे लाक्षणिकतया तदवरुद्धत्वेऽप्याख्यातोपस्थाप्यतदवरुद्धत्वाभावादिति वाच्यम् । इष्टत्वात् । अन्यथा प्रथममतेऽप्यप्रतीकारात् । कृतिसाध्यत्वेष्टसाधनत्वादावकर्मकक्रियायां धात्वर्थे च तदन्वयवारणाय प्रथमान्तपदोपस्थाप्येति । तथाच तद्विशेष्यक-भावनाप्रकारकशाब्दबोधे पूर्वोक्तद्वयमाकाङ्क्षा यद्यदानुपूर्वीज्ञानात् तत्तद्धर्ममुद्देश्यतावच्छेदकीकृत्य तत्तद्धर्मप्रकारकान्वयबोधोऽनुभवसिद्धस्तत्तदानुपूर्वीज्ञानस्य विशिष्य ताहशान्वयबोधे हेतुतया दृश्यते चैत्रः पचतीत्यादौ न तथान्वय इति भाव इत्याहुः ।
ननु प्रथमान्तपदोपस्थाप्यस्य भावनायां विशेषणत्वेनैव कुतो नान्वय इत्यत आह-तथैवेति । विशेप्यत्वेनैवेत्यर्थः, बोधस्येति शेषः । आकासितत्वात, आकाङ्क्षायाः कार्यत्वात् । नन्वेवं भावप्रत्ययस्थले भावनाविशेष्यविरहात् संख्यान्वयो न स्यादित्यत्रष्टापत्तिमाह-चैत्रेणेति । इत्यादाविति, भावनाविशेष्यविरहादनन्वितैव संख्येत्यग्रेतनेनान्वयः । भावनाविशेष्यविरहे हेतुत्रयमाह-प्रथमान्तेत्यादि । ननु उपस्थितभावनाया अनन्वयापत्तिदोषेण भावातिरिक्तस्थल एव प्रथमान्तपदापेक्षा भावस्थले तु धात्वर्थ एव भावनाविशेष्य इत्यत आह-धात्वर्थस्येति । ननु अनायत्या तादृशव्युत्पत्तिरपि भावप्रत्ययस्थले त्यज्यतामत आह-भावनाया इति । चैत्रत्तिस्वापनिरूपिताश्रयत्व-गगननिष्ठस्थिति निरूपिताश्रयत्वादेरेव प्रकृते भावनात्वेन तस्य धात्वर्थस्वाप-स्थित्यादा बाधादित्यर्थः । एतचापाततः, निरूपकत्वसंबन्धेनैव तस्य तत्रान्वयसंभवात् । वस्तुतोऽत्र
१ ख. 'स्थाप्य एव साक्षाङ्कत्वात् । चैं। २ मथुरानाथास्तु चैत्रेणसुप्यते, इत्यतः प्रागिदं वाक्यं व्याचक्षते।
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वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
रहादनन्वितैव सङ्ख्या । एकवचनं तु साधुत्वार्थम् । अत एव स्वापस्य द्वित्वबहुत्वेऽप्यौत्सर्गिकमेकवचनमेव । एवं च भावतिङां यथायथं वर्तमानत्वादीष्टसाधनत्वादिकमर्थः, तच्च धात्वर्थ एवान्वेति तथैव प्रत्ययात् । तदबोधकानां तु घञादीनां प्रयोगसाधुत्वमात्रम् ।
1
चैत्रनिष्ठः स्वापः गगननिष्ठा स्थितिरित्यादावाख्यातार्थाविशेषण कान्वयबोधस्यैवानुभवसिद्धत्वात् धात्वर्थो न भावनाविशेष्य इत्येव तत्त्वम् । यद्वा एतदस्वरसेनैवाहअतएवेति । धात्वर्थे भावनाया अनन्वितत्वेन संख्याया अपि तत्रानन्वयादे - वेत्यर्थः । औत्सर्गिकं, द्वित्वायन्वयबोधासंभवस्थल एवानुशिष्टम् । औत्सर्गिकं, प्रथमोपस्थितमित्यपि कश्चित् ।
७०
नन्वेवं भावप्रत्ययानां निरर्थकत्वापत्तिः, चैत्रेण सुप्यते गगनेन स्थीयते इ त्यादौ चैत्रनिष्टस्वापाश्रयत्वं गगननिष्टस्थित्याश्रयत्वमित्यादिबोधस्यानुभवसिद्धत्वादित्यत आह-एवं चेति । यथायथमिति । लटो वर्तमानत्वम्, इष्टसाधनत्वं लिङ इत्यर्थः । वर्तमानत्वादीत्यादिपदादतीतत्व- भविष्यत्वपरिग्रहः । इष्टसाधनत्वादीत्यादिपदात् कृतिसाध्यत्वादिपरिग्रहः । नन्वेवं प्रथमान्तपदाभावात् तस्याप्यनन्वितत्वापत्तिरित्यत आह- तच्चेति । जानातीत्यादौ धात्वर्थेऽपि वर्तमानत्वादीनामन्वयादिष्टसाधनत्वादीनां च धात्वर्थ एव सर्वत्रान्वयादिति भावः । नन्वाख्यातार्थस्य धात्वर्थविशेष्यतानियमात् कथं तद्विशेषणत्वेन तस्यान्वय इत्यत आह - तथैवेति । एषां धात्वर्थविशेष्यत्वेनैव प्रत्ययादित्यर्थः । तथाच भाव - नाया एव धात्वर्थविशेष्यतानियमादिति भावः । तदबोधकानां वर्त्तमानत्वादीष्टसाधनत्वात्रोकानाम् । घञादीनां भावविहितघनादीनाम् । प्रयोगसाधुस्वमात्रमिति, प्रयोगः सुन्दरः पाक इत्यादौ पाकविशेष्यकान्वयवोचः, तत्राकाङ्खात्वमित्यर्थः । मात्रपदात् सार्थकत्वव्यवच्छेदः । धनादीनामित्यादिपदेन भावविहितल्युडनादीनां भावविहितक्तिप्रत्ययस्य च संग्रहः । भावविहितेत्युपादानात् करणादिविहितादीनां कर्मविहितक्तिप्रत्ययस्य च धात्वर्थेऽपि न क्षतिः ।
न च कर्मणि क्तिप्रत्ययो सिद्धः तस्य भावप्रत्ययानुशिष्टत्वात, 'या सृष्टिस्रष्टुराद्या' इत्यभिज्ञानपये सृष्टिपदस्य भावसाधनत्वेऽपि कृदभिहितेति न्यायेन सर्जनकर्मलाभसंभवादिति वाच्यम् । इच्छाविषयेऽपि इष्टिपदप्रयोगस्य दृष्टतया भाव इव कर्मण्यपि तस्य साधुत्वात् । न च तत्र तत्प्रयोगः क्वाप्यदृष्ट इति वा - च्यम् । अग्रये स्विष्टिकृते स्वाहेति स्विष्टिकृडोममन्त्रे तथा दर्शनात्, तस्य शोभनेच्छाविषयकर्त्रे अग्नये इत्यर्थकतया प्रामाणिकैव्र्व्याख्यातत्वात् । न च तत्र स्विटेति निष्ठान्त एव पाठ इति वाच्यम् । बहुष्विकारान्तपाठस्यापि दृष्टत्वात् ।
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०१.
१३ ग्रन्थः ] आख्यातशक्तिवादः ।
भावनायाश्च कर्तरि आश्रयत्वेन कर्मणि पुनरन्यथान्वयः, तव कर्तृ-कर्माभिधायित्ववचास्माकमपि तथान्वयबोधकत्वम् । अतो मैत्रेण पचति तण्डुलः तण्डुलं पच्यते मैत्रः, मैत्रः पक्ष्यन्ते तण्डुल इत्यादयो न प्रयोगाः।भावना च व्यापारमात्रोपलक्षिका अचेतश्रवण-व्यञ्जन विषयेऽपि श्रुतिपद-व्यक्तिपदप्रयोगाच्च । कर्मवाचकपदाभावेन कृदभिहितेति न्यायस्य तत्रासंभवादित्यलमप्रकृतेन ।
ननु यदि भावनाविशेष्य एव संख्यान्वयस्तदा पच्यते तण्डुल इत्यादौ तण्डुलादिपु कथं तदन्वयः तत्राश्रयतासंबन्धेन भावनाया बाधितत्वेन भावनाविशेष्यत्वाभावादित्यत आह-भावनायाश्चेति । स्वाश्रयत्वेन, स्वाश्रयतासंबन्धेन । कर्मणीति कर्मप्रत्ययस्थल इत्यर्थः । अन्यथा वक्ष्यमाणक्रमेण । तथा चाश्रयतासंबन्धेन बाधेऽपि प्रकारान्तरेण विशेष्यत्वे न बाधकमिति भावः । ननु कदाचिदाश्रयतासंबन्धेन कर्तर्यन्वयः क्वचिच्च कर्मणि अन्यथान्वयः इत्यत्र किं नियामकमत आह-तवेति । तवाख्यातस्य कर्तृ-कर्मबोधकत्वं तुल्यं ममापि आख्यातस्य कर्तर्याश्रयत्वेन भावनाबोधकत्वं कर्मण्यन्यथा तदन्वयबोधकत्वमित्यर्थः । तथाच यथा त्वन्मते परस्मैपदस्य न कर्मबोधकत्वं तथा ममापि परस्मैपदस्य न कर्मणि भावनाया अन्यथान्वयबोधकत्वं किंतु कर्तर्याश्रयत्वेन तद्बोधकत्वं, यथा तव कर्तरि यकोऽसाधुत्वं तथा ममापि कर्तर्याश्रयत्वेन भावनान्वयबोधे तस्यासाधुत्वं, यथा तव एकदा न कर्तृ-कर्मबोधकत्वं तथा ममाप्येकदा न कर्तर्याश्रयत्वेन कर्मणि चान्यथान्वयबोधकत्वमिति भावः ।। ___ क्रमेणासंकीर्णं प्रयोजनमाह-मैत्रेणेति । परस्मैपदेनापि तिपा कर्मणि तण्डुले विषयतया भावनाया अन्वयबोधने तदर्थसंख्याया अपि तत्रैवान्वयात् तव प्रथमा स्यादेकदोभयान्वयबोधकत्वस्याव्युत्पनतया मैत्रे आश्रयतया भावनानन्वयात् तद्वृत्तिसंख्याया अप्यनभिधानात् तत्र तृतीया स्यादिति भावः । तण्डुलमिति । कर्तर्याश्रयतया भावनान्वयबोधेऽपि यकः साधुत्वे पच्यते इत्यात्मनेपदेन कर्तरि मैत्रे तेन संबन्धेन भावनाया अन्वयबोधनात् तदर्थसंख्याया अपि तत्रैवा. न्वयात् तत्र प्रथमा स्यादेकदोभयान्वयबोधकत्वस्याव्युत्पन्नतया तण्डुले भावनाया विषयत्वेनानन्वयात् तद्वत्तिसंख्याया अप्यनभिधानात् तत्र द्वितीया स्यादिति भावः । मैत्र इति, एकदा उभयान्वयबोधस्याप्यभ्युपगमे पक्ष्यत इत्यनेन भावनायाः कर्तर्याश्रयतया कर्मणि चाम्यथान्वयबोधनात्तदुभयटत्तिसंख्याया अप्यभिधानेनोभयत्रैव प्रथमा स्यादिति भावः । ___ आख्यातार्थभावनाविशेष्ये संख्यान्वय इत्यत्र भावनापदार्थ निर्वक्ति-भावना चेति । भावना न प्रयनत्वमात्र विशिष्टा अपि तु व्यापारत्वविशिष्टापीत्यर्थः ।
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७२
वादार्थसंग्रहः [४ भागः नानुरोधात् । भिन्नाभ्यां रूपाभ्यामेकधर्मिबोधकत्वलक्षणं सामानाधिकरण्यमप्रसिहं संभवदन्यादृशं तु न वार्यते ॥६॥ व्यापारत्वं धर्मत्वम् । अचेतनेति, अग्निः पचतीत्यादावचेतनेऽपि संख्यान्वयाउरोधादित्यर्थः । व्यापारेत्युपलक्षणम्, आश्रयत्व-प्रतियोगित्वमपीति बोध्यम् । शब्दैक्यस्यानुपादेयत्वात् । तेन चैत्रोजानाति घटो नश्यतीत्यादेरपि संग्रहः । __ केचित्तु व्यापारमात्रोपलक्षिकेत्यस्य कालेष्टसाधनत्वाचतिरिक्ताख्यातार्थोपल. क्षणमित्यर्थ इत्याहुः । तदसत् । तथा सति कर्माख्यातार्थस्य फलस्यापि भावनात्वेनाग्रिमग्रन्थासंगतः।
वैयाकरणेनाख्यातस्य कर्तृकर्मशक्तौ चैत्रादिपदाख्यातादिपदयोः सामानाधिकरण्यान्यथानुपपत्ति प्रमाणीकृतां निराकरोति-भिन्नाभ्यामिति । एकथर्मिबोधकत्वमात्रस्य सामानाधिकरण्यपदार्थत्वे कलसादिपदेऽपि घटादिपदसामानाधिकरण्यव्यवहारापत्तिरतः भिन्नाभ्यां रूपाभ्यामिति उक्तम् । घटोऽस्ति नीलमानयेति वाक्यद्वयस्थलीयनीलपद-घटपदयोरपि सामानाधिकरण्यव्यवहारस्येष्टत्वात् । एतच्च सामानाधिकरण्यपदार्थतया अभिहितं न तु कादिशक्तिसाधकहेतुघटकं वैयादित्यवधेयम् । अन्यादृशमिति । आख्यातपदचैत्रादिपदयोरेकाधिकरणवृत्तिवरूपमित्यर्थः । न वार्यते, कर्तृत्वादिशक्त्यापि न निवार्यते, कर्तृत्वादिशक्त्याप्युपपद्यत इति यावत् ।
केचित्तु-अन्यादृशं, यत्राख्यातेन कृतिर्बोध्यते तत्र चैत्रादिपदेनापि चैत्रादिकं बोध्यते इत्येवंरूपमित्यर्थ इत्याहुः ॥ ६ ॥
(राम०) ननु कर्तृसंख्याभिधानानभिधाने प्रथमा-तृतीयानियामके कर्मसंख्याभिधानानभिधाने च प्रथमा-द्वितीयानियामके वक्तव्ये । संख्यान्वये च भावनाविशेष्यत्वं नियामकमिति कर्तृ-कर्मसाधारण्येन बोधस्य दुर्वारत्वादित्युक्तदोषविरहस्तथाच कर्तृकर्मणोरवाच्यत्वेऽपि चैत्रस्तण्डुलः पच्यते इत्यादिप्रयोगो न भवतीत्याशयेन समाधत्ते-अत्र वदन्तीत्यादि । भावनेति । भावना च १ क्वचियापारः २ कुत्रचित् कृतिः ३ क्वचिदाश्रयत्वं ४ कुत्रचिच्च प्रतियोगित्वम् । आयं प्राचां मते रथोगच्छतीत्यादौ, द्वितीयं चैत्रः पचतीत्यादौ, तृतीयं चैत्रो जानातीत्यादौ चतुर्थं घटो नश्यतीत्यादौ । तथाचाख्यातार्थव्यापारादविशेष्यत्वनान्वयिन्येवाख्यातार्थसंख्यान्वय इति फलितम् । ननु भावनाविशेष्यभिन्न एव स्वार्थसंख्यान्वयः कथं न भवतीत्यत आह-समानेति । कृति-संख्ययोर्विभिन्नशक्त्यैकपदोपात्तत्वेनैकधर्मिण्यन्वयस्य साकाङ्कत्वादित्यर्थः, शक्तिभेदसूचनायैकपदं त्यक्त्वा समानपदमुक्तम् । ननु समानपदोपात्तान्वयित्वं स्वबोधकपदप्रतिपाद्यार्थान्तरान्वयित्वमाख्यातार्थसंख्यान्वये नियामकमित्यायातं, तथाचैतदपे
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः। क्षया स्वबोधकपदप्रतिपाद्यार्थान्तरान्वयित्वमिति वैयाकरणमतमेव युक्तं लाघवादिति चेत् । न । कर्तृत्वस्य कृतिमत्त्वरूपस्य हि शक्यतावच्छेदकत्वेऽनन्तकृतीन शक्यतावच्छेदकत्वापत्तिर्धर्मिणोऽन्यलभ्यस्य शक्तत्वापत्तिश्चेति महागौरवं स्यात् । न च स्वाश्रयसमवायित्वादिलक्षणपरंपरासंबन्धेन कृतित्वमेवाख्यातशक्यतावच्छेदकं वैयाकरणमतेऽपीति न शक्यतावच्छेकनानात्वगौरवमिति वाच्यम् । समवायेन कृतित्वस्य शक्यतावच्छेदकत्वापेक्षया निरुक्तपरंपरासंबन्धेन कृतित्वस्य तथात्वे गौरवस्यापरिहारात् । उक्तसमानपदोपात्तान्वयित्वस्य नियामकत्वे तु न गौरवं, वैयाकरणस्याख्यातजन्पसंख्याप्रकारकशाब्दत्वावच्छिन्नं प्रति आख्यातजन्यकर्बुपस्थितित्वेन हेतुतावदस्माकमपि तादृशशाब्दत्वावच्छिन्नं प्रति प्रथमान्तपदजन्योपस्थितित्वेन हेतुत्वकल्पनादिति भावः
ननु चैत्रस्तण्डुलं पचतीत्यादौ भावनान्वयस्तडुलादावपि स्यात् तथाच कर्तृकमसाधारण्येनेत्यादिवायकापरिहार इत्यत आह-भावनायाश्चेति । प्रथमान्तपदानुपस्थाप्यस्यापि धात्वर्थस्य भावनायां विशेषणत्वेनान्वयादाह-विशेष्यत्वेनेति । ननु कर्मत्वादेविशेषणतयोपस्थितं चैत्रस्तण्डुलं पचतीत्यादौ तण्डुलादिकमेव भावनाविशेष्यतया अन्वितमिति किं नाङ्गीक्रियते इत्यस्योत्तरदानायाहकर्मत्वादीति । आदिपदेन करणत्व-संप्रदानत्वापादानत्व-संबन्धाधिकरणत्वादीनां सुवर्थानां परिग्रहः । तथाच तेषां कर्मत्वादिविशेषणतया उपस्थितत्वेन भावनाया विशेष्यत्वेनान्वये निराकांक्षत्वमित्युत्तरमभिप्रेतम् । ननु यदि कर्मत्वादिविशेषणतयोपस्थितत्वमेव भावनाविशेष्यत्वेनान्वये निराकासताबीजं तदा धात्वर्थस्य भावनाविशेष्यतयान्वये निराकाङ्कता न स्यात्तस्य कर्मत्व-करणत्वादिविशेषणतथानुपस्थितत्वादित्यत आह-प्रथमान्तति । तथाच कर्मत्वादिवि. शेषणतयोपस्थिते धात्वर्थे च भावनाया विशेष्यत्वेनान्वयबोधस्याजायमानतया तद्वारणाय भावनाया विशेष्यत्वेनान्वयबोधं प्रति प्रथमान्तपदजन्योपस्थितित्वेन हेतुता कल्प्यते इत्यर्थः । ननु विशेषणतयोपस्थित एव कथमाकाका नास्तीत्यत आह-तथैवेति । कर्मत्वादिविशेषणतयानुपस्थितेन प्रथमान्तपदोपस्थाप्येनैव विशेष्यत्वेन भावनान्वयस्य साकाङ्कत्वादित्यर्थः ।
अत्रायं भावः-प्रथमान्तोपस्थाप्यस्य विशेष्यतयैवान्वयनियमेन विशेषणसाकाङ्कता, भावानायाश्च विशेषणत्वेन विशेष्यसाकाङ्क्षतेति भनाश्वदग्धरथन्यायेन प्रथमान्तोपस्थाप्यं विशेष्यीकृत्य भावनायास्तद्विशेषणत्वेनान्वयः। न च प्रथमान्तोपस्थाप्यस्य भावनायां विशेषणतया अन्वयोऽस्तु चैत्रः पचतीत्यादौ चैत्रीया पाकानुकूला कृतिरित्यन्वयबोधसंभवादिति वाच्यम् । सुवातिरिक्तविभक्त्यर्थसाक्षाद्विशेषणतया प्रातिपदिकार्थे शाब्दबोधविषयत्वानङ्गीकारादिति । एतेन प्रथमान्तपदोपस्थाप्यत्वमेव भावनाया विशेष्यत्वेनान्वये नियामकमस्तु ताबतैवानतिप्रसङ्गादिति किं कर्मत्वाचनवरुद्धत्वस्य तनियामकत्वकल्पनयेत्यपास्तम् ।
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७४
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
कर्मत्वाचनवरुद्धत्वस्यापि तनियामकत्वेन नाभिधानं किन्तु कर्मत्वाधवरुद्ध भावनाया आकाङ्क्षा नास्तीत्यगत्या प्रथमान्तपदोपस्थाप्येनैवाकाङ्केति प्रथमान्तपदोपस्थाप्यत्वमेव तन्नियामकमिति सूचनाय परं तदभिधानमिति ।
केचित्तु कर्मत्वाद्यमवरुद्धत्वमात्रोक्तौ धात्वर्थसाधारण्यमिति प्रथमान्तोपस्थाप्यत्वम् । एतन्मात्राभिधाने चन्द्र इव मुखं तिष्ठतीत्यादौ इवार्थसादृश्यविशेषणीभूतचन्द्रसाधारण्यं स्यादिति कर्मत्वाचनवरुद्धत्वमुक्तमित्याहुः । तदसत् । उक्तरीत्या प्रथमान्तपदोपस्थाप्यत्वमात्रस्य तनियामकत्वकल्पनयैवानतिप्रसङ्गेन कर्मत्वाचनवरुद्धत्वस्य तन्नियामकत्वे मानाभावादिति । एतेन प्रथमान्तोपस्थाप्यत्वमात्रस्य नियामकत्वे चैत्रस्तण्डुलः पचतीत्यादौ साधुत्वभ्रमदशायां तण्डुलपदोत्तरप्रथमायाः कर्मत्वादिशक्तिभ्रमदशायां च तण्डुले भावनाया विशेष्यत्वेनान्वयापत्तिरिति कर्मत्वाचनवरुद्ध इति । एतन्मात्राभिधाने च धात्वर्थस्यापि तथात्वापत्तिरिति, प्रथमान्तेति । यद्वा चैत्रः स्वः पश्यतीत्यादौ अव्ययीभूतस्वःपदार्थे प्रथ. मान्तोपस्थाप्ये भावनान्वयापत्तिरिति, कर्मत्वादीति । तत्र प्रथमाया एवं कर्म. स्वार्थकत्वादिति तेन तद्वारणं धात्वर्थवारणाय प्रथमान्तेतीत्यपास्तम् । उक्तरीत्या प्रथमान्तोपस्थाप्यत्वमात्रस्यैव नियामकत्वेनानतिप्रसङ्गादिति। .. ___ यत्तु प्रथमान्तपदजन्योपस्थितिः कर्मत्वादिविशेषणतयोपस्थित्यभावसहकारिणी भावनाविशेष्यत्वेनान्वयबोधहेतुरिति, तदपि तुच्छं, तादृशोपस्थित्यभावस्य सहकारित्वे मानाभावाच्चैत्रः पश्यतीत्यादावतिप्रसङ्गवारणाय कर्मत्वादि. तात्पर्यरहितप्रथमान्तपदजन्योपस्थितित्वेन हेतुताया गुरुलघुत्वात् । अस्तु वा स्वःपदादेरपि तत्र द्वितीयान्तता, अव्ययोत्तरं प्रथमैकवचनमेव भावाख्यातवदित्यत्र मानाभावात् , भावाख्यातस्थले च भावः सत्ता औत्सर्गिकमेकवचनमेवेति विशेषानुशासनस्य सत्वादव तु तदभावादिति संक्षेपः ।
नन्वाख्यातेन कर्तृसंख्यानभिधान एव तृतीयेति पर्यवसितम् । तथाच यत्राख्यातभेदेन युगपत्कर्तृ-कर्मसंख्याभिधानं तत्र तृतीया न स्यादिति चैत्रस्तण्डुलं पचति चैत्रेण पच्यते तण्डुल इति युगपत्प्रयोगोऽसाधुः स्यादित्यत आहचैत्र इत्यादि । तत्रैव संख्यान्वयः, चैत्रः पचतीत्यत्र फाख्यातेन कर्तर्येव संख्यान्वयः। चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यत्र च कर्मणि तण्डुल एव कर्माख्यातार्थसंख्यान्वयः । तथाच तदाख्यातपदेन यत्र कर्तृसंख्यानभिभानं वत्र तदारूपातैकवाक्यतापन्नप्रातिपदिके तृतीया, तदाख्यातेन यत्र कर्मसंख्यानभिधानं तब तदाख्यातैकवाक्यतापनप्रातिपदिके द्वितीयेत्याख्यातभेदेनानभिहिताधिकारीयसूत्रार्थो वक्तव्य इति नोक्तदोष इति भावः ।
ननु भावनाविशेष्ये प्रथमान्तोपस्थाप्य एव यदि संख्यान्वयस्तदा चैत्रेण सुप्यत इत्यादौ प्रथमान्तपदाभावात्संख्यान्वयो न त्यादित्याशङ्कायामिष्टाप
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१३ ग्रन्थः ]
आख्यातशक्तिवादः ।
च्योत्तरमाह-चैत्रेणेति । ननु चैत्रेण सुप्यत इत्यत्र प्रथमान्तपदाभावेऽप्यबाधेन चैत्रवृत्तिचक्षुर्निमीलनाद्यनुकूलकृतेर्जन्यतासंबन्धेन स्वापे धात्वर्थेऽन्वयोऽस्तु । तथाच स एव भावनाविशेष्यतया संख्यान्वयी भवितुमर्हत्येवेत्यत आह-गगनेनेति । अत्र च गगनवृत्तिस्थितिरित्यर्थः तथाच पूर्ववदत्र भावनान्वयो धात्वर्थे न संभवति धात्वर्थस्य नित्यत्वेन भावनान्वयस्य बाधितत्वादित्यगत्या संख्यानन्वय एव स्वीक्रियत इति भावः । ननु गगनेन स्थीयत इत्यत्रापि प्रथमान्तपदाभावेऽपि जानातीत्यादाविवाश्रयत्वात्मिकाया भावनाया एव विशेषणत्वेन धात्वर्थेऽन्योऽस्तु । तथाच गगनवृत्त्याश्रयतानिरूपिका स्थितिरित्यन्वये भावना विशेष्यीभूतायां स्थितावेव संख्यान्वयः स्यादित्यत आह- धात्वर्थस्येति । गगनं तिष्ठतीत्यादावाश्रयत्वरूपभावनाविशेषणत्वेनैव थात्वर्थस्थित्यन्वयस्य व्युत्पत्तिसिद्धतया तद्भङ्गप्रसङ्गेनाश्रयत्व विशेष्यतया धात्वर्थान्त्रयो न संभवतीत्यर्थः ।
ननु विनिगमनाविरहेण उभयत्र भिन्नभिन्ना व्युत्पत्तिः कल्पनीया, अन्यथा भावाख्यातस्थलीयव्युत्पत्तिविरोधेन गगनं तिष्ठतीत्यादावन्वयोऽव्युत्पन्न इत्यस्यापि वक्तुं शक्यत्वादित्यत आह-भावनाया इति । गगनटच्याश्रयत्वरूपभावनायास्तद्वृत्तिस्थितौ बाधेनान्वयासंभवादित्यर्थः । यद्यपि निरूपकतासंबन्धेन गगननृत्याश्रयत्वं तद्वृत्तिस्थितावबाधितमेव तथापि प्रलये गगनेन स्थीयते न नष्टघटेन इत्यादौ नमर्थान्वयानुपपत्त्या निरूपकत्वसंबन्धेन तदन्वयो न संभवति निरूपकत्वस्य नृत्यनियामकतया प्रतियोगितावच्छेदकसंबन्धत्व विरदेण तत्संबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक-घटवृत्त्याश्रयत्वाभावबोधस्यासंभवादित्यत्र तात्पर्यम् । न च न नष्टघटेनेत्यतो घटटच्त्याश्रयताया आश्रयत्वसंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभाव एव प्रतीयतामिति नोक्तदोष दति वाच्यम् । तथा सति न घटेनेत्यादिवत् न गंगनेन स्थीयते इत्यादेरपि प्रसङ्गात्, गगनवृत्त्याश्रयताया आश्रयतासंबन्धेनाभावस्य गगनवृत्तिस्थितौ सत्त्वादित्यलमधिकेनेति दिक् ।
ननु यदि भावाख्यातानां (न) संख्याबोधकत्वं तदा गगनेन स्थीयत इत्यादौ वर्तमानत्वाद्यन्वये तात्पर्याभावस्थले भावाख्यातप्रयोग एव न स्यात् प्रयोज - नाभावात् । तेषां संख्याबोधकत्वनियमे च नियमेन संख्याबोधार्थमेव तत्तत्प्रयोग उपपद्यते इत्यत आह-एकवचनं त्विति । वर्तमानत्वादितात्पर्याभावदशायामपि गगनेन स्थीयते इत्यादावाख्यातैकवचनं त्वित्यर्थः । साधुत्वार्थं तत्रत्यधातोः साधुत्वसंपत्तये । भावाख्यातसमभिव्याहारं विना तत्र धातोरसाधुत्वाच्या अन्वयाबोधकत्वप्रसङ्गात् भावाख्यातप्रयोगः सप्रयोजन इत्यर्थः । न चाबोधकपदसमभिव्याहारो न साधुत्वसंपादकस्तथा सति [आनयनादीनां ? ] स्वार्थकविकरणादीनां समभिव्याहारस्यापि साधुत्वसंपादकत्वाभावप्रसङ्गादिति भावः । भावाख्यातस्य संख्याबोधकत्वे बाधकं भावाख्यातस्यैकवचनतायां
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः युक्तिंच उपष्टम्भकस्थलेन दर्शयति-अतएवेति । भावाख्यातस्थले संख्यानन्वयादेवेत्यर्थः । स्वापस्य द्वित्व-बहुत्वेऽपीति तथाच यद्येकवचनभावाख्यातस्य एकत्वसंख्याबोधकत्वं तदा तुल्यन्यायतया स्वापादिगतद्वित्वादितात्पर्यसत्त्वे भावस्थले द्विवचन-बहुवचनयोरापत्तिः । यदि च भावस्थले धात्वर्थगतद्विस्व-त्रित्वादिसंख्यायां कदापि कस्यापि न तात्पर्यमिति न तत्र द्विवचनादीत्युच्यते तदा एकत्वसंख्यायामपि तथैवेत्येकवचनस्याप्यनुपपत्तिरिति बाधकमित्यर्थः। औत्सर्गिकमिति गणनक्रमेण प्रथमोपस्थितमित्यर्थः । तथाच साधुत्वार्थ द्विवचनादेः संभवेऽपि विलम्बोपस्थितिकत्वान्न तस्य साधुत्वनियामकत्वं कल्प्यते किंतु शीघ्रोपस्थितिकतयैकवचनस्यैव तथात्वमिति युक्तिरित्यर्थः ।
ननु भावाख्यातस्थले यदि कृतिर्व्यापारो वा नार्थस्तदा भावाव्यातस्य कोऽर्थः कुत्र वा भावाख्यातेन वर्तमानत्वादिबोध इत्याकाङ्क्षायामाह-अतएवेति । भावाख्यातानां संख्याबोधकत्वविरहादेवेत्यर्थः । यथायथमिति भावलस्थले वर्तमानत्वं भावविधिस्थले इष्टसाधनत्वंचेत्यर्थः । तच्च वर्तमानत्वादिकं च । ननु कृतौ व्यापारे वा तदन्वयोऽनुभवसिद्धो न तु धात्वर्थेऽपीत्यत आह-तथैवेति । भावाख्यातस्थले धात्वर्थगतत्वेनैव वर्तमानत्वेष्टसाधनत्वप्रत्ययादित्यर्थः । भावाख्यातादिष्टसाधनताप्रतीतिस्तु चैत्रेण पच्यतेत्यादौ विधिभावस्थले वोहव्या । यदि च धात्वर्थे वर्तमानत्वादिबोधो नाङ्गीक्रियते तदा चैत्रोजानातीत्यादौ धात्वर्थज्ञानादिगतत्वेन वर्तमानत्वबोधानुपपत्तिरिति भावः । यद्यपीष्टसाधनत्वं धात्वर्थ एव सर्वत्र मणिकारमते भासते इति तदभिधानमसंगतं, तथापि कृतीष्टसाधनतावादिमतमाश्रित्य इदमुक्तं, दृष्टान्तार्थं तदुक्तमिति मान्याः । ननु यथा पाक इत्यादौ घनादीनां प्रयोगसाधुतामात्रं प्रयोजनं न तु वतमानत्वादिवोधकत्वं तथा भावाख्यातानामप्यस्तु तदेव प्रयोजनं न तु वर्तमानत्वादिबोधकतापीत्यत आह-तदबोधकानामिति । वर्तमानत्वाधबोधकानामित्यर्थः। तुशब्दोऽवधारणार्थः । तथाच घशादिस्थले वर्तमानत्वानुभवाभावेन वर्तमानत्वबोधकत्वाभावः । भावाख्यातस्थले वर्तमानत्ववोधस्यानुभविकत्वेन न तथेति दृष्टान्तदा न्तिकवैषम्यमित्यर्थः । ___ ननु चैत्रः पचतीत्यादौ प्रथमान्तपदोपस्थाप्ये येन केनापि संबन्धनान्वयस्वी. कारे अपचत्यपि मैत्रादौ कालिकसंबन्धादिना पाकानुकूलकृतिमत्वात् पचतीत्यादिप्रयोगापत्तिरेवं तादात्म्येन पाकानुकूलकृतेः स्वात्मकगुणे सत्त्वाद्गुणः पचतीति प्रयोगापत्तिरित्यत आह-भावनायाश्चेति । तथाच चैत्रः पचतीत्यादौ यदि चैत्रपदार्थः शरीरं तदा अवच्छेदकताख्याश्रयतासंबन्धेन कृतेरन्वयः, यदि च शरीरविशेषावच्छिन्नात्मा तदर्थस्तदा समवायाख्याश्रयतासंबन्धन तत्र तदन्वय इति नियमः स्वीकार्यो न तु येन केनापि संबन्धन तदन्वयः स्वीकतव्य इति नोक्तदोप इति भावः । एवमन्यत्रापि बोध्यम् । नन्वेवं चैत्रेण पच्यते
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः। तण्डुल इत्यादौ भावनायाश्चैत्रवृत्तिपाककृतेराश्रयत्वस्य तण्डुलादौ बाधेन कथं तत्र तदन्वयस्तथाच तत्र भावनाविशेष्यत्व विरहात् संख्यान्वयो न स्यादित्यत आहकर्मणि पुनरिति । कर्मप्रत्ययस्थले तण्डुलादावित्यर्थः । अन्यथा वक्ष्यमाण. प्रकारेण । ननु पचतीतिपरस्मैपदाख्यातस्य यदा कर्तृत्वबोधे तात्पर्यविरहः, किंतु कर्मत्वे तदा तण्डुलस्यैव भावनाविशेष्यतया संख्यान्वयित्वेन कर्तृ-संख्याया अनु. तत्वात् तृतीयापत्तिः। एवं पच्यत इत्यादौ कर्माख्यातस्य यदा कर्मत्वबोधे तात्पर्य नास्ति किंतु कर्तृत्वबोधे तदा चैत्रस्यैव भावनान्वयितया तण्डुलादेर्भावनाविशेध्यत्वविरहितया संख्यानन्वयित्वे कर्मसंख्याया अनुक्तत्वे द्वितीयापत्या तण्डुलं पच्यत इति प्रयोगापत्तिरित्यत आह-तवेति । वैयाकरणस्येत्यर्थः । तथाच भवन्मते यथा परस्मैपदेन नियमतः कर्तुरभिधानमिति तत्र न तृतीया, एवं चैत्रेण पच्यत इत्यादौ कर्मबोधकत्वमेव न तु कर्तृबोधकत्वमिति तत्र न द्वितीया, तथा ममापि परस्मैपदेन कर्तत्वं बोध्यते न तु कर्मत्वं, पच्यत इत्यादौ चा. ख्यातेन कर्मत्वं बोध्यते न तु कर्तत्वमिति नोक्तातिप्रसङ्ग इत्यर्थः । ननु पचति पच्यत इत्यादावसाधुत्वाकर्तृत्व-कर्मत्वबोधो मास्तु, पक्ष्यत इत्यादावाख्यातस्योभयत्र साधुत्वात् एकदा कर्तृत्व-कर्मत्वबोधमादाय द्वितीया-तृतीययोरनुपपत्तिरित्यत आह-पक्ष्यत इति । तथाच पक्ष्यत इत्यादावसाधुतया अन्यथा वा यथा नैकदा कर्त-कर्मोभयबोधकता तथा ममापीति नातिप्रसङ्ग इति भावः ।..
ननु भावना कृतिस्तथाच रथोगच्छतीत्यादौ भावनाविरहेण तद्विशेष्याप्रसि. ध्या संख्यान्वयो न स्यादित्यत आह-भावना चेति । व्यापारेति । मात्रपदं कृत्स्नार्थकं, तथाच रथोगच्छतीत्यादौ धात्वर्थानुकूलव्यापार एव भावनापदार्थ इति नोक्तदोष इति भावः । अचेतनानुरोधात् रथो गच्छतीत्यायचेतनविशेष्यकबोधानुरोधात् । ननु कर्तरि कर्मणि च यदि नाख्यातस्य शक्तिस्तदा चैत्रपदाख्यातपदयोर्विभिन्नरूपाभ्यामेकथर्मिशक्तत्वरूपसामानाधिकरण्यं न स्यादित्यत आह-भिन्नाभ्यामिति । एकर्मिशक्तत्वमप्रसिद्धमिति नैयायिकैरनभ्युपगमादिति भावः । संभवदिति, मिनाभ्यामेकधर्मिविशेष्यकशब्दबोध. जनकत्वलक्षणसामानाधिकरण्यं न वार्यते न नैयायिकैरस्माभिरपि निवार्यते कृति-चैत्रत्वाभ्यां भिनाभ्यामाख्यातपद-चैत्रपदाभ्यामेकस्य चैत्रस्य शाब्दबोधजननादिति भावः ॥६॥
(रघु०) नैयायिकः प्रत्यवतिष्ठते-अत्र वदन्तीति । नैयायिकन्ये लाघवसिद्धकृतित्वादिशक्यतावच्छेदककाख्यातपदेनोक्तानुक्तविभागमूलीभूतकर्तृकर्मः । गतसंख्याभिधानानभिधानविघातकं कर्तृकर्मसाधारण्येनान्वयबोधापादनं निराकर्तुमाह-भावनाविशेष्य इति । समानपदोपात्तत्वेनेति । एकपदोपस्थाप्यत्वेने त्ययः । एकान्वयित्वस्य बाधकं विना नियमसिद्धत्वादित्यर्थः । नन्वेकपदोपस्था.
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७८
वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग: “यानामेकार्थान्वयित्वनियमोऽप्रयोजकत्वादुपेक्षणीय इति चेन्मैवम् । तथाविधनियमस्वीकारे लाघवस्यैव प्रयोजकत्वसंभवात् । तथाहि आख्यातपदोपस्थाभावनारूपैकार्थस्यान्वयबोधार्थमवश्यं पदार्थान्तरचैत्राद्युपस्थितिकल्पनमावश्यकम् | अन्यथा पदार्थान्तरस्य चेत्रादेः पदजन्योपस्थित्यभावे शाब्दबोधेऽभानापत्त्या तत्र भावनान्वयस्यानुपपत्तेः । तथा संख्याया अपि चैत्राद्यन्वयस्वी - कारे पदार्थान्तरोपस्थित्यन्तराकल्पनप्रयुक्तलाघवमतिस्फुटमेवेत्युक्तनियमाभ्युपगमः । न चोक्तनियमाभ्युपगमे पचेदित्यादौ कृतिसाध्यत्वान्वितपाके संख्यान्वयापत्तिरिति वाच्यम् । आख्यातपदज्ञानजन्य संख्या प्रकारक शाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति चैत्रादिपदजन्याख्यातपदार्थभावनाविशेष्योपस्थिते: विशेष्यतासंबन्धेन हेतुत्वस्य कल्पनीयतयोपदर्शितापत्तेरभावात् । न च तथाप्युपदर्शितनियममङ्गप्रसङ्ग इति वाच्यम् । अन्यथानुपपत्त्या तादृशनियमे कृतिसाध्यत्वेष्टसाधनत्वाद्यतिरिक्तत्वेनैकपदोपस्थाप्यस्य विशेषणीयत्वादिति सारम् ।
1
ननु भावनैव कुत्रान्वेति कुत्र नेत्यत्र किं नियामकं तत्राह - भावनायाश्चेत्यादि । अन्वययोग्य इति । तथाविधान्वयः कार्यकारणभावसिद्ध इत्यर्थः । तथा च कर्मत्वाद्यनवरुद्धप्रथमान्तपदोपस्थाप्ये एवाख्यातार्थभावनाया विशेव्यत्वेनान्वयोग्यत्वस्य कार्यकारणभावसिद्धतया अन्यत्र भावनाया नान्वय इति भावः । ननु कीदृशकार्यकारणभावसिद्धस्तथान्वयस्तत्राह — तथैवेति । भावनानिष्ठ प्रकारतानिरूपितविशेष्यतासंबन्धेनाख्यातपदज्ञानजन्यशाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति विशेष्यतासंबन्धेन [ आख्यातपदसमभिव्याहृत प्रथमान्तनामपदज्ञानजन्यकर्मत्वाद्यनवरुद्धार्थविशेष्यकोपस्थितित्वेनेत्यर्थः । साकाङ्क्षत्वादिति । शाब्दबोधपदजन्योपस्थित्योः कार्यकारणभावकल्पनादित्यर्थः । तथा च तादृशकार्यकारणभावबलात् तथाविधप्रथमान्तपदोपस्थाप्ये भावनाया विशेष्यत्वेनान्वय इति भावः । ननूपदर्शितकार्यकारणभावे कारणतावच्छेदककोटौ कर्मत्वाद्यनवरुद्धत्वं विशेषणं व्यर्थम् । यदि च कर्मत्वाद्यनवरुद्धत्वं विशेषणमनिवेश्य तथाविधान्वयबुद्धिं प्रति प्रथमान्तपदजन्योपस्थितेर्हेतुत्वे चन्द्र इव मुखमस्तीत्यादौ प्रथमान्तपदोपस्थितिविषये चन्द्रे सादृश्ये च भावनान्वयप्रसङ्गस्तदा प्रकृतशाब्दबोधे इतराविशेषणत्वार्थकं कर्मत्वाद्यनवरुद्धत्वं तत्र कारणतावच्छेदककोटौ निवेशनीयमिति विभाव्यते, तथापि तत्र पदे प्रथमान्तत्वविशेषणं व्यर्थमेव, द्वितीयान्तपदजन्योपस्थितिविषयीभूतार्थस्य शाब्दबोधे कर्मत्वविशेषणतयेतराविशेषणत्वविरहादेव तत्र भावनाया अन्वयबोधापत्तिवारणसंभवात् ।
एतेन भावनानिष्ठप्रकारतानिरूपित विशेष्यतासंबन्धेन आख्यातपदज्ञानजन्यशा
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः । ब्बुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति प्रथमान्तपदजन्योपस्थितेर्विशेप्यतासंबन्धेन हेतुत्वं कल्प्यते नतु तत्र कर्मत्वाद्यनवरुद्धत्वमपि निवेश्यते तस्य निर्वचनाशक्यत्वात् । न च प्रकृतशाब्दबोधे इतराविशेषणत्वमेव तत् , प्रकृतत्वं च प्रथमान्ततत्तत्पदजन्यत्वमिति वाच्यम् । चन्द्रवन्मुखं, चन्द्रो राजते, इत्यादिवाक्यद्वयजन्यसमूहालम्बनबोधे चन्द्रेभावनान्वयानुपपत्तेः । न च प्रथमान्तपदजन्यशाब्दबोधे विशेष्यत्वाभावकत्वे सति तथाविधशाब्दबोधे इतराविशेषणत्वमेव तदिति वाच्यम् । तथा सति एतादृशधर्मस्योपदर्शितकारणतावच्छेदककोटौ निवेशे परस्परं विशेष्यविशेषणभावे विनिगमनाविरहेण कार्यकारणभावबाहुल्यस्य दुष्परिहरत्वात् तथाविधान्वयबुद्धिं प्रति स्वीयविशेष्यत्वाभावविशिष्टप्रकारतासंबन्धेन शाब्दबोधस्यैव कार्यकालवृत्तितया प्रतिबन्धकत्वकल्पनमुचितम् । तादृशप्रतिबन्धकाभावादिकारणत्वकल्पिका व्युत्पत्तिः कर्मत्वाचनवरुद्ध इत्यादिग्रन्थेन दर्शिता । तादृशव्युत्पत्ती तथाविधविशेषणानुपादाने तादृशप्रतिबन्धकाभावस्य हेतुत्वाप्राप्त्या चन्द्रवन्मुखमस्तीत्यादौ चन्द्रादिपदार्थे भावनायाः अन्वयप्रसङ्ग इति तत्र तदुपादानमित्यपि परास्तम् । उपदर्शितप्रतिबन्धकाभावस्य हेतुत्वे पदजन्यपदार्थोपस्थितिकारणतावच्छेदककोटौ पदांशे प्रथमान्तत्वविशेषणोपादानस्य व्यर्थतया तत्र तदुपादानसंपादकतथाविशेषणस्य व्युत्पत्ती निवेशे प्रयोजनाभावादिति चेन्मैवम् । तत्र तदनिवेशे द्वितीयाविभक्त्यन्ताद्यनेकपदेषु तथाविधोपस्थितिनिष्ठकारणतावच्छेदकत्वकल्पने गौरवात् । अस्मन्मते प्रथमान्तपद एव तत्कल्पनमिति लाधवस्यैवोपदर्शितकारणतावच्छेदककोटौ पदांशे प्रथमान्तत्वनिवेशनसंपादकतया उपदर्शितव्युत्पत्तावपि तादृशविशेषणनिवेशस्यावश्यकत्वात् । अन्यथा तदनुसारेण उपदर्शितविशेषणघटितकार्यकारणभावकल्पनाया अयोगादिति । ननु भावनाया इत्यादि ग्रन्थस्य उपदर्शितरीत्या व्युत्पत्तिपरत्वे तथैवेत्यादिग्रन्थस्य कोऽर्थ इति चेत्तमवेहि-तथैवेति । तादृशव्युत्पत्त्यनुसारेण तत्तद्रूपेणैवेत्यर्थः । तथाविधप्रतिबन्धकाभावत्वतादृशपदजन्यपदार्थोपस्थितित्वादिनैवेति तु निर्गलितार्थः । साकाङ्क्षत्वादिति । कार्यकारणभावस्याकाङ्क्षाविषयत्वात्कल्पनीयत्व. मिति यावत् । तथा चोक्तव्युत्पत्त्यनुसारेण उपदर्शितकार्यकारणभावं कल्पयित्वा भावनाया अन्वयनियम उपपादनीय इति भावः । उपदर्शितव्युत्पत्तौ किं मानमिति तु नाशङ्कनीयम् । तत्रानुभवस्यैव शरणीकरणीयत्वात् । अन्यथा व्युत्प. त्तिमात्रस्यैवोच्छेदः स्यादिति कृतं पल्लवितेन ।
१ भावेन कामचारेणेति पाठः।
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः तत्रैवेति । भावनाविशेष्ये कर्तरि कर्मणि चेत्यर्थः । ननु भावनाविशेष्ये संख्यान्वयस्वीकारे चैत्रेण सुप्यत इत्यादौ संख्यानन्वयापत्तिः, तत्र भावनाविशेष्यविरहादतस्तत्रेष्टापत्तिमाह-चैत्रेण सुप्यत इत्यादिना । प्रथमान्तपदाभावादित्यस्य भावनाविशेष्यविरहादित्यग्रिमतनेनान्वयः । ननु चैत्रैण सुप्यत इ. त्यादौ धात्वर्य एव भावना विशेष्यत्वेनान्वेतु, तथा च तत्रैव संख्यान्वयसंभवे किमर्थमुपदर्शितस्थले संख्यानन्वये इष्टापत्तिरित्यत आह-धात्वर्थस्येति । व्युत्पनत्वादिति । तथा च भावनायां विशेषणत्वेनैव धात्वर्थान्वय इति व्युत्पत्तिसिद्धस्य चैत्रः स्वपितीत्यादौ स्वापादिनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासंबन्धेन तथाविधवाक्यजन्यशाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति आख्यातपदजन्यभावनोपस्थिते: विशेष्यतासंबन्धेन हेतुत्वस्य कल्पनात् , चैत्रेण सुप्यत इत्यादेः स्वापादौ भावनाया: विशेष्यत्वेन अन्वयाबोधकत्वमिति भावः । ननु भावनायां विशेषणत्वेनैव धात्वर्थान्वय इति व्युत्पत्ते वाख्यातस्थले संकोचः कल्पनीयः । भावाख्यातस्थले च धात्वर्थस्य भावनाविशेष्यत्वेनान्वय इति व्युत्पत्त्यन्तरमङ्गीकृत्य कार्यकारणभावान्तरं कल्पयित्वा उपदर्शितस्थले धात्वर्थविशेष्यकभावनाप्रकारकबोधाङ्गीकारे क्षतिविरहादित्यत आह-भावनाया बाधितत्वाञ्चेति । चैत्रेण सुप्यत इत्यादी आख्यातार्थाश्रयत्वरूपाया भावनायाः स्वापे बाधेन तथान्वयासंभवादित्यर्थः । ननु निरूपकत्वसंबन्धेनैव तत्र तस्यान्वयः संभवतीति चेत् , तथा सति चैत्रेण सुप्यते न मैत्रेणेत्यादौ नत्रर्थानन्वयापत्तेः । न च निरूपकतासंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाश्रयत्वाभावस्य स्वापेऽन्वयसंभवान्न तत्र नञर्थान्वयानुपपत्तिरिति वाच्यम् । वृत्त्यनियामकसंबन्धस्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकतया निरूपकतासंचन्धावच्छिन्नप्रयितोगिताकाश्रयत्वाभावस्यालीकतया तत्र तदन्वयासंभवेनोपद. र्शितानुपपत्तेर्दुरित्वात् । चैत्रेण सुप्यत इत्यादौ एककालीनत्वादिसंबन्धेन स्वापे आश्रयत्वस्यान्वय इति नाशङ्कास्पदमपि । तत्र तेन संबन्धेन आश्रयत्वस्यान्वये निराकाङ्क्षत्वात् । मैत्रस्य जाग्रद्दशायां चैत्रवृत्त्याश्रयत्वमादायापि मैत्रेण सुप्यत इति प्रयोगप्रसङ्गाचेति । ननु तत्रैकवचनार्थसंख्याया अनन्वये एकवचनं व्यर्थमित्यत आह-एकवचनं त्वित्यादि। अत एव भावाख्यातस्थले एकवचनस्य साधुत्वादेवेत्यर्थः । औत्सर्गिकमिति प्रथमोपस्थितमित्यर्थः। अन्यथा तत्र -स्वापादौ संख्याया अन्वयस्वीकारे स्वापद्वित्वबहुत्वे भावाख्यातस्थले द्विवचनबहुवचनापत्तेः तत्र चेष्टापत्तिर्न संभवति, अभियुक्तस्मरणविरुद्धत्वादिति भावः ।
. १ पुस्तकत्रये ' इत्यादौ स्वापादेर्भावनाविशेष्यत्वेनान्वये बाधक (स्व) मिति भावः' । इति पाठः।
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः ।
ननु भावाख्यातस्थले संख्याभावनयोरनन्वये भावतिङ्नैरर्थक्यमित्यत आह-- एवं चेति । भावाख्यातस्थले संख्याभावनयोरन्वये चेत्यर्थः । यथायथमित्यादि । वर्तमानत्वं लङर्थः, इष्टसाधनत्वं लिङर्थः । इष्टसाधनत्यादिकमित्यत्रादिपदमतीतत्वकृतिसाध्यत्वाद्यर्थकम् । ननु लिङर्थेष्टसाधनत्वादेर्लुङर्थातीतत्वादेः कुत्रान्वयस्तत्राह—तच्चेत्यादि । लिङर्थेष्टसाधनत्वं लुर्थांतीतत्वादिकं चेत्यर्थः । ननु तथान्वये मानाभाव इत्यत आह.-तथैवेति । लिङादिसमभिव्याहारस्थले धात्वर्थविशेष्यकेष्टसाधनत्वप्रकारकबोधस्यैवानुभवसिद्धत्वादित्यर्थः । इदमत्रावधेयं---चैत्रेण सुप्यत इत्यादौ वृत्तित्वं तृतीयार्थः । वर्तमानत्वं भावतिर्थः । धात्वर्थः स्वापः । तथा च चैत्रवृत्तिवर्तमानः स्वाप इत्यन्वयबोधः । एवं चैत्रेण सुप्यतेत्यादौ भावलिङ इष्टसाधनत्वादिकमर्थः । तथा च चैत्रवृत्तिः स्वाप इष्टसाधनं कृतिसाध्यश्चेत्याकारकान्वयबोधः । एवमन्यत्रापि सूक्ष्मदर्शिभिश्चिन्तनीयमिति । तदबोधकानामिति वर्तमानत्वाद्यबोधकानामित्यर्थः ।
ननु भावनायाः प्रथमान्तपदोपस्थाप्ये केन संबन्धेनान्वय: ? न तावदाश्रयतासंबन्धेन, चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादौ तण्डुले आख्यातार्थकृतिरूपाया:. भावनाया. बाधितत्वादित्यत आह-भावनायाश्चेति । माश्रितत्वेन आश्रयतासंबन्धेनेत्यर्थः । अन्यथेति वक्ष्यमाणपरंपरयेत्यर्थः । तथाच साक्षात्परंपरया वा भावनाविशेष्य एव संख्याया अन्वयनियम इति भावः । नच संख्याद्यति-. रिक्ताख्यातार्थमात्रस्य भावनापदशक्यतया कर्माख्यातस्थले कर्मत्वस्याप्याख्यातार्थतया साक्षाद्भावनाविशेष्य एव संख्यान्वयनियमोऽस्तु अलं तत्र परम्परया वेत्यस्य निवेशनेनेति वाच्यम् । प्राचीनमते कर्माख्यातस्यापि कृत्यर्थकतया कर्मत्वार्थकत्वाभावेन कर्मत्वस्य भावनात्वविरहादुपदर्शितानुपपत्तेरभावादिति । ननु यथा चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यत्र नैयायिकमते परम्परया कर्मणि कृतेरन्वय स्तथा चैत्रेण पचति तण्डुल इत्यत्रापि कथं नान्वयबोधः । एवं नैयायिकमते चैत्रः पचति तण्डुलमित्यत्रेव चैत्रः पच्यते तण्डुलमित्यत्रापि आश्रयतासंबन्धेन कृतेरन्वयबोधापत्तिरेवं चैत्रः पक्ष्यते तण्डुल इत्यत्र वा कथं तन्मते एकदा कर्तृकर्मणोर्ययोक्तरीत्या कृतेर्नान्वयः ? उपदर्शितस्थलेषु सर्वत्राख्यातपदात्कृतेरुपस्थितिसत्त्वादित्याशङ्कामपाकर्तुमाह—तवेति । वैयाकरणस्येत्यर्थः। तथान्वयबोधकत्वमिति । कर्तृकर्मणोः कृतेर्बोधकत्वमित्यर्थः । तथा च वैयाकरणमते तादृशतादृशशाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति यादृश यादृशानुपूर्वीज्ञानत्वेन कारणता नैयायिकमतेऽपि तादृशतादृशशाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति तादृशतादृशानुपूर्वी--
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः ज्ञानत्वेन हेतुत्वकल्पनान्नानुपपत्तिरिति भावः। तथाविधकार्यकारणभावकल्पनाबीज स्वयमेव स्पष्टयति-अत इति । तथाविधकार्यकारणभावकल्पनादित्यर्थः । न प्रयोगा इति । न तादृशशाब्दबोधजनका इत्यर्थः ।
ननु भावनायाः कृतिरूपत्वेन तद्विशेष्ये संख्यांन्वयनियमस्वीकारे रथो गच्छतीत्यादौ कथं रथे संख्यान्वयः, भावनाविशेष्यत्वाभावादित्यत आह-भावना चेति । संख्याव्यतिरिक्ताख्यातार्थमात्रमेव उक्तनियमघटकीभूतभावनाशब्दार्थः । अचेतनानुरोधादिति । रथो गच्छतीत्यादौ रथादौ संख्यान्वयानुरोधादित्यर्थः । तथा चाख्यातस्य क;दिगतसंख्याभिधानानभिधानाभ्यामेव तृतीयादिनियमोपपत्तावाख्यातस्य कादिशक्तिमभ्युपगच्छता वैयाकरणानां मतमनादरणीयमेव लघुकृतिशक्तिवादिनैयायिकनये श्रद्दधानः सुधीभिरिति भाव: । ननु नैयायिकमते आख्यातपदचैत्रपदयोर्विभिन्नरूपेणैकर्मिबोधकत्वरूपसामानाधिकरण्यानुभवोऽनुपपन्नः । तथा चानुभवकृतविश्रामाणां कथं तन्मतमनुमतमित्यत आहविभिन्नाभ्यामित्यादि । तथा च तादृशानुभव एवासिद्ध इति भावः । अन्यादृशं त्विति । एकधर्मिनिष्ठभिन्नधर्मबोधकत्वरूपं सामानाधिकरण्यमित्यर्थः । . अत्र वैयाकरणमतानुयायिनः--आख्यातस्य कादिशक्तिकल्पने नैयायिकमतमपेक्ष्य लाघवसंभवात्तथैवोचितम् । तथाहि तन्मते कर्तृप्रकारकज्ञानाभावविषयकलौकिकप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति आख्यातपदनिरूपितशक्तिज्ञानादिघटितशाब्दसामग्र्याः प्रतिबन्धकत्वाकल्पनेऽपि तथाविधशाब्दबोधसामग्रीकाले कर्तृप्रकारकज्ञानाभावासत्त्वेन विषयासत्तयैव तथाविधलौकिकप्रत्यक्षानुत्पादेन तथाविधप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावकल्पनाभावप्रयुक्तलाघवमतिस्फुटमेव । नैयायिकमते तु तथाविधशाब्दबोधसामग्रीकाले तादृशज्ञानाभावरूपविषयसत्त्वेन विना तथाविधप्रतिबन्ध्यप्रतिबन्धकभावकल्पनं तथाविधप्रत्यक्षवारणमशक्यमिति तत्कल्पने महगौरवम् । न च वैयाकरणमते कृतिप्रकारकज्ञानाभावप्रत्यक्षं प्रति तथाविधशाब्दसामग्र्याः प्रतिबन्धकत्वकल्पनावश्यकतया क नैयायिकमतमपेक्ष्य लाघवावकाशः ? नैयायिकमते तथाविधकल्पनाभावादिति वाच्यम् । वैयाकरणमते कर्तुपस्थितिकाले कृतिप्रकारकज्ञानसत्वस्यावश्यकत्वेन तथाविधशाब्दसामग्रीकाले विषयासत्तयैव कृतिप्रकारकज्ञानाभावप्रत्यक्षवारणसंभवेन तथाविधप्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावाकल्पनयोपदर्शितलाघवस्याक्षुण्णत्वात् । यदि च नवीनोच्छृखलरीत्या क्लसेन निर्वाहे तत्र तथाविधप्रतिबन्धकाभावहेतुत्वं नाधिकमिति
१ कर्तृत्वप्र' इति पाठः ।
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः।
८३ मन्यते तथापि तादृशप्रतिबन्धकाभावे तथाविधप्रत्यक्षहेतुत्वसंबन्धकल्पनं गौरवाय नैयायिकानामित्याहुः । तदपि न विचारसह, गुरुशरीरपाकानुकूलकृत्याश्रयप्रकारकयोग्यताज्ञानत्वतथाविधकृत्याश्रयभेदज्ञानाभावत्वात्मकबाधाभावत्वादिरूपगुरुधर्मावच्छिन्नादिघटितशाब्दबोधसामग्र्यभावे अनन्तघटपटादिप्रत्यक्षकारणत्वसंबंधकल्पनेन वैयाकरणमत एव गौरवसंभवात् इत्यास्तां विस्तरः ॥ ६ ॥
(जय०)—नैयायिकोक्तसंख्याभिधानानभिधानेनोक्तानुक्तविभागे संख्याया: कर्तृकर्मसाधारण्येनान्वयापत्तिरेव मुख्यं बाधकमतस्तदुद्धरति-भावनाविशेष्य इत्यादि । धात्वर्थादिव्युदासाय विशेष्य इति । समानेति । तत्यदाकासासांनिध्यादेस्तेन पदेन सह क्लृप्तल्वात्तदेकार्थस्येवापरार्थस्याप्यन्वयस्तत्पदार्थ एवेति भावः । नन्वर्थभेदेनाकाङ्क्षादेः कार्यकारणभेदानेदं युक्तम् । संख्याबोधे आख्यातसमभिव्याहृतप्रथमान्तजन्योपस्थितिहेतुत्वे गौरवमाख्यातजन्यकर्जुपस्थितिहेतुत्वे लाघवादिति चेन्न । लाघवात्कृतिशक्तिसिद्धौ तद्गौरवस्य फलमुखत्वेनादोषत्वात् । भावेनान्वयविशेष्यत्वस्यैव संख्यान्वये तन्त्रत्वाच्च । नन्वस्य कादाचित्कस्य सार्वत्रिकनियतप्राक्कालीनत्वाभावः । एकदाऽपि भावनासंख्ययोर्बोधादिति चेत् सत्यम् । इत एवास्वरसान्नव्यनयान्ते वक्ष्यति 'तिङपस्थाध्यायाः संख्याया भावनाया इव प्रथमान्तोपस्थाध्येनैवान्वयः' इति । तन्नये चाख्यातार्थभावनासंख्यान्यवरबोधे कालेष्टसाधनत्वादतिरिक्ताख्यातार्थबोधसामग्र्यैक्यान्न गौरवार्ताऽपीति दिक् ।
भावनान्वयबोधसामग्रीमाह-भावनायाश्चेति । विशेषणत्वेन भावनान्वयो चात्वर्थादावपीति तत्र नेदं नियामकमतो विशेष्यत्वेनेति । कर्मत्वाचनवरुद्ध इति । चैत्रस्तण्डुल: पचतीत्यादौ कर्मत्वादिवृत्तिमत्तया गृहीतप्रथमान्तोपस्थायस्य तण्डुलादेर्वारणाय । न चात्रासाधुत्वात् न शाब्दधीः । तदज्ञानदशायां तत्संभवात् ! कर्मत्वादिविशेषणतयानुपस्थितेति तदर्थस्तेन ग्रामस्य गमनं भवतीयादौ षष्ठयर्थकर्मत्वविशेष्यत्वेनोपस्थितेऽप्यदोषः । आदिना धृतिः स्वाहा जायते इत्यादौ चतुर्थ्यर्थप्रथमान्तोपस्थाप्यस्य धृत्यादेर्नीलो घटोऽस्तीत्यादौ तीलादेः चन्द्र इव मुखं दृश्यत इत्यादौ चन्द्रतत्सादृश्यादेश्चैत्रो भुक्त्वा तिष्ठतीत्यादौ काद्यर्थस्य साधुत्वमात्रार्थप्रथमान्तीपस्थाप्यस्य वारणार्थ चतुर्थ्यर्थादिसंग्रहः । । च चन्द्र इव मुखमाहादयतीत्यादौ चन्द्रादावाल्हादकत्वान्वयो न स्यादिष्टा. त्तौ च हंसीव धवलश्चन्द्र इत्यादेर्दुष्टोपमात्वं न स्यादिति वाच्यम् । धर्मोपादाने पात्तधर्मस्यैवोत्सर्गतया इवार्थतया स्वविशिष्टाधारत्वस्य तत्त्वेन धात्वर्थभावमार्थ
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८४
वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
तया पुंस्त्वविशिष्टधात्वर्थस्य तत्रेवार्थत्वासंभवेन दुष्टोपमात्वसंभवात् । न चैवमिदानीं चैत्रेण मैत्र एव दृश्यते इत्यादावेवार्थावरुद्धेऽपि मैत्रादौ भावनान्वयो न स्यात् । आदिना नञर्थातिरिक्तस्य संग्रहाद्वस्तुविशेषणत्वमात्रेणानुपस्थितत्वमनवरुद्धार्थः । खलेकपोतन्यायेनान्वयबोधेऽविशेषणस्यातिप्रसक्तत्वादनुपस्थितेर्वा तत्त्वेन तात्पर्यविषयार्थकम् । इत्थं च चैत्रश्चेत्रं जानातीत्यादावपि नानुपपत्तिः । न चैवं प्रथमान्तोपस्थाप्य इति व्यर्थ चैत्रेण सुप्यत इत्यादी धात्वर्थवारकत्वात् । यदि च तात्पर्यधीर्न शाब्दबोधमात्रे हेतुस्तत्वे भावनाद्यन्वयतात्पर्यधिय एव तद्धेतुत्वसंभवादिति नेदं युक्तमित्युच्यते, तदा विशेषणत्वमात्रप्रयोजकप्रथमान्ततत्तपदानुपस्थितत्वं तदर्थः । प्रथमान्तोक्ततण्डुलादिपदजन्योपस्थितेर्विरोधित्वं फलितार्थः । इत्थं च चैत्रस्तण्डुलं पचतीत्यादौ तण्डुलपाकादिवारणायाप्याह- - प्रथमान्तपदोपस्थाप्य इति तादृशपदजन्योपस्थितिहेतुत्वाभिप्रायम् । विशेषणत्वमात्रप्रयोजकतत्तत्प्रथमान्तपदान्यप्रथमान्तपदजन्योपस्थितत्वे वा दलद्वयतात्पर्यम् ।
अथ भूतले घटो नास्तीत्यादौ भावनाया: अभावान्वयित्वं संख्यायाः प्रतियोगिगामित्वं च कुत इति चेत् । भावनाबोधेऽत्र घटादिपदजन्योपस्थिते: संख्या-बोधे नन्पदजन्योपस्थितेः प्रतिबन्धकत्वात् । न च तत्तदानुपूर्वीज्ञानस्य तत्तद्विशेयकभावना बोधे कारणत्वज्ञान सहकृतस्य तत्र कारणत्वे किमनेनेति वाच्यम् । प्रथ - -मान्तपदजन्योपस्थितेरपि तत्र हेतुत्वं जानतस्तां विना तद्बोधाभावादिति दिक् ।
यत्तु दृश्यते चैत्रः पचतीत्यादावेकाख्यातमुद्देश्यतावच्छेदकीकृत्यापराख्यातान्वयवारणायाख्यातोपस्थाप्यकर्मत्वाद्यविशेष्यत्वार्थकं तदिति तन्न । तथाऽपि चैत्रो गच्छति रूपवानित्यादेराख्यातार्थानुद्देश्यतावच्छेदकरूपवदाद्यभेदबोधप्रस
ङ्गात्तस्मात्स्वार्थनिष्ठविधेयताशालिबोधत्वस्याख्यातकार्यतावच्छेदकत्वादेव नोद्देश्यतावच्छेदकतयाख्यातार्थभानमिति तद्वारणायैतदुपादानं युक्तम् । यदप्यव्ययात्प्रथमैवेति मते स्वः पश्यतीत्यादौ कर्मत्वादिसंसर्गावरुद्धस्वर्गादिवारणाय कर्मत्वादिसंसर्गानवरुद्धत्वार्थकं वदति तदपि न । नरकं याति न स्वरित्यादावनन्वयापत्तेः । अत्र स्वःपदं कर्मत्वे रूढमित्यप्याहुः ।
नन्वेवं भावप्रत्ययस्थले भावनाविशेष्याभावात्संख्यान्वयो न स्यादत्राह – चैत्रे - णेति । चैत्रेण सुप्यत इत्यादी भावनाविशेष्यविरहादनन्वितैव संख्येत्यन्वयः । - भावनाविशेष्यविरहे हेतुत्रयमाह — प्रथमान्त इत्यादि । भावनाप्रकारकत्रोधे प्रथमान्तपदजन्योपस्थितेर्हेतुत्वमिति भावः । ननु भावाख्याताजन्ये तद्बोधे सा हेतुस्तजन्ये तु धातुजन्योपस्थितिस्तथास्त्वित्यत्राह - धात्वर्थस्येति । विशेषणतया
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः । नावनाशाब्दबुद्धौ धात्वजन्योपस्थितेर्हेतुल्वस्य पचतीत्यादौ क्लृप्तत्वात्तत्संकोचायादृशकल्पनयोरनौचित्यमित्याशयः । अनुभवसत्वे नानौचित्यमित्यत्राह--भावनाया इति । नन्विदमयुक्तमाये परंपरया स्वापप्रयोजिकायाः कृते: संभवादुनयत्राश्रयत्वस्य साम्राज्याद्भावनाया व्यापारमात्रोपलक्षकत्वस्य स्वयमेव वाच्यवादन्यथा चैत्रः स्वपिति, गगनं तिष्ठतीत्यादावपि संख्यान्वयानापत्तेस्तथा च. वैत्रनिष्ठकृतिजन्यः स्वाप इत्यर्थः । तत्र निष्ठत्वं तृतीयायाः कृतिराख्यातस्याओं जन्यत्वं संबन्धोऽस्तु वा चैत्राश्रितः स्वापो गगनाश्रिता स्थितिरित्येवार्थः । चैत्राद्यन्वितस्याख्यातार्थस्य आश्रयत्वनिरूपकतया स्वापाद्यन्वयादिति चेत् । न। वाधितत्वादित्यस्यानुभवबाधितत्वादित्यर्थात् । चैत्रः स्वपितीत्यादौ हि धात्वस्य नामार्थे साक्षादनन्वयादन्वयानुपपत्त्याश्रयत्वादी लक्षणा स्वीकृता । नत्विह त्स्वीकारे बीजमत एव सुप्यत इत्युक्त्वा गगनेन स्थीयत इत्युक्तम् । अत्र मुख्यार्थस्यासंभवाल्लक्षणायामन्वयानुपपत्तेस्तात्पर्यस्य चावश्यापेक्षितत्वाच्चैत्राश्रितः बाप इत्यादावाश्रित्त्वं तु तृतीयार्थः । रथेन गतमित्यादौ तत्र तदर्थत्वस्य क्लृप्तवात् । नन्वेवमनुभवविरोध इत्यत्राह---अत एवेति । संख्यानन्वयादेवेत्यर्थः । अनुभवस्त्वसिद्धोऽन्यथासिद्धत्वाद्यनुभवार्थ द्विवचनाद्यापत्तेरिति भावः । औत्सर्गिकमिति साधुत्यार्थ प्रथमपठितमेकवचनमेव कल्प्यत इत्यर्थः ।
नन्वेवं भावतिङामानर्थक्यं त्यादत्राह-एवं चेति । भावस्थले भावनासंख्ययोरनन्वये चेत्यर्थः । यथायथमिति । लडादेवर्तमानत्वादेरिष्टसाधनत्वादीयर्थः । ननु पचति पचेतेत्यादौ भावनायामेव वर्तमानत्वाद्यन्वयात्तस्या अभावे अत्र वर्तमानाद्यन्वयः कुत्रेत्यत्राह- तच्चेति । तथैवेति । इदमुपलक्षणं जानाति शवं जानीयात् तिष्ठति काश्यां तिष्ठेदित्यादौ धात्वर्थवत्तदन्वयध्रौव्यात्पचतीत्यारावपि तथैव । न चारम्भमात्रकाले तव यत्नसत्त्वे पाकाभावात्पचतीति न स्याद्यननिवृत्तौ पाकानुवृत्तौ तवापि तदनापत्तेः । स्यूलकालेन समाधानं तुल्यमिति बोध्यम् । अत्र वर्तमानत्वं विद्यमानकालवृत्तित्वम् । अतीतत्वं विद्यमानध्वंसपतियोगिकालवृत्तित्वम् । भविष्यत्वं विद्यमानकालवृत्तिप्रागभावप्रतियोगिकालवृत्तित्वम् । विद्यमानत्वं च तत्तत्प्रयोगाधारत्वम् । प्रयोगो नाम तत्तदर्थोपस्थत्यनुकूलो व्यापारो लिप्युच्चारणसाधारणः । तत्त्वं च तदादेर्बुद्धिस्थत्ववलडादेः शक्यताच्छेदकतत्तत्कालानुगमकम् । तथा च लडादिकं प्रयोगाधारकालवृत्तित्वादौ शक्तमित्याकारः शक्तिग्रहः । अस्तु वा तत्तत्कालवृत्तरेव शक्तिः । उभयत्रापि शाब्दबोधो विशिष्यवेत्यतीतपाककृत्यादिमति न पचतीत्यादर्नानुपपत्तिः । पचतीत्यादितः कालत्वेनैव विद्यमानकालो भासत इति कालवृत्तित्वत्वेनैव शक्तिः।
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८६
वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
न पचतीत्यादौ तत्तत्कालवृत्तित्वेन निरूढलक्षणा । न चैवं पष्ठयादेरपि स्वामित्वादौ शक्तिनँद चैत्रस्येत्यादौ निरूढलक्षणेत्यस्त्विति वाच्यम् । तत्र स्वामित्वादेः स्वत्वादितो गुरुत्वादित्यन्ये । प्रागभावध्वंसविशिष्टकालवृत्तित्वं वर्तमानत्वमित्यन्ये । अत्र वर्तमानत्वघटकतया कालभाने प्रयोगाधारत्वस्य ज्ञानं बुद्धिस्थत्वादेखि शक्यतावच्छेदकघटकतया स्वातन्त्र्येणैव वा तन्त्रम् । वस्तुतः पचतीत्याद्यानुपूर्वीज्ञानं स्वाधिकरणवृत्तितत्तत्कालवृत्तिपाककृत्यादिबोधे कारणम् । नातः पूर्वेद्युः पचतीत्यादिप्रसङ्गः । एवमपचदित्याद्यानुपूर्वीज्ञानस्य स्वाधिकरणनिष्ठध्वंसप्रतियोगिकालवृत्तिपाककृत्यादिबोधे हेतुत्वान्नाद्यापचदित्यादेः प्रसङ्गः । इदं चानुवादातिरिक्तस्थले, तत्र च क्लृप्तप्रयोगाधिकरणकाल एव भासते वेन जगतः पितरौ वन्दे इत्यादावाधुनिकानुवादे न दोषः ।
इदं तु बोध्यं न पचतीत्यादौ वर्तमानत्वादिक्रं नञर्थ एवान्वेति न कल भक्षयेदित्यादौ विध्यर्थवत् । नातः पचत्यपि न पचतीत्यादेः प्रामाण्यम् । न वा सिद्धमन्नं न पचतीत्यादौ प्रतियोग्यप्रसिद्धिः । नश्यति नमयति नष्ट इत्यादौ वर्तमानानागतातीता चोत्पत्तिर्यथायथमर्थः । कालविशेपादिश्वोत्पत्तावन्वेति । नातश्चिरनष्टे नश्यति श्वोभाविनाशके परवो नयतीति प्रयोगः, नवा नष्ट इत्यस्यायोग्यत्वं नाशस्यातीतत्वाभावादिति बोध्यम् ।
1
तदबोधकानां वर्तमानत्वाद्यबोधकानाम् । प्रयोगेति । केवलधातोरसाधुत्वादिति भावः । मात्रेणार्थ साधुताव्यवच्छेदः । वैयाकरणास्तु स्तोकं पाक: स्तोकः पाक इति द्विविधप्रयोगदर्शनात् क्रियाविशेषणतया स्तोकं, घञाद्यर्थविशेषणतया स्तोक इति व्युत्पादयन्तो घञादीनामपि धात्वर्थतावच्छेदकविशिष्टे शक्तिमङ्गीकुर्वन्ति । नन्वेवं पच्यते तण्डुल इत्यादौ कर्माख्यातस्थलेऽपि तण्डुलादौ भावनाया बाधितत्वेनानन्वयात्संख्यान्वयो न स्यादत आह-भावनाया इति । अन्यथा वक्ष्यमाणप्रकारेण तथा च तत्र भावनान्वय इति भावः । तव वैयाकरणस्याख्यातमात्रेण कर्तृबोधे यन्नियामकं तन्ममाश्रयत्वेन भावनाबोधे नियामकम् । तवात्मनेपदत्वेन कर्मबोधे यन्नियामकं तन्ममान्यथासंबन्धेन भाव - -नाबोधे इत्यर्थः । नियामकानभिधाने दोषमाह – अत इति । मैत्रेणेति । - यगादिसहकारस्य कर्मबोधे इवान्यथान्वयबोधे नियामकत्वादिति भावः । न च पचतीत्यत्र परस्मैपदस्य कर्मणि शक्त्यभावात्कर्मकर्तृसामग्र्याः प्रतिबन्धकत्वाच्च कर्माबोधसंभवे मम यका न सहकारिताकल्पनमिति वाच्यम् । पच्यते इत्यतः कर्तुरबोधकादपि कर्मणो बोधप्रसङ्गाच्चैत्रेण पच्यते इत्यतः कर्तुरबोधकादपि
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः। ___ अथ तण्डुलं पचति चैत्रः इत्यादावाश्रयतया चैत्रोऽस्तु भावनाविशेष्यः मैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादौ तण्डुलस्तु कथं, विषयतयेति चेत्, रथेन गम्यते ग्रामः इत्यादौ सविषयकव्यापारानभिधाने का कर्मणो बोधप्रसङ्गाच्च । मम यगादिसहकारेण कर्तुरबोधकतावच्चाश्रयतया कृतेरप्यबोध इत्याह-तण्डुलमिति । तवैकदा कर्तृकर्मोभयबोधवन्ममाप्येकदाश्रयतातदन्यसंसर्गाभ्यां न बोध इत्याह-मैत्रः पक्ष्यत इति । ननु यत्र यापारे आश्रयत्वे वा लक्षणा तत्र भावनान्वयाभावात्संख्यान्वयो न स्यादत आह-भावना चेति । अत्र व्यापारपदमाख्यातसामान्यवृत्तिविषयपरं, तेन जानातीत्यादिसाधारण्यम् । अचेतनेति अचेतने संख्यान्वयानुरोधादित्यर्थः । अत्राचेतनपदमपि तादृशाख्यातान्वयिपरं, तेनाश्रयसाधारण्यमिति बोध्यम् ।
नन्वाख्यातशत्रादिपदयो: सामानाधिकरण्यमेवासति बाधके एकधर्मिशक्तिसाधकमिति प्रकृते कर्तृकर्मणोः शक्तिसिद्धिरिति वैयाकरणोक्तं प्रत्याचष्टेभिन्नाभ्यामिति । अत्रैकधर्मिबोधकत्वं घटो घट इत्यादावप्येकघटस्मारकेऽस्ति । न चात्र सामानाधिकरण्यव्यवहार इत्यत आह-भिन्नाभ्यामिति । तादात्म्येन स्वार्थान्वितार्थशाब्दबोधजनकत्वमिति फलितम् । तेन नीलो घटो गुणवद्रव्यमिति द्रव्यघटयोरपि व्युदास इति बोध्यम् । नन्वत्र बोधकत्वं शक्त्या शक्तिलक्षणान्यतरत्वेन वाद्ये असिद्धमिति, द्वितीये लक्षणयाऽपि निरुक्तसामानाधिकरण्यसंभवान्न ततो धर्मिशक्तिसिद्धिरित्याह-संभवदिति । न वार्यत इति कृत्या शक्त्यापीति शेपः । शक्तिसिद्धौ सामानाधिकरण्यसिद्धिरिति तस्मिंश्च तज्ज्ञानाच्छक्तिसिद्धिरित्यन्योन्याश्रयो नाशङ्कयः । विनाऽपि सामाधिकरण्यमाप्तवाक्यादितस्तज्ज्ञानसंभवात् । अन्यादृशं तादात्म्यानन्तर्भावेन स्वार्थान्वितार्थबोधकत्वमात्रमित्यन्ये। अत्र शक्यतावच्छेदके शक्तेरभावकत्रर्थे शक्तिर्नतु कृतावनन्तत्वादित्येके । नैतद्युक्तं, शक्यतावच्छेदकत्वस्य कृतित्वविशिष्टे कल्पनायां गौरवादित्यपरे ॥ ६ ॥
(मथु०) कर्मणि पुनरन्यथा, इत्यन्यथाशब्दार्थ विवेचयितुं शकते-अथेति। कथमिति केन संबन्धेन भावनाविशेष्य इत्यर्थः । उत्तरयति-विषयतयेति । उत्तरं निराकरोति-रथेनेति । कथमाख्यातोपस्थिताया गमनायनुकूलव्यापाररूपाया भावनाया विशेष्यो प्रामादिरित्यर्थः। तत्र गमनानुकूलव्यापारस्य नोदनादेविषयाप्रसिद्धेरिति भावः।
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागःगतिः । अत्र प्राश्चः-मैत्रेण पच्यते तण्डुलइत्यत्र मैत्रनिष्ठपाकभावनाविषयः, मैत्रनिष्ठभावनाविषयपाकजन्यफलशाली वा तण्डुलःप्रतीयत इति साक्षात्परम्परया भावनाया विशेष्यस्तण्डुलः, रथेन गम्यते ग्राम इत्यत्र रथनिष्ठगमनानुकूलव्यापारजन्यफलशाली ग्रामः प्रतीयते इति व्यापारविशेष्यो ग्राम इति ॥७॥ . मैत्रनिष्ठेति । अत्र निष्ठता तृतीयार्थः, सा चाख्यातार्थभावनान्वयिनी, विषय इत्यत्र विषयत्वं संसर्गः। पाकाकर्मण्यपि तण्डुले तण्डुलत्वरूपेण मैत्रनिपाकभावनाविशेष्यत्वस्य सत्त्वात् तत्रापि मैत्रेण पच्यत इति प्रयोगप्रसङ्गात् , कर्माख्यातस्थले फलवत्ताप्रतीतेरनुभवसिद्धत्वाचाह-मैत्रनिष्टेति । अत्रापि निष्ठत्वं तृतीयार्थः, भावना आख्यातार्थः; नतु निष्ठत्वं संसर्गः, भावना तृतीयार्थः। समानपदोपात्तत्वेनाख्यातार्थभावनाविशेष्य एव तदर्थसङ्खयान्वयः इति प्रागुक्तव्युत्पत्तिभङ्गापत्तेः । भावनाविपयत्वं च भावनाविषयकत्वं(?)भावनाजन्यत्वमिति यावत् । अन्यथा पाकवरूपेण मैत्रकृतिविषयचैत्रनिष्ठकृतिजन्यपाककर्मण्यपि तण्डुले मैत्रेण पच्यतेऽयं तण्डुल इति प्रयोगापत्तेः । फलमपि कर्माख्यातार्थः, फलत्वं कार्यत्वं, प्रतियोगितासंबन्धेन प्रागभावादिमत्त्वमिति यावत् । अत एव व्यापारतो भेदः, जन्यत्वं शालित्वं च संसर्गः । पदानां स्वार्थान्वयपुटितपदार्थान्तराबोधकत्वव्युत्पत्तेश्चात्र नादरः, स्वर्गकामो यजेतेत्यादौ विध्यर्थेष्टसाधनत्वकृतिभ्यां पुटितस्य धात्वर्थस्य घटो भविष्यतीत्यादावाख्यातार्थवर्तमानप्रागभाव. प्रतियोगित्वाश्रयत्वाभ्यां पुटितस्योत्पत्तिरूपधात्वर्थस्य चान्वयाभ्युपगमेन तद्वयुत्पत्तेरसार्वत्रिकत्वादिति भावः ।
नन्वेवमाख्यातार्थभावनात्वविशिष्ट विशेष्यः कथं तण्डुलः भावनात्वस्य प्रयत्नव्यापारत्वादिरूपतया फलत्वस्यातथात्वादित्यत आह-साक्षादिति । पूर्वत्र साक्षादुत्तरत्र परंपरयेत्यर्थः । रथनिष्टेति । अत्रापि शालित्वं जन्यत्वमनुकूलत्वञ्च संसर्गः, फलस्य व्यापारजन्यत्वं धात्वर्थद्वारा तत्प्रयोज्यत्वं, निष्ठत्वं तृतीयार्थः, अन्वयस्तस्य धात्वर्थगमने नतु व्यापारे, अन्यदीयग्रामगमनाठकूलनोदनादिमति निश्चलेऽपि रथे अनेन रथेन गम्यते ग्राम इति प्रयोगापत्तेः। अत एवं प्रागेव रथनिष्ठव्यापारजन्यगमनजन्यफलशाली ग्राम इत्यन्वयो नोक्तः । व्यापारविशेष्य इति । परंपरया व्यापाररूपाख्यातार्थभावनाविशेष्य इत्यर्थः॥ ७ ॥
(राम) ननु भावनाविशेष्ये यदि संख्यान्वयस्तदा कर्मप्रत्ययस्थले भावनाविशेष्यत्वविरहादाख्यातार्थसंख्यान्वयित्वानुपपत्तिरित्याशयेन शङ्कते-अथेति । भावनाविशेष्य इति, आख्यातार्थसंख्यान्वयी च स्यादिति शेषः । कथमित्यत्र
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः। भावनाविशेष्य इत्यनुपज्यते । अवान्तरमाशङ्कते-विषयतयेतीति । चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यत्र तण्डुलश्चैत्रवृत्तिपाकभावनाविषय इत्यन्वयो वाच्यस्तथाच तत्र तण्डुलस्य भावनाविशेष्यत्वेनाख्यातार्थसंख्यान्वयित्वं नानुपपनमित्यर्थः । रथेनेति । रथत्तेर्गमनानुकूलव्यापाररूपभावनायाः सत्त्वेऽपि तस्या नोदनादिरूपतया निर्विषयत्वेन तद्विषयत्वान्वयासंभवादित्यर्थः। __ सचेतनकर्तृकक्रियास्थले सर्वत्र तात्पर्यभेदेन द्विविधान्वयबोध प्रदर्याचेतनकर्तृकक्रियास्थले एकविधमन्वयं प्रदर्शयिष्यति-मैत्रेणेत्यादि । 'पाकभावनाविषय इत्यस्य वक्ष्यमाणतण्डुल इत्यनेनान्वयः । मैत्रनिष्ठेति । अत्र निष्ठत्वं तृतीयार्थः, भावना आख्यातार्थः, विषयत्वं जन्यत्वं च संसर्गः; फलमात्मनेपदार्थः, शालित्वमाश्रयत्वरूपं संसर्ग इत्यर्थः । साक्षादिति प्रथमबोधानुसारेण, परम्परयेति द्वितीयबोधानुसारेणेति । अचेतनकर्तृकक्रियास्थले एकविधमेवान्वयं दर्शयतिरथेनेति । व्यापारविशेष्य इति । तथाच परम्परया भावनाविशेष्ये ग्रामे संख्यान्वयो नानुपपन्नः साक्षात्परम्परया वा भावनाविशेष्यत्वमात्रस्याख्यातार्थसंख्यान्वयनियामकत्वादिति भावः । एवमन्यत्रापि कर्मप्रत्ययस्थले ॥ ७॥
(रघु०) कथमिति । केन संबन्धेन भावनाया विशेष्य इत्यर्थः । सिद्धान्ती शंकते—विषयतयेति । [अन्वयश्चास्य कथं पदार्थैकदेशे भावनाया विशेष्ये ] तथा च चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादौ तण्डुलो विषयतासंबन्धेन भावनाविशेष्य - इत्यर्थः । सविषयव्यापारेति । सविषयव्यापारानभिधानस्थल इत्यर्थः । रथेन गम्यते ग्राम इत्यादौ नोदनाख्यसंयोगरूपव्यापारस्याख्यातार्थतया तस्य च निर्विषयतया विषयतासंबंधेन ग्रामादावन्वयाभावेन उपदर्शितरीतेरत्यन्तासंभवदुक्तिकतेति भावः ।
मैत्रनिष्ठपाकभावनेति । मैत्रनिष्ठा या पाकानुकूलभावना तद्विषयस्तण्डुल इत्यर्थः । तण्डुले तथाविधभावनाविषयत्वं भावनोद्देश्यफलकत्वं कर्माख्यातस्थले कर्मत्वप्रकारककर्मविशेष्यकबोधस्यानुभवविषयत्वे त्वाह-मैत्रनिष्ठेति । प्रतीयत इतीति तादृशवाक्यजन्यबोध इति शेषः । साक्षात्परंपरयेति । अत्र चोपदर्शितबोधद्वयानुरोधेन तथा वैकल्पिकोपादानमिति ध्येयम् । रथेन गम्यते ग्राम इत्यादौ ग्रामे भावनायान्वयप्रकारमाह-रथेन गम्यते ग्राम इत्यादिना। तथा च कर्माख्यातस्थले भावनाया धात्वर्थेऽन्वयः, क्वचिद्विषयतया कुत्रचित जन्यतया कर्मणि तु परंपरयेति भावः ॥ ७ ॥
(जय०) कथं केन संबन्धेन भावनाविशेष्य इत्यनुषज्यते । उत्तरंविषयतयेति । सविषयेति । तत्रानुकूलव्यापारस्य नोदनात्मकसंयोगस्य विषयत्वाप्रसिद्धेरिति भावः ।
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
नव्यास्तु भावनादेराख्यातलभ्यत्वात् आधेयत्व. मात्रं तृतीयार्थोऽस्तु संख्यामात्रं वा, संबन्धस्तु पच
सविषयनिर्विषयव्यापाराभिधानभेदेन सिद्धान्तयति—अत्र प्राञ्च इत्यादि। मैत्रनिष्ठेति । निष्ठत्वं तृतीयार्थः संसर्गो वा पाकान्विताख्यातार्थभावनायां भासते । विषयत्वं तु भावनायाः कर्मणि संसर्ग इति बोध्यम् । ननु कर्माख्याताक्रियाजन्यफलरूपकर्मत्वप्रकारकान्वयबोधस्यानुभविकत्वान्नेदं युक्तमत आहमैत्रनिष्ठ इति । अत्र मैत्रनिष्ठत्वस्य तत्संसर्गेण मैत्रस्य वाऽऽख्यातार्थभावनायां तस्या धात्वर्थे तस्य फले इत्यादिकं बोध्यम् । नन्वेवं भावनाविशेष्ये संख्यान्वय इति व्युत्पत्त्या भङ्ग इत्यत्राह-साक्षादिति । प्रथमे प्रकारे साक्षात् , द्वितीये धात्वर्थादिना परंपरयेति बोध्यम् । रथनिष्ठेति । रथनिष्ठत्वस्य धात्वर्थे गमनेऽन्वयो नत्वाख्यातार्थव्यापारे, रथस्य गमनेऽन्यदीय इत्यादिना निरस्तत्वात् । धात्वर्थनामार्थयोर्भेदेनान्वयस्याव्युत्पन्नत्वाच्च । धात्वर्थस्याख्यातार्थव्यापारे तस्य फल इत्यादि बोध्यम् । एतेनात्रापि कर्मत्वप्रत्ययानुरोधाद्रथनिष्ठव्यापारजन्यगमनजन्यफलशालीत्यन्वय इत्यपात्तम् । पूर्वोक्तप्रकारेण फले व्यापारस्य स्वजन्यधात्वर्थजन्यत्वेनान्वयाद्धात्वर्थजन्यत्वस्य संसर्गतया फले लाभात्कर्मत्वलाम इत्यभिप्रेत्यैव दीधितिकृता प्रकारभेदो नात्र लिखित इति बोध्यम् । व्यापारविशेष्य इति । परंपरयेत्यादिः । अत्र नवीनोक्तकर्तृस्थलीयबोधानुसारेण रथनिष्ठगमनजन्यफलशालिग्राम इत्येव युक्तम् । न च व्यापाराप्रवेशे आख्यातार्थव्यापारस्याप्यभावात्संख्यान्वयो न स्यादिति वाच्यम् । जानातीत्याद्यनुरोधेनाश्रयत्वादेरपि भावनापदेन तत्र ग्रहणात् । अत्र निष्ठत्वस्यैव भावनार्थत्वात् । न चाश्रयत्वस्याख्यातार्थतया भावनात्वे फलस्यापि तत्त्वात्तण्डुलग्रामादेः साक्षादेव फलविशेष्यत्वात्परंपरयत्याद्ययुक्तमिति वाच्यम् । वर्तमानत्वादीष्टसाधनत्वादिप्रार्थनादिव्यावृत्तये भावनापदस्याख्यातसामान्यवृत्तिविषयपरत्वेन व्याख्यातत्वात् । आश्रयत्वादौ लक्षणाया आख्यातसामान्यीयत्वेऽपि पचतीत्यादौ मुख्यार्थाबाधात्तात्पर्याभावान्न तद्बोधः । भविष्यत्सामीप्ये वर्तमानेत्याद्यानुशासनिकी लक्षणा तु न सार्वत्रिकीति प्राचामाशयः । इदं तु बोध्यम् । साक्षात्परंपरया भावनाविशेष्यत्वं । धात्वर्थादिसाधारणमत एव नव्यनये तत्त्याग इति ॥ ७ ॥
(मथु०) प्राचां मते दूषणाभिधानपूर्वक मतान्तरमाह-नव्यास्त्विति । भावना यनः । आदिपदात् व्यापारत्वविशिष्टपरिग्रहः । संख्यामात्रं वेति । चैत्रेण पच्यते इत्यादावित्यादिः । संबन्धस्तु निष्ठतारूपसंबन्धस्तु ।
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१३ ग्रन्थः ] आख्यातशक्तिवादः ।
९१ तीत्यादाविव वाक्यार्थः । अस्तु च फल-कर्मणोरपि संबन्धस्तथा फलं तु कस्यार्थः । न च तदपि तथा, प्रकारीभूय भासमानत्वात् । फलावच्छिन्नक्रियाया धात्वर्थत्वेऽपि क्रियाजन्यफलालाभात् विशेष्यविशेषणभावविपर्ययस्यावश्यकत्वात् । तस्मात् फलमात्मनेपदार्थः, इत्थं च आख्यातोपस्थापिताया भावनायाः क्रियाविषयिण्याः फलेऽन्वये फलस्य क्रिवाक्यार्थः संसर्गमर्यादया लभ्यः। रथेन गम्यते इत्यादौ पुनराधेयत्वं तृतीयाविभतेरेवार्थः, नामार्थ-धात्वर्थयो दान्वयस्याव्युत्पन्नत्वात् । न च चैत्रेण पच्यते इत्यत्राधेयत्वस्य संसर्गवे चैत्रः पच्यते तण्डुलः इत्यादावपि तथा स्यादिति वाच्यम्। तादृशान्वयबोधे तृतीयायाः सहकारित्वात् । चैत्रं पच्यते तण्डुलः चैत्रो पच्यते तण्डुल इत्यादौ द्वितीयाधुपस्थिताधेयत्वाद्यन्वयाभावेन त्वयापि आधेयत्वे तृतीयोपस्थाप्यत्वस्य नियामकस्यावश्यं वक्तव्यत्वादिति भावः । फलकर्मेति । सम्बन्धः शालित्वरूपः। तथा वाक्यार्थः । अपिशब्दात् क्रिया-फलयोापार-फलयोः समुच्चयः । तत्रापि जन्यत्वस्य वाक्यार्थत्वात् । न चेति । तदपि फलमपि । तथा संसर्गः। तथाच मैत्रनिष्ठपाकभावनावान् तण्डुल इत्यादिरन्वयबोधः । स्वजन्यफलवत्त्वं स्वविपयक्रियाजन्यवत्त्वं वा सम्बन्धः नतु मैत्रनिष्ठभावनाविषयपाकशालितण्डुल इत्यन्वयबोधः । अतो धात्वर्थ-नामार्थयों देनान्वयस्याव्युत्पन्नत्वेऽपि न क्षतिरिति भावः ।।
ननु फलावच्छिन्नक्रियाया धात्वर्थत्वात् धात्वर्थ एव फलमित्यत आह-फलावच्छिन्नेति । विक्लित्ति-संयोगाद्यात्मकफलविशिष्टेत्यर्थः । वैशिष्टयं च जन्यजनकभावः । क्रियाजन्येति । पच्यते तण्डुल इत्यादौ पाकजन्यफलशाली तण्डुलः रथेन गम्यते ग्राम इत्यत्र स्थनिष्ठगमनजन्यफलशाली ग्राम इति बोधस्यानुभवसिद्धस्याभावप्रसङ्गादित्यर्थः । विशेष्य-विशेषणभावेति । यद्पविशिष्टे वृत्तिग्रहस्तदूपविशिष्टस्यैव पदेन बोधनादिति भावः । इदमुपलक्षणं, धात्वर्थ-नामार्थयोर्भेदान्वयस्याव्युत्पन्नत्वात् , इतरविशेषणत्वेनोपस्थितस्यान्यत्र विशेषण. त्वेनान्वयस्याव्युत्पन्नत्वाच । धात्वर्थंकदेशस्य कर्मणि साक्षादन्वयासंभवात् फल. त्वेन फलाभावप्रसङ्गाच, विक्लित्ति-संयोगत्वादिरूपेण फलस्य धात्वर्थतावच्छेदकत्वादित्यपि बोध्यम् । आत्मनेपदार्थ इति । ___ एतावत्पर्यन्तं प्राचीनमतविवेचनं तद्दषयति-इत्थं चेति।भावनायाः यनस्य, एतच्च पच्यते तण्डुल इत्यादा, तथाच तत्र पाकविषयककृतिजन्यफलशाली
१ फलाभावादिति पाठः।
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वादार्थसंग्रहः
[ ४ भागः
याजन्यत्वं न लभ्येत भावनाविषयक्रियायाः फले. ऽन्वये तिकुपस्थापितभावनायाः क्रियाविशेष्यत्वेना. न्यत्रान्वयः क्लृप्तो भज्येत । तस्मात् कृत्यनभिधाय. कभावकर्मकृद्योगे क्लृप्तशक्तेः सुपो लब्धया भावनया विशिष्टायाः क्रियायाः फलेऽन्वयः, सुबर्थ-कृते. विक्लित्त्यां विशेषणत्वेनैवान्वयस्य व्युत्पन्नत्वात् कर्तकर्मवच्च कृति-फलयोरप्यभिधाननियमान्नातिप्रसङ्गः। न वा पक्ष्यते तण्डुलो मैत्र इत्यादयः प्रयोगाः। तिकुपस्थापितायाः संख्याया भावनाया इव प्रथमान्तपदोपस्थाप्येनैवान्वयो व्युत्पन्नः ॥ ८॥ तण्डुल इति बोध इति भावः । ननु भावनैव धात्वथें विशेषणीभूय भासते तथाच भावनाविषयकपाकजन्यफलशाली तण्डुलः इत्येवान्वयबोध इत्यत आह-भावनेति । भावनायां सङ्ख्याकालेष्टसाधनार्थव्यतिरिक्तार्थे । अन्यत्रेति । पच. तीत्यादावित्यर्थः । अन्वयः अन्वयबोधनियमः । न च क्रियायाः फल-भावनयोरुभयत्रैव विशेषणतया अन्वयवोधोऽस्तु क्रियावत् तद्विषयकभावानापि जन्य. तासंबन्धेन फलविशेषणमस्तु फलं च तण्डुले विशेषणमस्त्विति वाच्यम् । तादृशबोधस्यापि तत्रानुभवसिद्धत्वादिति भावः । भाव-कर्मेति । चैत्रेण पक्कं चैत्रेण पक्क ओदन इत्यादावित्यर्थः । सुपः तृतीयाविभक्तितः । भावनया कृत्या । तथाच चैत्रण पच्यते तण्डुल इत्यादौ चैत्रनिष्ठकृतिजन्यपाकजन्यफलशाली तण्डु. लइत्यन्वयबोधः । उभयत्रैव जन्यत्वं संवन्धः । तण्डुलपदं च तण्डुलावयवपरं, तेन विक्लित्तिरूपस्य तस्य तण्डुलात्तित्वेऽपि न क्षतिः । एवमोदनः पच्यते तण्डुल इत्यादावोदनादिपदमपि बोध्यम् । न चैवं तथापि यत्रावयवविक्रित्तिरूपं फलं नोत्पन्नं तत्रैव तद्वाक्यस्यायोग्यत्वापत्तिरिति वाच्यम् । इष्टत्वादिति भावः । ननु कृतेः क्रियाविशेष्यत्वमेवेति व्युत्पत्ते: कथमेतदित्यत आह-सुबर्थेति । व्युत्पन्नत्वादिति चैत्रेण पक्वमित्यादौ व्युत्पन्नत्वादित्यर्थः तथाच तिर्थकृतेरेव तथात्वमिति भावः । नियमादिति शबादेः सहकारेणैव कृतेः, यकः सहकारेणैव फलस्य सार्वधातुकेनैवाभिधानं युगपत्कृतिफलयोरभिधानं च नाख्यातमात्रेण इति नियमादित्यर्थः । नातिप्रसङ्ग इति । चैत्रः पच्यते इत्यादौ कृतेः,तण्डुलः पचतीत्यादौ फलस्य न प्रत्ययप्रसङ्ग इत्यर्थः । प्रयोगाः युगपत्कृति-फलबोधकाः । - नन्वेवं कर्माख्यातेन भावनाया अनभिधाने आख्यातार्थभावनाविशेप्यत्वस्य तदर्थसंख्यान्वयानियामकत्वात् तत्र किं नियामकं स्यादित्यत आह-तिकुपस्थापिताया इति, भावनायाइव कर्नाख्यातार्थभावनाया इव । प्रथमान्तेति
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१३ ग्रन्थः]
आख्यातशक्तिवादः।
तथाच यथा काख्यातार्थभावनान्वये कर्मताद्यनवरुद्धप्रथमान्तपदोपस्थाप्यत्वं नियामकं तथा तिङर्थसंख्यान्वयेऽपीति भावः । एतच्च प्राचीनग्रन्थानुरोधेनोतम् । तत्र आख्यातार्थभावनाविशेष्ये तदर्थसंख्यान्वय इति नियमे यत्नत्वव्यापारत्वविशिष्टस्यैव भावनापदार्थतया विशिष्य व्याख्यातत्वात् । वस्तुतस्तु भावनापदं व्यापारत्वविशिष्टस्येव वर्तमानत्वत्वादीष्टसाधनत्वत्वादीतराख्यातप्रतिपाद्यतावच्छेदकरूपधर्मवत्त्वरूपभावनात्वविशिष्टत्वरूपेण फलत्वविशिष्टस्याप्युपलक्षकं, तथाच भावनात्वविशिष्टविशेष्ये संख्यान्वय इत्येव नियमो ज्यायान् इति बोध्यम् ॥ ८॥
( राम० ) फलस्यात्मनेपदार्थत्वं व्यवस्थापयितुं नव्यमतं दर्शयतिनव्यास्त्विति । तत्र फलस्य पदान्तरालभ्यत्वं दर्शयितुं भावनादेरित्यादि कस्यार्थ इत्यन्तं, चैत्रनिष्ठभावनाविषयेत्यादौ भावनादेरित्यर्थः । आदिपदेन वर्त. मानत्वपरिग्रहः । आधेयत्वमात्रमिति, मात्रपदेन कृतिव्यवच्छेदः । ननु चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादौ आधेयत्वस्य तृतीयार्थत्वे चैत्रः पचति तण्डुलमित्यादौ यावन्तोऽर्थाः शाब्दबोधविषयास्तावदधिकपदार्थस्य शाब्दबोधविषयत्वापत्तिस्तथाचानुभवविरोधः । कर्तृप्रत्ययस्थले यावन्तः पदार्था भासन्ते तावत्समसंख्या एव पदार्थाः कर्मप्रत्ययस्थलेऽपि भासन्ते इत्यस्य सर्वसिद्धत्वादित्यत आहसंख्यामात्रं वेति । मात्रपदेनाधेयत्वव्यवच्छेदः । ननु तृतीयाया आधेयत्वार्थकत्वाभावे कृतौ चैत्रनिष्ठत्वस्य कुतो लाभ इत्यत आह-सम्बन्धस्त्विति । चैत्रकृत्योराधेयत्वरूपः संबन्धस्त्वित्यर्थः। पचतीत्यादाविति, यथा चैत्रे पाकानुकूलकृतेराश्रयत्वं संसर्गस्तथा चैत्रेण पच्यत इत्यादौ चैत्र-कृत्योरप्याधेयतासंसर्ग इति तस्य पदार्थत्वविरहेऽपि न क्षतिरिति भावः । फलेति पाकजन्यफलविक्लित्यादि-तण्डुलादिरूपकर्मणोराश्रयत्वरूपः संबन्धोऽपि वाक्यार्थ इत्यर्थः । वाक्यार्थत्वं च तत्तत्पदद्वयाकाङ्क्षादिलभ्यत्वम् । तदपि फलमपि, तथा संसर्गरूपो वाक्यार्थः । प्रकारीति। तथाच फलप्रकारकबोधानुपपत्तिरिति भावः ।
ननु फलावच्छिन्नव्यापारबोधकपचधातुत एव फललाभ इत्यत आह-फला. वच्छिन्नेति । विशेषणेति, यादृशविशिष्टो यत्पदार्थः तत्तत्पदात् तादृशविशिटार्थ एवावगम्यते अन्यथातिप्रसङ्गात् । तथाच फलावच्छिन्नव्यापारबोधकधातुना फलावच्छिन्नव्यापारबोधनेऽपि फले क्रियाजन्यत्वालाभ एव स्यादिति भावः । नन्वेवं फलाभाव एव न स्यादित्याशङ्कायामाह-तस्मादिति । चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादौ फलस्य पदान्तरालभ्यत्वादित्यर्थः । आत्मनेपदार्थ इति । आत्मनेपदत्वावच्छेदेन फले शक्तिरित्यर्थः । आख्यातत्वं च न फलशक्ततावच्छेदकं परस्मैपदस्य कुत्रापि फलाबोधकत्वेन तस्यातिप्रसक्तत्वादन्यथा शद्धत्वादेरेव फलशक्ततावच्छेदकत्वापत्तेरिति भावः।
कर्मप्रत्ययस्थले तृतीयार्थकृतेरन्वय इति स्वमतं प्रमाणयितुमाख्यातार्थकृते.
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९४
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
रन्वय इति प्राचां मतं दूषयति-इत्थश्चेति । कर्माख्यातस्थले फलस्यात्मनेपदार्थत्वे इत्यर्थः । फलस्यात्मनेपदार्थत्वाभावे फले भावनान्वय एव नास्ति क तद्विचारवार्तापीतीत्थं चेत्यस्य नानुपपत्तिरिति भावः । आख्यातेति । चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादौ चैत्रत्तिपाकभावनाप्रयोज्यफलशाली तण्डुल इत्यन्वय. स्वीकारे इत्यर्थः । न लभ्येतेति । तथाचानुभवविरोध इति भावः । ननु चैत्रवृत्तिभावनाविषयपाकजन्यफलशाली तण्डुल इत्याकारक आख्यातार्थभावनाविषयकः शाब्दबोधो वाच्य इत्यत आह-भावनेति । आख्यातार्थभावनेत्यर्थः । अन्वये अन्वयस्वीकारे । तिङपस्थापितेति काख्याते चैत्रस्तण्डुलं पचतीत्यादौ चैत्रस्तण्डुलकर्मकपाकानुकूलकृतिमानित्यन्वयबोधस्तत्र च धात्वर्थविशेषणकस्वार्थकृतिविशेष्यकान्वयबोधजनकत्वव्युत्पत्तिः क्लृप्ता सा च भग्ना स्यात् , यदि चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादौ आख्यातार्थकृतिविशेषणको धात्वर्थपाकविशेष्यकश्चैत्रवृत्तिभावनाविषयपाकजन्यफलशाली तण्डुल इत्याकारकान्वयबोधः स्वीक्रियत इत्यर्थः । ननु पचधातुसमभिव्याहृतक ख्यातजन्यकृत्युपस्थितेः कृतिविशेष्यक-पाकप्रकारकशाब्दत्वं पचधातुसमभिव्याहृतकर्माख्यातजन्यकृत्युपस्थितेश्च पाकविशेष्यक-कृतिप्रकारकशाब्दत्वं कार्यतावच्छेदकमिति विशेषत एव व्युत्पत्ती अङ्गीकार्ये तयोश्च न भङ्गः । सामान्यतश्च पचधातुसमभिव्याहृताख्यातजन्यकृत्युपस्थितित्वावच्छिन्नस्य न कृतिविशेष्यक-पाकप्रकारकशाब्दत्वं कार्यतावच्छेदकमुच्यते येन तद्विरोधः स्यादिति चेत् । न । उक्तकार्य-कारणभावद्वयकल्पनमपेक्ष्य लाघवेन सामान्यतः तादृशस्यैकस्यैव कार्य-कारणभावस्य कल्पनाया युक्तत्वात् । तथाच तादृशसामान्यकार्य-कारणभावबलेन चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादावपि कृतिविशेष्यक-पाकप्रकारक एकबोधः स्यादित्येव प्रकृते क्लप्तव्युत्पत्तिभङ्गप्रसङ्गपदार्थः । अयं च बोधः फलस्य क्रियाजन्यत्वालाभप्रसङ्गेन दृषित एवेति भावः ।। ___ नन्वेवं कर्माख्यातस्थले कृतिलाभ एव न स्यादिति तल्लाभाय स्वमतं दर्शयति-तस्मादिति । कर्मप्रत्ययस्थले आख्यातोपस्थाप्यभावनायामन्वयासंभवादित्यर्थः । कृत्यनभिधायकेति । चैत्रस्य पाक इत्यादिभावकृत्स्थले षष्ठ्यर्थकृतेर्जन्यतासंबन्धेन पाके अन्वयः, चैत्रेण पक्वस्तण्डुल इत्यादिकर्मकृत्स्थले तृतीयार्थकृतेर्जन्यतासंबन्धेन धात्वर्थपाकेऽन्वय इत्यर्थः । क्लप्तशक्तरिति । क्लूप्ता शक्तिर्यस्या इति बहुव्रीहिः । तथाच लाघवेन षष्ठी-तृतीयासाधारणसुप्त्वावच्छेदेन कृतिशक्तिकल्पने कर्माख्यातस्थलेऽपि सुप एव तृतीयातः कृतिलाभो भवि. ष्यतीति भावः । सुपस्थले च पचधातुसमभिव्याहृतसुप्जन्यकृत्युपस्थितः पाकविशेष्यक-कृतिप्रकारकशाब्दत्वमेव सामान्यतः कार्यतावच्छेदकमिति न तु गौरवं न वा तत्र तद्भङ्ग इत्यभिप्रायेणाह-सुबर्थकृतेश्चेति । ननु तथापि भावकर्मकृतेरेव कृतिशक्तिरस्तु विनिगमकाभावादिति चेत् । न । कर्तृ-कर्मणोः कृति
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१३ मन्थः] आख्यातशक्तिवादः।
९५ नित्यमित्यनुशासनेन षष्ठयां शक्तेः सिद्धत्वात् । तस्मादेव कर्तरि वेत्यादितृतीयाविधायकसूत्रादपि तृतीयायामपि कृतिशक्तिसिद्धिः। अन्यथा तत्सूत्रस्य तृतीयाबायकत्वानुपपत्तिः समानविषयत्वाभावादिति भावः । इदं तु बोध्यं-सुप्त्वावच्छेदेन कृतिशक्तौ क्लुप्तायां प्रथमासुप्यपि कृतिशक्तिरायाता, तथाच चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादौ प्रथमा-तृतीयाभ्यामेव स्मृतायाः कृतेः पाकेऽन्वयः स्वीकियते संभेदे नान्यतरवैयर्थ्यमिति न्यायात् । अत एव सुवर्थकृतेश्चेत्युवाच अन्धकारः; अन्यथा तृतीयार्थकृतेश्चेत्येव उक्तवान् स्यात् इत्यस्मदीयो बुद्धिप्रकाशः सुधीभिः श्लाघनीयः । ननु चैत्रेण गुणः पच्यते इति प्रयोगापत्तिः, चैवत्तिकृतिजन्यपाकजन्यविक्लित्यादिरूपतण्डुलावयवदृत्तिविजातीयसंयोगात्मकफलस्य तादात्म्येन स्वस्मिन् गुणे सत्वादित्यत आह-कर्तृ-कर्मवञ्चति । तथाच भवन्मते यथा पच्यते इत्यादौ आश्रयतासम्बन्धेन कर्मत्वविशिष्टस्यैव तादात्म्येन तण्डुलादावन्वय इति नोक्तदोषः, तथा अस्मन्मतेऽपि फलस्याश्रयतासम्बन्धेनैव तत्रान्वय इति नोकदोष इत्यर्थः । कर्तृ-कृत्योरभिधानं तु दृष्टान्तार्थमनुवादमात्र भावनाया कर्तर्याश्रयत्वेनेत्यादिपूर्वग्रन्थे कृत्यन्वये नियमस्योक्तत्वात् तेन न पौनरुक्त्य मिति भावः । नातिप्रसङ्गः न चैत्रेण गुणः पच्यते इत्यादिप्रयोगप्रसङ्गः । __ ननु एकस्मादेव पक्ष्यत इति वाक्यादेकदा चैत्रे पाककर्तृत्वस्य तण्डुले पाककर्मत्वस्य च बोधे तात्पर्यदशायां चैत्रस्तण्डुलः पक्ष्यते इति प्रयोगापत्तिरित्यत
आह-न वेति । तथाच तदाख्यातजन्यकर्तृत्वशाद प्रति तदाख्यातजन्यकर्मत्वशाब्दसामग्री, एवं तदाख्यातजन्यकर्मत्वशाब्दं प्रति तदाख्यातजन्यकर्तृत्वशाब्दसामग्री प्रतिबन्धिकेत्येकदोभयशाब्दसामग्रीस्थले परस्परप्रतिबन्धेन न कस्यापि शाब्दबोध इति न तथा प्रयोगापत्तिरिति भावः । इदमपि प्रागुक्तस्य स्मरणाय । तेन न पौनरुक्त्यम् । ननु यदि चैत्रेण पच्यत इत्यादौ आख्यातार्थभावनाया नान्वयस्तदा भावनाविशेष्यविरहात् कुत्र कर्माख्यातार्थसंख्यान्वयो भविष्यतीत्यत आह-तिङपस्थापिताया इति । यथा पचतीत्यादौ प्रथमान्तोपस्थाप्यत्वं भावनान्वये नियामकं तथा चैत्रेण तण्डुलः पच्यत इत्यादावप्याख्यातजन्यसंख्याप्रकारकशाब्दबोथे प्रथमान्तोपस्थाप्यत्वमेव नियामकं वक्तव्यमित्यर्थः । व्युत्पन्न इति । चैत्रः पचतीत्यादौ क्लुप्त इत्यर्थः। तथा चाख्यातजन्यसंख्याप्रकारकशाब्दत्वावच्छिन्नं प्रति प्रथमान्तपदजन्योपस्थितित्वेन कर्तृ-कर्माख्यातजन्योपस्थितिसाधारणी हेतुतेति भावः ॥ ८ ॥
(रघु०) प्राचीनमतं दूषयन् नवीनमतं दर्शयति-नव्यास्त्विति । ननु कर्माख्यातस्थले आधेयत्वस्य तृतीयार्थत्वे कळख्यातस्थले यत्र भावनाविशेषणत्वेनान्वेति कर्माख्यातस्थले स एव भावनायां विशेषणत्वेनान्वेति इत्यनु
१. विशेष्यत्वेन ' इति पाठः।
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वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
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भवविलोपपत्ति: । एवं तादृशवाक्येन तथाविधबोधजनने आधेयत्वे तृतीयापदनिरूपितशक्तिज्ञानस्य सहकारित्वकल्पने गौरवं चेत्यत आह-संख्यामात्रं वेति । मात्रपदेन आधेयत्वव्यवच्छेदः । संबन्ध: चैत्रभावनयोः संबन्ध इत्यर्थः । वाक्यार्थ इति । तथाविधवाक्यानुपूर्वीज्ञानबलाच्छाब्दबोधे भासत इत्यर्थः । तथाच तथाविधश्चेदनुभवः तदा संख्यामात्रं तृतीयार्थः, आधेयत्वं तु संबन्धमर्यादया भासत इति भावः । तथेति । वाक्यार्थ इत्यर्थः । तदपीति फलमपीत्यर्थः । तथेति । वाक्यार्थसंबन्ध इत्यर्थः । भासमानत्वादिति । तथा च नामार्थधात्वर्थयोः भेदान्वयबोधानभ्युपगमेन कर्माख्यातस्थले फलप्रकारकबोधानुभवापलापेन च तत्र फलस्य संबन्धविधया मानासंभवादिति भावः । क्रियाजन्यफलाभवादिति । जन्यतासंबन्धेन क्रियाविशिष्टं यत्फलं तस्य धातो लाभादित्यर्थः । विशेषणविशेष्यभावेत्यादि । फलविशेष्यकक्रियाविशेषणकबोधस्य धातुतोऽशक्यत्वादित्यर्थः । एतावता प्राचीनमतं दूषयित्वा नवीनमतमुपसंहरति तस्मादिति ।
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इत्थं चेति । फलस्यात्मनेपदार्थत्वे चेत्यर्थः । न लभ्येतेति । तथा च कर्माख्यातस्थले फलविशेष्यकजन्यतासंसर्गकक्रियाविशेषणक बोधोऽनुभवसिद्धः । स चानुपपन्न इति भावः । फले अन्वये । जन्यतासंबन्धेन फले अन्वये । अन्यत्र क्लप्त इति, कर्नाख्यातस्थले क्लृप्त इत्यर्थः । तथा च तत्राख्यातार्थं - न्तरे वर्तमानत्वादौ धात्वर्थस्यान्वयापत्तिवारणाय धात्वर्थनिष्ठप्रकारतानिरूपितवशेष्यतासंबन्धेन शाब्दबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति आख्यातपदजन्यकृत्युपस्थितेः विशेष्यतासंबन्धेन हेतुत्वस्य कल्पनान्न धात्वर्थे विशेषणत्वेन तिङर्थकृतेरन्वय इति भावः । कृत्यनभिधायकेति । कृत्यनभिधायको यो भावकर्मविहितकृत्प्रत्ययः तद्योगेन भावनायां क्रूसशक्तेः तृतीयारूपसुप इत्यर्थः । व्युत्पन्नत्वादिति । चैत्रेण गतमित्यादिभावादिविहित कृत्प्रत्ययस्थले क्लसत्वादित्यर्थः । तथाविधकृत्प्रत्ययस्थले सुबर्थकृतिनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासंबन्धेन शाब्दं प्रति धातुपदजन्योपस्थितेर्विशेष्यतासंबन्धेन हेतुत्वस्य क्लृप्तत्वात् सुबर्थकृतिप्रकारकक्रियाविशेष्य
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बोधे बाधकाभावादिति भावः । ननु आख्यातस्य कृतिकर्मत्वाभिधायकत्वे चैत्रेण पचति तण्डुलः, तण्डुलं पच्यते चैत्र इत्यादिप्रयोगापत्तिरित्यत आहकर्तृकर्मवदिति । वैयाकरणमते यथा कर्त्राख्यातत्वं कर्तृशक्ततावच्छेदकं यथा `च कर्माख्यातत्वं कर्मशक्ततावच्छेदकं तथा नैयायिकमतेऽपि कर्त्राख्यातत्वं कृति
१ लाभादिति पाठः ।
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१३ ग्रन्थः ]
आख्यातशक्तिवादः ।
शक्ततावच्छेदकमेवं कर्माख्यातत्वं कर्मत्वशक्ततावच्छेदकमित्युपदर्शितस्थले कृ'कर्मत्वयोर्बोधाभावान्नोपदर्शितप्रयोगापत्तिरिति भावः ।
कृतिकर्मत्वयोः शक्ततावच्छेद के कर्त्राख्यातत्वकर्माख्यातत्वे उच्येते नाख्यातत्वमित्यत्रावष्टम्भकान्तरमाहइन वेति । तथा सति पक्ष्यते तण्डुलो मैत्र इत्यादिप्रयोगापत्तिर्दुर्वारेति भावः ।
केचित्तु आख्यातत्वमेव कृतिशक्ततावच्छेदकं लाघवात् । न चैवमुक्तप्रयोगायत्तिः कृतिविशेष्यकाख्यातपदनिरूपितशक्तिज्ञानेन कृतिशाब्दबोधे जननीये चैत्रस्तण्डुलं पचतीत्याद्यानुपूर्वीज्ञानस्य सहकारित्वकल्पनादेवं कर्मत्वविशेष्यकाख्याउपदनिरूपितशक्तिज्ञानेन कर्मत्वबोधे जननीये चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्याद्यानुपूज्ञानस्य सहकारित्वकल्पनाच्चोक्तानुपपत्तेरभावादिति । एवमन्यत्राप्यापत्तिशकापक्कोऽप्यानुपूर्वीज्ञानस्य सहकारित्वरूपसलिलधाराधोरणीभिरपनीय इति प्राहुः ।
ननु कर्माख्यातस्य चेन्न कृत्यपरनामकभावनार्थकत्वं तर्हि कुतो भावनात्वयिनि संख्यान्वयनियम:, चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादौ भावनानन्वयिनि तण्डुले संख्यान्वयेन व्यभिचारादित्यत आह- तिङपस्थापिताया इति । तथा च संख्यायाः प्रथमान्तपदोपस्थाप्य एवान्वयनियमो न तु भावनान्वयिनि तस्यान्वयनियम इति भावः । नन्वाख्यातपदोपस्थाप्यान्ययिन्येव संख्यान्वयनियमः किं नाभ्युपेतः, तथा सत्यपि कर्माख्यातस्थलेऽनुपपत्त्यभाव इति चेन्न; तथा नियमाङ्गीकारे नश्यतीत्यादौ वर्तमानत्वादिविशिष्टेऽपि संख्यान्वयप्रसङ्गादिति ॥ ८ ॥
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भावनाया
( जय०) प्राचीनोक्तमर्थविवेचनेन प्रकारद्वयमपि दूषयन् सिद्धान्तितं नवीनमतमाह नव्यास्त्विति । चैत्रेण प्रच्यते तण्डुल इत्यत्रेति शेषः । भायना यत्नः आदिपदाद्वयापारादेर्यथायथं परिग्रहः । आधेयत्वमिति । रथेन गतमित्यादावाधेयत्वस्य तृतीयार्थत्वादिति भावः । लाघवात्पचतीत्यादाविव आधाराधेयभावस्य संसर्गतया भानस्यानुभवसिद्धत्वाच्चाह -- संख्यामात्रं वेति । वाक्यार्थः संसर्गमर्यादालभ्यः । तृतीयाप्रकृत्यर्थस्य चैत्रादेः साक्षादेवाख्यातार्थभावनायां भेदेन प्रकारत्वसंभवान्नामार्थधात्वर्थयोरेव भेदेनान्वयस्या व्युत्पन्नत्वादिति भावः । न चाख्यातार्थेऽपि प्रातिपदिकार्थस्य विशेषणतयाऽन्वयो न व्युत्पन्न: । अन्यथा चैत्रः पच्यते तण्डुल इत्यादावपि तादृशबोधापत्तेरिति वाच्यम् । तादृशान्वयबोधे तृतीयायाः सहकारित्वात् । अन्यथा चैत्रे पच्यतेतण्डुल इत्यादित: सप्तम्यर्थाधेयत्वोपस्थितिसत्त्वात्तथा शाब्दबोधस्य तवापि दुर्वारत्वापत्तेः । तृतीयो पस्थाप्याधेयत्वोपस्थितिस्तन्त्रमिति चेत् तृतीयोपस्थितिरेव लाघवात्तन्त्रमस्तु । न च संख्यातिरिक्तार्थाभावे प्रथमा स्यादिति वाच्यं
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः कर्तृगतसंख्यानभिधाने तृतीयाया एव साधुत्वादिति भावः । फलकर्मणोरपीति । अपिना क्रियाफलयोः समुच्चयः । तथा वाक्यार्थः । एतदपि फलमपि तथा वाक्यार्थः । तथा च मैत्रनिष्ठपाकभावनावांस्तण्डुल इति बोधः । भावनायाः कर्मणि स्वजन्यफलवत्त्वं स्वविषयक्रियाजन्यफलवत्त्वं वा संबन्ध इति भावः । प्रकारीभूयेति । एतावतैव प्राचां प्रथमप्रकारोऽप्यपहृत इति द्वितीयप्रकारदूषणेनैव तस्य दूषितत्वात्स्वातन्त्र्येण(न) तदुपन्यास इति बोध्यम् । ननु धातोः फलावच्छिन्नक्रियावाचित्वात्तत एव फललाभोऽस्त्वत आह–फलेति । फलविशिष्टेत्यर्थः । वैशिष्टयं च जनकतया । तथा च क्रियाविशेषणतयोपस्थितस्य फलस्य क्रियाविशेष्यत्वेन नान्वयो निराकाङ्क्षत्वादिति भावः । ननु फलविशेषणतया शक्यत्वेऽपि विशेष्यतया स्मरणं स्यादत आह—विशेषणेति । यद्रूपविशिष्टे वृत्तिग्रहस्तद्रूपविशिष्टस्यैवोपस्थानादिति भावः । फलमिति । न च फले लक्षणैवास्तु। फलस्य संयोगविभागादेः कृतितुल्यत्वेन तदयोगादिति भावः।
नन्वस्तु प्राचामपि फलमात्मनेपदार्थः । नतु तन्मात्रं भावनाया अपि तद. र्थत्वादित्यत आह—इत्थं चेति । फलस्य आत्मनेपदार्थत्वे चेत्यर्थः । अपदार्थत्वे तदन्वयविचार एवानुचित इति भावः । न लभ्येत इति । तथा च कर्मत्वप्रकारिका प्रतीतिर्न स्यादिति भावः । नन्वाख्यातार्थफलभावनयोरपि विशेषणतया क्रियान्वयोऽस्तु क्रियाविशिष्टभावनायाश्च फले । तथा च क्रियाजन्यक्रियाविषयकभावनाजन्यफलशाली तण्डुल इत्यादिबोध: स्यादिति चेन्न । वाक्यभेदापत्तेरनुभवबाधादाख्यातजन्यभावनादिबोधनियामकसमभिव्याहारस्याभावाच्च । नन्वात्मनेपदस्थले आख्यातार्थभावनैव धात्वर्थविशेषणतया भासताम्। तथा च भावनाविषयक्रियाजन्यफलशाली तण्डुल इति बोधोऽस्त्वत आह--- भावनेति । अन्यत्र पचतीत्यादौ । कृत्यभिधायकेत्यनेनानन्यलभ्यत्वमुक्तम् । क्लप्तशक्तरित्यनेन शक्त्यन्तरकल्पनातो व्युत्पत्त्यन्तरमेव कृप्तशक्तिकस्याख्यातस्य युज्यत इति निराकृतम् । सुपस्तृतीयायाः । ननु कृते: क्रियाविशेष्यत्वेनैवान्वय इति सामान्यव्युत्पत्तेः कथमेवमित्यत्राह-सुबर्थेति । व्युत्पन्नत्वादिति । चैत्रेण पक्वमित्यादौ तृतीयाजन्ये कृतिप्रकारकपाकविशेष्यकबोधे धातुजन्यपाकोपस्थितेः कारणत्वकल्पनान्न व्युत्पत्तिभङ्ग इति भावः । कर्तृकर्मवदिति । कर्तृकर्मणोरिवेत्यर्थः । पूर्व संसर्गभेदेन नियम उक्तोऽधुना तु पदार्थभेदेनैवेति विशेषः । अतिप्रसङ्गः चैत्रः पच्यत इत्यादौ कृतेस्तण्डुलः पचत इत्यादौ 'फलस्य प्रत्ययप्रसङ्गः। शबादिसहकारेण कर्तुरिव कृतेर्यकः सहकारेण कर्मण इव फलस्यैव प्रतीतेरिति भावः ।
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१३ ग्रन्थः]
आख्यातशक्तिवादः।
न वेति । एकदा कर्तृकर्मणोरिव कृतिफलयोरप्यबोधादिति भावः । नन्वेवं कर्माख्यातस्थले भावनान्वय्यभावात्संख्यान्वयो न स्यात् । न च भावनाफलान्यतरविशेष्यत्वं वर्तमानत्वादीष्टसाधनत्वादीतराख्यातार्थविशेष्यत्वं वातनियामकं, कादाचित्कस्य तद्विशेष्यत्वस्यासार्वत्रिकत्वान्नियतप्राक्कालीनस्य तत्त्वात् । एतेन मुख्यविशेष्ये संख्यान्वय इत्यपास्तमित्यत आह—तिकुपस्थाप्याया इति । अत्र कर्मत्वाद्यनवरुद्धतरविशेषणत्वेनानुपस्थितत्वादिरूपं शाब्दबोधसाधारणं, नीलो घटो द्रव्यमित्यादितोऽपि नीलो द्रव्यमित्याद्यबोधादतस्तादृशं त्यक्त्वाह-- प्रथमान्तेति । नन्वाकाशो मैत्रश्च गच्छत इत्यादितो मैत्रमात्रे भावनाया आकाशमैत्रयोर्द्वित्वस्यान्वये तात्पर्य गृह्णतोऽपि तथाबोधाभावेन भावनान्वयबोधसामग्र्या एव संख्यान्वयबोधे कारणत्वमुचितम् । न च संख्यान्वयसामग्र्येव भावनान्वयबोधे हेतुरस्तु द्वौ गच्छत इत्यादौ व्यभिचारात् । न च तथाऽपि भावनायाः कृतिफलादिरूपतयाननुगमाद्यभिचारः। कृतिसंख्योभयप्रकारकशाब्दबोधे कृतिप्रकारकबोधसामग्र्याः फलसंख्योभयप्रकारके फलप्रकारकबोधसामग्र्या हेतुताङ्गीकारादिति चेन्न । एवं सति संख्यान्वयबोधसामग्र्या अपि विनिगमनाविरहेण तथात्वप्रसङ्गात् । द्वौ गच्छत इत्यादावुभयप्रकारकबोधाभावेन व्यभिचाराभावान्न स्यात् । उक्तोभयप्रकारकबोधे प्रथमान्तपदजन्योपस्थितेरेव कारणत्वमुचितम् । ___ नन्वेवं द्वौ गच्छत इत्यादी केवलकृत्यादिप्रकारकबोधे कार्यकारणभावान्तरकल्पनमावश्यकम् । वैयाकरणस्य च तत्रापि द्वित्वविशिष्टे द्वित्वविशिष्टगमनानुकुलकर्तृत्वादिविशिष्टाभेदो भासत एवेति न कार्यकारणभावान्तरकल्पनम् । गच्छन्तौ गच्छत इत्यत्र च नोभयोरेवान्वयबोध इति वैयाकरणमत एव मिलितानुभावकतानिर्वाह इति चेन्न । गच्छतिपचतीत्यतो गमनकर्ता पाककर्तेत्यन्वयबोधवारणाय प्रथमान्तपदजन्योपस्थितेस्तेनापि कारणत्वस्यापि वाच्यत्वात्संख्यान्वयबोधे आख्यातजन्यकर्तृकर्मोपस्थितेः पृथक्कारणत्वे गौरवात् । आनुपूर्वीभेदेन कार्यकारणभेदात् द्वौ गच्छत इत्यानुपूर्वीज्ञानकार्यतावच्छेदकस्य तन्मतेऽतिगुरुत्वाच । किंच कर्तृकृतिशक्तिवादिनोईयोरेवोभयविधः शाब्दबोधः सिद्ध एवेति तदनुरुद्धकार्यकारणभावादिकल्पनं द्वयोरेव समानं, परंतु कर्तरि वा शक्तिभ्रमः कृतौ वेत्यत्र विचारे कर्तर्येव भ्रमत्वं कल्प्यते । तत्र शक्तिकल्पने गौरवादिति दिक् । अत्र प्रथमान्तेत्यस्य समानवचनप्रथमान्तेत्यर्थः । तेन चैत्रः पचतीत्यादिवाक्यान्नान्वयबोधः । साम्यं चैकवचनस्यैकवचनत्वेन । द्विवचनाख्यातस्यैकवचनान्तद्वयसमभिव्याहृतैकवचनत्वाभावविशिष्टं यहिवचनान्तत्वं तद
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः चैत्रो गन्ता गतो ग्रामो मित्रा पक्री गतं पुरम् ।
भोक्ता तृप्यति पक्कानि भुते पक्तापसार्यताम् ॥ भावेन चैत्रो मैत्रश्च गच्छत इत्येतत्साधारणम् । अत्र देवदत्त इत्यधिकान्तीवेन व्यावृत्तिः । बहुवचनाख्यातस्य चैकवचनान्तत्रयसमभिव्याहृतेकवचनत्वाभावेनैकवचनद्विवचनयोः परस्परसमभिव्याहाराभावेन विशिष्टं यद्बहुवचनान्तत्वं तदभावेन । तेन चैत्रो मैत्रो देवदत्तश्च गच्छति चैत्रमैत्रौ देवदत्तश्च गच्छन्तीत्यस्यापि संग्रह इति गुरुचरणाः ।
वस्तुतस्तु चैत्रः पचतीत्यादौ शब्दसाधुत्वनिश्चयादेवान्वयबोधः । तदनिश्चयदशायां च प्रथमाया एकत्वशक्तिनिश्चयाभावे भवत्येव बोधः । तन्निश्चये च एकैकत्वधर्मितावच्छेदककालीनानेकसंख्याप्रत्ययस्याहार्यप्रत्यक्षरूपतया तत्सामग्रीच्छाविरहादेव न बोधः । अथैकत्वबहुत्वाश्रयबहिर्भावेन चैत्रः पचन्तीति वाक्याचैत्रत्वविशिष्टे पाकानुकूलकृतिबहुत्वैकत्वादिप्रत्ययः स्यादिति चेन्न । समभिव्याहृतपदानां संभूयान्वयबोधकत्वस्यैव व्युत्पन्नत्वेन प्रथमादिबहिर्भावेन तदसंभवात् , चैत्रो दण्डी द्रव्यमिति वाक्याङ्गत्वेऽपि चैत्रो द्रव्यमिति बोधानुदयादिति ॥ ८ ॥
(मथु०) नन्वेवं कर्तृ-कर्मणी कृतोऽपि वाच्ये न स्यातां तत्रापि लाघवेन कृति-फलयोरेव शक्तरुचितत्वादित्यत आह-चैत्रो गन्तेति । कर्तरि कर्मणि चोभयत्रैव शक्तिव्यवस्थापनाय कर्तृ-कर्मभेदेनोदाहरणद्वयम् । ननु एकधर्मिबोधकत्वरूपं सामानाधिकरण्यमसिद्ध तृजादीनां प्रत्ययतया भेदेनाप्यन्वयोपपत्तेरित्यतः समानलिङ्गकत्वरूपं सामानाधिकरण्यं प्रमाणयितुं कर्तृ-कर्मशक्तिसाधकमुदाहरणद्वयमाह-मित्रेति । न च स्वसमानलिङ्गकत्वं कथं धर्मिसाधकमिति वाच्यम् । भेदान्वयवोधे समानलिङ्गकत्वस्यातन्त्रत्वात् । न चाभेदेनान्वयेऽपि समानवचनत्ववत् समानलिङ्गकत्वमपि न तन्त्रं 'वेदाः प्रमाणं ' इत्यादौ — जात्याकृतिव्यक्तयस्तु पदार्थः' इति न्यायसूत्रे च उभयोरेव व्यभिचारादिति वाच्यम् । अजहल्लिङ्गस्थले अभेदान्वयबोधे तदुभयोरतन्त्रत्वेऽपि तदतिरिक्तस्थले तदुभयोरेव तन्त्रत्वादिति भावः । ननु लाघवेन कृतः कृति-फलयोः शक्तौ व्युत्पत्तिवैचित्र्यादेव तत्र भेदान्वयेऽपि समानलिङ्गकत्वस्योपयोगो भविष्यतीत्यत आह-भोक्तेति । कृतिफलयोः कृद्वाच्यत्वे अत्रान्वयबोधो न स्यात् कृतौ तृप्त्याश्रयत्वस्य भोजने पाकफलविकित्तिकर्मकत्वस्य च बाधादिति भावः । एतदपि कर्तृ-कर्मशक्तिसाधारण्यायोदाहरणद्वयम् । कृतेः कृद्वाच्यत्वे कृदथें काख्यातार्थस्याश्रयत्वस्यान्वयानुपपत्तिमभिधाय तत्र कर्माख्यातार्थस्य फलस्यान्वयानु. पपत्तिं दर्शयति-पक्तेति ।
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१३ ग्रन्थः ] आख्यातशक्तिवादः।
इत्यादौ सामानाधिकरण्याद्यन्यथानुपपत्त्या कर्तृसामानाधिकरण्यादीत्यादिपदास् भोक्ता तृप्यतीत्यादौ प्रथमायें आधेयतान्वयबोधस्य परिग्रहः । कर्त-कर्मणी कृद्वाच्ये इति। कर्ता ज्ञाता नष्ट इत्यादौ च तृजादेराश्रय-प्रतियोग्यादौ निरूढलक्षणा । न च समवायित्वलक्षणाश्रयत्वस्य कृतिमत्त्वादिरूपकर्तृत्वादिकमपेक्ष्य लघुतया तस्यैव शक्यतावच्छेदकत्वमुचितमिति वाच्यम् । तस्य लघुत्वेऽपि तृजादिपदजन्यताप्रकारकशाब्दबोधेः स्वारसिकत्वाभावस्य प्रामाणिकानुभवसिद्धतया शक्यतावच्छेदकत्वासंभवात् । न च कृतिमत्त्वरूपकर्तृत्वमपेक्ष्य फलवत्त्वरूपकर्मत्वस्य गुरुतया कथं तस्य शक्यतावच्छेदकत्वमिति वाच्यम् । पक्तत्यादौ कर्तृत्वप्रकारकप्रत्ययवत् पक्वमित्यादौ कर्मत्वप्रकारकप्रत्ययस्यापि स्वारसिकत्वस्य प्रामाणिकानुभवसिद्धतया गौरवस्याकिंचित्करत्वादिति भावः । कर्तरि शक्तिः कर्मणि च निरूढलक्षणेत्यपि कश्चित् । सानीयं चूर्ण दानीयो ब्राह्मणः पतनीयो वृक्षः आसितमिदमासनं इत्यादौ करण-संप्रदानापादानाधिकरणादिकं तु कृतो लक्षणमेव । न च कर्तृत्वमादाय विनिगमनाविरह इति वाच्यम् । कर्तृत्वस्य करणत्वादिकमपेक्ष्य लघुत्वात् करणादौ तत्तत्कृत्प्रत्ययस्य स्वारसिकप्रयोगविरहाच ।।
करणत्वं हि व्यापारवदसाधारणकारणत्वं, प्रकृतकारणत्वमानं वा । संप्रदानत्वं स्वत्वविशेषभागित्वेन इच्छाविषयत्वं, विशेषपदोपादानात् विक्रयादौ क्रेत्रादेर्न संप्रदानत्वं, श्राडादौ पित्रादेः स्वत्वविशेषभागितया नोद्देश्यत्वमपि तु प्रीतिभागितया अतो न तस्य संप्रदानत्वं, अत एव 'नमः-स्वस्ति ' इत्यादिसूत्रान्तरेणैव तत्र चतुर्थीविधानम् । ब्राह्मणाय गां ददातीत्यत्र इच्छा चतुर्थ्यर्थः । सा च समूहालम्बनव्यावृत्तविषयतासंबन्धेन ददात्यर्थतावच्छेदकस्वत्वविशेषे अन्वेति, स्वत्वविशेषानुकूलत्यागस्य ददात्यर्थत्वात् । त्यागो ज्ञानं इच्छा वा । इच्छायां च विलक्षणविषयतासंबन्धेन प्रकृत्यर्थान्वयः।
आधेयत्वं च द्वितीयार्थः, तस्यापि धात्वर्थतावच्छेदकस्वत्वविशेषेऽन्वयः । तथाच विप्रविषयकेच्छाप्रकारीभूत-गोटत्तिस्वत्वविशेषजनकत्यागानुकूलकृतिमानित्यन्वयबोधः । विषयत्वं प्रकारीभूतत्वं, जनकत्वं अनुकूलत्वं च संसर्गः । वृक्षायोदकमासिञ्चतीत्यादौ च वृक्षादिषु संप्रदानप्रयोगो गौण चतुर्थी प्राप्त्यर्थः । तत्र चतुर्थी-द्वितीययोराधेयत्वमर्थः। तत्र चतुर्थ्यर्थाधेयत्वं सिचधात्वर्थतावच्छेदकघटके संयोगे अन्वेति । संयोगावच्छिन्नद्रवद्रव्यक्रियानुकूलकतक्रियाया एव सिचधात्वर्थत्वात् । द्वितीयाधेियत्वं च साक्षाद्वात्वर्थतावच्छेदकक्रियायामन्वेति । तत्रैव द्वितीयार्थाधेयत्वस्य व्युत्पन्नत्वात् । अत एव वृक्षमुदकं सिञ्चतीति न प्रयोगः । न चैवं 'कर्मणा यमभिप्रेति स सम्प्रदानं' इति पाणिनिस्त्रविरोध इति वाच्यम् । तस्यापि कर्ता कर्मजन्यस्व
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१०२ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः कर्मणी कृवाच्ये । चैत्रस्य नप्ता मैत्रादन्यो घटात् त्वभागित्वेन यमिच्छति तत्संप्रदानमित्यर्थात् । शेषमस्मत्कृतसुपशक्तिवादे अनुसंधेयम् ।
अपादानत्वं च परकीयक्रियाजन्यविभागाश्रयत्वं, टक्षात्पर्ण पततीत्यत्र पतनाश्रयस्य पर्णादेरपादानत्ववारणाय जन्यान्तं विभागविशेषणं, तत्र पञ्चम्या विभागः समवेतत्वं चार्थः । तथाच वृक्षनिष्ठविभागजनकक्षभित्रसमवेतपतनाश्रयः पर्णमित्यन्वयधीः । लक्षणे धात्वर्थतानवच्छेदकत्वेनापि विभागो विशेष्यः, तेन वृक्षं त्यजति खगः इत्यादौ वृक्षस्य नापादानत्वं, 'ध्रुवमपायेऽपादानम्' इति पाणिनिसूत्रस्यापि अपाये विभागे, यत् ध्रुवं यदधिकरणं, तदपादानमित्यर्थः । वस्तुतस्तु अवधित्वमेवापादानत्वम् अवधित्वं च स्वरूपसंबन्धविशेषः । वृक्षात् विभजते इत्यादौ च अवधितानिरूपकत्वं पञ्चम्यर्थः । वृक्षनिष्ठावधितानिरूपकविभागाश्रयः पर्णमित्यन्वयधीः । अन्यत्र चापादानप्रयोगो गौणः । शेषमस्मत्कृतसुप्शक्तिवादेऽनुसन्धेयम् । अस्य कर्तृत्वापेक्षया गुरुत्वाभावेऽपि एतत्प्रकारेण कृत्प्रत्ययस्य स्वारसिकप्रयोगविरहादेव तस्य न कृत्प्रत्ययशक्यतावच्छेदकत्वम् ।
अधिकरणत्वं च प्रतियोगित्वानुयोगित्ववदाधारत्वापरनामकस्वरूपसंबन्धविशेषः । तस्य कर्तृत्वापेक्षया गुरुत्वाभावेऽपि तत्प्रकारेण स्वारसिकप्रयोगविरहान कृत्प्रत्ययशक्यतावच्छेदकत्वमित्यलमप्रकृतेन ।
ननु कादेः कृत्प्रत्ययार्थत्वे तदेकदेशे कृत्यादौ धात्वर्थान्वयो न स्यात् तत्प्रकारक-तद्विशेष्यकशाब्दबुद्धिं प्रति तनिरूपितविशेष्यतातिरिक्तविशेषणतान्यविषयत्वेन तदुपस्थितिरूपाया आकाङ्कायाः स्वरूपसत्कारणत्वात् । अन्यथा नित्योस्पलमित्यादौ उत्पलत्वादिजातेरपि अभेदसंबन्धन नित्यस्यान्वयापत्तेः। चित्रगुरि• त्यादौ चित्रपदं तात्पर्यग्राहकं गोपद एव चित्रगोस्वामिनि लक्षणा, न तु गोपदे गोस्वामिनि लक्षणा, तदेकदेशे गवि तादात्म्यसंबन्धेन चित्रपदार्थस्यान्वयः, केवलचित्रगुपदा पदार्थोपस्थितिमात्रं, न तु शाब्दबोधः पदार्थद्वयाभावात् । अत एव पदार्थः पदार्थेनान्वीयते, न तु पदार्थतावच्छेदकेनेति प्रामाणिकाः । न च पदार्थतावच्छेदकजात्यखण्डोपाधेरेवापरस्यान्वयो नाभ्युपेयते तदतिरिक्तेषु च पदार्थतावच्छेदकेऽप्यपरपदार्थान्वयः, अत एव चित्रगुरित्यादावपि चित्रपदं न तात्पर्यग्राहकम्, अपि तु गोपदं गोस्वामिपरं, तदेकदेशे गवि तादात्म्यसंबन्धेन चित्रगुपदार्थस्यान्वयः, केवलचित्रगुपदादपि शाब्दबोधादिति वाच्यम् । तथापि शुक्ल द्रव्यं नित्यं, चैत्रस्य नप्ता सुन्दरः इत्यादावप्येकदेशीभूते शुक्लरूप-पुत्रादौ नित्य-सुन्दरादेरभेदसंबन्धेनान्वयापत्तेर्दुरित्वादित्यत आह-चैत्रस्येति । यथा जन्यशरीरजन्यशरीरं नप्तपदार्थः, पुत्रस्य पुत्र-कन्ये इव कन्यायाः कन्या
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः । पृथक् परोऽपरो वेत्यादाविव पदार्थतावच्छेदकेनैव कृत्यादिना धात्वर्थाऽन्वयः तथैव साकाङ्क्षत्वात्। अस्तु
वा कृत्यादिघटित एव कादिना सममन्वयः । पुत्रावपि नतृपदार्थः, तदेकदेशे प्रथमजन्यतायां षष्ठ्यर्थस्य निरूपितत्वस्यान्वयः। यद्वा शरीरजन्यशरीरमेव नप्तपदार्थः, तदेकदेशे प्रथमशरीरे षष्ठ्यर्थस्य जन्यत्वस्य अन्वयस्तथेहापीत्यर्थः । न च तत्र षष्ठयर्थस्य नप्तर्येवान्वय इति वाच्यम् । षष्ठयों हि जन्यत्वं, प्रयोज्यत्वं वा, नायः बाधात् , नान्त्यः चैत्रपुत्रे तत्प्रपौत्रे च तथा प्रत्ययप्रसङ्गादिति भावः ।
ननु प्रयोज्यत्वविशेष एवेह पष्ठ्यर्थस्तथाचानतिप्रसङ्गानप्तर्येव तदन्वयः, यद्वा शरीरमेवात्र नप्तपदार्थः, षष्ठ्यर्थस्य जन्यत्वस्य च स्वाश्रयशरीरजन्यत्वसंबन्धेन तत्रान्वयः, अथवा षष्ठयर्थस्य जन्यत्वस्याश्रयतासंबन्धेनैव शरीरेऽन्वयः, शरीरस्य च जन्यतासंबन्धेन पुनः शरीरेऽन्वयः, एकपदार्थस्यापि वारद्वयान्वयाभ्युपगमात् । नामार्थयोरपि भेदेनान्वयस्य जनकादिपदस्थलेऽपि खण्डशक्तिवादिना विशिष्टवाचकपदस्थलेऽभ्युपगमात् । केवलनमपदे च विशिष्टे शक्तिरतो नमुपदपुत्रपदयोन पर्यायता, तयोः पर्यायत्वस्येष्टत्वे च नम्र-पुत्रादिपदयोः शरीरमेव शक्यं, केवलनत-पुत्रादिपदे विशिष्टनिरूढलक्षणेत्यत आह-मैत्रादन्य इत्यादि। अन्यपदस्य भेदवानर्थः। तदेकदेशे भेदे पञ्चम्यर्थस्य प्रतियोगित्वस्य यथा अन्वयः इत्यर्थः । पञ्चम्यर्थे प्रतियोगित्वे च स्वरत्तिमैत्रत्वावच्छिन्नत्वसंबन्धेन मैत्रादेरन्वय इति नातिप्रसङ्ग इति भावः । घटादित्यादि । पृथक्त्वगुणविशिष्टं पृथक्त्वशब्दार्थः, परत्वगुणविशिष्टं परशब्दार्थः, अपरत्वगुणविशिष्टमपरशब्दार्थः । तेषामेकदेशे पृथक्त्व-परत्वापरत्वादी घटादिति पञ्चम्यर्थस्य अवधिमत्त्वस्य यथा अन्वय इत्यर्थः । उदाहरणवाहुल्यं भूयःसु तथा दर्शनाव्युत्पत्तिदाार्थम् । तथैवेति । तत्र यथा आकाङ्क्षा वर्तते तथैवात्रास्याकाङ्कासवादित्यर्थः । अन्यत्र तादृशोपस्थितेराकासात्वेऽपि तत्रैवात्रापीतरविशेषणत्वेनोपस्थितेराकानात्वादिति भावः। यद्वा तादात्म्यसंबन्धेन तत्प्रकारक-तद्विशेष्यकशाब्दबोधं प्रत्येव यथोक्ततद्विषयकतादृशोपस्थितिरेव हेतुः, भेदसंसर्गेणान्वयबोधे तु इतरविशेषणत्वेनोपस्थितिरप्याकाङ्केति भावः।
अभ्युपेत्याह-अस्तु वेति । कृत्यादिघटितएवेति स्वजनककृत्याश्रयत्व-स्वजन्यफलाश्रयत्वरूप एवेत्यर्थः । कर्तादिनेत्यादिना कर्मपरिग्रह इति । अन्वयः धात्वर्थस्य शाब्दबोधविषयीभूतपरम्परासंबन्धः । तथाच नैकदेशान्वयः मैत्रादन्यइत्यादावपि विशेष्य एव पञ्चम्यर्थादेः परंपरासंबन्धेनान्वय इति न तत्राप्येकदेशान्वय इति भावः। अत्रानुभवविरोधः तत्तद्वाक्यजन्यशाब्दबोधानन्तरं
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१०४
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
मुख्यभाक्तसाधारणस्य फलादिलक्षणकर्मत्वस्य कृत्यादिलक्षणकर्तृत्वस्य चानभिधाने द्वितीयादयः । कृता विशिष्टाभिधाने विशेषणस्याप्यभिधानात्॥९॥ कृतिः पाकवती न वा, भेदो मैत्रप्रतियोगिको न वा, पृथक्त्वं घटावधिकं न वा इत्यादि संशयापत्तिर्दोषः ।
प्राचीनराख्यातेन कर्मादिगतसंख्यायाः कृता च कर्मादेरनभिधाने द्वितीयादय इति नियमद्वयं कल्प्यते अतस्तन्निरासाय कृदाख्यातसाधारणमेकमेव नियममाह-मुख्य-भाक्तसाधारणस्येति । एतच कर्मत्वस्य कर्तृत्वस्य विशे. पणं, मुख्यं कर्मत्वं फलवत्वं तत्प्रत्ययः पच्यते तण्डुलः पक्वस्तण्डुल इत्यादौ, भाक्तं कर्मत्वं विषयत्वादि तत्प्रत्ययः ज्ञातो घटः ज्ञायते घट इत्यादी, मुख्यं कर्तृत्वं कृतिमत्त्वं तत्प्रत्ययः पचति चैत्रः पक्ता चैत्र इत्यादौ, भाक्तं कर्तृत्वं आश्रयत्वादि तत्प्रत्ययश्च चैत्रो जानाति चैत्रो ज्ञाता इत्यादाविति भावः । फलादीत्यादिपदात् विषयत्वादिलक्षणभाक्तकर्मत्वपरिग्रहः कृत्यादीत्यादिपदात् आश्रयत्वादिलक्षणभाक्तकर्तृत्वपरिग्रहः । अनभिधान इति प्रधानक्रियोत्तरकृदाख्याताभ्यामनभिधान इत्यर्थः । तेन चैत्रेण भुक्त्वा गम्यते पक्त्वा चैत्रेण भुज्यते इत्यादौ कृता कृत्यभिधानात् तृतीया न स्यादिति दृषणमपास्तम् ।कृता कृत्यभिधानेऽपि प्रधान क्रियोत्तराख्यातेन कर्तृत्वानभिधानादिति भावः । द्वितीयादय इत्यादिपदात् तृतीयायाः कृयोगे षष्ठयाश्च परिग्रहः। ग्रामो गतश्चैत्रो गतवान् चैत्रो गन्ता इत्यादौ द्वितीयाधभावमुपपादयति-कृतेति । कर्मत्वविशिष्टस्या'भिधाने कर्मत्वादेरप्यभिधानादित्यर्थः ॥ ९ ॥
(राम) ननु यदि कर्ता कर्म च नाख्यातार्थः किंतु कृतिः कर्मत्वंच तदा कर्त-कर्मविहितकृतमपि तद्वत्कृति-कर्मताबोधकत्वमङ्गीक्रियतामविशेषादित्यतः कृतां कर्तृ-कर्मबोधकतां व्यवस्थापयितुं कारिकामाह-चैत्रो गन्तेत्यादि । चैत्रो गन्तेत्यादौ तृचा कर्ता, गतोग्रामइत्यादौ तत्प्रत्ययेन कर्म, मित्रा पक्रीत्यादौ तृचा कर्ता, गतं पुरमित्यत्र च क्तप्रत्ययेन कर्ता कर्म च प्रतीयते उभयत्र साधुत्वात् । तथाच तृजादीनामाख्यातवत् कर्तृबोधकत्वाभावे चैत्रोगन्तेत्यादावभेदान्वयबोधानुपपत्तिरिति भावः । नन्वत्र चैत्रः पचतीत्यादिवत् भेदान्वयबोध एव वक्तव्य इत्यत आह-भोक्तेत्यादि । तथाच भोक्तेत्यत्र तृचः कृतिमात्रबोधकत्वात् भोक्तपदार्थ विशेष्यीकृत्य तृप्यतीत्याख्यातार्थतृप्याश्रयत्वबोधो न स्यात्, भोजनानुकूलकृतौ भोक्तपदाथें तृप्याश्रयत्वस्यायोग्यत्वादिति भावः । एवं पक्कानि भुङ्क्ते इत्यादौ च बोध्यम् । अपसार्यतां, प्रपलाय्यताम् ।
सामानाधिकरण्यं, चैत्रादिपदार्थगन्त्रादिपदार्थयोरभेदान्वयबोधः । ननु
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः। यदि कृत्स्थले कर्ता कर्म च तदर्थस्तदा गन्तेत्यादौ एकदेशीभूतकृतौ गमनादेरन्वयो न स्यात् ‘पदार्थःपदार्थेनान्वेतीति व्युत्पत्तिविरोधेन कृतावेकदेशे पदाथस्य धात्वर्थस्यान्वयासंभवादित्यत आह-चैत्रादन्य इत्यादि । अवान्यपदार्थकदेशेनान्यत्वादिना पदार्थभूतपञ्चम्यर्थावधित्वादेरन्वयवदिहापि चैकदेशान्वयः स्वीकार्य इत्यर्थः । चैत्रस्येति । नतृत्वं च पुत्रपुत्रत्वम्, अत्र चायपुत्रे षष्ट्यर्था-- न्वयस्वीकारात् । इत्यादावित्यादिपदेन पटो घटात् पृथगित्यादिपरिग्रहः । अत्र चैकदेशान्वयदाार्थ नानास्थानमुक्तम् । तथैवेति । अन्यत्र यथा पदार्थेन पदार्थस्यान्वयः साकाङ्को न तु पदार्थैकदेशेन तथात्र पदाथैकदेशेनैव पदार्थस्यान्वयः साकासो न तु पदार्थेन पदार्थस्यान्वय इत्यर्थः । आकाङ्क्षायाः फलबलकल्प्यत्वादिति भावः ।
सर्वत्रैकदेशान्वयमुद्धरतां मतमाह-अस्तु वेति । गन्तेत्यादौ स्वानुकूलकृतिमत्त्वसम्बन्धेन तृजर्थकर्तयेव धात्वर्थत्य गमनादेरन्वयः । चैत्रस्य नप्तेत्यादिस्थलेऽपि चैत्रसम्बन्धस्य षष्ठयर्थस्य निरूपितत्वस्य स्वायजन्यताश्रयजन्यत्वसम्बन्धेन पुत्रपुत्र एवान्वयः । तथाच चैत्रनिरूपितत्ववान् पुत्रपुत्र इत्यन्वयबोधः । चैत्रः पक्तेत्यादौ चैत्रः पाकीयकर्तेत्यन्वयबोधः । पाकीयत्वं च स्वानुकूलकृतिमत्त्वसम्बन्धेन पाकविशिष्टत्वं, तच्च कर्तृत्वं धर्मितावच्छेदकीकृत्य भासते, नतु चैत्रत्वं, तथा सति प्रकृत्यान्वितस्वार्थबोधकत्वं प्रत्ययानामिति व्युत्पत्तिभङ्गापत्तेः । एवं चैत्रादन्य इत्यादावपि चैत्रनिष्ठप्रतियोगित्वस्यावधित्वस्य वा पञ्चम्यर्थस्य स्वनिरूपितानुयोगिताश्रयान्योन्याभाववत्त्वसम्बन्धेनान्यस्मिन् धर्मिण्येवान्वयः अन्यत् स्वयमूह्यम् । तथाच न कुत्राप्येकदेशान्वयस्वीकार इति भावः। अस्तु वेत्यादिना अस्वरसाविष्कारः स च तत्तत्स्थले एकदेशान्वयस्वीकारे. बाधकाभावे निरुक्तपरंपरासंबन्धेन तत्तत्पदार्थप्रकारकान्वयबुद्धिं प्रत्याकाङ्क्षाज्ञानादीनां हेतुत्वकल्पने गौरवं मानाभावश्चेत्यादिः ।
सुबर्थकृतिवादिनवीनमते प्रत्ययेन यत्र कृतेरनभिधानं तत्र तृतीया यत्र च कर्मत्वस्यानभिधानं तत्र द्वितीयेत्यनभिहिताधिकारसूत्रस्यार्थः स चानुपपन्नः, चैत्रो जानातीत्यादावाख्यातेनाश्रयत्वस्यैव उक्तत्वेन कृतेरनभिधानात् तृतीयाप्रसगात, चैत्रेण घटो ज्ञायते इत्यादौ आख्यातेन विषयत्वस्यैवोक्तत्वेन कर्मत्वस्यानभिधानात् द्वितीयाप्रसङ्गाचेत्यत आह-मुख्येति । फलादीत्यादिपदेन विषयत्वादेः कृत्यादीत्यादिपदेन आश्रयत्वस्य च परिग्रहः । मुख्यं कर्मवं तण्डुलः पच्यत इत्यादौ, भोक्तं कर्मत्वं चैत्रेण घटो ज्ञायत इत्यादौ, एवं मुख्यं कर्तृत्वं चैत्रः पचती त्यादौ, भाक्तं कर्तृत्वं चैत्रेण घटो ज्ञायत इत्यादौ । द्वितीयादय इत्यादिपदेन तृतीयायाः परिग्रहः। तथाच मुख्य-भाक्तसाधारणकर्मत्वानभिधाने द्वितीया, मुख्य-भाक्तसाधारणकर्तृत्वानभिधाने तृतीयेति
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
तत्सूत्रार्थो वक्तव्य इति नोक्तदोष इति भावः । ननु तथाप्याख्यातेन कर्मत्वकृर्तृत्वानमिषाने द्वितीया-तृतीये इति सूत्रार्थकरणे कृत्स्थले द्वितीया-तृतीयानियामकानां तत्रानियमप्रसङ्ग इत्यत आह-कृतेति। कृत्प्रत्ययेनेत्यर्थः। विशिष्टाभिधाने कृतिविशिष्टाभिधाने । विशेषणस्य कृतेः। तथाच प्रत्ययेन कर्म-कर्तृत्वानभिधाने द्वितीया-तृतीये इत्याख्यात-कृत्साधारणः सूत्रार्थ इति भावः ॥ ९ ॥
(रघु०) कर्तृकर्मविहिताख्यातशक्तिमुपपाद्य कर्तृकर्मविहितकृत्प्रत्ययशक्तिमुपपादयति-चेत्रो गन्तेत्यादि । अपसार्यतामित्यन्तस्य कर्तृकर्मणी कृद्वाच्ये इत्यनेनान्वयः । कादिविहितकृतः कर्नाद्यवाचकत्वे चैत्रो गन्तेत्यादौ समानलिङ्गकत्वानुपपत्तेः समानलिङ्गकस्थलेऽभेदान्वयबोधस्यानुभवसिद्धतया तस्यानिर्वाहादिति भावः । ननु तादृशानुभवे मानाभाव इत्यत आह-भोक्ता तृप्यतीत्यादि । अत्र च कृत्प्रत्ययस्य कर्नाद्यवाचकत्वे भोजनानुकूलकृतिस्तृप्यतीत्यन्वयबोधः स्यात् । स च विशेषदर्शिनामनुपपन्न इति । विशेषदर्शिनां तादृशवाक्याद्भोजनानुकूलकृतिमांस्तृप्यतीत्याद्यन्वयबोधोपपत्त्यर्थ कादिविहितकृतः कादिवाचकत्वमावश्यकमिति भावः ।
सामानाधिकरण्यादीति अभेदान्वयबोधादीत्यर्थः । आदिना भोक्ता तृप्यतीत्यादौ भोजनानुकूलकृतिमांस्तृप्यतीत्याद्यन्वयबोधपरिग्रहः । ननु कृत्प्रत्ययस्य कादिवाचकत्वे गन्तेत्यादौ धात्वर्थान्वयानुपपत्तिः । कर्नादेः कृत्याश्रयादिरूपतया कृत्यादेः पदार्थैकदेशत्वेन तत्रानुकूलतासंबन्धेन धात्वर्थगमनान्वयासंभवादित्यत आह-चैत्रस्य नप्तेत्यादि । नतृपदस्य जन्यपुरुषजन्यपुरुषरूपपुत्रपुत्रवाचकतया जन्यत्वस्य पदार्थेकदेशत्वेऽपि तत्रैव चैत्रस्येति षष्ठयन्तार्थेस्य चैत्रसंबन्धित्वस्यान्वयः । जन्यपुरुषजन्यपुरुषरूपनमृपदार्थे चैत्रसंबन्धित्वस्यान्वये चैत्रपुत्रेऽपि चैत्रस्य नप्तेति प्रयोगप्रसंगात् । तथा च तत्र यथा पदार्थैकदेशान्वयस्तथा चैत्रो गन्तेत्यादौ पदार्थैकदेशे बोधाङ्गीकारेऽपि क्षतिविरह इति भावः । ननु जन्यपुरुषजन्यपुरुषत्वस्य नप्तृपदशक्यतावच्छेदकत्वे विशिष्टशक्तिकल्पने गौरवापत्त्या तदपहाय जन्यत्वं पुरुषत्वं चेति शक्यतावच्छेदकद्वयमेव तस्य सम्यक् । तथा च चैत्रस्य नतेत्यादौ चैत्रसंबन्धित्वस्य जन्यत्वेऽन्वयः जन्यत्वस्य च पुरुषेन्वयः पुरुषस्य च जन्यत्वेन्वयः जन्यत्वस्य च पुनः पुरुषेऽन्वय इत्येवंरीत्या चैत्रसंबन्धिजन्यताश्रयपुरुषजन्यताश्रयपुरुष इत्यन्वयबोधस्य विनैकदेशान्वयमुपपत्तावुपदर्शितदृष्टान्तोऽसंभवदुक्तिक इति स्थलान्तरमाह-मैत्रादन्य इत्यादि । अयं भाव:-अन्यपदस्य भेद एव शक्यतावच्छेदको नतु भेदाश्रयत्वं गौरवात् । तत्पदात्तथान्वयबोधाननुभवाच ।
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः।
१०७ एतेनान्यपदस्यापि खण्डशक्तिकल्पनं निरस्तम् । तथा च मैत्रादन्य इत्यादौ पञ्चम्यर्थप्रतियोगित्वस्य अन्यपदार्थैकदेशभेदान्वयो विनैकदेशान्वयस्वीकारमनुपपन्नः । एवं घटात्पृथगित्यादौ पृथक्पदार्थैकदेशे पृथक्त्वे पञ्चम्यर्यावधिमत्त्वस्यान्वयोऽपि तथा । तथैव घटादपर इत्यादौ नमो विरोधिगुणवति लक्षणया पदार्थैकदेशे विरोधिगुणे पञ्चम्यर्थान्वयेन घटावधिकपरत्वविरोधिगुणवानित्यन्वयबोधोऽपि । तथा चैतेष्विव कृत्प्रत्ययस्थलेऽप्येकदेशान्वयस्वीकारे बाधकाभाव इति ।
ननु गौनित्या पशुरपशुः इत्यादौ गोत्वपशुत्वादौ नित्यत्वपशुभिन्नत्वान्वय. बोधापत्त्या किंचित्पदार्थनिष्ठप्रकारतानिरूपितविशेष्यतासंबन्धेन शाब्दबुद्धिं प्रति मुख्यविशेष्यतासंबन्धेन पदजन्यपदार्थोपस्थितेहेतुत्वस्यावश्यकतया चैत्रस्य नसेत्यादौ नप्तृपदार्थैकदेशे जन्यत्वे कथं चैत्रसंबन्धित्वस्यान्वय इत्याशङ्कायामाहतथैवेति । कार्यतावच्छेदकसंबन्धविशेष्यतायां नप्तृपदार्थातिरिक्तवृत्तित्वनिवेशेनैवेत्यर्थः । साकाङ्कत्वादिति । शाब्दबोधपदार्थोपस्थित्योः कार्यकारणभावस्य कल्पनीयत्वादित्यर्थः । तथा चान्यथानुपपत्त्या गुरुरपि तथाविधकार्यकारणभावः स्वीक्रियत इति भावः । ननु चैत्रस्य नप्तेत्यादौ स्वजन्यताश्रयपुरुषजन्यत्वरूपसंबन्ध एव षष्ठ्यर्थः । तस्यैव नम्रपदार्थादौ जन्यपुरुषजन्यपुरुषेन्वयः । नतु पदार्थैकदेशे जन्यत्वे चैत्रनिरूपितत्वरूपषष्ठयर्थसंबन्धस्यान्वयः । तथा सत्युपदर्शितकार्यकारणभावेन नप्तृपदार्थाद्यतिरिक्तवृत्तित्वस्य विशेष्यतायां निवेशे गौरवात्तथा च नोक्तदृष्टान्तानामवकाश इत्यत आह-अस्तुवेति । कृत्यादिघटित एवेति । स्वानुकूलकृतिमत्त्वादिपरंपरासंबन्ध एवेत्यर्थः। कादिना सममन्वय इति । कृत्प्रत्ययार्थक दी धात्वर्थगमनादिप्रकारकबोधे प्रकारतावच्छेदकसंबन्ध इत्यर्थः । तथा च यथा नप्तपदार्थे उपदर्शितपरंपरासंबन्धरूपषष्ठयर्थस्यैवान्वयः स्वीक्रियते तथा चैत्रादन्य इत्यादौ स्वाश्रयभेदवत्त्वसंबन्धेन भेदविशिष्टे चैत्रप्रतियोगिकत्वस्यान्वयो नत्वेकदेशान्वयोऽपि, तथा गन्तेत्यादावपि कादिरूपकृत्प्रत्ययार्थ एव स्वानुकूलकृतिमत्त्वादिरूपपरंपरासंबन्धेन गमनादेरन्वयो न तु पदार्थकदेशेऽपीति भावः।
ननु चैत्रेण गतो ग्राम इत्यादौ कृत्प्रत्ययेन कर्मादिगतसंख्यानभिधानाद् द्विती यापत्तिरित्यत आह-मुख्येत्यादि । फलादीत्यादिपदेन विषयत्वादिपरिग्रहः । कृत्यादीत्यादिपदेन च रथो गच्छतीत्यादावाश्रयत्वादिपरिग्रहः। द्वितीयादय इत्यादिना तृतीयापरिग्रहः । अत्र चेति चैत्रेण गतो ग्राम इत्यादौ चेत्यर्थः । विशिष्टाभिधान इति । कर्मत्वादिविशिष्टबोधने इत्यर्थः । विशेषणस्याभिधा
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
नादिति कर्मत्वादेरपि बोधनादित्यर्थः । तथा च कृत्प्रत्ययेन यत्र विशेषणविधया विशेष्यविधया वा कर्मत्वादिकं न बोध्यते तत्रापि द्वितीयादय इत्येको निमयः । एवमाख्यातेन यत्र कर्मत्वादिकं न बोध्यते तत्रापि द्वितीयादय इत्यपरो नियम: स्वीक्रियते न तु कर्मादिगतसंख्यानभिधानघटितोऽपि नियम इति नोक्तानुपपत्तिरिति भावः ॥ ९ ॥
(जय०) नन्वेवं कृत्प्रत्ययस्यापि कर्तृकर्मणोः शक्तिर्न स्याल्लाघवेन कृति'फलयोरेव शक्तेस्तत्राप्युचितत्वात् । न चैवं चैत्रो गन्तेत्यादौ कथमन्वयः अभेदेनायोग्यत्वात् , भेदेन प्रातिपदिकयोरनन्वयादिति वाच्यम् । अव्ययनिपातवत्प्रातिपदिकस्यापि भेदेनानुभावकत्वात् । अन्यथा पदार्थयोरेव भेदेनान्वयो निराकाङ्क्ष इत्याख्यातादेरपि धर्मिशक्ति: स्यात्तत आह-चैत्रो गन्तेति । प्रथमे कर्तुरशक्यत्वे द्वितीये च फलाश्रयस्याशक्यत्वे पुलिङ्गता , तृतीये कृतिमतोऽशक्यत्वे स्त्रीलिङ्गता, चतुर्थे फलाश्रयस्याशक्यत्वे नपुंसकलिङ्गताऽनुपपन्ना स्यादिति विशेषः, अभेदान्वये समानवचनविभक्त्यादिमत्त्वमनुपयु. क्तम् । अभेदान्वयबोध एव तेषामर्थसाधुत्वायोपयोगात् । विरुद्धसंख्याद्यवच्छिन्ने विरुद्धसंख्याधवच्छिन्नस्याभेदान्वयासंभवात् । विवक्षया तु कचिदन्यथा पृथिव्यादयो द्रव्यमित्यादौ । अत्रैकत्वस्य बुद्धिविशेषविषयत्वरूपस्य बहुत्वेनाविरोधादिति । न च भोक्ता पक्रीत्यादिगतवचनप्रत्ययाद्यर्थसंख्यालिङ्गादेश्चैत्रमैत्रादिपदार्थेऽन्वयाद्भेदान्वयेऽप्यर्थसाधुत्वं वचनाद्यर्थस्य प्रकृत्यर्थ एवान्वयात् । ननु लाघवात्कृतिफलयोः शक्यत्वे सिद्धे एक: पचति द्वौ गच्छत इत्यादाविव विशेषणविभक्त्यादेः साधुत्वमात्रार्थतया श्यामः पुमान् श्यामा स्त्रीत्यादाविव समानविभक्त्यादिमत्त्वरूपं सामानाधिकरण्यं शब्दसाधुत्वायैवोपयोश्यते । क्वचिदतथात्वेऽपि साधुत्वं प्रयोगानुसारात् । अन्यथाख्यातेऽपि धर्मशक्तिप्रसङ्गाद्विरुद्धविभक्त्यादे राहित्यस्याभेदान्वयप्रयोजकत्वकल्पनादेकर्मिरूपं सामानाधिकरण्यं प्रसिद्धमेवेत्यत आह-भोक्तेति । अत्र भोजनानुकूलकृतौ कृत्याश्रयत्वं, भोजने च पाकफलविक्लित्त्यादिकर्मकत्वं बाधितमिति भावः । कर्मण्युदाहरति-पक्तेति । आदिना पक्वानि भुज्यन्तामित्यादर्ग्रहणम् ।।
सामानाधिकरण्यादीत्यादिपदागोकादौ तृप्त्याश्रयत्वादि रिग्रहः । कर्तृकर्मेति । कत्यादौ तृजादेः कर्ता, गन्तव्यो ग्राम इत्यादौ तव्यादेः कर्म, गत इत्यादेरुभयं वाच्यम् । स्नानीयं चूर्ण दानीयो ब्राह्मण आसितमित्यादौ करणत्वसंप्रदानत्वाधिकरणत्वाद्यवच्छिन्ने तु कृतौ लक्षणा कर्तृत्वाद्यपेक्षया करण
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः। त्वादेर्गौरवादिति हृदयम् । ननु कृतः कृत्याश्रयादिवाचकत्वे तदेकदेशकृत्यादौ कथं धात्वर्थान्वय इत्यत आह-चैत्रस्येति । स्वजन्यशरीरजन्यशरीरं नप्तृपदार्थः । तत्र मुख्यविशिष्ये षष्ठयर्थस्य जन्यत्वस्यान्वये चैत्रस्य पुत्रे चैत्रस्य नतेति प्रयोगः स्यान्न स्याच पौत्रे चैत्रशरीरजन्यशरीरजन्यशरीरे चैत्रजन्यस्व. स्यासत्त्वात् चैत्रपुत्रे चैत्रजन्यत्वस्य सत्वाचेत्यन्वयो वाच्य इति भावः । नन्वस्तु नप्तृपदार्थः शरीरमात्रं, स्वजन्यशरीरजन्यत्वं तु नप्तृपदसमभिव्याहारिषष्ठयर्थः फलस्य धात्वर्थवत् परस्परसमन्वयात् । षष्ठयर्थनिरूपितत्वान्वितप्रयोज्यत्वस्य शरीरेऽन्वयाद्विशिष्टलाभ एकशक्तिविषययोः शरीरयोमिथोऽन्वयादेव वा तल्लाभ इत्यत आह-चैत्रादन्य इति । अन्यपदस्य पृथक्त्वविशिष्टे भेदविशिष्टे वा शक्तरुपगमादेकदेशे पृथक्त्वे भेदे वा तदन्वय आवश्यक इति भावः ।
ननु चैत्रादन्यइत्यादौ पञ्चम्यर्थावधिमत्त्वादे: स्वाश्रयपृथक्त्वाश्रयत्वसंबन्धेन मुख्यविशेष्य एवान्वयो वाच्य इति चेत् प्रकृतेऽपि तथैव वाच्यमित्यभिप्रेत्याहअस्तु वेति । पक्तेत्यादौ स्वानुकूलकृत्याश्रयत्वादिसंबन्धेन पाकादेः कादावेवान्वय इति भावः । अत्र चैत्रस्य नप्तेत्यादौ मुख्यविशेष्ये षष्ठयर्थान्वय. स्वीकारे चैत्रस्य नप्तेत्यादिवाक्यजबोधश्चैत्रपुत्रजन्यो न वेत्यादिसंशयविरोधी व्यावर्तकदर्शनतयेति बोध्यम् । इदं तु बोध्यम्-वाकारोऽस्वरसखूचनाय । अन्यथा पचन पचतीत्यादेरपि प्रयोगस्य प्रसङ्गादिति । नन्वस्तु यथातथान्वयः कृत्प्रत्ययार्थे धात्वर्थस्य भेदान्वये पक्ता गमनमित्यादावपि गमनादेराधारतया पत्रादावन्वय: स्यादिति चेन्न । यादृशसमुदायस्य प्रातिपदिकसंज्ञा तादृशार्थे भेदेनान्वयस्यास्वीकारादत एव कृत्तद्धितेत्त्यादिसूत्रं समुदायस्य प्रातिपदिकसंज्ञालाभाय । एवमौपगवमित्यादावपि समासे समुदायस्य प्रातिपादिकसंज्ञा चित्रगुर्देवदत्त इत्यादौ चित्रगुसमुदायादेरेकपदत्वाय विशेष्यलिङ्गग्राहित्वार्य च । अन्यया चित्रम्वादिपदान्तर्गतगवादिपदस्याजहल्लिङ्गतया तन्न स्यात् । वस्तुतः प्रकृत्यर्थभिन्नस्य न कृदर्थे भेदान्वयो न वा पृथगादिपदार्थैकदेशे पञ्चम्यादिभिन्नार्थस्यान्वयोऽन्यथा घटात्पृथक् पटे इत्यादितः सप्तम्याद्यर्थस्य पृथक्त्वाद्यन्वयापत्तेरिति बोध्यम् ।आख्यातकृत्साधारणमनभिहिताऽधिकारीयद्वितीयादिनियममाह-फलादीति । आदिपदाद्धटं जानातीत्यादौ विषयतादिपरिग्रहः। कृत्यादीत्यादिपदेन पूर्वोक्ताश्रयत्वादिपरिग्रहः । ननु कथमयं नियमः कर्मत्वकर्तृस्वादिविशिष्टस्यैव कृताभिधानादित्यत्राह-कृतेति ॥ ९॥
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११० वादार्थसंग्रहः
[४ भागः यत्तु धातूत्तरप्रत्ययत्वेनैव कृतौ शक्तिः पाचकादिपदे तु सामानाधिकरण्यानुरोधात् कृतिविशिष्टे लक्षणेति, तन्न, भावकृतोऽपि कृतिवाचकतापत्तेः, धातुत्वादिघटितात्तस्मादाख्यातत्वस्यैव लघुत्वाच । यदपि कर्तृकृतोऽपि कृतौ शक्तिः कृतिविशिष्टे तु लक्षणैवेति, तद्प्यसत्, यतो विनावच्छेदकरूपं शक्यत्वासंभवात् , गोत्वत्वादिना शक्तौ चातिगौरवादस्तु गवादिपदानां गोत्वविशिष्टं शक्यं विशिष्टान्तराणांतु शक्यत्वं विलीयेत।केवलविशेषणे स्वारसिकप्रयोगविरहस्तुल्य एवेति ॥ १०॥
(मथु० ) यत्त्विति । आख्यातस्य कृतौ शक्तिकल्पनदशायां तथैव लाघ वेन कल्पनादिति भावः । अत्र द्वितीयादिवारणाय धातूत्तरेति । नन्वेवं पाचको भुढे इत्यादौ पाककर्तृबोधः कथं स्यात् इत्यत आह-पाचकादीति । आदिपदाद चैत्रो गन्तेत्यादौ गन्त्रादिपदपरिग्रहः। लक्षणेतीति । एवंच मुख्यप्रयोगाभावेऽपि कृतः शक्तिकल्पनं शक्यसंबन्धरूपायाः लक्षणायाः संपादनार्थमेवेति भावः । भावकृतोऽपीति घादेरपीत्यर्थः । तथाच तस्य निरर्थकत्वप्रवादव्याघात इति भावः।
ननु भावकृतो घलादेः कृतिवाचकत्वेऽपि निराकान्तया न ततः कस्यापि अर्थस्य प्रत्यय इति व्यवहारः, अन्यथा तथा भावविहितघलादेरपि घभत्वादिना करणेऽधिकरणे वा शक्ततया भवतामपि तत्र निरर्थकत्वव्यवहारः कथं स्यात् । वस्तुतस्तु प्रतीयते येनार्थः स प्रत्यय इति व्युत्पत्तिसिहस्य तावदन्यान्यत्वरूपप्रत्ययत्वस्य अन्तर्भावादेव भावविहितघनादेर्व्यवच्छेद इत्यत आह-धातुत्वादीति । आदिपदेन उत्तरत्व-प्रत्ययत्वपरिग्रहः । आख्यातत्वस्यैवेति तिहबादेरेवेत्यर्थः । कृतोऽपीति तृच्त्वादिनेति शेषः । कृताविति लाघवादिति शेषः। गवादिपदानां विशिष्टे शक्ति व्यवस्थापयति-यत इति । शक्यत्वासम्भवादिति कार्यत्वादिवत् शक्यत्वस्यापि अवच्छिन्नत्वनियमाव इति भावः । विशिटान्तराणां स्विति गुरुत्व-महत्त्वादिविशिष्टानां तु गुरुपद-महत्पदादिशक्यत्वं विलीयेतेत्यर्थः । तत्रापि गुरुत्वत्व-महत्त्वत्वादिजातिरूपेण गुरुत्वमहत्वादावेव शक्तिः, गुरुत्वादिविशिष्टे लक्षणा इत्यस्य सुवचत्वादिति भावः । अथ यत्र यत्पदस्य शक्त्या प्रयोगस्तत्रैव तत्पदस्य शक्तिः अतो गुरुत्वादौ न गुर्वादिपदशक्ति
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१३ ग्रन्थः]
आख्यातशक्तिवादः।
१११
रित्यत आह-केवलेति । विशेषणतानापन्ने चेत्यर्थः । तुल्य एवेति इहापि कृतः कृतौ शक्त्या प्रयोगस्य विरहादिति भावः ॥ १० ॥
(राम०) कृतः कृतिविशिष्टप्रत्ययस्य लक्षणात एवेतिमतं प्रसङ्गतो निरसितुमाह-यदपीति । एतन्मते यद्यपि गवादिपदानामेव गोत्वादिविशिष्ट शक्तिरायाति तथापि शब्दवि शिष्टादिबोधकानामाकाशादिपदानां शब्दविशिष्टादौ शक्तिर्न स्यात् तत्रापि लाघवात् शब्दत्वविशिष्टे शक्तिः शब्दविशिष्टादौ लक्षणेत्यस्य वक्तुं शक्यत्वादिति दोषमाह-यतोविनेति । यत इत्यस्य विशिष्टान्तराणां शक्यत्वं विलीयेतेत्यनेनान्वयः । तत्र च विशिष्टान्तराणामित्यस्य गोत्वविशिष्टादिभिन्नशब्दविशिष्टादीनामित्यर्थः । शक्यत्वं आकाशादिपदशक्यत्वं, विलीयेत न स्यात् । ननु विशिष्टान्तराणामित्यत्रान्तरपदं किमर्थमुक्तं विशिष्टसामान्यस्यैवोतरीत्या शक्यत्वविलयसंभवादिति गवादिपदस्य गोत्वादिविशिष्टशक्तिव्यवस्थापनेन स्वोक्तमन्तरपदं सार्थकयति-विनेति। विनेत्यादि गौरवादित्यन्तं गवादिपदानां गोत्वविशिष्टं शक्यमस्तु इत्यत्र हेतुः। अत्रायमर्थः-गवादिपदानां यदि गोत्वे शक्तिरुच्यते तदा शक्तेः सावच्छेद्यत्वनियमाद्गोत्वत्वं शक्यतावच्छेदकं वाच्यं, तथाच स्वरूपतो गोत्वविशिष्टापेक्षया गोत्वत्वविशिष्टं गुरु इति तन्न शक्यमिति लाघवेन गोपदादीनां गोत्वादिजातिविशिष्टशक्तिरस्त्विति। . __ नन्वाकाशादिपदानां शुद्धशब्दादौ मुख्यप्रयोगविरहेण न शकिः कृत्युपलक्षित एव कृत्प्रत्ययस्य शक्तिः न तु कृतिविशिष्टे कृत्यंशेऽपि कृत्प्रत्ययशक्तिकल्पने गौरवादितिमते न कृता कृतेरभिधानमिति तन्मते आख्यातकृत्साधारणसूत्रार्थरक्षणं ये कुर्वन्ति तन्मतमाह-यत्त्विति । तथाच चैत्रः पक्तत्यादौ कृता कृत्यभिधानान्न तृतीयेति भावः । नन्वेवं चैत्रः पचतीत्यादाविव पाचकादिपदात् पाकानुकूलकृते. राश्रयतासंबन्धेन चैत्रादावन्वय एव बोध्यस्तथाच चैत्रः पाचक इत्यादौ चैत्रे पाककर्तुरभेदान्वयबोधो न स्यादित्यत आह-पाचकादीति सामानाधिकरण्येति ।पाचकादिपदार्थाभेदान्वयबोधानुरोधादित्यर्थः पाचकादीत्यादिपदेन तुजन्तादिपरिग्रहः आदिपदेन चैत्रपद-पाचकादीनां भिन्नाभ्यां रूपाभ्यामकथर्मिनक्तत्वरूपसामानाधिकरण्यस्य परिपहः। भावकृत इति। न चेष्टापत्तिः, अपसिद्वान्तादिति भावः।नियुक्तिकसिद्धान्तभङ्गे न दोष इत्यत आह-धातुत्वादीति । तस्मात् धातूत्तरप्रत्ययत्वात् धात्वाधन्यतमत्वघटितधातूत्तरप्रत्ययत्वमपेक्ष्याख्यातत्वं लघु इति तदेव कृतिशक्ततावच्छेदकमिति भावः । इत्थंच कृत्प्रत्ययस्य कृतिविशिष्ट एव शक्तिर्न तदुपलक्षित इति । मतमाश्रित्यैवानभिहिताधिकारसूत्रार्थो निर्वहतीति तदेवमादरणीयमित्यवधेयम् । आख्यातस्येव कर्तृकृतः कृतौ न शक्तिलाघवात् अपि तु सर्वत्र । ननु शब्दविशिष्टे तत्र मुख्यप्रयोगात् शक्तिः शङ्कया मुख्यार्थबोधकत्वनियतत्वात् इत्यत आह-केवलेति । तुल्य इति । कर्तृकृतोऽपि
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११२
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
कृतौ मुख्यप्रयोगविरहेण तुल्यतेत्यर्थः । यद्यपि शब्दोऽस्तीति प्रयोग एव मुख्यः प्रयोग आकाशपदस्थले, एवं गतं प्रमेयमित्यादावेव कर्तृकृतः कृतौ मुख्यप्रयोग इत्येतदसङ्गतं, तथापि तथा प्रयोगमनभ्युपगम्य इदमुक्तमिति संक्षेपः ॥ १०॥
(रघु०) कस्यचिन्मतं दूषयितुं तन्मतमनुवदति--यत्त्विति । धातूत्तरप्रत्ययत्वेन कृतौ शक्तिरिति । धातूत्तरप्रत्ययत्वमेव कृतिशक्ततावच्छेदकमित्यर्थः। तथाच शक्यतावच्छेदकलाघवात्सर्वत्र कृतावेव शक्तिः, नत्वाख्यातस्य कृतौ शक्तिः कृत्प्रत्ययस्य कर्तरि शक्तिरिति । तथासति विभिन्नशक्यतावच्छेदकादिकल्पने गौरवादिति भावः । ननु कृत्प्रत्ययस्य कृतिशक्तत्वे देवदत्त: पाचक इत्यादौ देवदत्तादिपदार्थे पाचकाद्यर्थस्य कथमभेदान्वयबोधः, तत्राभेदान्वयबोधस्यैवानुभवसिद्धतया प्रकारान्तरस्य वक्तुमशक्यत्वादित्यत आह---पाचकादिपदे त्वित्यादि । सामानाधिकरण्यानुरोधादभेदान्वयबोधानुरोधात् । लक्षणेति । तथा च तत्र तथान्वयानुभवस्य कृत: कर्तरि लक्षणयैव निर्वाहेऽलं तत्र शक्तिकल्पनेनेति भावः । भावकृतोऽपीति । शक्ततावच्छेदकावच्छिन्नस्य शक्यबोधकत्वनियमादिति भावः।
ननु धातूत्तरप्रत्ययत्वस्य कृतिशक्ततावच्छेदकत्वेऽपि भावकृतो न कृतिबोधकत्वं तथाविधबोधे भावकृदादिव्यावृत्तानुपूर्वी विशेषस्यैव नियामकत्वाभ्युपगमादित्यत आह-धातुत्वादिघटितेत्यादि । आदिपदात्प्रत्ययत्वादिपरिग्रहः । तस्माद्धातूत्तरप्रत्ययत्वाद्भवाद्यन्यतमत्वं विना धातुत्वस्य प्रकारान्तरेण निर्वक्तुमशक्यतया आख्याताद्यन्यतमत्वं विना प्रत्ययत्वस्यापीति तदवेक्षया रूढिसंबन्धेन आख्यातपदवत्त्वरूपाख्यातत्वस्यैव लघोः कृतिशक्ततावच्छेदकत्वौचित्यमिति भावः । एतेनाख्यातमात्रस्य कृतिवाचकत्वे कृतिशक्ततावच्छेदकमाख्यातत्वमेवं कृतः कर्तृमात्रवाचकत्वे कृत्प्रत्ययत्वं कर्तृशक्ततावच्छेदकमिति गौरवम् । एतदपेक्षया एकस्यैव धातूत्तरप्रत्ययत्वस्य कृतिशक्ततावच्छेदकत्वमुचितमित्यपि परा. स्तम् । प्रत्ययत्वस्याख्यातत्वकृत्त्वघटितत्वेन लाघवानवकाशादिति । कृती शक्तिरिति । कृतिविशिष्टे कर्तृकृत: शक्तिकल्पनेऽनन्तकृतौ तच्छक्यतावच्छेदकत्वकल्पनागौरवम् । कृतीतत्कल्पने तु कृतित्वजातेरेव तच्छक्यतावच्छेदकत्वकल्पने लाघवमिति तत्रैव तत्कल्पनमुचितमिति भावः । यत इत्यादि । शक्यत्वासंभवादित्यन्तस्य गवादिपदानां गोत्वविशिष्टं शक्यमित्यनेनान्वयः । ननु गवादिपदस्य गोत्वविशिष्टे शक्तिकल्पने गोत्वेऽपि शक्तिकल्पनस्यावश्यकतया
१ "त्वात् । एवमा इति पाठः ।
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१३ प्रन्थः ]
आख्यातशक्तिवादः ।
११३
लाघवात्तत्रैव तत्कल्पनमस्त्वित्यत आह- गोत्वा दिनेत्यादि । गोत्वत्वस्य गवे तरासमवेतत्वे सति गोनिष्ठान्योन्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वरूपतया गौरवादिति भावः | विशिष्टान्तराणामिति । शब्दविशिष्टमहत्वविशिष्टादीनामित्यर्थः । शक्यत्वमिति । आकाशपदमहत्पदशक्यत्वमित्यर्थः । तत्रापि शब्दादिविशिष्टे शक्तिकल्पने ऽनन्तशब्दादौ शक्यतावच्छेदकत्वस्वीकारे गौरवं, शब्दादौ तच्छक्यत्वकल्पने तु शब्दत्वजातेः शक्यतावच्छेदकत्वस्वीकारे लाघवमिति, तत्रापि शब्दादावेव शक्तिकल्पनं स्यादिति भावः । तुल्य एवेति । कृत्प्रत्ययस्थलेऽप्यविशिष्ट इत्यर्थः । तथा च यथा शब्दादावाकाशादिपदस्य स्वारसिकप्रयोगाभावात्तत्र न तस्य शक्यत्वं तथा कर्तृविहितकृत्प्रत्ययस्य कृतावपि स्वारसिकप्रयोगाभावात्तत्रापि न तस्य शक्यत्वमिति भावः ॥ १० ॥
( जय०) सुब्विभक्तिवारणाय धातूत्तरेति । लक्षणेति । एतदर्थमेव कृत्प्रत्ययस्य कृतौ शक्तिकल्पनमिति भावः । भावकृतोऽपीति । तथाच पाकं करोति पाकक्रियेत्यादौ घनादेरपि कृतिशक्तत्वेऽनन्वयापत्तिरिति भावः । ननु तत्र विशेषानुशासनात् भावप्रत्ययस्य धात्वर्थातिरिक्तो नार्थः । विशेषानुशासनाविषयतादृशप्रत्ययत्वमेव हि कृतिशक्ततावच्छेदकमित्यत्राह - धातुत्वादीति । नन्वाख्यातत्वं तिप्त्वादिकं वा कृत्त्वं तृच्त्वादिकं वा शक्ततावच्छेदकं परंतु कृतावेव शक्तिर्लाघवात् कृतिविशिष्टे तु लक्षणेत्याशङ्कय निराकरोति---यदपीति । यतो विशिष्टान्तराणां शक्यत्वं विलीयेतेत्यन्वयः । विशिष्टान्तराणां जात्य1 तिरिक्तविशिष्टानां च शब्दाश्रयत्वादिविशिष्टानां गगनादिपदशक्यत्वं विलीयेतेत्यन्वयः । तथा च शब्दाश्रयत्वादिविशिष्टानां गगनादिपदशक्यत्वं न स्यात् । लाघवाच्छब्दे शक्तिस्तद्विशिष्ठे लक्षणेति वक्तुं शक्यत्वादिति भावः । जातिविशिष्टे एव कथं शक्तिरित्यत्राह - विनेति । इदं शक्त्या शक्यार्थस्मरणं ततो लक्ष्यार्थस्मरणं शक्यस्मरणं किंचिद्धर्मप्रकारकमेव निर्विकल्पकस्मरणाभावात्तद्धर्मविशिष्टस्मरणं च तद्धर्मविशिष्टे संबन्धग्रहं विना नेति शक्तेः सावच्छिन्नत्वनियमसिद्धिरित्यभिप्रेत्य । यदि च पदेनाहृत्यैव शक्यसंबन्धेन स्मरणमित्युपेयते शक्यसंबन्धनिर्वाहार्थं च शक्तिरुपयुज्यते तदा गवादिपदानामपि केवले गोत्वादौ शक्तिः । शक्तेः सावच्छिन्नत्वनियमस्याप्रयोजकत्वेनासत्वाद्गोत्वविशिष्टे लक्षणेत्यस्य सुवचत्वाद्विशिष्टमात्रस्यैव शक्यत्वं विलीयेतेत्यभिप्रायः । न च केवले गोत्वे व्युत्पत्यसंभवः । गोशब्दबोधस्य लक्षणया संपादनार्थमेव निरुक्तलाघवदर्शिनः प्रथमं तत्संभवात् । अथ कोशादितो विशिष्टशक्तिसिद्धि: । कोशादेस्तद् ग्राहकत्वावश्य
I
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११४
वादार्थसंग्रहः
[ ४ भागः
एवं च गतो ग्रामो गम्यत इत्यादौ फलस्य कृदात्मनेपदाभ्यामेव लाभात् लाघवाद्धातोरनन्यलभ्यव्यापारविशेषमात्रवाचकत्वस्थितौ ग्रामं गच्छति ग्रामस्य गन्तेत्यादौ द्वितीयादेः फलजनकत्वलक्षणं कर्मत्वमर्थः । फले च प्रातिपदिकार्थोऽधिकरणत्वेनाकत्वादन्यथा पदमात्रस्य विनिगमकाभावाजातिमात्रशक्त्यापत्तेः क्वचिदुक्तयैव लक्षणानिर्वाहादिति चेत् तुल्यं प्रकृतेऽपीत्याह — केवलेति । स्वारसिकेति । कोशव्याकरणादिकृतां स्वारसिकप्रयोगेत्यर्थः । तेन भ्रान्तस्य लक्षणया कोशादिकर्तुरपि विशेषणमात्रे प्रयोगेऽपि न क्षतिः ।
ननु चैत्रो गन्ता चैत्रो ग्रामं गत इत्यादावेव कृतौ मुख्यः प्रयोगः । सामानाधिकरण्यं च पदसाधुत्वाय । भोक्ता तृप्यतीत्यादौ लक्षणेति दुर्वारम् । अनुशासनानुरोधेनाख्यातस्यापि कर्तरि शक्तिसिद्धिरिति चेत् न । तृप्येत गन्ताचैत्र इत्यादौ कर्तृबोधकस्य क्लृप्तत्वाच्चैत्रो गन्तेत्यादौ अपि तथात्वमित्याशयात् । यत्तु तुमुनादिप्रत्ययस्य कृत्यादावेव शक्तिः । क्तान्तादेव्ययत्वेन तदर्थस्य भेदेनाप्यन्वये विरोधात् । अत एव क्तान्ताद्यन्तोत्तरं प्रथमैवानुशिष्टा । अन्यथा चैत्रेण वक्ता गतमित्यादौ अभेदान्वये तृतीयादेरेवाभावापत्तेः । समानविभक्तिकत्वादेस्तत्र प्रयोजकत्वादिति तन्न । भुक्त्वा व्रजतीत्यादिमात्राद्भोजनकर्ता भोजनोत्तरं व्रजनाश्रय इत्यादिबोधो न युज्यते ।
केचित्त कस्यचित्रो ग्रामं गत इत्यादौ कृतिबोधः कस्यचिच्च कर्तृबोधस्तत्र कृतावेव लाघवाच्छक्तिः । समानविभक्त्यादिकं पदसाधुत्वायैव । कर्तृबोधस्तु लक्षणया शक्तिभ्रमेण वा । तथैव समानविभक्त्यादिकमर्थ साधुत्वायेत्याहुः ॥ १० ॥
( मथु० ) एवंघेत्यारभ्य केचिदित्यन्तं एकमतम् । एवञ्च कर्मत्वरूपस्य फलस्य विशेषणविधया कृतो विशेष्यविधया चात्मनेपदस्य शक्यत्वे च । कृदात्मनेपदाभ्यामिति । कृता विशेषणतया विशेष्यतया चात्मनेपदेन लाभ इति भावः । व्यापारविशेषः पाकादिक्रिया । धातोः फलावच्छिन्नव्यापारवाचित्रे तत एव फललाभ संभवेन द्वितीयादे, फलमर्थो न सिद्धयतीत्यतस्तद्व्यवच्छेदाय मात्रपदम् । द्वितीयादेरित्यादिपदात् षष्ठीपरिग्रहः । फलजनकत्वं फलत्वविशिष्टजनकत्वम् । अर्थ इति, अन्यथा तत्र तत्प्रतीतेरनुपपत्तेरिति भावः । फले च द्वितीयाद्यर्थैकदेशे फले च प्रातिपदिकार्थः प्रकृत्यर्थः अधिकरणत्वेन आधेयतासंबन्धेन । एतेन आधेयतावत्फलजनकत्वमर्थः ।
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१३ ग्रन्थः ] आख्यातशक्तिवादः।
११५ न्वेति, फलमात्रं वा अर्थः, जनकत्वन्तु संसर्गमर्यादया लभ्यतइति केचित् , तदसत्, ग्रामं गच्छति त्यजतीत्यादौ द्वितीयादितः फलसामान्यलाभेऽपि नियतसंयोग-विभागाद्यलाभेन फलविशेषावच्छिन्नव्यापारस्यैव धात्वर्थत्वात् । इतरथा त्यजि-गमिप्रभृतदेकदेशे चाधेयत्वे निरूपितस्वसंबन्धेन । प्रकृत्यर्थोऽन्वेति इति कस्यचिन्मतं निराकृतम् । एकदेशान्वयप्रसङ्गेन लाघवानुरोधेन चाह-फलमात्रमिति फलत्वविशिष्टमात्रमित्यर्थः । फलत्वं च कार्यत्वम् । संसर्गमर्यादयेति । फलधात्वर्थयोः संसर्गविधयेत्यर्थः ।
अत्र केचित्-फलमात्रस्य कर्मषष्ठ्यर्थत्वे वृत्यनियामकसंबन्धस्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वनये पाको न तेमनस्येति व्यवहारानपपत्तिः, जनकतासंबन्धस्य तृत्त्यनियामकत्वात्, सत्यनियामकसंबन्धस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वनयेऽपि तदभावस्य केवलान्वयित्वनियमेन तेमनीयपाकेऽपि न तेमनस्येति व्यवहारापत्तिः एवं फलमात्रस्य द्वितीयार्थत्वेऽपि यदि कर्मजसंयोगानधिकरणद्रव्यं प्रसिद्ध, तदा तत्रामुं न गच्छतीति प्रयोगानुपपत्तिः, तत्कर्मकगमनस्याप्रसिद्धना तदाश्रयत्वा. भावस्य तत्र प्रत्येतुमशक्यत्वात् । जनकतासंबन्धस्याभावप्रतियोगितानवच्छेदकनया गमनत्वावच्छेदेन द्वितीयार्थस्य तनिष्टसंयोगस्य तेन संबन्धेनाभावप्रत्ययासंभवात् , तस्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वे तदभावस्य केवलान्वयित्वनियमेन गमनकर्मण्यपि देशे अमुं न गच्छतीति प्रयोगप्रसङ्गः, गमनत्वावच्छेदेन जनक. तासंबन्धेन तनिष्टसंयोगाभावस्य सत्त्वात् । तस्मात् फलजनकत्वं खण्डशः फलं जनकत्वं वा द्वितीयादेरर्थः । नचैवमपि रूपं न गच्छतीति प्रयोगानुपपत्तिः, तनिष्ठसंयोगाप्रसिद्धेरिति वाच्यम् । फलजनकत्ववदाधेयत्वस्यापि द्वितीयावर्थतया संयोगत्वावच्छेदेन रूपाधेयत्वाभावस्यैव तत्र प्रत्ययात, रूपं न गच्छति रस इत्यादौ चाकाशं न पश्यत्यन्ध इत्यादाविव नमर्थस्य वारद्वयमन्वय इत्याहुः। । तदसत् । लाघवात् द्वितीयादेः संयोगावात्मके फले शक्ताबुदाहृतस्थले संयोगजनकत्वादी लक्षणाभ्युपगमात्, वृत्यनियामकसंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावमात्रस्य केवलान्वयित्वे मानाभावाचेति ध्येयम् ।
फलसामान्यलाभेऽपीति फलत्वरूपेण फललाभेऽपीत्यर्थः । नियतसंयोग-विभागाधलाभेनेति । संयोगत्व-विभागत्वादिविशिष्ट अतिवमादिकं विना संयोगत्वविभापत्वादिविशिष्टस्य लाभासंभवेनेत्यर्थः । फलविशेषेति संयोगत्वविभागत्वादिविशिष्टेत्यर्थः । धात्वर्थत्वात् गम-त्यजादिधात्वर्थत्वात् । द्वितीयादेश्चाधेयत्वमर्थः स च धात्वर्थैकदेशे संयोगादावन्वेति । न च विशिष्य
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११६ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः तीनां पर्यायत्वापत्तेः । तवापि गम्यते ग्राम इत्यादौ ग्रामादेः संयोगादिफलशालित्वं कुतः प्रतीयत इति चेत्, न । तवच्छिन्नव्यापारवाचिधातुसमभिव्याहाँरादेव, यथा इष्टसाधनत्ववाचकाद्विधेरेव स्वर्गकामादिपदसमभिव्याहारात् स्वर्गादिजनकत्वं, प्रतीतिस्त्विष्ट-फलयोरिष्टत्व-फलत्वाभ्यां स्वर्गत्व-संयोगत्वाभ्यां संयोगत्व-विभागत्वादिविशिष्टालाभेऽपि न क्षतिरिति वाच्यम् । तदलाभे गहादामं गच्छतो गेमने ग्रामस्य गमनं न गृहस्य, दृक्षं त्यजतस्त्यागे वृक्षस्य त्यागो न तु भूमेरित्यादयो व्यवहाराः स्वारसिका न स्युः, गृह-भूमिटत्तिफलजनकत्वसामान्याभावस्य तत्रासत्त्वात, तक्रियया गृह-भूमिटत्तिविभागोत्तरसंयोगरूपफलजननादिति भावः।
ननु द्वितीयादेः संयोगत्वादिनैव फलमर्थ इति न फलविशेषाभावः, गमादिधा तुविशेषसमभिव्याहारश्च प्रत्ययनियामक इत्यत आह-इतरथेति । फलविशेपावच्छिन्नक्रियाया धात्वर्थत्वानभ्युपगमे इत्यर्थः । पर्यायत्वेति । एकस्या. अयक्रियायाः पूर्वदेशत्यागोत्तरदेशगमनरूपत्वेन शक्यतावच्छेदकस्याभेदादिति भावः । अथ पर्यायतायामिष्टापत्तिः, कर्मासमभिव्याहृते गच्छति त्यजतीत्यादौ बोधस्य वैलक्षण्यानुभवे तु तत्र तत्तत्फलावच्छिन्नक्रियायां निरूढलक्षणा । न चैवं ग्रामं त्यजतीत्यादौ ग्रामं गच्छतीत्यापत्तिरिति वाच्यम् । गमिसमभिव्याहृत द्वितीयादेः संयोगस्य त्यजिसमभिव्याहृतद्वितीयादेविभागस्य बोधकत्वादेव तद्वारणसंभवादिति चेत् । न । त्यजि-गम्योः पर्यायत्वाभावस्य सकलप्रामाणिकसिद्धत्वात्. कर्मासमभिव्याहृते गच्छति-त्यजतीत्यादौ स्वारसिकविलक्षणबोधस्याप्यनुभव. सिद्धत्वाचेति निगर्भः । ननु तथापि गम्यते ग्राम इत्यादौ धात्वथैकदेशीभूतसं. योगादेमे अन्वयासंभवात् आत्मनेपदस्य च फलसामान्यवाचकत्वात् गमनजन्यसंयोगरूपफलशालित्वप्रत्ययः कथं स्यादित्याशङ्कते-तवापीति । तद. वच्छिन्नेति विशेष्यसंयोगावच्छिन्नेत्यर्थः । समभिव्याहारादेवेतिच्छेदः । गम्यते ग्राम इत्यादौ ग्रामादेः संयोगशालित्वं प्रतीयत इति पूर्वेणान्वयः । तवापि धातुविशेषसमभिव्याहारात्तथा संभवेऽपि त्यजि-गमिप्रभृतीनां पर्यायतापत्तेर्दुर्वारत्वादिति भावः । समभिव्याहारविशेषाद्विशेषप्रत्यये दृष्टान्तमाह-यथेत्यादि । स्वर्गादिजनकत्वमिति । प्रतीयत इत्यनुषज्यते।
ननु फलत्वेन प्रतीतौ इत्यनुभवविरोधः संयोगवादिनैव प्रत्ययस्यानुभवसिइत्वात्, संयोगत्वादिना प्रतीतौ तु तेन रूपेण शक्तिरावश्यकी तथाच शक्त्या
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः ।
.११७ वेत्यन्यदेतत् । अस्तु वा बुद्धिविषयवाचकतदादेरिव व्युत्पत्तिवशादेव प्रकृत्यर्थतावच्छेदकफलतच्छालिवाचकाख्यात-कृतोरपि विशेषरूपेण बोधकत्वम् ॥११॥ नन्त्यमित्यत आह-अस्तु वेति बुद्धिविषयवाचकेति । बुद्धिविषयत्वप्र. त्तिनिमित्तकेत्यर्थः। व्युत्पत्तिवशादेवेति । सामान्यरूपेण शक्तिज्ञानस्यैव विशेषरूपेण शाब्दबोधे तजनकपदार्थोपस्थितौ च कारणतावशादेवेत्यर्थः । प्रकृत्यर्थतावच्छेदकेति फलत्वरूपेण प्रकृत्यर्थतावच्छेदकफल-तच्छालिवाचकेत्यर्थः। प्रकृत्यर्थतावच्छेदकेति स्वरूपकथनम् । विशेषरूपेणेति अक्यतानवच्छेदकेनापि विशेषरूपेणेत्यर्थः । नच येन रूपेण पदार्थोपस्थितिस्तेनैव रूपेण पदे शक्तिज्ञानस्य हेतुतया कथं सामान्यरूपेण शक्तिज्ञानाद्विशेषरूपेण उपस्थितिः विशेषरूपेणोपस्थित्यभावे च कथं विशेषरूपेण शाब्दबोधः, पदार्थोपस्थिति-शाब्दबोधयोरपि समानप्रकारकत्वेन कार्यकारणभावादिति वाच्यम् । तद्भेदेन शकिज्ञानपदार्थोपस्थित्योः कार्य-कारणभावभेदात् । अत्र सामान्यरूपेण शक्तिज्ञानादे विशेषरूपेण पदार्थोपस्थिति-शाब्दबोधयोरभ्युपगमात् ।
परे तु बुद्धिविषयवाचकतदादेरिवेति । यथा तदादिपदस्थले विशिष्य घटत्व-पटत्वादिरूपविशेषधर्मविशिष्टे न शकिः शक्त्यानन्त्यप्रसङ्गात् , नापि स्वप्रयोक्तबुद्धिविशेषविषयत्वविशिष्टे, तदादिपदजन्यशाब्दबोधानन्तरं घटत्वादिप्रकारकसंशयस्य सर्वानुभवविरुद्धत्वात्, किन्तु स्वप्रयोक्तबुद्धिप्रकारत्वेनानुगतीकृतघटत्व-पटत्वादिविशिष्टे तदादिपदशक्तिः, अतो न घटत्व-पटत्वादिभेदे शक्त्यानन्त्यप्रसङ्गइति प्राहुः।
न चैवं नानार्थोच्छेदः हरिपदादेरपि सत्तावत्त्वादेरेव शक्यतावच्छेदकत्वस्य सुवचत्वादिति वाच्यम् । तत्रामरकोषात् तत्तद्रूपेणैव शक्यत्वप्रतीतेरिति भावः । एतच्चाभ्युपेत्योक्तम् । एवमपि फलत्ववबुद्धीच्छाविषयत्वभेदत्वादेरपि विनिगमनाविरहेण शक्यतावच्छेदकत्वापल्या शक्त्यानन्त्यस्य दुर्वारत्वादिति ध्येयम्॥११॥
(राम०) नन्वात्मनेपदस्य फलवाचकत्वेन चैत्रेण ग्रामो गम्यते इत्यादौ ग्रामस्य गमनजन्यफलशालित्वरूपकर्मत्वलाभेऽपि चैत्रो ग्रामं गच्छतीत्यादौ तस्य कथं कर्मतालाभ इत्याशङ्कायां एवंचेत्यादि केचिदित्यन्तमेकं मतं दर्शयामास । एवञ्च ग्रामं गच्छतीत्यादौ फलस्य, पदान्तरालभ्यत्वे चेत्यर्थ एतस्य च ग्रामं गच्छति ग्रामस्य गन्तेत्यादौ द्वितीयादेः फलजनकत्वलक्ष णकर्मत्वमर्थः इत्यग्रेतनेनान्वयः । ननु फलावच्छिन्नव्यापारबोधकधातुत एव चैत्रो ग्रामं गच्छतीत्यादौ फललाभोऽस्तु किं द्वितीयायाः फलजनक
१ उपस्थापकरव मिति पाठः ।
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११८
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
त्वलक्षणकर्मत्वे शक्तिकल्पनेनेत्यत आह-गतो ग्रामो गम्यत इत्यादि । चैत्रेण ग्रामो गत इत्यत्र फलविशिष्टवाचिकृत्प्रत्ययात् पदार्थतावच्छेदकतया फलस्य लाभः, चैत्रेण ग्रामो गम्यत इत्यत्र चात्मनेपदात् फलविशेष्यकशक्त्या फललाभ इत्यर्थः । तथाचान्यलभ्यत्वरूपवाधकेन धातोः फले न शक्तिरिति भावः । लाघवादिति । फलावच्छिन्नव्यापारविशेषत्वापेक्षया व्यापारविशेषत्वस्य शरीरलाघवादित्यर्थः । व्यापारविशेषेति । पचधातोर्वन्हिस्थालीसंयोगादिरूप व्यापारः, गम्यादिधातोः स्पन्दरूपो व्यापारः, त्यजधातोरपि स एवेत्यादिरर्थः । मात्रपदेन पदार्थतावच्छेदकतया फलवाचकत्वस्य व्यवच्छेदः । ग्राममित्यादि । तथाचानन्यलभ्यत्वात् फलस्य द्वितीयादेः फलजनकत्वलक्षणकर्मत्वे शक्तिरनायत्या कल्प्यत इत्यर्थः । द्वितीयादेरित्यादिपदेन ग्रामस्य गन्तेत्यादौ षष्ठीपरिग्रहः । धातूनामनेकार्थकत्ववच्च तत्र षष्ठयाः कर्मत्वार्थकत्वात् । ननु चैत्रो ग्राम गच्छतीत्यादौ फललाभाय किं द्वितीयादेः फलजनक शक्तिः, किं वा तत्तहातोः फलजनकत्वे शक्तिरित्यत्र विनिगमनाविरहः धातूनामनेकार्थकत्ववच्च द्वितीया-य ध्यादीनामपि अनेकार्थकत्वमिति न तद्विनिगमकमिति चेत् । न। स्वस्यैकदेशीभूतफले ग्रामादेः प्रातिपदिकार्थस्यानन्वयप्रसङ्गात् । न चेष्टापत्तिः, अदृष्टत्वात् । यदि चाख्यातत्वावच्छेदेन फले शक्तिरिति कर्तृ-कर्मप्रत्ययस्थले तत एव फललाभ इत्युच्यते, तदाख्यातार्थफलस्य धात्वर्थविशेष्यतया अन्वयस्य चैत्रेण गम्यते ग्राम इत्यादौ व्युत्पन्नस्य भङ्गप्रसङ्गात् । काख्यातकर्माल्यातभेदेन व्युत्पत्तिद्वयकल्पने च गौरवमित्यादि स्वयमूहनीयम् । ननु द्वितीयायर्थफलजनकत्वस्य ग्रामेऽसत्वात् कथं तेन सह ग्रामस्यान्वय इत्यत आह–फले चेति । विभक्त्यर्थैकदेशेन सह प्रातिपदिकार्थस्यान्वयः फलावच्छिन्नव्यापारस्य धात्वर्थत्वे ब्राह्मणाय गां ददातीत्यादौ स्वामित्व-जनकत्वरूपचतुयेंकदेशीभूतस्वामित्वे ब्राधणस्य प्रातिपदिकार्थस्यान्वयदर्शनेनाव्युत्पन्न इति लाघवादेकदेशान्वयानभ्युपगमाचाह-फलमात्रं वेति । मात्रपदेन जनकत्वांशव्यवच्छेदः ।
केचिदित्यन्तं मतं दूषयति-तदसदिति । नियतेति । गच्छतीत्यादौ विभागस्य, तरुं त्यजति खग इत्यादौ संयोगरूपफलस्य लाभप्रसङ्ग इति वैपरीत्यमेव कथं न स्यादित्यर्थः । फलविशेषावच्छिन्नेति गमधातोः संयोगावच्छिन्नस्पन्दः, त्यजधातोर्विभागावच्छिन्नस्पन्दोऽर्थोवश्यं वक्तव्य इत्यर्थः । ननु धातोः स्पन्दादावेव शक्तिः गम्यादिसमभिव्याहाराच द्वितीयादेः संयोगत्व-विभागत्वादिना फल्बोधकता भविष्यतीत्यतआह-इतरथेति । गमि-त्यजिप्रभृतीनां स्पन्दत्वावच्छिन्नमात्रशक्तत्वइत्यर्थः। पर्यायत्वापत्तेः । एकधर्मावच्छिन्नशक्तत्वप्रसङ्गात् । न चेष्टापत्तिः, तथा सति कोषादौ तथाभिधानप्रसङ्गादिति भावः । शङ्कते तवापीति । संयोगावच्छिन्नस्पन्दादेर्गम्यायर्थत्ववादिनोऽपीत्यर्थः ।
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११९
१३ प्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः। संयोगादिफलशालित्वं चैत्रवृत्तिगमनादिजन्यसंयोगादिफलशालित्वं, कुत इति, ग्रामोगम्यत इत्यादौ विभागशालित्वस्य तरुस्त्यज्यते इत्यादौ च संयोग शालित्वस्य काभप्रसङ्गेन वैपरीत्यापत्तिः तदवस्थैवेति भावः । तदवच्छिन्नति संयोगावच्छिन्नव्यापारवाचिगमिसमभिव्याहृतात्मनेपदस्य संयोगात्मकफलबोधकत्वं, विभागावच्छिन्नव्यापारवाचित्यजिसमभिव्याहृतात्मनेपदस्य विभागात्मकफलबोधकत्वमित्यादिव्युत्पत्तिकल्पनेनोक्तदोषो वारणीय इत्यर्थः । यद्यपि केवल व्यापारे धातुशक्तिवादिनाप्येवं वक्तुं शक्यते, तथापि तन्मते त्यजि-गम्योः पर्यायतापत्तिरेव दोष इति ध्येयम् । ननु सामान्यबोधकशब्दस्य समभिव्याहारविशेषचलेन विशेषबोधकत्वं कुत्र दृष्टमित्याकाङ्क्षायामाह-यथेति । स्वर्गकामो यजेतेत्यादौ इष्टसाधनत्वमात्रस्य विध्यर्थत्वेऽपि स्वर्गकामपदसमभिव्याहारवलेन विशेषबोधकतापर्यवसानं फलं दृष्टम् । नन्वेवं स्वर्गकामोयजेतेत्यादौ यथा स्वर्गसाधनत्वत्वरूपेण विधिप्रत्ययस्येष्टसाधनत्वबोधकता तथा संयोगत्वादिना फलबोधकता स्यादित्यत भाह-प्रतीतिस्त्विति । तथाच यदि स्वर्गवादिना तवेष्टबोधस्तदा अत्रापि संयोगत्वादिना आत्मनेपदात् फलप्रतीतिर्वाच्या । यदि च इष्टत्वरूपेस्वर्गरूपेष्टबोधकता तदा अत्रापि फलत्वरूपेणात्मनेपदस्य संयोगदिबोधकत वाच्येति भावः।
नन्वेवं यदि संयोगत्वादिरूपेणात्मनेपदस्य शक्तिग्रहस्तदा तेन रूपेणातुपस्थितिकाले गृहीतात्मनेपदफलशक्तिकस्य कालान्तरे संयोगत्वादिकं धम्मितावच्छेदकीकृत्य फलत्वज्ञानसत्वेऽपि संयोगत्वादिना प्रकारेणात्मनेपदार फललाभो न स्यादित्यत आह-अस्तु वेति । तथाच तत्पदं बुद्धिप्रकारवति शतमिति शक्तिज्ञानस्य घटोऽस्य बुद्धिप्रकारवान् इतिज्ञानसहकारेण यथा घटत्वपटत्वादिरूपविशेषधर्मप्रकारेण बोधकत्वं, तथा आत्मनेपदं फलतावच्छेदकविशिष्टे शक्तमिति शक्तिज्ञानस्य स्वप्रकृत्यर्थतावच्छेदकतावच्छेदकफलमिति शानसहकारेण संयोगत्वादिना फलबोधकता, एवं कर्मकृत्फलविशिष्टे शक्तमिति शांतिज्ञानस्य स्वप्रकृत्यर्थतावच्छेदकफलमिति ज्ञानसहकारेण संयोगविशिष्टयोधकता स्यादित्यर्थः । एवं विभागादिकमादाय बोध्यम् । आख्यात-कृतोरपीस्यपिकारेण गम्यादिधातोः संयोगावच्छिनव्यापारवरूपेण बोधकत्वसमुच्चयः । तत्र च शक्तिग्रहो गमधातुः संयोगावच्छिन्नस्पन्दशक्त इत्यादिरूप एवेति शेष इत्यर्थः ॥ ११ ॥
(रघु०) कस्यचिन्मतं दूषयितुं तदर्शयति-एवमित्यारभ्य केचिदित्यन्तेन । एवं कर्मविहितकृत्कर्मविहिताख्यातयोः फलबोधकत्वव्यवस्थापने चेत्यर्थः । लाघवादिति । फलानुकूलत्वविशिष्टे शक्तिकल्पनापेक्षया शरीरला
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१२०
वादार्थसग्रहः
[४ भागः घवसंभवादित्यर्थः । अनन्यलभ्यइति । एतेन अनन्यलभ्यो हि शब्दार्थ इति नियमस्यापि न भङ्ग इति सूचितम् । व्यापारविशेषमात्रेति । गमनत्वादिविशिष्टमात्रेत्यर्थः । मात्रपदेन फलव्यवच्छेदः । इति स्थिताविति । व्यवस्थितावित्यर्थः । ननु व्यापारमात्रस्य धात्वर्थत्वे ग्रामं गच्छतीत्यादौ फललक्षणकर्मत्वस्य कुतो लाभ इत्यत आह-ग्रामं गच्छतीत्यादि । आख्यातकृनेदेनोदाहरणद्वयम् । द्वितीयादेरिति । अत्रादिना ग्रामस्य गन्तेत्यादौ षष्ठयाः परिग्रहः । फलजनकत्वलक्षणमिति । फलत्वमत्र जन्यत्वं द्रष्टव्यम् । फलत्वविशिष्टजनकत्वस्य द्वितीयाद्यर्थत्वे ग्रामं गच्छतीत्यादौ परसमवेतधात्वर्थजन्यफलशालित्वलक्षणकर्मत्वस्य बोधप्रकारमाह-फले चेत्यादि । चैत्रस्य नतेत्यादाविव एकदेशान्वयस्वीकारेण तथान्वयबोधस्वीकारे तुल्यवित्तिवेद्यतया उपदर्शितकर्मत्वस्यापि बोध इति भावः । फलजनकत्वे द्वितीयादेः शक्तिकल्पने गौरवात्तदपहाय फले शक्तिः जनकत्वं तु संसर्गमर्यादया। भासत इत्यस्यैव सम्यतवात्तथैवाह-फलमात्रं वेति । जन्यत्वविशिष्टं वेत्यर्थः । फलसामान्यलाभेमीति जन्यत्वविशिष्टस्य लाभेऽपीत्यर्थः । नियतेति । लक्षणोपस्थितिशक्तिभ्रमाकालीनेत्यर्थः । संयोगविभागाद्यलाभादिति । संयोगत्वविभागत्वादिना संयोगविभागरूपफलस्यालाभादित्यर्थः । तस्मादिति । पूर्वमते उपदर्शितदोषसंभवादित्यर्थः । फलविशेषावच्छिन्नेति संयोगत्वादिविशिष्टजनकेत्यर्थः । ननु लक्षणोपस्थित्याद्यभावकाले तथाविधबोधाभावे क्षतिविरह इत्यतो दूषणान्तरमाह-अन्यत्रेति । व्यापारमात्रस्य धात्वर्थत्वे इत्यर्थः । पर्यायत्वापत्तेरिति। एकशक्यतावच्छेदकावच्छिन्नशक्तनानापदत्वस्यैय पर्यायपदार्थत्वादिति भावः ।
शङ्कते-तवापीत्यादि । संयोगत्वादिविशिष्टावच्छिन्नव्यापारस्य धातुशक्यत्ववादिनोऽपीत्यर्थः । संयोगशालित्वमित्यादि । जन्यत्वावच्छिन्नरूपफलशालिन्वावच्छिन्नस्यैव कर्माख्यातादिवाच्यत्वेन फलान्तरस्यापि बोधसंभवादिति भावः। तदवच्छिन्नेति । संयोगत्वादिविशिष्टावच्छिन्नेत्यर्थः । तथा च तादृशसमभिव्याहारैविशिष्टस्यैव तथा कार्यतावच्छेदकत्वादिति भावः । समभिव्याहारविशेषात् सामान्यधर्मावच्छिन्नबोधकपदस्य विशेषबोधकत्वे दृष्टान्तमाह-यथेत्यादि । अन्यदेतदिति । तथा च तत्र यदीष्टत्वेन रूपेण स्वर्गादिबोधकत्वं तदा ममापि प्रकृते सामान्यधर्मावच्छिन्नत्वरूपेण संयोगादिबोधकत्वं यदि तत्रे.
१ वाच्यत्वे इति पाठः । २ बोधकेति पाठः। ३ विशेषस्यैव विधवोषजनकत्वादिति पाठः । ४ फलस्वरूपेणेति पाठः ।
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१३ प्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः।
१२१ एस्वर्गयोरभेदान्वयेन स्वर्गादिरूपफलबोधकत्वं तदा प्रकृते संयोगादिफलयोरभेदान्वयेन संयोगादिबोधकत्वमिति भावः ।
ननु सामान्यधर्मावच्छिन्नबोधकपदात्सामान्यरूपेण विशेषबोधसंभवेऽपि गम्यते ग्राम इत्यादौ संयोगत्वादिना संयोगस्य ग्रामवृत्तित्वबोधालाभप्रसङ्गः । न च संयोगफलयोरभेदान्वयेन संयोगत्वादिरूपेण तथा बोधसंभव इति वाच्यम् । इतरविशेषणत्वेनोपस्थितस्यान्यत्र विशेषणत्वेनान्वये निराकाङ्क्षत्वेन तथान्वयासंभवादित्यत आह-अस्तु वेति । तथाच यथा बुद्धिविशेषविषयत्वरूपसामान्यधर्मावच्छिन्नशक्ततदादिपदाद्धटत्वपटत्वादिरूपविशेषरूपेण बोधस्तथा प्रकृतेऽपि फलस्वरूपसामान्यधर्मावच्छिन्नशक्ताख्यातपदात्संयोगत्वादिरूपविशेषरूपेण बोधः। यद्धर्मावच्छिन्ने पदनिरूपितशक्तिग्रहः तेन रूपेण पदस्य बोधजनकत्वमिति नियमस्यैतदतिरिक्तस्थलत्वादिति भावः । इदं च तदादिसर्वनामपदस्य शक्यतावच्छेदकं बुद्धिविशेषविषयत्वमेव, शक्तिमहोऽपि वद्धर्मावन्छिन एव, बोधस्तु घटोऽस्य बुद्धिस्य इति ज्ञानसहकृताद्बुद्धिविषयस्तदादिपदशक्यह ति ज्ञानादुत्पद्यत इति प्राचीनमतानुसारेण बोध्यम् ॥ ११ ॥
(जय०) एवं चेत्यादिः कश्चिदित्यन्त एको ग्रन्थः । एवं च फलस्यात्मनेपदाद्यर्थत्वे च । व्यापारविशेषमात्रेति पाकादिरूपक्रियामात्रेत्यर्थः । मात्रपदेन फलांशव्युदासः । तथा सति धातोरेव फललामे द्वितीयादेः फलार्थत्वं न सिध्ये - दिति भावः। द्वितीयादेरित्यादिपदात्षष्ठीपरिग्रहः । फलजनकत्वस्यार्थत्वे एकदेशान्वयापत्तेगौरवाचाह—फलमात्रं वेति । नन्वेवं यत्र कर्मणा संयोगजचक्षुरादिसंनिकर्षादेव तत्प्रत्यक्षं तत्रामुं न गच्छतीति प्रयोगानुपपत्तिः । तत्कर्मकगमनस्याप्रसिद्धथा गमनत्वावच्छेदेन द्वितीयार्थस्यैव हि प्रतिषेधो वाच्यः । न च फलस्य द्वितीयार्थस्य जनकत्वसंबन्धेन तत्संबन्धः । अन्यथाऽतिप्रसङ्ग इति । तस्मात्फलजनकत्वम्, फर्क जनकस्वं वा द्वितीयार्थः । एवं रूपं न गच्छवीत्यादिप्रयोगात् आधेयत्वमपि । तत्र रूपनिष्ठसंयोगजनकत्वाद्यप्रसिद्धथा फले संयोगादिद्वितीयार्थाधेयत्वस्याभावबोधसंभवादिति चेन्न । लाघवात्संयोगाद्यात्मकफलशक्ताया. द्वितीयायास्तत्र तत्र लक्षणास्वीकारात् । एतेन रूपं न गच्छतीत्यादौ द्वितीयार्थस्याधेयत्वस्यैव धात्वर्थे फलेऽभावबोधसंभवाद्धातोः फलमप्यर्थः, द्वितीयायाश्चाधेयत्वमेवेति परास्तम् । धातोः फले. शक्त्यन्तरकल्पने द्वितीयायाश्योपाधिविशिष्ट शक्तिकल्पने गौरवापत्तेरिति दिक् ।
नियतसंयोगेति । तदलाभे च काश्याः प्रयागं गच्छतो गमने प्रयागस्येदं
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१२२
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
गमनं न काश्या वृक्षस्य त्यागो न भूमेरितिप्रयोगानुपपत्तिः, गमने काशीविभागजनकत्वसत्त्वेन त्यागे च भूमिवृत्तिसंयोगजनकत्वसत्वेन काशीभूमिवृत्तिफलजनकत्वसामान्याभावस्य तत्रासत्त्वादिति भावः । ननु गमिसमभिव्याहारे द्वितीयाया उत्तरसंयोगस्त्यजिसमभिव्याहारे विभागोऽर्थो वाच्य इत्यत आह-इतरथेति । अथ पर्यायत्वमेकार्यनिष्ठत्वमेव ग्रामं गच्छतीत्यत्र ग्रामं त्यजतीति प्रयोगापत्तिश्च समभिव्याहाराश्रयेण वारणीयेति चेत् । न । लक्षणया त्यागार्थकगमधातोर्गमना. द्यर्थकत्यजधातोः समभिव्याहारेऽपि द्वितीयादेः संयोगविभागाद्यर्थत्वप्रसङ्गात् । मुख्यार्थकत्यजिगम्योः समभिव्याहारे तथा वाच्यत्वादिति चेत् । न । तयोः पर्यायतायां प्रकृते मुख्यत्वलाक्षणिकत्वानुपपत्तेः । न च संयोगावच्छिन्नव्यापाराद्यलक्षकत्वमेव मुख्यार्थत्वमिति वाच्यम् । कर्मप्रत्ययजन्यफलबोधं प्रति कर्मप्रत्ययसमभिव्याहृतधातुजन्योपस्थितेरवश्यंभावेन धातोः फलमर्थ इति भावात् । __ यत्तु तयोः पर्यायतायां त्यागगमनादिभावप्रत्ययान्तात्स्वरसतो विभागाद्यवच्छिन्नव्यापारबोधो न स्यात् ' इति तन्न, कर्मासमभिव्याहृतत्यज्यादौ विभागाद्यवच्छिन्नव्यापारे निरूढलक्षणास्वीकारसंभवात् ।
ननु फलावच्छिन्नव्यापारस्य धात्वर्थत्वेऽपि कर्माख्यातस्थले धात्वर्थफलस्य कर्मण्यन्वयासंभवादात्मनेपदार्थफलस्यैवान्वये नियमो न स्यात्, आत्मनेपदस्य सामान्यतो विशेषतो वा फलसामान्यावाचकत्वात्तस्मात्त्वयाऽपि त्यजिगम्यादिसमभिव्याहारेणैव नियमो वाच्य इति शङ्कते-तवापीति । संयोगादीति नियमत इत्यादिः । तदवच्छिन्नेति । तथा च मम संयोगाद्यवच्छिन्ने व्यापारे गमादिधातोः शक्तिस्वीकारादयं नियमः संभवति । तव व्यापारमात्रे शक्तेः पूर्वोक्तदोषान तत्संभव इति भावः । सामान्यशक्तस्य समभिव्याहारविशेषेण विशेषबोधकत्वे दृष्टान्तमाह-यथेत्यादि । इष्टत्वेति । तथा च शक्त्यानन्त्यकल्पनभिया विधेः सामान्यतः शक्तिवदत्रापि तथैवेति भावः । नन्वेवं मुक्तिकाम आत्मानं पश्येत् न तु यज्ञ, जन् (?) प्रयागो गम्यते न तु काशीत्यादिप्रयोगो न स्यात् । इष्टसाधनत्वतावच्छिन्नाभावस्य यागे गमनजन्यफलत्वावच्छिन्नाभावस्य च गमनजन्यविभागाश्रयकाश्यामसत्त्वात् । नञाऽन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्यैव बोधनादत आह–स्वर्गत्वेति । तथा च प्रामाणिकत्वाच्छक्त्यानन्त्यकल्पनागौरवमपि न दोषायेति भावः ।
शक्त्यानन्त्यकल्पने विशेषप्रकारबोधोपायमाह--अस्तु वेति । यथा तदादीनां पटत्वघटत्वादिशक्यतावच्छेदकभेदेन शक्त्यानन्त्यापत्त्याऽपूर्वचैत्रत्वादिविशिष्टवि
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः ।
१२३ शेष्यकशक्तिग्रहासंभवेन बुद्धिविषयतावच्छेदकमुपलक्षणीभूय शक्यतावच्छेदकानुगमकमास्थीयते । अत्र बुद्धिर्यत्पदजन्या ग्राह्या, अप्रक्रान्ताद्यर्थकतच्छब्देनापि यच्छब्दाक्षेपात्। अत एव यत्तदोनित्याभिसंबन्ध इति प्राञ्चः । इत्यं च शक्यतावच्छेदकानुगमकबुद्धिविषयतावच्छेदकत्वं यदा यादृशे रूपे गृह्यते तदा तेनैव तत्पदमुपस्थापयत्यनुभावयति च व्युत्पत्तिवैचित्र्यात्तथाख्यातकृतोरपि संयोगत्वविभागत्वादिरूपशक्यतावच्छेदकनानात्वादवच्छेदकभेदादनन्तशक्त्यापत्त्या प्रकृतिबोध्यतावच्छेदक(त्व)मुपलक्षणीभूय शक्यतावच्छेदकतत्त्वावच्छेदकाद्यनुगमकमुच्यते। प्रकृतिबोध्यतावच्छेदकधर्मवति फले तद्वति च शक्तमिदमित्याकारकः शक्तिग्रहः । शक्यतावच्छेदकाद्यनुगमकप्रकृतिबोध्यतावच्छेदकत्वं च धर्मस्य यदा यादृशरूपेण गृह्यते तेन रूपेण कृप्तमुपस्थापयति बोधयति चेति नियमान्नातिप्रसङ्ग इति भावः । तादृशरूपेण शाब्दबोधं प्रति तादृशरूपेण शक्तिग्रहस्य हेतुतायाः कृप्तत्वात्तत्यागे बीजाभावः । अन्यथा तदादिपदे शक्तेरपि विलयापत्तिः । बुद्धिविशेषस्य सहकारित्वेनैवानतिप्रसङ्गात् , बुद्धौ शक्यतावच्छेदकानुगमकविशेषणत्वस्य व्यर्थत्वात्, घटत्वाद्यवच्छिन्ने शक्त्यभावग्रहेऽपि शुद्धघटत्वादिप्रकारेण शाब्दबोधापत्तिश्च । किं च शाब्दबोधाविषयीभूतधर्मेण शक्यतावच्छेदकानुगमे इच्छाविषयत्वतत्तदभावत्त्वमपि तथा स्यात् । सहकारित्वं च शक्यतावच्छेदकनिष्टस्यापि बुद्धिविषयत्वस्याव्याहतमेवेति । किं चैवं नानार्थतोच्छेदः, अक्षादिपदेऽप्यन्यतमत्वविशेषस्य शक्यतावच्छेदकानुगमकस्य संभवादिति प्राचीनमतं दूषयति ।
अत्रैवं प्राचामाशयं वर्णयाम:-शक्तिनस्तावत्संबन्धग्रहत्वेन शक्योपस्थापकतयोपयुज्यते । बुद्धिविषयतावच्छेदकावच्छिन्नं तत्पदशक्यमिति शक्तिग्रहाहितसंस्कारेण तत्तद्धर्मावच्छिन्नशक्त्यंशे उद्बुद्धेन सहकृतमेव तत्पदं तद्धर्मावच्छिन्नं स्मारयत्यनुभावयति च । उद्बोधकं च परंपरासंबन्धि तत्पदज्ञानस्मारितस्य यत्पदजन्यबुद्धिविषयत्वस्य तत्तद्धर्मावच्छिन्ने ज्ञानं, निरुक्तविषयत्वविशिष्टे तत्तद्धर्मावच्छिन्ने तत्पदशक्तिमहात् । तथा च घटो यत्पदबोध्य इत्यादिशाने शुद्धघटत्वावच्छिन्नस्य तदोपस्थित्यादिनिराबाधा । विशिष्टतत्तद्धर्मावच्छिन्ने गृहीतसंबन्धकज्ञानस्यापि शुद्धतत्तद्धर्मावच्छिन्नवृत्तिज्ञानजन्यशुद्धतत्तद्धर्मावच्छिन्नोपस्थितेरेव च शुद्धधर्मावच्छिन्नशाब्दबोधजनकत्वादत एव विशिष्टशक्तपदस्य विशेष्यमात्रबोधकत्वे न लक्षणेति सिद्धान्त: । बुद्धिविषयतावच्छेदकावच्छिन्नं तत्पदबोध्यमित्याकारा चात्र शक्तिः । न च शुद्धघटत्वाद्यवच्छिन्नस्य शक्त्यनुभवाविषयत्वात्कथं स्मृतिरिति वाच्यम् । अनुभवस्मरणयोः समानप्रकारत्वेनैव कार्यकारण
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१२४ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः अपि च धात्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वं कर्मभावाच्छक्त्यनुभवस्य संभवाच्च । अस्तु वा यत्पदधर्मिकशक्त्यनुभवजन्यबुद्धिविषयो घटः पटादिश्च तत्पदशक्य इत्येव शक्तिग्रहस्तत्र च संसर्गतया भासमानेन यत्पदजन्यबुद्धिविषयतावच्छेदकत्वेन घटत्वपटत्वादीनामनुगमान्न शक्त्यानन्त्यम् । अत एव न तच्छक्यतावच्छेदकतावच्छेदकं किं तूपलक्षणीभूय शक्यतावच्छेदकानुगमकं शब्दत्वादिवत् शक्तिमहे शक्यतावच्छेदकविशेषणत्वेनाभा नादित्येके । तत्तयैव कदाचिद्यत्पदजन्यबुद्धिविषयतावच्छेदकत्वेनापि तत्पदादुपस्थितेः । न चैवमिच्छाविषयतावच्छेदकत्वादिकमपि तथा स्यात् कदाचित्तेन रूपेणाप्युपस्थितेरिति वाच्यम् । यत्पदनियतवाक्यादिनाद्यव्युत्पत्तेरेव शक्तिसा धकत्वात् । अत एव च न पदान्तरप्रतिबन्दिरपीत्यन्ये । न चैवं यत्पदस्यापि तत्पदजन्यबुद्धिविषयतावच्छेदकावच्छिन्ने शक्त्या तत्पदजन्यबुद्धिविषयत्वज्ञान एव ततो बोध इत्यन्योन्याश्रय इति वाच्यम् । यो धूमवानित्यादौ यत्पदार्थान्वय्यर्थे तत्वेन विशिष्य तत्पदजन्यशाब्दबोधात्प्रागपि तद्विषयत्वज्ञानसंभवात् । विशिष्य तदसंभवेऽपि सामान्यतस्तत्संभवाच्च । अत एव यो रूपवानित्यादिकं यो धूमवान् पर्वतो वहिमानित्यादिकं च निराकाङ्क्षप्रतिपत्तिकम् । __ यत्तु तत्पदस्य बुद्धिविषयत्वावच्छिन्न एव शक्तिर्घटत्वादीनामननुगमेन तत्त्या. गात्तत्पदोपस्थापितबुद्धिविषयस्य शुद्धघटत्वाद्यवच्छिन्नेऽभेदज्ञानं च शुद्धघटत्वाद्यवच्छिन्नशाब्दबोधे हेतुः । अत एवोक्तं बुद्धिस्थवाचीति । तन्न । तत्पदे शक्तिश बुद्धिविषयत्वावच्छिन्नोपस्थित्यं) [ तदभेदज्ञानं च शाब्दबोधे कारणमिति?] तत्तद्धर्मावच्छिन्नशक्तिशानजन्यपदार्थोपस्थितेः कारणत्वभङ्गप्रसङ्गादुपेक्षितम् । तत्पदाद्यजन्यबोध एव तत्कारणमित्यप्याहुः । __ परे तुयो रूपवांस्तमानयेति वाक्याच्चैत्रत्वादिविशिष्ट एव यत्तदोराद्या व्युत्पत्ति रनुगमार्थमुक्तधर्मानुसरणे सैन्धवादिपदस्थलेऽन्यतमस्याप्यनुसरणापत्तिः। चैत्रो यत्पदबोध्य इत्यादि ज्ञानं तु तत्पदशक्यत्वानुमितिजनकतया चोपयुज्यते पद्मरागादौ रूपविशेषज्ञानमिव पद्मरागादिपदवाच्यत्वग्राहकतया । अत एव यत्पदोपेक्षेत्यप्याहुः । यत्तु यत्पदजन्यबुद्धिविषयत्वज्ञानं तत्पदजन्यशाब्दबोधे हेतुरिति तन्न । वाक्यादिना शक्तितात्पर्यावधारणे विनाऽपि तज्ज्ञानं तजन्यशाब्दबोधादित्यलमतिपल्लवितेन ॥ ११ ॥
(मथु०) त्यजि-गम्योः पर्यायत्वाभावस्य कर्मासमभिव्याहते गच्छतित्यजतीत्यादौ विलक्षणप्रतीतेः स्वारसिकत्वस्य च कदाचिदपलापसंभवात् प्रामा
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः। त्वम् । न तु धात्वर्थजन्यफलशालितामात्रं गमिपत्योः कर्मत्वस्य पूर्वस्मिन्देशे त्यजेश्चोत्तरस्मिन्देशे स्पन्देः पूर्वापरदेशयोः प्रसङ्गात् । फलावच्छिन्नव्यादेर्गमिकर्मत्वव्यवहारानुपपत्त्या फलस्य धात्वर्थतावच्छेदकत्वं व्यवस्थापयतिअपि चेति। धात्वर्थतावच्छेदकेति धातुप्रतिपाद्यतावच्छेदकेत्यर्थः। धातुत्वं च सतविशेषसंबन्धेन धातुपदवत्त्वं, शालित्वं च संसर्गः न.तु शक्यतावच्छेदके तदन्तर्भावः । न चैवमग्रौ जुहुयादित्यादावनेरपि जुहोतिकर्मत्वापत्तिः, अग्निसं. योगावच्छिन्न क्रियाया जुहोत्यर्थतया धात्वर्थतावच्छेदकसंयोगात्मकफलशालित्वस्याग्नेरपि सत्त्वादिति वाच्यम् । अनिसंयोगानुकूलघृतादिक्रिया न धात्वर्थः, तथा सति घृतं जुहोतीत्यत्र द्वितीयार्थस्य परसमवेतत्वस्य धात्वर्थेऽन्वयानुपपत्तेः । अपि तु संयोगावच्छिन्नघृतादिक्रियानुकूलकर्तृव्यापारस्यैव जुहोत्यर्थतया क्रियाया एव धात्वर्थतावच्छेदकत्वात् , अनाविति सप्तम्यर्थः स्थायां पचतीत्यादाविव परंपरासंबन्धावच्छिन्नाधेयत्वं, तच्च धात्वर्थव्यापारे अन्वेति सप्तम्यर्थाधेयत्वस्य पदार्थान्वितत्वनियमात् । इत्थं च ग्रामो गमिकत्यादौ कर्मपदाथैकदेशे धातुत्वविशिष्टे गम्यादेरभेदसंबन्धेनान्वयो व्युत्पत्तिवैचित्र्यादभेदार्थकल्लप्त. षष्ठीस्मरणादभेदस्य प्रकारतयैव भानं, यत्र च न तत्स्मरणं तत्र गम्यादिपदं ता. त्पर्यग्राहकं कर्मपदस्यैव गम्यायभिन्नधात्वर्थतावच्छेदकफलवति लक्षणेति भावः ।
ननु धात्वर्थजन्यफलशालित्वमेव कर्मत्वमतो न ग्रामादेर्गम्यादिकर्मत्वव्यवहारानुपपत्तिरित्यत आह-न त्विति। कर्मत्वस्य कर्मत्वव्यवहारस्य पूर्वस्मिन् देश इति, प्रसङ्गादित्यग्रेतनं सर्वत्र सम्बद्धयते, पूर्वदेशस्यापि गमि-पत्यर्थजन्यविभागात्मकफलवत्वादिति भावः। यद्यपि पतधातोरकर्मकतया पूर्वोत्तरदेशयोरुभयत्रैव तत्कर्मत्वव्यवहारापादनमुचितं, तथापि नरकं पतितः नरकपतित इत्यत्र द्वितीयातत्पुरुषानुशासनस्वरसात् उत्तरदेशस्य तत्कर्मत्वमस्त्येवेत्यभिप्रायः । नभ उत्पपातेत्यत्र नभसः कर्मतया उत्तरदेशस्य तत्कर्मत्वमस्त्येवेत्यभिप्राय इत्यपि कश्चित् । उत्तरस्मिन् देश इति तस्यापि त्यज्यर्थसंयोगात्मकफलवत्त्वादिति भावः । पूर्वापरदेशयोरिति, उभयोरेव स्पन्दजन्यविभागसंयोगात्मकफलवत्वादिति भावः। प्रसङ्गादिति । अस्मन्मते तु गमि-पत्योः संयोगावच्छिन्नायां, त्यजेर्विभागावच्छिन्नायां, स्पन्देश्च केवलायां क्रियायां शक्तिरिति नैतदोषावकाशः । पतेनत्वं च गुरुत्वासमवायिकारणकक्रियामात्रवृत्तिः तज्जन्यतावच्छेदकजातिविशेषः, तस्यैव पतधातुशक्यतावच्छेदकतया न गमिपत्योः पर्यायतेति भावः।
न कर्मपदं तत्तद्धातुबोधकपदसमभिव्याहारात् फलत्वेन तत्तत्फलस्यैव बो.
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१२६ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः पारबोधकत्वादेव च धातूनां सकर्मकत्वव्यवहारः। भाक्तस्तु जानात्यादेस्तादृशधातुयोग एव च कर्मप्रत्ययाः । तत्र च द्वितीययाधेयत्वमभिधीयते त
चाकाङ्क्षावैचित्र्याद्धात्वर्थतावच्छेदकेऽपि फलेऽन्वेति, घसाकाङ्क्षमिति नैतदोषः । न च तथापि पूर्वोत्तरदेशयोः स्पन्दिकर्मत्वव्यवहारो दुर्वार इति वाच्यम् । कर्मपदस्य धातुत्वेन सकर्मकतत्तद्धातुघटितकर्मत्वस्य बोध एव साकासतया तस्य उपयोगित्वादित्यत आह-फलावच्छिन्नेति । अव. च्छिन्नान्तात् स्पन्दिव्युदासः । सकर्मकत्वव्यवहारः मुख्यसकर्मकत्वव्यवहारः । तथाच गम्यादेः स्वारसिकसकर्मकस्वव्यवहारोपपत्त्या फलावच्छिन्नक्रियादिवाचित्वसिद्धिरिति भावः।
केचित्तु नमूक्तसामान्यधर्मो न कर्मपदशक्यतावच्छेदकः, न वा सामान्यतो धात्वर्थजन्यफलशालित्वं तच्छक्यतावच्छेदकमपि तु विशिष्य गम्यर्थजन्यसंयोगशालित्व-त्यज्यर्थजन्यविभागशालित्वादिकमेव तच्छक्यतावच्छेदकं, ग्रामो गमिकर्मत्यादौ गम्यादिपदं तात्पर्यग्राहकम् । न चैवं नानार्थत्वापत्तिरिति वाच्यम् । प्रत्येकमादाय विनिगमनाविरहेण तवापि नानार्थत्वस्य दुरित्वात तत्तद्धातुविशेषवाचकपदसमभिव्याहारस्य नियामकतया गमिकर्मत्यादौ न त्यज्यादिघटितकर्मत्वप्रतीतिः, ग्रामः स्पन्दिकर्मेत्यादिव्यवहारश्च नायोग्यो न वा योग्यः किंत्वपार्थकः कर्मत्वस्य धातुविशेषघटिततया स्पन्दादिधातोस्तन्निरुक्तावप्रवेशादित्यत आह-फलावच्छिन्नेतीत्याहुः ।।
नन्वेवं जानात्यादौ सकर्मकत्वव्यवहारो न स्यात् तत्र फलस्ये शक्यतानवच्छेदकत्वादित्यत आह-भाक्तस्त्विति । जानात्यादेरिति सकर्मकत्वव्यवहार इति शेषः । तथाच यतिप्रभृतिभिन्नत्वे सति सविषयकवाचित्वमेव तत्र सकर्मकत्वमिति भावः । नन्वेवं तद्योगे कथं कर्मप्रत्यय इत्यत आह--ता. शेति । उक्तमुख्य-भाक्तसाधारणसकर्मकव्यवहारविषयधातुयोग एवेत्यर्थः । कर्मप्रत्ययाः द्वितीयादयः । आदिपदात् भोजनाय यतते पुष्पेभ्यः स्पृहयति मातुः स्मरतीत्यादौ चतुर्थी षष्ठयादिपरिग्रहः ।।
केचित्तु ननु यादृशधातुयोगे कर्मप्रत्ययोऽवशिष्यते तस्यैव सकर्मकतया कथं गम्यादेर्मुख्यं जानात्यादेश्च भाक्तं सकर्मकत्वमित्यतआह--तादृशेतीत्याहुः।
नन्वेवं धात्वर्थतावच्छेदके फले कथं प्रातिपदिकार्थस्य साकासत्वादन्वय इत्यत आह--तत्र चेति । फलावच्छिन्नव्यापारवाचिधातुयोगे चेत्यर्थः। तच्च भाधेयत्वं च आकाङ्कावैचित्र्यात् पदार्थतावच्छेदकान्वयित्वस्यैव अत्र साका. सत्वात् । इत्थं च तण्डुलमोदनं वा पचतीत्यादौ तण्डुलौदनादिपदे तण्डुलावयव.
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः।
१२७ अत एव चास्याः पदार्थान्विताधेयत्वबोधकसप्तमीतो भेदः । अस्तु वा कर्माख्यातस्येव द्वितीयाया अपि फलमर्थः । स्याद्वा फलव्यापारी पृथगेव धात्वर्थों विशिष्टस्तु अन्वयबललभ्यः ॥ १२ ॥ परे तद्वृत्तिविक्लित्तिजनकस्पन्दानुकूलयनवांश्चैत्र इत्यादिवोध इति भावः । ननु यदि सुत्राधेयत्वस्य धात्वर्थतावच्छेदकेऽप्यन्वयः तदा ग्रामे गच्छति ग्रामे त्यजतीत्यादावपि समवेतत्वं सप्तम्यर्थोऽस्तु, तच्च धात्वर्थतावच्छेदकफले अन्वेतु, द्वितीया-सप्तम्योर्बोधकतायामविशेषादित्यत आह-अतएव चेति । धात्वर्थतावच्छेदकफलान्विताधेयत्वबोधकत्वादेव चेत्यर्थः । अस्याः द्वितीयायाः भेदः बोधकतायां विशेषः । तथाच पदार्थतावच्छेदके सप्तम्यर्थान्वयस्याव्युत्पन्नतया न तत्र धात्वर्थतावच्छेदकान्वितसमवेतत्वं सप्तम्यर्थः, किन्तु स्थाल्यां पचतीत्यादाविव धात्वर्थान्वितपरम्परासंबन्धावच्छिन्नाधेयत्वमेव तदर्थः । न च तथापि द्वितीया-सप्तम्योः पर्यायतापत्तिर्दुर्वारैवेति वाच्यम् । द्वितीयाया आधेयत्वे निरूढलाक्षणिकत्वात् लाघवादेकत्वादावेव तच्छक्तेरिति भावः ।।
एकदेशान्वयासहिष्णुतायामाह-अस्तु वेति । इत्थं च ग्रामं गच्छतीत्यादौ ग्रामनिष्ठसंयोगजनकसंयोगावच्छिन्नक्रियेत्यादिको बोधः, जनकत्वं संसर्गः दण्डवान् रक्तदण्डवानित्यादिवञ्च न निराकासात्वमिति भावः । फल-व्यापारयोः सबंन्धेऽपि धातोः शक्तिकल्पने गौरवं तादृशसंयोगस्य वारद्वयबोधश्चानुभवविरुद्ध इत्यत आह-स्याद्वेति । फलं संयोगत्वादिविशिष्टं, व्यापारः स्पन्दादिर्वा, धात्वर्थजन्यफलशालित्वमेव च कर्मत्वमुक्तदिशैव च पूर्वोक्तव्यवहारातिप्रसङ्गो वारणीय इति भावः।।
केचित्तु ननु द्वितीयायाः फलार्थकत्वे प्राचीननये ग्रामं गच्छतीत्यादेनिराकाङ्गत्वापत्तिः, प्राचीनैर्दण्डवान् रक्तदण्डवान् इत्यादेरपि निराकाडूत्वाभ्युपगमादित्यत आह-स्याद्वेतीत्याहुः।
विशिष्टस्त्विति । गच्छतीत्यादौ जनकतासंबन्धेन फलविशिष्टो व्यापारः, गम्यत इत्यादौ जन्यतासंबन्धेन व्यापारविशिष्टं फलमित्यर्थः । काख्यातस्थले कलं विशेषणं व्यापारो विशेष्यः, कर्माख्यातस्थले फलं विशेष्यं व्यापारो विशेषणं, व्युत्पत्तिवैचित्र्यात् । कर्मविहितसुपामाधेयत्वमर्थः, तेन ग्रामं गच्छति वैत्र इत्यादौ ग्रामत्तिसंयोगजनकस्पन्दानुकूलकृतिमान् तादृशस्पन्दाश्रयत्ववान् पा चैत्रइत्यायन्वयधीः । कर्माख्यातस्याश्रयत्वमर्थः, तेन गम्यते प्रामश्चैत्रेणेत्यादौ चैत्रनिष्ठकृतिजन्यस्पन्दजन्यसंयोगाश्रयो ग्राम इत्यन्वयधीः । कर्मकृतश्चाश्रयोऽर्थः, न गतो ग्रामश्चैत्रेण इत्यादौ यथोक्तस्पन्दजन्यसंयोगाश्रयाभित्रो ग्राम इत्या'मन्वयधीरिति भावः।
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१२८ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः केचित्तु काख्यातस्थल इव कर्माख्यातस्थलेऽपि फलं विशेषणं व्यापारी विशेष्यः व्युत्पत्तिभेदकल्पनायां मानाभावात् किंतु कर्माख्यातस्यापि फलमर्थः। तेन गम्यते ग्रामश्चैत्रेणेत्यादौ चैत्रनिष्ठकृतिजन्यसंयोगावच्छिन्नस्पन्दजन्यफलशाली ग्राम इत्यन्वयधीः । कर्मकृतश्च फलविशिष्टोऽर्थः, तेन गतो ग्रामश्चैत्रेणेत्यादौ यथोक्तस्पदजन्यफलविशिष्टाभिन्नो ग्राम इत्यन्वयधीः । अतएव परत्वं सुपा प्रकृत्यर्थापेक्षिकं तिडादिना च स्वार्थफलाश्रयापेक्षिकं प्रत्याय्यते इति वक्ष्यमाणव्युत्पत्ति: साधु सङ्गच्छते, अन्यथा तिडादेः फलार्थकत्वाभावादन कल्पे तदसङ्गतत्वापत्तिरित्याहुः॥१२॥
(राम०) ननु यथा सर्वनानां नानाप्रवृत्तिनिमित्तकत्वेऽपि न नानार्थव्यवहारविषयता नानार्थव्यवहारविषयतावच्छेदके सर्वनामभिन्नत्वविशेषणोपादानात् , तथा त्यजि-गम्योर्व्यापारमात्रवाचकत्वेऽपि पर्यायव्यवहारविषयतावच्छेदके त्यजिगमिभिन्नत्वविशषणादेव न पर्यायव्यवहारविषयता इत्यतो पुत्त्यन्तरेण गम्यादीनां संयोगादिरूपफलावच्छिन्नव्यापारे शक्ति व्यवस्थापयति-अपि चेति । 'धात्वर्थेति तद्वात्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वं तहात्वर्थकर्मत्वव्यवहारविषयतावच्छेदकमित्यर्थः, तेन न गमिधात्वर्थतावच्छेदकफलशालिनि त्यजिकर्मत्वप्रसङ्गः । तथाच यदि व्यापारमात्रं गम्यावर्थो न तु संयोगावच्छिन्नव्यापारादिस्तदा गम्यादिकर्मत्वव्यवहारविषयतावच्छेदकस्य दुर्वारत्वापत्तिरिति भवन्मते फलस्य शक्यतावच्छेदकत्वविरहात् धात्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वस्याप्रसिद्धेः प्रकारा. न्तरस्यासंभवाच्च फलस्य धात्वर्थतावच्छेदकत्वमङ्गीकृत्य धात्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वमेव तत्तद्धात्वर्थकर्मताव्यवहारविषयतावच्छेदकं वक्तव्यमिति भावः ।
ननु धात्वर्थजन्यफलशालित्वमेव तत्तद्वात्वर्थव्यवहारविषयतावच्छेदकमितिन तस्य दुर्वचतेत्यत आह-न तु धात्वर्थेति । कर्मत्वमित्यनुषज्यते । पूर्वस्मिन्निति । तत्रापि गम्यर्थ-पत्यर्थस्पन्दरूपव्यापारजन्यपूर्वदेशविभागरूपफलशालित्वस्य सत्त्वादित्यर्थः । त्यजेरिति स्वार्थस्पन्दव्यापारजन्योत्तरसंयोगशालित्वस्य उत्तरदेशेऽपि सत्त्वादित्यर्थः । स्पन्देरिति स्पन्दजन्यविभागस्योत्तरसंयोगस्य वा पूर्वापरदेशयोः सत्त्वेन स्पन्देः सकर्मकत्वप्रसङ्गादित्यर्थः । न चेष्टापत्तिः, स्पन्देरकर्मकधातुत्वादिति भावः । धात्वर्थतावच्छेदकत्वेन फलस्य कर्मत्वविषयतावच्छेदकत्वे च नोक्त दोषः, स्पन्देः केवलस्पन्दशक्तत्वेन फलस्य स्पन्दिधात्वर्थतावच्छेदकत्वाभावादिति ध्येयम् ।
नतु यहात्वर्थजन्ययवफलवत्येव यदात्वर्थकर्मत्वव्यवहारस्तदात्वर्थजन्यतत्फलशालित्वं तद्धात्वर्थकर्मत्वमित्यवगतमेव फलानुसारेण कर्मत्वलक्षणं कर्त्तव्यमित्यत आह-फलेति । धातूनां पच्यादिधातूनां, तथाच पचिधातुः सकर्मकः न भूधातुरित्यादिव्यवहारविषयतावच्छेदकं सकर्मकत्वं वाच्यं तच्च फलावच्छिन्न
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१३ ग्रन्थः]
आख्यातशक्तिवादः।
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व्यापारबोधकत्वादन्यन्न संभवतीति पचधात्वादौ भूधात्वादिव्यावृत्तसकर्मकत्वव्यवहारवलेन पचधात्वादौ फलावच्छिन्नध्यापारशक्तिसितिरिति भावः ।
ननु यदि फलावच्छिन्नम्यापारबोधकधातुत्वमेव सकर्मकधातुत्वं तदा शुद्धमानादिवाचिज्ञाधात्वादीनां सकर्मकत्वव्यवहारानुपपत्तिः, तथाच तत्र सकर्मकधातुयोगविहितकर्मप्रत्ययादिर्न स्यादित्यत आह-भाक्तस्त्विति गौण इत्यर्थः । ज्ञानार्थादेर्शाधात्वादेः सकर्मकत्वव्यवहार इत्यस्यापत्तिः। अत्र च ज्ञाधात्वायन्यत. मत्वमेव भक्तिः। नन्वेवं सकर्मकधातुयोगविहितद्वितीयादिविधायकसूत्रे सकर्मकप. देन यदि फलावच्छिन्नव्यापारगोधकधातुरुच्यते तदा ज्ञानार्थादियोगे द्वितीयानुपपत्तिः, यदि च ज्ञाधात्वायन्यतमधातुरेव तत्रस्थसकर्मकपदार्थस्तदापच्यादियोगे कर्मप्रत्ययानुपपत्तिरित्यत आह--तादृशेति । फलावच्छिन्नव्यापारबोधकपच्या. दि-शादिधात्वावन्यतमयोगे द्वितीयादय इति तत्सत्रार्थ इति नोक्तदोष इत्यर्थः ।
ननु फलावच्छित्रव्यापारस्य धात्वर्थत्वे द्वितीयादेर्न फलमोंऽन्यलभ्यत्वात्, तथाच कथं धात्वर्थप्रातिपदिकार्थयों देन साधादन्वयबोधो भविष्यतीत्वतआह-तत्रेति । तत्र तण्डुलं पचतीत्यादौ । द्वितीययेति । तथाच तत्र द्वितीयार्थाधेयत्वस्यैव धात्वर्थेऽन्वयो न तु प्रातिपदिकार्थस्येति नोकदोष इति भावः । ननु धात्वर्थफले द्वितीयाधेियताया अनन्वयः एकदेशत्वात् , फलाव. च्छिन्त्रव्यापारे व तण्डुलायाधेयताया नान्वयः, अयोग्यत्वादित्यत भाहतश्चेति। द्वितीयार्थाधेयस्वच इत्यर्थः । तथेत्यस्यान्वेतीत्यनेनान्वयः। आकाङ्केति। अन्यत्रैकदेशान्वयस्य निराकाङ्कत्वेऽप्यत्र साकाङ्गत्वे पदार्थैकदेशीभूतफलान्वितवार्थान्वयस्वीकारादित्यर्थः । नन्वेवं तत्र तत्र द्वितीयास्थले सप्तम्यापत्तिः आधे. यत्वतात्पर्यशायां सप्तम्या एव साधुत्वादित्यत आह-अत एवेति । अत रव द्वितीयायाः पदार्थतावच्छेदकान्विताधेयत्वबोधकत्वादेव । तथाच पदार्थान्विताधेयत्वतात्पर्यदशायां सप्तमी,पदार्थैकदेशान्विताधेयत्वतात्पर्यशायां च देतीयेत्यर्थः । नन्वेवं कर्मप्रत्ययस्थले ये ये पदार्था येन येन रूपेण विशेषणीभूय नासन्ते त एव पदार्थाः कर्तृप्रत्ययजन्यबोधे विशेषणीभूय भासन्ते इति पर्वैरवधारितं [तद्विरोधः], कर्मप्रत्ययस्थले धात्वर्थविशेष्यीभूय भासमानस्य गगत्वर्थजन्यफलस्य कर्तृप्रत्ययस्थले धात्वर्थविशेषणत्वेन भानादित्यत आहअस्तुवेति । तथाच जनकतासंबन्धेन द्वितीयार्थफलस्य धात्वर्थ एवान्वयः । इत्थं च एकदेशान्वयोऽपि नास्तीति भावः ॥ १२ ॥
(रघु०) नेनु जातित्वेन घटत्वादिप्रकारकघटपदनिरूपितशक्तिग्रहात्स्वरूपतो टत्वादिप्रकारकबोधापत्तिवारणार्थ निरवच्छिन्नप्रकारतासंबन्धेन शाब्दबुद्धिं प्रति
१' ननु घटादिपदनिरूपितशक्तिशानाजातित्वेन घटात्वादिप्रकारकपदनि.' ति पुस्तकत्रये पाठः।
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१३० वादार्थसंग्रहः
[४ भागः निरवच्छिन्नप्रकारतासंबन्धेन पदनिरूपितशक्तिज्ञानस्य हेतुत्वकल्पनस्यावश्यकतया कथं फलत्वविशिष्टे आख्यातादिपदनिरूपितशक्तिज्ञानात्संयोगत्वादौ शाब्दबोधः । तदा संयोगत्वे उपदर्शितसंबन्धेनोपर्शितकारणविरहात् । नच विषयभेदेन तादृशकार्यकारणभावकल्पने प्रकृतस्थले स न कल्प्यत इति वाच्यम् । विषयभेदेन कार्यकारणभावकल्पनेगौरवात् । न च तदादिपदाद्विशिष्य शाब्दबोधानुपपत्या तथा कल्पनमावश्यकमिति वाच्यम् । अनन्तकार्यकारणभावकल्पनमपेक्ष्य तदादिपदानां विशिष्य शक्तिकल्पनस्यैवोचितत्वादिति प्रकृतेपि विशिष्य शक्तिरावश्यकी त्यभिप्रायेण प्रकारान्तरेण कर्मत्वनिर्वचनमुखेन व्यापारमात्रस्य धात्वर्थत्वे दूषणमाह-अपि चेति । धात्वर्थतावच्छेदकफलेति धोत्वर्थतावच्छेदकतापि फले विवक्षितेत्यर्थः । गमिपत्योः कर्मत्वस्येति । अत्र च धात्वर्थगमनादिक्रियाजन्यविभागरूप फलस्य पूर्वदेशेऽपि सत्त्वाद्गमिपत्योः पूर्वदेशस्यापि कर्मत्वापत्तिः, एवं त्यजिक्रियाजन्यसंयोगरूपफलस्य उत्तरदेशे सत्त्वादुत्तरदेशस्यापि त्यजेः कर्मत्वापत्तिः । तथा स्पन्दजन्यविभागादिरूपफलस्य पूर्वापरदेशयोः सत्त्वात्स्पन्देरुभयत्र कर्मत्वापत्ति: । अतो न धात्वर्थजन्यफलशालित्वं कर्मत्वं, किंतु धात्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वं तत् । तत्र च नोपदर्शितानुपपत्ति:; उत्तरदेशसंयोगरूपफलस्यैव गमधात्वर्थतावच्छेदकतया तस्य पूर्वदेशे अभावात् । एवमधःसंयोगस्य पतेरवच्छेदकत्वात्तस्य च पूर्वदेशे अभावान्न गमिपत्योः पूर्वदेशेऽकर्मत्वापत्तिः । एवं विभागस्य त्यजिक्रियावच्छेदक. तया तस्योत्तरदेशेऽभावान्नोत्तरदेशे त्यजि कर्मत्वापत्तिः । स्पन्देश्च अवच्छे. दकफलाभावेन नोभयत्र कर्मत्वापत्तिरिति । व्यापारमात्रस्य धात्वर्थत्वे ग्रामं गच्छतीत्यादौ कर्मत्वबोधानुपपत्तिरेव दोष इति भावार्थोऽवसेयः । __ननु तत्तद्धात्वर्थजन्यतत्तत्फलशालित्वमित्यननुगतं कर्मत्वमस्तु, अनुगतकर्मत्वनिर्वचने प्रयोजनाभावादतोऽनुगतकर्मत्वनिर्वचनप्रयोजनमाह-फलावच्छिन्नेति । फलजनकेत्यर्थः । सकर्मकत्वव्यवहार इति । तथा च अनुगतकर्मत्वानिर्वचनेन अनुगतसकर्मकत्वव्यवहार विलोपप्रसङ्ग इति भावः ।
नन्वेवं सति जानातीत्यादौ कथं सकर्मकत्वव्यवहार इत्यत आह-भाक्तस्त्विति । लाक्षणिक इत्यर्थः । तथा चोपदर्शितसकर्मकत्वं मुख्यसकर्मकत्वव्यवहारनियामकं सविषयत्वादिकं तु भाक्तसकर्मकत्वव्यवहारनियामकमित्यतो न दोष इति भावः । ननु अननुगतमेव कर्मत्वमस्तु । अनुगतव्यवहाराभावे
१ धात्वर्थतावच्छेदकतावच्छेदकविशिष्टफलेत्यर्थः इति पाठः ।
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः इष्टापत्तेरत आह—तादृशधातुयोग एव चेति । उपर्शित(सकर्मक)धातुयोग एवेत्यर्थः । तथा चानुगतकर्मत्वानिर्वचने सकर्मकधातुयोगे कर्मप्रत्ययविधानस्याननुगतत्वापत्तेरिति भावः । अत्रेदमवधेयम्- यद्यपि धातुत्वस्य तदर्थतावच्छेदकत्वस्य चैक्याभावेन धात्वर्यतावच्छेदकफलशालित्वरूपकर्मत्वमपि नानुगतम् । एवं तादृशसकर्मकत्वविरहेऽपि जानातीत्यादौ यथा तत्तद्धातुयोगे कर्मप्रत्ययविधानं तथा विशिष्य गम्यादियोगेऽपि कर्मप्रत्ययविधानं संभवत्येव । , तथा च तत्तद्धातुयोग्यतत्तत्फलशालित्वरूपाननुगतकर्मत्वनिर्वचनेऽपि न दोषः । कर्मप्रत्ययविधानेऽनुगतशब्दान्तरस्य प्रकारान्तरेणापि संभवादिति व्यापारमात्रस्य धात्वर्थत्वेऽपि न दोषः । तथापि तत्तद्धात्वर्थतत्तक्रियाजन्यफलशालित्वरूपमननुगतकर्मत्वमुक्त्वा व्यापारमात्रस्यैव धात्वर्थत्वे त्यजिगम्योः पर्यायतापत्तिरूपदोषो दुरुद्धर एव ।
ननु फलावच्छिन्नव्यापारस्य धात्वर्थत्वे ग्रामं गच्छतीत्यादौ प्रामादिरूपनामार्थस्य कुत्रान्वयः ? न तावद्धात्वर्यैकदेशे फले, धात्वर्थनामार्थयोर्भेदान्वयबोधानभ्युपगमादतआह–अत्र चेति । ग्रामं गच्छतीत्यादौ चेत्यर्थः। तच्चेति । द्वितीयार्थवृत्तित्वं चेत्यर्थः । आकाङ्कादिवैचित्र्यादिति । पदार्थः पदार्थेनान्वेति न तु पदार्थकदेशेनेति व्युत्पत्तेः संकोचकल्पनादित्यर्थः । तथा च तत्रैव प्रामादिरूपनामार्थस्यान्वयो न तु पदार्थैकदेशे फल इति भावः । ननु ग्रामं गच्छतीत्यादौ धात्वर्थे कर्मकारकस्याधिकरणत्वेनान्वये ' कर्मणि द्वितीया । इति पृथक्सूत्रप्रणयनं निरर्यकमेव, ' सप्तम्यधिकरणे च ' इत्यत्र द्वितीयासप्तम्यावधिकरणे च इति करणेनैव निर्वाहादित्यत आह–अत एवेति । धात्वर्थतावच्छेदकफले द्वितीयार्थवृत्तित्वस्यान्वयादेवेत्यर्थः । तथा च सप्तम्यर्थवृत्तित्वस्य धातुशक्तिमुख्यविशेष्येऽन्वयः । द्वितीयार्थवृत्तित्वस्य धात्वर्थेकदेशे फलेऽन्वय इति स्वमार्य तत्र पृथक्सूत्रप्रणयनमिति भावः ।
नन्वेवं सति पदार्थः पदार्थेनान्वेति न तु पदार्थैकदेशेनेत्येतादृशव्युत्पत्ते: संकोचकल्पने गौरवमित्यत आह–अस्तु वेति । फलमर्थ इति । तथा च फलावच्छिन्नव्यापारस्य धात्वर्थत्वे फलमेव द्वितीयार्थः। तच्च जनकतासंबन्धेन धात्वर्थेऽन्वेति, आधेयत्वं तु द्वितीयार्यकर्मकारकयोः संबन्धमर्यादया भासते । तथा च ग्रामं गच्छतीत्यादौ, ग्रामविशिष्टसंयोगविशिष्टसंयोगानुकूलकृतिम
१ शब्दोत्तरस्य प्रकारान्तरेणाप्यसंभवादिति पाठः । २ कृतिरित्येवेति पाठः।
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१३२
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः
दित्येवान्वयबोध इति भावः । ननु तथाविधवाक्यजन्यबोधे संयोगस्य वारद्वयं भानमनुभवविरुद्धमित्यत आह—आस्तां वेति । न चै गमिपत्योः पर्यायतापत्तिरिति वाच्यम् । यत्पदशक्यतावच्छेदकताव्यापकशक्यतावच्छेदकताकत्वं यत्र तिष्ठति तत्तत्पदानामेव पर्यायत्वादिति भावः ।
ननु फलव्यापारयोर्धात्वर्थत्वे तत्र कयं फलजनकव्यापारबोधनिर्वाह इत्यत आह-विशिष्टस्त्विति । जनकतासंबन्धेन फलविशिष्टव्यापारस्त्वित्यर्थः । अन्वयबललभ्य इति । फलव्यापारयोः परस्परमन्वयालम्य इत्यर्थः । तथा च व्युत्पत्रिविचित्र्यादेकपदार्ययोरपि परस्परान्ययबोधस्वीकारेण तथाविधविशिष्टबोधनिर्वाह इति भावः ॥ १२ ॥
(जय०) ग्रामादेर्गम्यादिकर्मकव्यवहारान्यथानुपपत्त्या धातोः फलार्थत्वं साधयति-अपि चेत्यादि । गमिपत्योरिति । पते: पतनार्थेऽकर्मकत्वं गमनायें तूत्तरदेशकर्मकत्वं, गतावपि तद्धात्वनुशासनात् । अत एव नरकं पतितो नरकपतित इत्यादौ द्वितीयातत्पुरुषोऽपीति भावः । अपतत् पपातेत्यादावुत्तरदेशकर्मकत्वमित्याशयेनेदमित्यन्ये । इदं तु बोध्यम्-पतनस्य पतनत्वजात्या पत्यर्थत्वेऽप्युक्त्वा पवतीत्यादावधःसंयोगावच्छिन्नव्यापारे निरूढलक्षणायां न सकर्मकत्वमिति–पूर्वस्मिन्निति । विभागात्मकफलवत्त्वादिति भावः । उत्तरस्मिन्निति । संयोगात्मकफलवत्त्वादिति भावः । धात्वर्थतावच्छेदकफलवत्त्वं तु नैतेषु । गमे: संयोगावच्छिन्ने पते: क्वचित्संयोगावच्छिन्ने त्यजेर्विभागावच्छिन्ने स्पन्देनिरवच्छिन्ने कर्मणि शक्तिः । इत्थं च प्रामो गमे: कर्मेत्यादौ कर्मपदार्थों धात्वर्थतावच्छेदकफलवांस्तदेकदेशे धातोर्गम्यादेरभेदेनान्व. यानातिप्रसङ्गः। न च कर्मपदं न शक्तं किं तु सांकेतिकमेवेति वाच्यम् । वैयाकरणेन तदये संकेतितत्वेऽपि धातोः फलावच्छिन्नबोधकत्वे सिद्धे व्यवहारादपि शक्तिमहादन्यथा कृतो व्यवहारबलात्कृतो यत्नार्थकता न स्यात् । वस्तुत आद्यव्याकरणकर्तेश्वर एवेत्यदोष इति बोध्यम् ।।
ननु कर्मपदमपि नानार्थ तत्तद्धातुसमभिव्याहारेण विशिष्य तत्फलबोधकमिति नेते दोषा इत्यत आह-फलावच्छिन्नेति । तया च पतिगम्योरपि यदा धात्वर्यतावच्छेदकफलाविवक्षा तदाऽकर्मकत्वमिति भावः । द्विकर्मकघातुत्वं चोभयकर्मान्वितफलावच्छिन्नव्यापारबोधकधातुत्वम् । उभयकर्मणां धातुत्वं वा। यथा गां दोग्धि पयो गोपालक इत्यादौ दुहादिधातः । दुधात्वयों द्रवद्रव्य
१ वापत्तिरिति पाठः।
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१३ ग्रन्थः] माख्यातशक्तिवादः। विभागप्रयोजिका चेष्टा, विभागजनिका चेष्टैव वा । तत्र विभागरूपे फले द्वितीयाद्वयार्थ आधेयत्वमन्वेति । परसमवेतत्वं च चेष्टायाम् । तथा च गोवृत्तिपयोवृत्ति-विभागजनकगोपयोभिन्नसमवेतचेष्टानुकूलकृतिमान् गोपालक इति बोधः । गौर्दुह्यते पयो गोपालकेनेत्यत्र गोपालकवृत्तिकृतिजन्या या पयोवृत्तिविभागप्रयोजकपयोभिन्नसमवेता चेष्टा गोभिन्नसमवेता तजन्यविभागशालिनी गौरिति गोरूपकर्मविशेष्यको बोधः । तस्यैवोक्तकर्मत्वानुशासनेन प्रथमान्तपदोपस्थाप्यत्वात् , दलद्वयविभागयोरेक्यं व्युत्पत्तिसिद्धम् । तेन देवदत्तेन दिशं कालस्त्यज्यत इति न प्रयोगः । दिवृत्तिविभागानुकूलस्पंदजन्यविभागाश्रयत्वेऽपि कालस्य, कालदेशविभागयोरैक्याभावात् । परसमवेतत्वोपादानाद्विहगेन स्वात्मानं त्यज्यते महीरुह इत्यादयो न प्रयोगाः। एवं कर्तृप्रत्ययेऽप्युदाहार्यम् । नीधातुरपि प्राप्त्यवच्छिन्नक्रियावाची द्विकर्मकः । प्राप्तिामभारादिफलस्य कर्मद्वयान्वितत्वात् । क्रिया परंपरया प्राप्त्यनुकूला चैत्रादिनिष्ठा ग्राह्या, न तु भारादिनिष्ठा परसमवेतत्वाभावात् । अन्यथा चैत्रश्चैत्रं ग्रामं नयतीत्यादिप्रयोगापत्तेश्च । स्वयमेव स्वं नरकं नयतीत्यादिप्रयोगसंभवे गौणत्वमेव । तथा च चैत्रो भारं ग्रामं नयति, चैत्रेण नीयते भारो ग्राममित्यादावप्युक्तप्रायो बोधः । अत्र प्रधानभारकर्मविशेष्यको बोधः । तस्यैवोक्तत्वादिति विशेष:। तदुक्तम्-दुहादेौणकं कर्म नीरुहा (हृा) देः प्रधानकम् । इति । ग्रामं गमयति देवदत्तं मैत्र इत्यत्र च ग्रामो गमे: कर्म, देवदत्तश्च कर्ता, तदुत्तरं द्वितीयापि कर्तृबोधिका । कर्तृत्वं च गमादिधात्वर्थे । तथा च प्रामवृत्तिसंयोगजनिका ग्रामान्यसमवेता क्रिया देवदत्तकर्तृकर्मा, तदनुकूलव्यापारो देवदत्तान्यसमवेतस्तदाश्रयो मैत्र इति बोधः । ग्रामो गम्यते देवदत्तं मैत्रेणेत्यत्र प्रधानकर्मग्रामविशेष्यको बोधः । ददातेश्च स्वत्वध्वंस एव धात्वर्थतावच्छेदकं फलं, न तु परस्वत्वं, तेन संप्रदाने न कर्मत्वापत्तिः । स्वत्वस्य संप्रदानानिष्ठत्वान्न तदापत्तिरिति चेत्, तथापि दानात्स्वस्वत्वध्वंसमात्रं, परस्वत्वं तु प्रतिबन्धकाभावविशिष्टप्रतिग्रहादिति मते तस्य परस्वत्वानवच्छिन्नत्वात् , गृह्णातीत्यादौ ददात्यप्रयोगात् , स्वत्वध्वंसावच्छिन्नव्यापारविशेषाभावात्, परस्वत्वोद्देश्यकत्वस्य ददात्यर्थान्तर्भूतत्वाद्वा । अतएव न तत्फलं ददातेः । प्रतिग्रहादिधातोस्तु स्वत्वं फलमित्यलमप्रकृतेन ।
नन्वेवं धात्वर्यतावच्छेदकं फलं यत्र नास्ति तत्र जानात्यादौ सकर्मकत्वव्यवहारे न स्यादत आह-भाक्तस्त्विति । न तु यादृशधातुयोगे कर्मप्रत्ययो
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२३४ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः नुशिष्यते तादृशत्वमेव सकर्मकत्वमस्त्वित्यत आह-ताशेति । मुख्यभाक्तगधारणसकर्मकघातुयोग एवेत्यर्थः । तत्र चेति । आधेयत्वस्याखण्डत्वे आधेयत्वे शक्तिरितरथाधेयत्वे निरूढलक्षणा । लाघवादेकत्वादावेव शक्तेरिति बोध्यम् । तच्च आधेयत्वं च । अत एव द्वितीयार्थाधेयत्वस्यैकदेशान्वयित्वादेव । पदार्थान्वितेति । भूतले घट इत्यादौ पदार्थ एव सप्तम्यर्थाधेयत्वमन्वेति, न तु पदार्थकदेश इति न ग्रामे त्यजतीति प्रयोग इति भावः । अथ स्तोकमा प्रयातीत्यादौ सप्तम्यर्थस्य कान्वयः ? गमन एवेति चेत्तर्हि सजतीत्यत्र त्यागेऽप्यस्त्विति चेत् भवत्येव । द्वितीयाथैकदेशे फल एवान्वयाब्रीकारात् । अतएव कर्माकाङ्क्षाप्यत्र । तर्हि प्रयातीत्यत्रापि सा स्यादिति चेत् स्यादेव । काश्यामयं गृहं प्रयातीति प्रयोगात् । अत्र हि सप्तम्यर्थोऽवछिन्नत्वमेवेति फलान्वयाकाङ्क्षा युक्तैव । नच स्वावयवे गच्छतीत्यपि स्यात् । स्वावयवाद्यतिरिक्तावच्छिन्नत्व एवात्र सप्तम्या निरूढत्वात् । एतेन भूमाव. प्यत्वयः पतेरधःसंयोगावच्छिन्नव्यापारे शक्तौ सप्तम्यर्थस्यैकदेशान्वय एव संभ. वति । अवच्छिन्नत्त्रस्य सप्तम्यर्थत्वे स्वावयवे पततीत्यादेः प्रसङ्गादित्यपि प्रत्युक्तम् । अथ पथि काश्यां गच्छतीति न स्यात् गमनस्य काश्यनवच्छिन्नत्वादिति चेत्, न, आधेयत्वसप्तम्यर्थस्याप्येकदेशान्वयात् । न चात्र फल. व्यापारी, यथायथमर्थ इति तत्प्रयोगोपपत्तिः । गत्यादिमत्त्वमात्रप्रतीतेरिति प्रकृतग्रंथविरोधादिति ध्येयम् । एकदेशान्वयासहिष्णुराह-स्तुवेति । इत्थं च प्रामं गच्छतीत्यादेामनिष्ठसंयोगजनकक्रियेत्यादिबोध: । नन्वेवं व्यापारमात्रं पात्वर्थोस्तु सकर्मकत्वव्यवहारस्तु कुत्रचिदेवार्थकस्यचिदेव धातोः फलतद्वितीयादिसाकाङ्क्षत्वादेव । नच द्वितीयादे: फले शक्त्यन्तरमपेक्ष्य क्लप्तधातुशक्तेखच्छेदकत्वमेव लघु । एकदेशान्वयापत्तेः । फलव्यापारयोजनकत्वात्मके संबन्धेऽपि शक्तेर्वक्तव्यत्वेन तथैव गौरवाच । किंचात्मनेपदस्यैव फले धातो.
ापारमात्रे शक्तिर्गम्यत इत्यादावेव मुख्यप्रयोगः । ग्राम गच्छतीत्यादौ तु संयोगावच्छिन्नव्यापारे धातोर्लक्षणा । किंवा द्वितीयाया एव फले धातोापारमात्रे शक्तिः । ग्रामं गच्छतीत्यादावेव मुख्यः प्रयोगो गम्यत इत्यादौ घातोापारजन्यफले आख्यातस्याश्रयत्वे लक्षणेत्यत्र विनिगमकाभावाद्वितीयायाः कर्माख्यातस्य च फलमर्थोऽस्तु, धातोस्तु व्यापारमात्रम् । इत्थं च फलस्यापि न द्विधा भानमिति चेत्, न त्यजिगम्यादेः पर्यायतापत्तेरुक्तत्वात् । अथ द्वितीयात्मनेपदयोर्न फलमर्थः, किंतु घातोरेव । तदर्थफलेनेवोभयत्र
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१३ ग्रन्थः ]
आख्यातशक्तिवादः ।
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भूमिं प्रयाति विहगो विजहाति महीरुहं न तु स्वात्मानमित्याद्यनुरोधात्, क्रियान्वयि परसमवेतत्वमपि कर्मप्रत्ययार्थः । इयांस्तु विशेषो यत्परत्वं सुपा प्रकृत्यर्थापेक्षिकं तिङादिना च स्वार्थफलाश्रयापेक्षिकं प्रत्याय्यते ॥ १३ ॥
निर्वाहादित्यभिप्रेत्याह- आस्तां वेति । विशिष्टस्त्विति । गच्छतीत्यादौ जनकतया फलविशिष्टो व्यापारः, गम्यत इत्यादौ जन्यतया विशिष्टं फलमित्यर्थः । वस्तुतः प्रयोजकत्वं प्रयोज्यत्वं वा संबन्धः । तेन पथा गच्छति काश्यां गच्छतीत्यादिप्रयोगोऽपि संभवति । सप्तम्यर्थस्यापि गम्याद्यथं एव फलबलादन्वयस्वीकारादिति दिक् । एवं च द्वितीयाया आधेयत्वं कर्माख्यात• स्याश्रयत्वं कर्मकृतामाश्रयोर्थः । एवं क्रमेण फलार्थाभिघान एव च द्वितीयेति बोध्यम् ॥ १२ ॥
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( मथु० ) अनुरोधादिति । गमनादिफलस्य भूमिवृक्षादिनिष्ठसंयोगविषागादेरात्मनिष्ठत्वेऽपि आत्मानं प्रयाति, आत्मानं विजहातीव्यायव्यवहारादिति भावः । परसमवेतत्वस्य फलान्वयित्वे तद्दोषतादवस्थ्यादुक्तं क्रियान्वयीति धात्वर्थान्वयीत्यर्थः तच्च कुत्र तस्यान्वय इति बोधनाय, न तु तदन्तर्भावेनार्थः । समवेतत्वमपि तेन संबन्धेन परस्यान्वयबोधनाय । परमेव चार्थः, परत्वं भिन्नत्व यथाकथंचित्संबन्धेनान्वये कालिकादिसंबन्धमादाय उक्तदोषतादवस्थ्यादिति ध्येयम् । किमपेक्षया परत्वप्रतिपत्तिरित्यत आह-इयां स्त्विवि सुपा कर्मविहितसुपा । प्रकृत्यर्थेति स्वार्थाधेयत्वादि प्रकारीभूता या व्यक्तिः तदपेक्षिकमित्यर्थः । आदिपदात् अस्तु वा कर्माख्यातस्यैव द्वितीयादेि फलमर्थ इति मते स्वार्थफलपरिग्रहः । इत्थं च भूमिं प्रयाति इत्यादौ भूमिवृत्तिसंयोगजनक भूमि भित्रसमवेतस्पन्दाश्रय इत्याद्यन्वयबोधः भूम्यादेर्भेदबदेकदेशभेदेऽन्वयश्च । द्वितीयार्थाधेयत्वादौ प्रकारीभूता या भूम्यादिव्यकिस्तव्यक्तित्वावच्छिन्न प्रतियोगिता संबन्धेन तथैव व्युत्पत्तेः नतु प्रतियोगिता सामायेन, प्रकृत्यर्थावच्छेदकावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्वसंबन्धेन वा, आये विहया महीरुहगमनदशायां विहगो विहगं गच्छतीति प्रयोगापत्तेः, विहगस्यापि व्यासज्यवृत्तिधर्मावच्छिन्नप्रतियोगिता कविहगभेदवत्वात् । द्वितीये प्रमेव गच्छतीत्यादिव्यवहारस्यायोग्यत्वप्रसङ्गात् विहगस्प विहगान्तरम मनदशाना
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१३६
वादार्थसंग्रहः [४ भागः मपि विहगो विहगं गच्छतीति व्यवहारस्यायोग्यस्वप्रसङ्गाच्च । उभयकर्मजसंयोगस्थलेऽपि, मल्लो मलं गच्छति, मेषो मेषं गच्छति, इत्यादयः प्रयोगा इष्टा एव, स्वस्मिन् स्वनिष्ठसंयोगजनकस्वभिन्नसमवेतस्पन्दाश्रयत्वाभावाच्च, मल्लः स्वं स्वयं गच्छतीत्यादिको न तत्र प्रयोगः । अथैवं दीर्थतन्त्वादिस्थले तन्तुस्तन्तुं गच्छति, इति व्यवहारो न स्यात् , तन्तोर्गमने तन्तुभिन्नसमवेतत्वस्य बाधात् । नच संयोगस्य द्विष्टतया स्वस्मिन् स्वसंयोगाभावेन तद्वाक्यमयोग्यमेवेति वाच्यम, संयोगस्य धवच्छिन्नत्वनियमेऽपि द्विसमवेतत्वनियमे मानाभावेन स्वस्मिन्नपि स्वक्रियया अवच्छेदकान्तरे स्वसंयोगे बाधकाभावात् । अन्यथा एकतन्तुकपटं प्रति असमवायिकारणस्यासंभवाद, अंशद्वयसंयोगस्य विरुद्धत्वात् , नहि तत्रांशुदयमेव पटसमवायिकारणं द्रव्यवति द्रव्यान्तरानुत्पत्त्या तन्तुमत्यंशौ पटोत्पत्तेरसंभवात् , मूर्तयोः समानदेशताविरोधाच्च । न द्रव्यारम्भकतावच्छेदकसंयोगनिष्ठवजात्यस्य फलबलकल्प्यतया तन्तुनिष्ठपवनादिसंयोग एव तत्र पटासमवायिकारणं, तन्तोस्तादात्म्यसम्बन्धेन पटसमवायिकारणतया च पवनादौ न पटोत्पत्तिः, समवायिमावत्तिसंयोग एवासमवायि. कारणमिति नियमस्य पाकजस्थल एव व्यभिचारादिति वाच्यम् । तथापि तत्र मूलापावच्छेदेन तन्तुसंयुक्तस्तन्तुरिति प्रत्ययस्य विना बाधकं भ्रमत्वायोगात् इति चेत्, न, स्वस्मिन् स्वसंयोगाभ्युपगमेऽपि तन्तुस्तन्तुं गच्छती. त्यत्र तन्तुपदद्वयस्य तन्त्ववयवे लाक्षणिकत्वात् । 'रामरावणयोर्युद्धं रामरावण. योरिव'इत्यादौ सादृश्यघटकतद्भिन्नत्वांशस्येव कर्मप्रत्ययार्थस्य परसमवेतत्वांशस्यापि बाधेन तत्रानन्वयेऽपि क्षतिविरहाच्च । नचैवं परसमवेतत्वस्यायोग्यतया अनन्वयेऽपि केवलाधेयत्वांशमादाय विहगस्य महीरुहगमनदशायां विहगो विहगं गच्छतीत्यपि प्रयोगापत्तिरिति वाच्यम् । द्वितीयायाः कर्तृत्वे लक्षणयैव केवलाधेयत्वांशमादायापि तत्र तादृशप्रयोगस्येष्टत्वात् ।
केचित्तु · परसमवेतत्वाधेयत्वायुभयविषयकशाब्दत्वस्यैव गम्यादिधातुसमभिव्याहृतद्वितीयादिज्ञानकार्यतावच्छेदकतया केवलाधेयत्वांसमादाय विहगस्य महीरुहगमनदशायां विहगो विहगं गच्छतीति न प्रयोगः । तन्तुस्तन्तुं गच्छतीस्यादौ तन्तुद्वयपदे लक्षणैव गतिः,गम्यादिपदसमभिव्याहृतत्वस्य द्वितीयादि. विशेषणतया पचेः साकासत्वाद्विक्लित्तिजनकक्रियायां शक्तिरिति मते पाके परसमवेतत्वस्य बाधितस्वेऽपि तण्डुलं पचतीत्यादिवाक्यस्य नायोग्यत्वापत्तिः, न वा आत्मविषयकसाक्षात्कारस्य आत्मभिन्नसमवेतत्वेप्यात्मानमात्मा साक्षाकरोतीत्यादिवाक्यस्यायोग्यत्वापत्तिरित्याहुः।
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१३ प्रन्यः ] आख्यातशक्तिवादः।
१३७ तिङादिना चेति । कर्मविहिततिादिना चेत्ययः । आदिपदात् कर्मविहितकृत्परिग्रहः । स्वार्थफलाश्रयापेक्षिकमिति स्वार्थफलांशे विशेष्यीभूता या व्यक्तिस्सदपेक्षिकमित्यर्थः, प्रकृत्यर्थापेक्षया परत्वबोधने महीरहगमनदशायामपि विहगो विहगेन गम्यते इति प्रयोगापत्तेः । गमनस्य गमनभिन्नसमवेतत्वात, एवं च भूमिर्गम्यते विहगेनेत्यादौ विहगनिष्ठकृतिजन्यभूमिभित्रसमवेतसंयोगावच्छिनस्पन्दफलशालिनी भूमिरित्यन्वयबोधः । भेदे भूम्यादेः संसर्गश्च तिर्थफलांशे विशेष्यीभूता या व्यक्तिस्त्वद्वयक्तिस्वावच्छिनप्रतियोगितासंबन्धेन तथैव व्युत्पत्तेः, व्युत्पत्तिवैचित्र्याच प्रथमान्तपदोपस्थाप्यस्याख्यातार्थे, आख्यातार्थस्य धात्वर्थे विशेषणतयाऽन्वयः । स्वर्गकामो यजेतेत्यादाविव आख्यातार्थद्वयपुटितस्यापि धात्वर्थस्यान्वयः स्वभिन्नसमवेतगमनस्य स्वकर्तृकत्वाभावादुभयकर्मजसंयोगस्थले मल्लः स्खं स्वेन गम्यते इति न प्रयोग इति भावः । एतच फलावच्छिन्नव्यापारस्य धात्वर्थत्व. मिति प्रथमकल्यानुसारेण, स्याद्वा फलव्यापाराविति द्वितीयकल्पे आश्रयत्वस्य कर्माख्यातार्थत्वमते आश्रयत्वांचे विशेष्यीभूता या व्यक्तिस्तदपेक्षिकमिति बोध्यम् । अन्वयबोधे त्वयं विशेषः-यत्तदेतन्मते संयोगावच्छिन्नं न स्पन्दविशे. षणं शालित्वं च प्रकार इति ध्येयम् ।
केचित्तु भेद एवार्थो न तु भेदवदेकदेशान्वयापत्तेः, भेदस्य च क्रियायां विशेषणत्व-समवायोभयघटितसामानाधिकरण्यसंबन्धेनान्वय इत्याहुः।।
केचित्तु परसमवेतत्वं परो वा न द्वितीयार्थः, किंत्वन्योन्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वं प्रतियोगितावच्छेदकतासंबन्धनान्योन्याभावो वा द्वितीयादेरर्थः, अन्योन्याभावे च द्वितीयार्थाधेयत्वादौ प्रकारीभूता या व्यक्तिः सैव निष्ठतासंबन्धेन प्रकार इति व्युत्पत्तेः। तेन विहगस्य महीरहगमनदशायां विहगो विहगं गच्छतीति प्रयोगो न योग्यः, योग्यश्च विहगस्य विहगान्तरगमनदश्शायां विहगो विहगं गच्छतीति प्रयोगः, कर्माख्यातस्थले तु तदर्थफलांचे विशेष्यीभूता या व्यकिः सैव निष्ठतासंबन्धेनान्योन्यामा प्रकार इति व्युत्पत्तिः । तेन विहगस्य भहीरुहगमनदशायां विहगो विहगेन गम्यते इति प्रयोगो न योग्यः, योग्यश्च विहगस्य विहगान्तरगमनदशायां विहगो विहगेन गम्यते इति प्रयोग इत्याहुः । तदसत् । जात्यतिरिक्तपदार्थस्य स्वरूपतोऽनवच्छेदकतया प्रतियोगितावच्छेदकत्वस्य विकल्पासहत्वादिति ध्येयम् ॥ १३ ॥
(राम०) ननु विहगो भूमि प्रयातीतिवद्विहगः स्वात्मानं प्रयातीति प्रयोगः स्या, न स्याच विहगः स्वारमानं न प्रयातीत्यादिकम् ।
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वादार्थसंग्रहः ।
[४ भागः बस भूमिटत्तिसंयोगात्मकफलजनकप्रयाणाश्रयत्ववत्, स्वात्मवृत्तिसंयो. मात्माफलजनकप्रयाणाश्रयत्वात् , संयोगस्य द्विष्ठत्वादिस्यत आह-भूमि प्रयातीति । प्रयातीत्यत्र संयोगावच्छिन्नव्यापारो धात्वर्थः, द्वितीयायाः संयोगः । विजहातीत्यत्र धातोर्विभागावच्छिन्नव्यापारो द्वितीयायाश्च विभाग इति नाविशेषः । अनुरोधादिति । पञ्चम्यन्तं परसमवेतवं कर्मप्रत्ययार्थ इत्यत्र हेतुत्वेन योज्यम् । परसमवेतत्वं कान्वेतीत्याकाङ्क्षायामाह-क्रियान्वबीति । फलान्वयित्वे च फलस्य द्विष्ठतया पूर्वोक्त एव दोपः स्यादिति मावः । परस्वं च भिन्नत्वं, तथा च विहगो भूमि प्रयातीत्यादौ विहगः भूमिभिन्न समवेतभूमित्तिसंयोगजनकप्रयाणाश्रय इत्यन्वयबोधः । प्रयाणं च ममनं समवेतान्तं जनकान्तं च प्रयाणान्वितम् । एवं विजदातीत्यादौ विहगः भूमिभिन्नसमवेतभूमिवृत्तिसंयोगजनकविहानाश्रय इत्यन्वयबोधः । भिन्नघसम्मेः प्रतियोगितासंबन्धेनान्वयः । एकदेशत्वेऽप्याकाङ्क्षाबलेन तस्य व्युत्प. नत्वात् । न च तथापि उभयकर्मजसंयोगस्थले विहगः स्वात्मानं प्रयातीति प्रयोगापत्तिः । तत्र प्रयाणस्य आत्मभिन्नसमवेतत्वात् स्वात्मवृत्तिजनकत्वा. बेति वाच्यम् । तादृशप्रयाणस्य विहगे बाधादेव तथा प्रयोगासंभवात् । बन भेदे भूम्यादे मित्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्वसंबन्धेनान्वयस्वीकारान्न पृ. थिवी प्रयाति विहग इत्यादौ बोधः । विहगस्यापि पृथिवीत्वेन विहगटत्तिप्रयाणस्य पृथिवीवावच्छिन्न प्रतियोगिताकभेदवत् समवेतत्वाभावात् । यदि च पृथिव्याः केवलप्रतियोगित्वसंबन्धेन भेदेऽन्वयः स्वात्मानं प्रयातीत्यपि स्यात् । स्वात्मनोऽपि स्वात्म-घटोभयत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकभेदवत्वेन तथाखात् । मैवम् । तव्यक्तित्वावच्छिनप्रतियोगिताकस्वसंबन्धेन पृथिव्यादेरन्वयस्वीकारात् । अन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वबोधस्य चावानभ्यु
मात् । यद्वा । भेदप्रतियोगितावच्छेदकत्वमेव परसमवेतत्वपदेन विवक्षि. नम् । तथा च स्वात्मवृत्तिभेदप्रतियोगितावच्छेदकाश्रयस्य स्वस्मिन् बाधानरो
न तथा प्रयोग इत्याशयात् । इत्थं च भूमि प्रयाति विहगो न स्वात्मानमित्यादौ ना स्वात्मभिन्नसमवेतत्वस्याभावो वा धास्वर्थे प्रयाणे प्रतीयते । तथाच विहगः भूमिवृत्तिसंयोगजनकभूमिभिन्नसमवेतत्ववत्स्वात्मसमवेतत्वाभाववत् प्रयाणानुकूलवर्तमानकृतिमानित्यन्वयबोधः । अत्र च जनकान्तं भूमिमिन्नसमवेतत्वं स्वभिन्नसमवेतत्वाभाववत्वं च एकत्र द्वयमिति रीत्या प्रवाणविशेषणम् । एवं विहगो महीव्हं विजहातीति न स्वात्मानमित्यादौ बिहमः महीलामिनसमवेतमहीलहत्तिविभागजनकस्वात्मभिन्नसमवेतत्वाभावा
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.१३९
१३ ग्रन्थः ] आख्यातशक्तिवादः। । विहानानुकूलकृतिमानित्यन्वयवोषः । विहानं च विभागावच्छि नस्पन्दः । तदवच्छिन्नत्वं च जनकतासंबन्धेन विभागविशिष्टत्वं विशेषणं पूर्ववदिस्यन्यत्र विस्तरः । ननु भूमि प्रयातीत्यादौ यथा कर्मप्रत्ययेन द्वितीयया स्वप्रकृत्यर्थभूम्यपेक्षया परसमवेतत्वं प्रत्याय्यते तथा विहगेन भूमि प्रयातेत्यादावपि कर्मप्रत्ययेनाख्यातेन स्वप्रकृत्यर्थधात्वर्थप्रयाणापेक्षया परसमवेतत्वं प्रत्याय्यते । तथाच विहगवृत्तिकृतिजन्यप्रयाणभित्रसमवेतप्रयाणजन्यफलाश्रयो भूमिरित्यन्वयबोधः । फलं संयोग इति पर्यवसितम् । न चेदं संभवति, विहगेन स्वात्मा प्रयायते इत्यादेः प्रसङ्गात् । विहगटत्तिकृतिजन्यप्रयाणभिन्नसमवेतप्रयाणजन्यफलाश्रयत्वस्य भूमाविव विहगेऽपि सत्वात् संयोगस्य द्विष्ठत्वादित्यत आह-इयांस्त्विति । परत्वं परसमयेतत्वम्, सुपा द्वितीयादिना, प्रकृत्यर्थापेक्षिकं प्रकृत्यर्थभूम्यादिभिन्नसमवेतत्वम् । तिडा कर्माख्यातेन । स्वार्थेति । स्वार्थों यत्फलं तदाश्रयः म्यादिभित्रसमवेतत्वमित्यर्थः । तथाच भूमिभिन्नसमवेतत्वादिप्रत्ययः कर्तृकर्मस्थले तुल्य एव, किंतु कर्तृप्रत्ययस्थले कर्मप्रत्ययप्रकृत्यों भूमिः कर्मप्रत्ययस्थले च न प्रकृत्यर्थ इत्येव विशेष इत्यर्थः । नचैवं प्रकृत्यान्वितस्वार्थबोधकत्वं प्रत्ययानामिति व्युत्पत्तिविरोधः । कर्मप्रत्ययस्थले परसमवेतस्वस्याप्रकृत्यर्थभूम्यन्वितत्वादिति वाच्यम् । अप्रकृत्यर्थभूम्यन्वितस्यापि तस्य प्रकृत्यर्थप्रयाणे. विशेषणत्वेन तदन्वयस्याप्रत्ययेन तादृशव्युत्पत्तेरविरोधात् । नहि प्रकृत्यर्थमात्रान्वितस्वार्थबोधकत्वपुत्पत्तिः, असंभवात् । घटमानयेत्यादावपि घटान्वितकर्मत्वस्यानयनेऽप्यन्वयादिति दिक् ॥ १३ ॥ . ( रघु० ) ननु धात्वर्थतावच्छेदकफलशालिस्वरूपस्य कर्मत्वरूपत्वे भूमि प्रयाति विहग इत्यादिवत्स्वात्मानं प्रयाति विहग इत्यादिप्रयोगापत्तिः, तत्र संयोगादिरूपफलस्य द्विष्ठतया स्वात्मनोऽपि तादृशफलाश्रयत्वसमवेन स्वात्मवृत्तितादृशफलानुकूलव्यापारानुकूलकृतिमान् विहग इत्यादिशाब्दबोध. संभवादित्यत आह-भूमि प्रयातीत्यादि । क्रियान्वयीति । एतेन परसमवेतत्वस्य द्वितीयार्थत्वेऽपि तस्य फले अन्वये संयोगादिरूपतत्फलष्ठितया स्वात्मवृत्तित्वेन तथाविधप्रयोगवारणासंभव इति निरस्तम् । ननु परसमवेतत्वमित्यत्र किमपेक्ष्य परत्वं विवक्षितम् । प्रकृत्यर्थापेक्षयेति चेत्, न । चैत्रेणात्मा गम्यत इति प्रयोगापत्तिः । तत्र प्रकृत्यर्थगमनापेक्षया आत्मनः परत्वादित्यत आई-इयांस्स्विति । विशेषमेव व्युत्पादयति यत्परत्वमित्यादिना ।
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वादार्थसंग्रहः । [४ भागः तिङादीत्यत्र आदिना कर्मकृत्परिग्रहः । स्वार्थेति । स्वार्थो यत्फलं तदाश्रयापेक्षयेत्यर्थः । इदं च फलावच्छिन्नव्यापारादेर्धात्वर्थत्वपक्षे । फलव्यापारयोर्धात्वर्थत्वपक्षे साख्यातादेराश्रयत्वाद्यर्थकतया स्वार्थाश्रयत्वाश्रयापेक्षयेत्यर्योऽवसेयः । तथाच ग्रामं गच्छतीत्यादौ ग्रामान्यवृत्तियों ग्रामवृत्तिसंयोगानुकूलस्पन्दस्तदनुकूला कृतिरित्येवान्वयबोधः । एवं चैत्रेण गम्यते प्राम इत्यादौ प्रामान्यवृत्तियों ग्रामवृत्तिसंयोगानुकूलस्पन्दस्तजन्यफलवान् तदाश्रयतावान् ग्राम इत्यन्वयबोध इति भावः ॥ १३ ॥
(जय०) क्रियान्वयीति । क्रिया धात्वर्थस्तदन्वयीत्यर्थः । इदं च परसमवेतस्यान्वयानुयोगिज्ञानार्थ, न तु तस्यापि शक्ती प्रवेश इति बोध्यम् । अत्र च विहगो भूमिं प्रयातीतिवदात्मानं प्रयातीत्यपि स्यात् । आत्मनिष्ठ. संयोगजनकक्रियावत्त्वस्यापि विहगे सत्त्वादिति परसमवेतत्वमपि द्वितीयार्थः । तस्य फलान्वयित्वे स एव दोषः; विहगभूमिसंयोगफलस्य विहगान्यभूमिसंयोगत्वादिति धात्वर्थे तस्यान्वय उक्तः । एवं च विहगान्यसमवेतत्वस्य क्रियायामन्वयानातिप्रसङ्ग इति प्रघट्टार्थः । ननु सर्वत्र प्रकृत्यर्थावधिकपरत्वस्य कर्मप्रत्ययार्थत्वे स्वात्मा गम्यत इत्यपि स्यात् । आत्मनेपदप्रकृतिधात्वर्थगमनभिने गमनस्य समवेतत्वादत आह-इयांस्त्विति । स्वप्रकृत्यर्थेति । इत्थं च भूमिं प्रयातीत्यत्र भूमिनिष्ठफलजनकभूमिभिन्नसमवेतगमनाश्रयत्ववानिति बोधः । तिङा दिनेति । आदिना कृत्यपरिग्रहः । स्वार्थेति । स्वार्थीभूतं. यत्फलं तदाश्रयेत्यर्थः । बाश्रयेति जनकीभूतधात्वर्थवारणाय स्वार्थफलविशेष्येत्यर्थकम् । अत्र च प्रथमांतपदोपस्थापितस्य भूम्यादेः परत्वे विशेषणतयाऽन्वयो व्युत्पत्तिवैचित्र्यात् । तथाच भूमिर्गम्यते विहगेनेत्यादौ विहगभूमिभिन्नसमवेतगमनजन्यफलशालिनी भूमिरित्यन्वयो बोध्यः । परवृत्तित्वं कालिकादिसंबन्धेनातिप्रसक्तमिति समवेतत्वमुक्तम् । तत्र यद्यपि परमर्थः समवेतत्वं संसर्ग इत्येव युज्यते वक्तुं, तथापि द्वितीयादेर्लाघवासंयोगादौ संख्यादावेव वा शक्तेः परस्मिन्नपि लक्षणैव । तथापि लक्षणायां लाघवस्याकिंचित्करत्वात् परसमवेतत्वमुक्तम् । यद्विहगकर्मकै गमनमप्रसिद्धं तद्विहगो भूमिं गच्छति, नतु तद्विहगमित्यादौ तद्विहगकर्मत्वाभावस्य गमने तद्विहगनिष्ठसंयोगजनकत्वाभावरूपस्याप्रसिद्धत्वात्तजनकत्वाद्यभावस्य चापदार्थत्वात्तविहगान्यसमवेतत्वाभावस्यान्वयो वाच्य इति समवेतत्वपर्यन्ते निरूढलक्षणाया आवश्यकत्वे सर्वत्रैव तथा । न चात्र परसमवेतत्वस्यायोग्यतयानन्वयेऽप्यात्मानं गच्छतीति प्रयो.
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१३ ग्रन्थः] माख्यातशक्तिवादः। १४१
घटं जानाति, इच्छति कुरुते, 'चैत्रः।मैत्रेण ज्ञायते इष्यते, क्रियते घट इत्यादौ सविषयकपदार्थाभिधायिधातुयोगे कर्मप्रत्ययेन यथायथं विषयित्वं विषयत्वं च कर्तृतिङा स्वाश्रयत्वं तृतीयया चाधेयत्वं बोध्यते ॥ १४ ॥ गापत्तेरिणायैकत्रोच्चारणान्तर्भावेन पुष्पवन्तादिपदवच्छक्तिरेवेति वाच्यम् , तथा सत्याधेयत्वपरसमवेतत्वयोरेकशक्तिविषयत्वे फले आधेयत्वस्य व्यापारे परसमवेतत्वस्यान्वयानुपपत्तेः । तथाच शक्तिद्वयमेव वाच्यमिति लक्षणैवास्तु । व्युत्पत्तिवैचित्र्याच्च नैकं विहायान्यबोध इति भावात् । एवं च तन्दुलं पचतीत्यादौ च विक्लित्ति: फलं, संयोगोऽनिसंयोगो वा धात्वर्थः । तथाच तंदुलनिष्ठफलजनकतंदुलान्यसमवेतक्रियानुकूलकृतिमत्त्वमर्थों बोध्यः । परत्वं च भेदवत्त्वम् । भेदे, चैकदेशे तत्तयक्तित्वावच्छिन्नप्रतियोगितया वस्तुगत्यान्वयि. प्रकृत्यर्थादेरन्वयो बोध्यः । तेन नरो नरं प्रतियातीत्यादेव्यक्तिभेदाभिप्रायकस्य नानुपपत्तिरिति बोध्यम् । अत्र द्वितीया प्रथमान्तार्थस्य विशेषणतया स्वार्थपरसमवेतत्वान्वितस्य धात्वर्थस्य पुनः स्वार्थान्तरे फलेऽन्वयस्य वाऽन्यत्रादृष्टस्य कल्पना नौचित्यात्, लाघवाच्च भेद एवार्थः । भेदस्य क्रियया सामानाधिकरण्यं, कर्मणा चं प्रतियोगित्वं संसर्गः । तथा च सुपा प्रतियोगितया कर्मान्वितभेदस्य क्रियायां सामानाधिकरण्येनान्वय: प्रत्याय्यते । तिङादिना च सामा. नाधिकरण्येन क्रियान्वितभेदस्य प्रतियोगितया कर्मणीति न कोऽपि दोष इति गुरुचरणाः । एवं गम्यादियोगे संयोगजनकत्वं क्रियान्वयि यथायथं विभागानाशकत्वं संयोगनाश्यत्वं फलान्वयि कर्मप्रत्ययार्थः । तथाच काश्यादिनिष्ठविभागानाशकतन्निष्ठसंयोगजनकतक्रियाश्रय इत्यादिः काशीं गच्छतीत्यादेरर्थः। तेन प्रकाश्यादि......गच्छतीत्यादिरात्मानं गगनादि च गच्छतीत्यादिश्च न प्रयोग इति बोध्यम् ॥ १३ ॥
(मथु०) मुख्यसकर्मधातुयोगे कर्मप्रत्ययस्थलेऽन्वयबोधं व्युत्पाय भाक्तसकर्मकधातुयोगे कर्मप्रत्ययस्थलेऽन्वयबोधं व्युत्पादयति-घटमित्यादिना । केचित्तु घर्ट जानातीत्यादौ घटो ज्ञायत इत्यादौ च कर्मप्रत्ययस्यायस्वार्थकत्वे चानन्वयप्रसङ्ग इत्यत आह, घटमितीत्याहुः।
१ मैत्रः।
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वादार्थसग्रहः
[ ४ भाग:
इत्यादावित्यादिपदात् द्वेष्टि द्विष्यत इत्यादेर्ग्रहणम् । सविषयकेति, तथाच तादृशषातुसमभिव्याहार एव विषयित्वादिप्रत्ययनियामक इति भावः । यथायथमिति सुपा विषरित्वं कर्मतिङा च विषयत्वमित्यर्थः । सुपा विषयत्वाभिधाने च घटं जानातीत्यादावयोग्यतापत्तेः, विषयत्वस्य घटवृत्तित्वेन घटानिरूपितत्वात् ज्ञानस्य तदनाश्रयत्वाच्च । न चाधेयतासंबन्धेन घटस्य विषयत्वे निरूपकतासंबन्धेन च विषयत्वस्य ज्ञानेऽन्वय इति वाच्यम् । इदं ज्ञानं न घटस्य इति व्यवहारानुपपत्तेः । निरूपकता संबन्धस्य नृत्यनियामकतया अभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वात् । आश्रयतासंबन्धेन विषयत्वाभावस्य तदर्थत्वे घटीयज्ञानेऽपि नेदं ज्ञानं घटस्येति व्यवहारापत्तेः । वृध्यनियामक • संबन्धस्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वनयेऽपि तदभावस्य केवलान्वयित्वा पुपगमेन घटीयज्ञानेऽपि नेवं घटस्य ज्ञानमिति व्यवहारापत्तेः । एवं कर्मतिङा विषयत्वाभिधाने ज्ञायते घट इत्यादिव्यवहारानुपपत्तेः विषयित्वस्य ज्ञानटत्तित्वेन ज्ञानानिरूपितत्वात् घटादेस्तदनाश्रयत्वाच । न चाधेयतासंबन्धेन ज्ञानस्य विषयित्वे विषयित्वस्य च निरूपकता संबन्धेन घटादावन्वय इति वाच्यम् । तथा सति घटज्ञानदशायां घटो न ज्ञायत इति व्यवहारापत्तेः । निरूपकता संबन्धस्य नृत्यनियामकतया अभावप्रतियोगितानवच्छेदकत्वात् । वृत्यनियामक संबन्धस्याभावप्रतियोगितावच्छेदकत्वे तदभावस्य केवलान्वयि - त्वाभ्युपगमेन घटज्ञानदशायामपि घटो न ज्ञायत इति व्यवहारापत्तेः । अतएवाश्रयत्व संबन्धेन ज्ञानविषयत्वाभाव एव घटो न ज्ञायत इत्यस्यार्थ इत्यपि परास्तम् । तथा सति घटज्ञानदशायामपि घटो न ज्ञायत इति व्यवहारा: पत्तेः । घटस्य विषयित्वानाश्रयत्वात् । न च कृधातुयोगे कर्मप्रत्ययेनापि विषयत्वविषयित्वयोरभिधाने स्वर्गं करोति याज्ञिकः, हविः करोति याज्ञिकः, स्वर्गः क्रियते याज्ञिकेन, हविः क्रियते याज्ञिकेन, गगनं करोति श्रीकृष्णः, गगनं क्रियते श्रीकृष्णेन, इत्यादिरपि प्रयोगः स्यादिति वाच्यम् । साध्यत्वारूपविषयित्व - साध्यत्वाख्यविषयत्वयोरेव धातुयोगे कर्तृ - कर्मप्रत्ययार्थत्वात्, भ्रान्त्या गुरुतर भारोत्तोलनदशायां तदुत्तोलनानुत्पादेऽपि गुरुतर भारोत्तोलनं करोतीति व्यवहारस्येष्टत्वात् । न चैवं गुरुतर भारोत्तोलनं न कृतमिति न स्यादिति वाच्यम् । फलोपधानात्मकजन्यताविशिष्टसाध्यत्वाख्यविषयत्वाश्रयस्य कर्तृकर्मकृदर्थत्वात् । वैशिष्टयं च क्रियाघटितसामानाधिकरण्यं साध्यत्वाख्यविषयत्वप्रवेशात् नान्तरीयके मत्तो भूतं न तु मया कृतमिति व्यवहारोपपत्तिरिति भावः ॥ १४ ॥
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( राम० ) ननु द्वितीयाया आत्मनेपदस्य च फलार्थत्वे चैत्रेण घटो ज्ञायते इत्यादौ च द्वितीयात्मनेपदार्थयोरनन्वयापत्तिः । धात्वर्थज्ञानादेर्घटादिनिष्ठ
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१३ ग्रन्थः] पाख्यातशक्तिवादः ।
अन्वयबोधे त्वयं विशेषः-यदेकत्र कर्तर्याश्रयत्वं तत्र क्रिया तत्र विषयत्वं तत्र कमेविशेषणत्वम् । फलाजनकत्वादित्यत आह-घटमित्यादि । सविषयकेति । ज्ञानेच्छा-कृतिद्वेष-भावनाबोधकधातुस्थले इत्यर्थः। कर्मेति द्वितीयया क्वचित् षष्ठया आत्मनेपदेन चेत्यर्थः । यथेति । घटं जानामीत्यादौ कर्तृप्रत्ययस्थले द्वितीयाया विषयित्वं चैत्रेण ज्ञायते घट इत्यादौ चात्मनेपदस्य विषयत्वमित्यर्थः । विषयित्वं विषयत्वमित्यस्य बोध्यते इत्यनेनान्वयः । एवमग्रेऽपि । तेन चैत्रो घटं जानातीत्यादौ घटविषयकज्ञानाश्रयश्चैत्र इत्यन्वयबोधः । चत्रेण घटो ज्ञायते इत्यादौ च चैत्रवृत्तिज्ञानविषयो घट इत्यन्वयबोधः । एवमन्यदूधम् । चैत्रो घटं जानातीत्यादौ कर्तरि तिडा आश्रयत्वं चैत्रेण घटो ज्ञायते इत्यादौ च तृतीयया आधेयत्वं बोध्यते ॥ १४ ॥ _(रघु०) ननु सर्वत्र द्वितीयासमभिव्याहृतस्थले फलादेर्धात्वर्थत्वे घट जानातीत्यादिप्रयोगानुपपत्तिः । ज्ञानजन्यफलस्य घटादाववृत्तित्वेन तत्र · तदन्तर्भावेनान्वयबोधासंभवात् । एवं सर्वत्र परसमवेतत्वं कर्मप्रत्ययार्थ इदम. प्यशुद्धम् । आत्मा आत्मानं जानातीति प्रयोगानुपपत्तेः । आत्मान्यवृत्तित्वस्य ज्ञानादावप्रसिद्धया तस्य तत्रान्वयबोधासंभवादित्यत आह-घट जानातीत्यादि । विषयित्वमिति तु कर्तृतिङादिस्थले द्वितीयार्थाभिप्रायेण । विषयत्वमिति तु कर्माख्यातस्थले आख्यातार्थाभिप्रायेणोक्तम् । तृतीयेत्यस्य कर्माख्यातादिस्थले इत्यादि । तथाच सविषयकार्थवोधकघात्वसमभिव्याहृतद्वितीयासमभिव्याहृतधातुस्थले फलादेर्धात्वर्थत्वनियमः । एवं तादृशधातुस्थले कर्मप्रत्ययस्य परसमवेतत्वमर्थो नान्यत्रेति भावः ॥ १४ ॥
(जय० ) मुख्यमभिधाय भाक्तकर्मत्वमाह-घटमिति। घटं जानातीत्यादौ द्वितीयया विषयित्वं, न तु विषयत्वमभिधीयते । घटमेव जानातीत्यादौ घटान्वयिविषयित्वस्यैव व्यवच्छेदसंभवात् । एवं ज्ञायते घट इत्यादौ आख्यातेन विषयत्वमेव न विषयित्वं, चैत्रेण न ज्ञायते घट इत्याद्यनुरोधात् । इत्थं चात्र द्वितीयाकर्माख्यातयोरपि भिन्नोऽर्थ इति विशेषोऽपीति भावः । आश्रयत्वमिति । नत्वाधेयत्वं जानातीत्याद्यनुरोधादिति भावः । धेयत्वमिति । नत्वाश्रयत्वं घटेन न ज्ञायत इत्याद्यनुरोधात् । इत्थं च तृतीयाख्यातयोरप्यर्थभेद इति भावः । घटेन नश्यत इत्यत्र तृतीययानुयोगित्वं बोध्यते गगनेन न नश्यत इत्यनुरोधादित्यपि बोध्यम् ॥ १४ ॥ (मथु०) एकत्रेति । घटं जानाति चैत्र इत्यादावित्यर्थः । कर्तरि
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः अन्यत्र कर्मणि विषयता तत्र क्रिया तत्राधेयत्वं तत्र च कर्तेति । ज्ञातो ज्ञाता नष्ट इत्यादौ कर्तृकर्मकृतां विषयाश्रय-प्रतियोगिबोधकत्वम् । यतत इत्यादौ, यत्यादिनोपस्थिते यत्ने विषयित्वेन नान्वयः, किन्तूद्देश्यत्वेन पदस्वाभाव्यात् । अत एवाभुनानेऽपि भोजनाय यतते इत्यादयः प्रयोगाः ॥ १५॥ . चैत्रे, तत्र आख्यातार्थत्वे, किया धात्वर्थः, तत्र धात्वर्थे, तत्र विषयितायां, अन्यत्रेति चैत्रेण ज्ञायते घट इत्यादावित्यर्थः । एवं च घटं जानाति चैत्र इत्यादौ घटवद्विषयितावत् ज्ञानवदाश्रयत्वांश्चैत्र इत्यादिको बोधः, मैत्रेण ज्ञायते घट इत्यादौ मैत्रवदाधेयत्वज्ञानविषयतावान् घट इत्यादिको नोध इति भावः । ननु मुख्यभाक्तताधारणसकर्मकधातुयोग एव यदि द्वितीयादयः, तदा घटं यतत इत्यादिरपि प्रयोगः स्यात्, यत्यादिधातोरपि सविषयक्रियावाचित्वेन भाक्तसकर्मकत्वादित्यत आह-यतत इति । क्रियादिना उपस्थिते यले साध्यत्वाख्यविषयत्वेनवान्वपः, न तूदेश्यत्वेन, भोजनाय करोतीत्यप्रयो.. गात् । अत उक्तं यत्यादिनेत्यादि । आदिपदात् यस प्रयत्ने इति यस् धातोः परिग्रहः । अत एव पाकाय प्रयासो न तु पाकस्येति भावः । यत्यादिना लक्षगया उपस्थापिते ज्ञानादौ विषयतासामान्येनान्वयादुक्तं यत्न इति, विषयित्वेन विषयित्वावच्छिन्नत्वप्रकारेण, आदिना साध्यतापरिग्रहः । उद्देश्यत्वेन उद्देश्यत्वावच्छिन्नत्वप्रकारेण, तथाच द्वितीयाया उद्देश्यत्वावच्छिनाबोधकतया तद्वो. धकचतुर्थ्या घटाय यतत इत्यादिरेव प्रयोग इति भावः।
केचित्तु कृयादिनोपस्थापिते यत्न इव यत्यादिनोपस्थापिते यत्नेऽपि साध्यत्वाख्यविषयित्वप्रकारेणैवान्धयबोधः । न चैवं घटं यतत इत्येव प्रयोगापत्तिरिति वाच्यम् । स्पृहधातुयोगे चतुर्था इव यत्यादिधातुयोगेऽपि चतुर्थ्या द्वितीयार्थवोधकत्वादित्याहुः । तन्मतं निराकरोति-अतएवेति। अभुक्षानेऽपि भोजनसाध्यकप्रवृत्तिशून्येऽपि, भोजनोद्देश्यकप्रवृत्तिमतीति शेषः। भोजनं करोतीति च न तत्र प्रयोग इति भावः ॥ १५ ॥
(राम) ननु चैत्रेण घटो ज्ञायते इत्यादौ यदि कर्मप्रत्ययस्य विषयत्वं तृतीयायाचाधेयत्वमर्थस्तदा चैत्रो घटं जानातीत्यादौ वाक्ये चैत्रेण घटो ज्ञायते
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१३ ग्रन्थः ] आख्यातशक्तिवादः। इत्यादिवाक्यैकवाक्यतानुपपत्तिः । विशिष्टैकार्थप्रतिपादकत्वविरहादित्यत आह-अन्वयेति । एकत्रेति । चैत्रो घटं जानातीत्यादाविस्यर्थः । तत्र, कर्तरि मुख्य विशेष्ये । क्रिया, ज्ञानादि । तत्र क्रियायां ज्ञानादौ । तत्र विषयितायाम् । कर्म घटादि । अन्यत्र, चैत्रेण ज्ञायते घट इत्यादौ । कर्मणि घटादौ मुख्यविशेष्ये । विषयतेत्यादौ विशेषणमित्यस्यानुषङ्गः । तत्र विषयितायाम् । क्रिया ज्ञानादि । तत्र क्रियायाम् । तत्र च आधेयत्वे च । कर्ता चैत्रादिः । तथाच चैत्रो घटं जानाति चैत्रेण घटो ज्ञायते इत्यादी विशेष्य-विशेषणभावभेदादेकवाक्यतामङ्गः सर्ववादिसिद्ध इति भावः। ननु सविषयकार्थकधातुयुक्तकर्मप्रत्ययेन यदि विषयवं प्रतिपायते तदा चैत्रेण ज्ञातो घट इत्यादौ कर्मप्रत्ययार्थघटयोरभेदान्वयबोधो न स्यादिति । एवं सविपयकार्थकधातुयुक्तकर्तृप्रत्ययेन यवाश्रयत्वं प्रतिपाद्यते तदा चैत्रो घठस्य ज्ञाता इत्यादी घटकाचोरभेदान्वयबोधो न स्यात् बाधात् । एवं घटो नष्ट इत्यादी घटं नश्यतीतिवत् प्रतियोगितात्मकस्वेन नष्टपदार्थघटयोरमेदान्वयबोधा. तुपपत्तिरित्यत आह-ज्ञातो ज्ञातेत्यादि । कर्मेति । चैत्रेण घटो ज्ञात इत्यादौ कर्मकृतो विषयोऽर्थः । चैत्रो घटस्य ज्ञातेल्यादौ कर्तृप्रत्ययस्य तृच आश्रयोऽर्थः । घटो नष्ट इत्यादौ कर्तृप्रत्ययस्य कृतः प्रतियोग्यर्थ इत्यादि स्वयमूह्यम् । अतो नाभेदान्वयबोधानुपपत्तिरिति भावः । ननु घट करोतीत्यादि. पद्धर्ट यतते इत्यपि स्यात् । द्वितीयार्थविषयत्वस्य बोधादित्यत आह-यतत इत्यादाविति । विषयिस्वेनेति । द्वितीयावर्थः विषयित्वं, यदि धातुजन्योपस्थितिसहकारेण यत्नेनान्वेति आकांक्षाविरहादित्यर्थः, तर्हि कथं तत्र घटादेइन्वय इत्यत आह-किन्तूद्देश्यत्वेनेति । उद्देश्यत्वं च तत्प्रयोजनकत्वं विषयताविशेषो वेत्यन्यदेतत् । तथाच उद्देश्यत्वबोधाय यतियोगे च चतुर्थीप्रयोग एव माधुरिति भावः । ननु द्वितीयया यतेः कथं नाकांक्षा इत्यत आह-पदेति । तथा च फलबलेनाकांक्षाकल्पनम् । अत्र च फलाभावान तथाकाङ्क्षति भावः । नु न केवळ यस्यर्थे द्वितीयार्थविषयत्वान्वये आकाङ्काविरहमानं बाधकमपितु योग्यताविरहेपीत्याह-अत एवेति । यत्यर्थे द्वितीयाद्यर्थविषयित्वादेरन्वया
ङ्गीकारादेवेत्यर्थः । अभुञ्जानेऽपि। भोजनविषयकयत्नविरहिण्यन्नायुपादानतिर्यपि अन्नाधुपादानकाले च भोजनोद्देश्यकान्नायुपादानानुकूलकृतिरेव वर्तते 'ति न तादृशप्रयोगानुपपत्तिरिति भावः ॥ १५ ॥
(रघु० ) तथा सति तत्र तत्रान्वयबोधप्रकारमाह-अन्वयबोधे त्विति । एकत्रेति । कर्तर्याख्यातस्थल इत्यर्थः । अन्यत्रेति । कर्माख्यातस्थल इत्यर्थः ।
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वादार्थसंग्रहः । [४ भागः ननु विषयत्वादेः कर्मप्रत्ययार्थत्वे ज्ञातो घट इत्यत्र विषयत्वस्य घटादौ भेदान्वयबोधासंभवः, नामार्थयोभेदेनान्वयबोधानङ्गीकारात् । न वा अभेदान्वयबोधः, बाधादित्याह-ज्ञात इत्यादिना । तथा चाख्यातस्थले कर्मप्रत्ययस्य विषयत्वादिकमर्थः । कर्मकृत्प्रत्ययस्य तु . विषयत्वादिकमर्थः । तथाच प्रथमान्तार्थे अभेदेनान्वयः । नामार्थयोरभेदान्वयबोधस्य सर्वसंमतत्वादिति भाव: । ननु सर्वत्र सविषयकधात्वर्थे विषयितया इतरपदार्थस्यान्वयाङ्गीकारे अभुञ्जाने भोजनाय यतत इत्यादिप्रयोगानुपपत्तिः । तदा तत्र भोजनविषयककृत्यभावादित्यत आह-यतत इत्यादिना । तथा च यतिपदार्थातिरिक्तसविषयकधात्वर्थे सर्वत्र विषयित्वेनेतरपदार्थान्वयोऽत्र तु उद्देश्यत्वेनेति भावः । अत एवेति। यतो यतिपदार्थे उद्देश्यत्वेनैवेतरपदार्थान्वयो न तु विषयित्वेन अत एवेत्यर्थः । अभुञ्जानेपीत्यादि । अन्यथा तदा तत्र भोजनविषयककृत्यभावेन तथाप्रयोगानुपपत्तिरिति भावः ॥ १५ ॥
( जय० ) एकत्र चैत्रो घटं जानातीत्यादौ । अन्यत्र चैत्रेण घटो ज्ञायत इत्यादौ । भाक्तकर्मत्वाद्याश्रयवाचकमुदाहरति-ज्ञात इत्यादि । सविषयकपदार्थाभिधायिधातुयोग इति सामान्यत उक्तेऽपवादमाह-यतत इत्यादाविति । कृत्रादिनोपस्थापितेन विषयत्वेनैवान्वयो नतूद्देश्यत्वेन भोजनाय करोतीत्याद्यप्रयोगादत उक्तं-यत्यादिनेति । आदिपदाद्यसुप्रयत्न इति यसधातो: परिग्रहः । तत्रापि पाकाय प्रयासो न तु पाकस्येति प्रयोगात् । यसादिनापि लक्ष. णयोपस्थापितज्ञानादौ तथान्वयादाह-यत्न इति । विषयित्वेन विशेषणतया । उद्देश्यत्वेन उद्देश्यत्वविशेषणतया । तथा चोद्देश्यत्वबोधकचतुर्थ्या घटाय यतत इत्यादिप्रयोगो न तु विषयित्वबोधक-स्पन्दधातुप्रयोग इवेति निराचष्टे-अत एवेति । अभुजाने भोजनविषयकयत्नशून्ये भोजनाय यतत इति तदुद्देश्यकयत्नसत्त्वादिति भावः । ननु कृञो योगे द्वितीयाया विषयित्वेऽर्थे आकाश करोतीश्वर इत्यादिप्रयोगोऽपि स्यादिति चेत् । अत्र प्राञ्च:-उपादाननिरूढलाक्षणिकस्य कर्मवादस्यैवात्र प्रयोगो न तु शक्तस्य तथैव साकांक्षत्वात् । अत एव मिलक्षणानिरूढलक्षणयोरयमेव विशेष उक्तः, यच्छक्तस्यापि न प्रयोगोऽपितु निरूढलाक्षणिकस्यैव । यथा धूमादित्येव हेत्वयवप्रयोगो न तु धूमज्ञानादित्यप्याहुः।
नव्यास्त्वत्र धातोरेवोत्पत्तौ निरूढलक्षणा, द्वितीयार्थों निरूपितत्वमाख्यातार्थो व्यापारः । इत्यं च घटं करोतीत्यादौ घटनिरूपितोत्पत्त्यनुकूलव्यापार
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१३ ग्रन्थः ] आख्यातशक्तिवादः।
धातोरर्थः फलमनुकूलव्यापारो व्यापारमानं वा, आख्यातस्य जन्यजनकभावः संसर्गमर्यादया लभ्यः। लडादितिङाद्यर्थो वर्तमानत्वादीष्टसाधनत्वादिकमेकपदोत्तरत्वप्रत्यासत्त्या तत्रैवान्वेति ।। वानिति बोधः । अतएव रथो गमनं करोतीति प्रयोगः । चैत्रेण घटः क्रियत इत्यादौ च तृतीयार्थो व्यापारः। धात्वर्थ उत्पत्तिः । आख्यातार्थ आश्रयत्वम् । तथा च चैत्रनिष्ठव्यापारजन्योत्पत्त्याश्रयो घट इति बोधः । इत्थमेव चाकाशं न करोतीत्यादिप्रयोगोऽपि सूपपादः। उत्पत्तावाकाशनिरूपितत्वस्याभावबोधात्। यदि च नान्तरीयककृतिजन्ये तं करोतीति न व्यवहारस्तदा धातोरुत्पत्तिः कृतिरप्यर्थः । द्वितीयार्थश्च निरूपितत्वम् , विषयित्वमपि । तथाच घटं करोतीत्यादौ घटनिरूपितोत्पत्तिप्रयोजिका घटविषयिणी या कृतिस्तदाश्रय इति बोध इत्यप्याहुः । साध्यतया कृतिविषयत्वमेव कृञो योगे कर्मप्रत्ययार्थ इति तु ज्यायः । ज्ञानीयनिरूपितत्वादिविशेषेणैव द्वितीयाद्यर्थविषयित्वादौ कर्माद्यन्वय इत्यपि केचित् ॥ १५ ॥
(मथु०) मण्डनमतमाह-धातोरिति । फलमिति । संयोगस्वादिविशिष्टमित्यर्थः । एवं च यादृशफलावच्छिन्नव्यापारवत्वं यदातो.यायिकरुपे. यते तद्धातोस्तादूप्येण फलमित्यर्थः । तच पचेविक्लित्तिः, त्यजेविभागः, गमेः संयोगः, ददाति क्रीणातीत्यादे विलक्षणस्वत्वादि, त्यजिगमिप्रभृतीनां पर्यायतावारणस्य तावतापि संभवेन व्यापारान्तर्भावेण शक्यतायां गौरवादिति भावः । अनुकूलतान्तर्भावे गौरवांदेकदेशान्वयापत्तेश्वाह-व्यापारमात्रं वेति, आख्यातार्थ इत्यनुपज्यते, व्यापारत्वं धर्मत्वम् । नन्वेवं गौरवं धर्मत्व. स्याखण्डोपाधित्वेऽपि प्रवृत्तित्वस्य जातित्वेन तदपेक्षया गुरुत्वात् । न च व्यापारत्वं प्रवृत्तित्वमेवेति वाच्यम् । पचेतत्यादौ विध्यर्थस्य कृतिसाध्यत्वस्यानन्वयप्रसङ्गादिति चेत्, न, पचतीत्यत्र पचेविक्लित्तिजनकक्रियात्वस्यानन्तपदार्थघटितस्य शक्यतावच्छेदकत्वकल्पनामपेक्ष्य पचेविक्लित्तित्वस्य तिबो धर्मत्वरूपव्यापारत्वस्याखण्डधर्मस्य शक्यतावच्छेदकत्वकल्पनाया एव लघीयस्वात् । न च तिबादीनां लघुतरं प्रवृत्तित्वमपहाय धर्मत्वरूपव्यापारत्व. त्योपाधिरूपस्य शक्यतावच्छेदकत्वकल्पनामपेक्ष्य धातूनां कियतां तत्तत्फलजनकतत्तद्यापारत्वस्य शक्यतावच्छेदकत्वकल्पनमेव साध्विति वाच्यम् । तिवादीनामपेक्ष्य धातूनां स्वल्पत्वाभावादिति भावः । जन्यजनकभाव इति, कलव्यापारयोर्जन्यजनकभावस्तयोः संसर्गमर्यादया लभ्य इत्यर्थः । पचति
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वादार्थसंग्रहः। [४ भागः भावप्रत्ययस्य घनादेरनुकूलव्यापार एवार्थः । तेन व्यापारसत्त्वे फलानुत्पादशायां पाको भविष्यतीति न प्रयोगः। न वा व्यापारविगमे फलसत्त्वे पाको विद्यते इति । नापि घट-भूतलयोमिथः संयोग इति-वत् मिथो गमनमित्यादि।
प्रत्ययोपनीतपरसमवेतव्यापारजन्यधात्वर्थफलशालित्वं च कर्मत्वं, फलनिष्ठाधेयत्वं द्वितीयादीनां, व्यापारनिष्ठं च तृतीयादिनाऽभिधीयते। एवं च तण्डुलं चैत्र इत्यादौ आख्यातार्थव्यापारस्य क्रियादिरूपस्य स्वजनककृत्याश्रयत्वसंव. न्धेनैव चैत्रादावन्वय इति भावः । वर्तमानत्वादीत्यादि पदादतीतस्वभविष्यस्वयोरुपग्रहः । इष्टसाधनत्वादिकमित्यादिपदात् कृतिसाध्यत्व-बलवदनिष्टानववन्धित्वांशपरिग्रहः । तत्रैवेति आख्यातार्थव्यापार एवेत्यर्थः । जानाति जानीयादित्यादाविव धात्वर्थ एव तदन्वये फलानुस्पाददशायां व्यापारसत्त्वेऽपि पचतीति प्रयोगो न स्यात्, स्याच पक्ष्यतीत्यादिप्रयोगः । न स्याच काशी गच्छेदित्यादौ काशीसंयोगजनकक्रियाया इष्टसाधनत्वादिलाभ इति भावः ।
भावविहितघादेनिरर्थकत्वेन वक्ष्यमाणदूषणापत्तिरत आह-भावेति । भविष्यत्वस्य धार्थव्यापार एवान्वयात् तस्य च तदानीं बाधान तत्प्रयोग इति भावः । विद्यत इतीति, न प्रयोग इत्यनुषज्यते । मिथ इति । गमधास्वर्थस्य संयोगात्मकफलस्य द्विष्ठत्वेऽपि लुडर्थस्य तदनुकूलव्यापारस्य स्पन्दरूपस्याद्विष्ठत्वादिति भावः । इत्यादीत्यादिपदात् महीरुहविहगयोमिथस्त्याग इत्यादेः परिग्रहः।
ननु धात्वर्यत्वे धात्वर्थतावच्छेदकीभूतफलशालित्वं कथं कर्मत्वमित्यत आह-प्रत्ययेति । तत्तहातुसमभिव्याहृतप्रत्ययोपनीतपरसमवेतव्यापारजन्यधात्वर्थफलशालित्वं तत्तद्धातुकर्मत्वमित्यर्थः । अत्र तत्तद्धात्वर्थफलशालिवमात्रोक्तौ चैत्रो ग्रामं गच्छतीत्यादौ ग्रामस्येव चैत्रस्यापि कर्मत्वापत्तिः । गम्यर्थस्य फलस्य ग्रामसंयोगस्य चैत्रेऽपि सत्त्वात् । अतो जन्यान्तं फलविशेषणम् । व्यापारजन्यत्वमात्रोक्तावपि तद्गम्यर्थफलस्य ग्रामसंयोगस्य चैत्रसमवेतक्रियाजन्यतया तदोषतादवस्थ्यम् । अतः परसमवेतवं व्यापार विशेषणम् । चैत्रसमवेतक्रिया च न चैत्रान्यसमवेता तद्दम्यर्थफलस्य ग्रामसंयोगस्यापि चैत्रान्यो ग्रामावयवः तत्समवेतव्यापारो ग्राम एव । तजन्यत्वात्तद्दोषतादवस्थ्यमत
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः। पचति चैत्र इत्यस्य तण्डुलवृत्तिफलविशेषजनकव्यापारवांश्चैत्रः, मैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यस्य मैत्रनिष्ठव्यापारजन्यफलविशेषशाली तण्डुल इत्यर्थः । फलव्यापारयोर्विशेषण-विशेष्यभावभेदादेव कर्तृकर्मप्रत्ययव्यवहारः । उपनीतान्त व्यापारविशेषणम् । चैत्रो ग्रामं गच्छतीत्यत्र च ग्रामो न तिङप्रत्ययोपनीतः किंतु चैत्रक्रियैव तदुपनीता । चैत्रो ग्रामस्थ गन्तेत्यत्र कृत्प्रत्ययोपनीतः चैत्रान्यचैत्रावयवसमवेतः चैत्र एव तजन्यप्रकृतगम्यर्थसंयोगाश्रये चैत्रेऽतिव्याप्तिरतो व्यापारेति । तथाच व्यापारत्वेन प्रत्ययोपनीतेत्यर्थः । चत्रो ग्रामं गच्छतीत्यत्र तादृशव्यापारजन्यसाक्षात्कारशाल्यात्मनि ताशव्यापारजन्य विभागाश्रयपूर्वदेशेऽतिष्याप्तिवारणाय तहात्वर्थेति फलविशेषणम् । फलपदं च स्वरूपकथन मिति भावः । फलस्य धातुलभ्यत्वादाधेयस्वम् ।.द्वितीयावर्थमाह-फलेति । आदिपदाभ्यां कृयोगे कर्तकर्मषष्ठयोः परिग्रहः। फलविशेषेति, विक्लित्तीत्यर्थः । व्यापारः क्रिया । तद्वत्ता च चैत्रस्य स्वजनककृत्याश्रयत्वसम्बन्धेन, न तु व्यापारः प्रकृते कृतिरेव । चैत्रः पचेतेश्यादौ विध्यर्थस्य कृतिसाध्यत्वस्य तत्रानन्वयापत्तेः । मैत्रनिष्ठेति । निष्टता च स्वनिष्ठकृतिजन्यतासंबन्धेन । फलविशेषशालीति । शालित्वमपि कर्माख्यातस्यार्थः । नामार्थधात्वर्थयोर्भेदेनान्वयानभ्युपगमात् । एतन्मतेऽपि कर्मप्रत्ययस्य परसमवेतत्वमर्थः । तच्च व्यापारेऽन्वेति । परत्वं तु कर्मविहितसुपा स्वार्थाधेयत्वान्वितव्यक्त्यपेक्षया, कर्मविहिततिका च स्वार्थाश्रयत्वविशेष्यीभूतव्यक्त्यपेक्षया प्रत्याय्यते । अतएव चैत्रो ग्रामं गच्छतीत्यत्र चैत्रश्चैत्रं गच्छति चैत्रश्चैत्रेण गम्यते इत्यादयो न प्रत्ययाः । इत्थं च ग्राम गच्छति चैत्र इत्यत्र ग्रामवृत्तिसंयोगजनकग्रामभिन्नसमवेतव्यापारवांश्चैत्र इत्यन्वयबोधः । चैत्रेण ग्रामो गम्यत इत्यत्र चैत्रवृत्तिग्रामभिन्नसमवेतव्यापारजन्यसंयोगाश्रयत्ववान् ग्राम इति बोधः । शेषं पूर्वोक्तदिशाऽवसेयम् । ननूभयत्रैवाख्यातस्य व्यापारबोधकत्वे कर्तृ-कर्मप्रत्ययव्यवहारभेदः कुत इत्यत आहकलव्यापारयोरिति । तथा च फलविशेषणकस्वार्थव्यापारविशेष्यकचोधजनकप्रत्ययत्वं कर्तृप्रत्ययत्वं, स्वार्थव्यापारविशेषणकफलविशेष्यकबोधजनकत्वं च कर्मप्रत्ययस्वमिति भावः ।
ननु चैत्रेण पक्कस्तण्डुल इत्यत्र तृतीयाया व्यापारार्थकत्वमावश्यकमन्यथा कृत एव व्यापाराश्रयार्थकत्वे कर्मणा सममनन्वयप्रसङ्गात् । तथाच सङ्ख्याकाल
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वादार्थसंग्रहः । ४ भागः वस्तुतस्त्वाख्यातस्येव तृतीयाया अपि व्यापार एवार्थः । कर्माख्यातस्य च धात्वर्थफलनिरूपितमधिकरणत्वं, कर्मकृत आश्रयः, कर्तृकृतश्च व्यापाराश्रयः, कर्मकर्तृसामानाधिकरण्यानुरोधात् । जानातीत्यादिप्रयोगे तु पूर्वोक्तैव रीतिरनुसतव्या ।
चैत्रेण पच्यते पक्क इत्यादौ सुवर्थ एव व्यापारे वर्तमानत्वाद्यन्वयः । पचमानः पक्कवानित्यादौ पुनरनायत्या पदार्थतावच्छेदक एव व्यापार तदन्वयः । घटितधर्मायतिरिक्ताख्यातार्थस्य धात्वर्थविशेष्यत्वमेवेति व्युत्पत्तिभङ्गो नोचित इत्याशयेनाह-वस्तुतस्त्विति । 'आख्यातस्येव कर्तृविहिताख्यातस्येव । तृतीयाया अपीति । कर्मविहिताख्यातस्थले कर्मवाचकपदोत्तरतृतीयाया अपीत्यर्थः । अधिकरणत्वमिति । धात्वर्थनामार्थयोर्भेदेनान्वयचोधासंभवादिति भावः । एतच्च पूर्वकल्पसाधारणं, परंतु तस्कल्पे व्यापारोऽर्थः । अत्राधिकरणत्वमात्रम् । कर्मकृत इति । एतदुभयमपि पूर्वकल्पसाधारणम् । 'व्यापाराश्रयव्यापारवान्। नन्वत्रापि आश्रयत्वे व्यापारे च शक्तिः स्वीक्रियता किं विशिष्टशक्तिस्वीकारेणेत्यत आह-कर्मकर्षिति । कमकर्तृभ्यां कृदयस्याभेदान्वयबोधादित्यर्थः । जानातीत्यादौ फलव्यापारयोरप्रतीतेराह-जानातीत्यादि । पूर्वोक्तैवेति । धातोानादिकं प्रत्ययस्य यथायथमाश्रयत्व-विषयवादिकमर्थ इति भावः । एवं नश्यतीत्यादावपि प्रतियोगित्वादिकमों बोध्यः । ननु चैत्रेण पच्यत इत्यादौ यदि तृतीयाया एव व्यापारोऽर्थः, न तु धात्वाख्यातयोः, तदा व्यापारे वर्तमानवान्वयो न स्यात् । जानातीत्यादौ धात्वर्थ पचतीत्यादौ स्वार्थ एव वर्तमानत्वायनुभावकस्य लडादेव्युत्पन्नत्वात् , धात्वर्थफल एव तदन्वयाभ्युपगमेऽपि फलस्य वर्तमानत्वदशायां तथा प्रयोगापतेरत आह-चैत्रेणेति । तथा च फलबलादेवमपि क्वचिद्वयुत्पत्तिरिति भावः । पूर्वकल्पेऽपि चैत्रेण पक्कस्तण्डुल इत्यत्र इदं स्वीकार्यम्, तत्र तृतीयाया एवं व्यापारोऽर्थः कृतवाश्रयमात्रम् । अन्यथा कृतो व्यापाराश्रयाकल्वे कर्मणा सहान्वयप्रसङ्गादिति बोधनाय पक्व इत्युक्तम् । एतच्चापाततस्तृतीयान्तपदसमभिष्याहृते पच्यते तण्डुलः, तण्डुलः पक्व इत्यादी वर्तमानत्वादेरनन्वयप्रसङ्गात् । न च वर्तमानत्वादिकमनन्वितमेवेति वाच्यम् । तथा सति वक्ष्य
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१३ ग्रन्थः ]
व्याख्यातशक्तिवादः ।
स्तां वा व्यापाराश्रयौ शक्यौ विशिष्टमन्वयबललभ्यम्, एवकारस्येवान्ययोगव्यवच्छेदादौ, अन्ययोगप्रतियोगिकव्यवच्छेदस्यातिप्रसक्तत्वात् अन्ययोगत्वावच्छिन्नप्रतियोगिकव्यवच्छेदस्य शक्यत्वे शक्याप्रसिद्धिः, बाधितत्वं च पार्थ एवेत्यादौ, पार्थान्यमाणे तण्डुले अयं तण्डुलः पच्यते अयं तण्डुलः पक्व इति न्यवहारापत्तिः । न चैवं पूर्वकल्पेऽपि चैत्रेण पच्यमानस्तण्डुल इत्यादौ वर्तमानत्वायन्वये का गतिरिति वाच्यम् । वक्ष्यमाणदिशैव तस्योपपादनीयत्वादिति ध्येयम् । पच्यमान इति । एतदपि पूर्वकल्पसाधारणम् । 'पदार्थतावच्छेदके, कृत्प्रत्य. यार्थत्वावच्छेदके, 'तदन्वयः वर्तमानत्वाद्यन्वयः ।
एकदेशान्वयासहिष्णुतायामाह-स्तां वेति । व्यापारवानाश्रय इति चान्वयबोधः । अन्यथाऽऽश्रयत्वे निरूपितत्व संबन्धेन व्यापारस्यान्वये तत्रैवैकदेशान्वयतादवस्थ्यात् । एवं च पूर्वकल्पे तृतीयार्थे वर्तमानत्वान्वयो व्यापारोss तृतीयार्थोऽनभ्युपेयः, किंतु चैत्रेण पच्यमानस्तण्डुल इत्यादौ कर्मकृतोऽपि व्यापाराश्रयौ पृथगेव शक्यौ । व्यापारस्तृतीयार्थाधेयत्वस्य विशेष्यतया जन्यतासंबन्धेन धात्वर्थे फले विशेषणतया चान्वेति फलं चाश्रये, आश्रयश्चाभेदेन कर्मणीति ध्येयम् । नन्वेकपदजन्योपस्थितिविशेष्ययोः परस्परमनन्वयात् कथमेवमत आह- एवकारस्येवेति । तथाच तत्रैवात्रापि एकपदार्थयोरन्वयो नाव्युत्पन्न इति भावः । ननु तत्रापि अन्ययोगव्यवच्छेदविशिष्ट एवार्थो न तु अन्ययोगव्यवच्छेदौ पृथक् शक्यौ इत्यत आह- अन्ययोगेति । 'अतिप्रसक्तस्वादिति पार्थान्यस्मिन्नपि सत्त्वादित्यर्थः । तथाच पार्थ एव धनुर्धर इतिवत् पार्थ एव द्रव्यवदित्यादेरपि प्रसङ्गः | पार्थान्यगुणादितादात्म्यव्यवच्छेदस्य द्रव्यावच्छेदेन सत्वादिति भावः । शक्या प्रसिद्धिरिति । पार्थ एव धनुर्धर इत्यादौ तादात्म्यरूपान्ययोगस्थले अन्यत्वस्य केवलान्वयित्वेन तत्तादात्म्यस्यापि केवलान्वयितया तत्सामान्यव्यवच्छेदाप्रसिद्धिरित्यर्थः । बाधितस्वं च पार्थ एवेत्यादाविति छेदः । पार्थ एव धनुर्धरत्वमित्यादौ समवेतत्वादिरूपान्ययोगव्यवच्छेदस्थले बाधितत्वं चेत्यर्थः । गुरुधर्मस्याभावप्रतियोगितावच्छेदकस्वनये अन्यसमवेतत्वस्य समवेतत्वापेक्षया गुरुत्वेऽपि तदवच्छिन्नाभावस्यासमवेत प्रसिद्धस्य धनुर्धरत्वादौ बाधितत्वात् पार्थस्यापि किंचिदपेक्षया अन्ययवादिति भावः । दूषणान्तरमाह - पार्थान्ययोगत्वेति । योगत्वं समवेत -
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वादार्थसंग्रहः [४ भागः योगत्वावच्छिन्नव्यवच्छेदस्याप्रतीतिप्रसङ्गः। तस्य ततोज्यत्वात् स्वान्ययोगव्यवच्छेदेन शक्यत्वे च स्वत्वस्याननुगमाच्छक्यानन्त्यं, नीलो घटो नास्तीत्वम् । तस्य अन्यसमवेतत्वावच्छिन्नव्यवच्छेदस्य । ततः पार्थान्यसमवेतत्वावच्छिन्नव्यवच्छेदतः सामान्याभावस्य विशेषाभावतो भिन्नत्वात् अन्यनिष्ठशक्त्या च नान्यप्रतिपत्तिरिति भावः ।।
यत्तु बाधितत्वं चेति छेदः, पृथिव्यामेव गन्ध इत्यादौ समवेतस्वरूपान्ययोगस्थले बाधितत्वं चेत्यर्थः । पृथिव्या अपि किंचिदपेक्षया अन्यत्वादिति भावः । पार्थ एवेत्यादाविति । परान्वयिपार्थ एवेत्यादौ पार्थान्यतादास्म्यत्वावच्छिन्नव्यवच्छेदस्याप्रत्ययप्रसङ्गाचेत्यर्थः इति व्याचक्षते, तदसत् । अन्यतादात्म्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावस्याप्रसिद्धतया ततोऽन्यत्वादित्यग्रिमेग्रन्थासङ्गतेः।
केचित्तु 'पार्थ एवेत्यादाविति शक्याप्रसिद्धिरित्यत्राप्यन्वितम् । 'बाधितत्वं चेति चकारो वार्थे । तथाच पार्थ एव धनुर्धर इत्यादौ शक्याप्रसिद्धिर्बाधितत्वं वा इति योजना । अन्ययोगस्यान्यतादात्म्यरूपतया तस्य केवलान्वयित्वेन तत्सामान्यव्यवच्छेदरूपस्याप्रसिद्धिरित्यर्थः । ननु धनुर्धरस्वं ज्ञान विशेषरूपं येन समवायादिसंबन्धेन तादात्म्यं तेन संबन्धेनान्यतादात्म्यत्वावच्छिन्नाभावो नाप्रसिद्धः । असमवाय्यादावेव प्रसिद्धत्वादत उक्तं 'बाधितत्वं चेति । धनुर्धरे बाधितत्वं चेत्यर्थः । पार्थस्यापि किंचिदपेक्षया अन्यत्वादिति भावः । दूषणान्तरमाह-पार्थ इति । धदुर्धरत्वं येन संबन्धेन तादात्म्यं तेन संवन्धेन पार्थान्यतादात्म्यत्वावच्छिन्नव्यवच्छेदस्येत्यर्थः । तस्य तत्संबन्धेनान्यतादात्म्यस्वावच्छिन्नाभावस्यासमवाय्यादौ प्रसिद्धस्य, ततः तत्संबन्धेन पार्थान्यतादास्म्यत्वावच्छिन्नाभावात् । अन्यत्वादिति सामान्याभावस्य विशेषाभावतो भिन्नत्वात् , अन्यशक्ष्या च नान्यप्रत्ययसंभव इत्याहुः ।
अननुगमादिति-पार्थत्वादिरूपत्वादित्यर्थः । शक्यानन्त्यं शक्यतावच्छेदकानन्त्यम् । एतचापाततः प्रतियोगितासामान्यसंबन्धेनान्ययोगवतो व्यवच्छेदस्य विशिष्टस्यैव तच्छक्यत्वस्य सुवचत्वात् । न चैवं पार्थ एव धनुर्धर इतिवत्पार्थ एव द्रव्यमित्यपि व्यवहारः स्यादिति वाच्यम् । नीलो घटो नास्तीत्यादाविव अन्वयितावच्छेदकावच्छिन्न प्रतियोगिताया एवं संसर्गवस्य व्युत्पत्तिसिद्धतया प्रतियोगितासामान्यस्य शक्यतावच्छेदकान्तर्गतत्वेऽपि यद्ध
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१३ ग्रन्थः ] आख्यातशक्तिवादः। त्यादौ नीलघटत्वाद्यवच्छिन्नस्येव पार्थ एवेत्यादावपि पार्थान्ययोगत्वावच्छिन्नस्याभावप्रतीतिः । समानं चेदं कृतौ कालान्वयवादिनाम् । धात्वर्थानुकूलव्यापारविरहिण्यपि महीरुहादौ संयुज्यत इत्यादिव्यवहारात् संयोगवत्त्वमात्रप्रतीतेः, नतु तत्र प्रत्ययस्य मविशिष्टबोधकपदसमभिव्याहारेणैवकारप्रयोगः, तद्धर्मावच्छिन्नान्ययोगत्वरूपान्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताव्यक्तेरेव शक्तौ संसर्गतया भानेन तादृशव्यवहारासंभवादिति ध्येयम् । नन्वन्ययोग-व्यवच्छेदयोः खण्डशः शक्यत्वेऽपि पार्थान्ययोगत्वावच्छिन्नव्यवच्छेदस्याप्रत्ययप्रसङ्गस्तदवस्थ इत्यत आहनीलो घट इति । अन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताया एव संसर्गत्वस्य व्युत्पत्तिसिद्धत्वादिति भावः । ननु सुबर्थे पदार्थतावच्छेदके व्यापारे -चा. ख्यातार्थवर्तमानखान्वयबोधे व्युत्पत्यन्तरकल्पना । एवं व्यापाराश्रययोः पृथक् शक्यत्वे शक्तिद्वयकल्पना च मण्डनमते दोष इत्यत आह-समानमिति । 'इदम् एतादृशकल्पनम् । कालान्वयेति । वर्तमानत्वाइन्वयेत्यर्थः । तन्मतेऽपि चैत्रेण पच्यत इत्यादौ तृतीयाथै कृतिवर्तमानवान्वयात् पचमान इत्यादौ कृदर्थस्य कर्तुरेकदेशे वर्तमानत्वान्वयात् किंवा कृतितदाश्रययोः पृथगेव कृत्प्रत्ययस्य शक्यत्वादिति भावः ।
केचित्तु नन्वेकपदार्थयोः परस्परमन्वयबोधस्याव्युत्पन्नत्वादनायत्या तक शक्यानन्त्यमास्थीयत इत्यत आह-समानं चेति । 'इदं एकपदार्थयोः परस्परमन्वयित्वम् । पचतीत्यांदावेकपदार्थयोरपि कृतिवर्तमानत्वायोरन्वयस्य तेनाभ्युपगमात् स्थलविशेषे तयोरन्वयस्याव्युत्पन्नत्वादिति भावः । इति व्याचक्रुः।
ननु फलमात्रस्य धात्वर्थत्वे फलावच्छिन्न व्यापारवाचित्वं न मुख्यसकर्मकरवं किंतु फळवाचकत्वमेव । तथाच संयुजिप्रकृतेरपि मुख्यसकर्मकस्वापत्तिरित्यत
आह-धात्वर्थेति । महीरुहादाविति । श्येनमात्रकर्मजन्यश्येनसंयोगवति महीरुहादावित्यर्थः । ननु महीरुहः संयुज्यत इत्यत्र बाधेन व्यापारानभिधाने तु श्येनः संयुज्यत इत्यत्र व्यापाराभिधानमस्तु वाधकविरहादित्यत आहसंयोगवत्वमात्रेति । संयोगाश्रयत्वमात्रेत्यर्थः । न तत्र प्रत्ययस्य व्यापारवाचितेति किंतु यथायथमाश्रयत्वमेव प्रत्ययार्थ इति भावः । न सकर्मकत्वमिति । तथाच यद्धातूत्तरप्रत्ययेन व्यापारो बोध्यते तदातुरेव मुख्यप्तकमकः। अनुगतसकर्मकत्वानिरुक्तावपि क्षतिविरहादिति भावः । ननु तथापि
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वादार्थसंग्रहः [४ भागः व्यापारवाचितेति न सकर्मकत्वम् । संयोग इत्यादी धात्वर्थमात्रप्रतीतेघेनादेः प्रयोगसाधुतामात्रत्वमिति मण्डनमतानुयायिनः ।
तन्नं, पचतीत्यादौ पाकानुकूलवर्तमानयत्नांननुभवप्रसङ्गात् । फलानुकूलादृष्टवत्यपि पचतीत्थादेविमागाद्यनुकूलपूर्वसंयोगादिमति निश्चलादावपि विहगे त्यजतीत्यादेः प्रयोगस्य प्रसङ्गाच ॥ १६ ॥ संयोग इत्यादौ घनादिना व्यापाराभिधानात् सकर्मकत्वं तस्य दुर्वारमेवात आह-संयोगेति । प्रयोगसाधुतामात्रमिति, धातुना संयोगबोधने आकाङ्क्षासंपादकमात्रमित्यर्थः।
यत्लानभवेति-पत्नत्वविशिष्टाननुभवेत्यर्थः । यत्नत्वं प्रवृत्तित्वम् । . व्यापारत्वस्यैतन्मते आख्यातशक्यतावच्छेदकत्वादिति भावः । नन्वाख्यातस्य यत्नलक्षणयैव तथानुभवो भविष्यतीत्यत आह-फलेति । पचतीत्यादेरिति । प्रयोगस्य प्रसङ्गादित्ययेतनेनान्वयः । नन्वसाधारणातुकूलत्वस्य संसर्गत्वान्नायं दोष इत्यत आह-विभागेति । न च तबाख्यातस्याश्रयत्वमेवार्थ इति वाच्यम् , विभागरूपफलस्यैव तन्मते धात्वर्थतया तदाश्रयत्वस्यापि तत्र सत्वात्। फलावच्छिन्नव्यापारस्य धात्वर्थत्वे तु विभागानुकूलस्पन्दस्यैव त्यजधात्वर्थतया तदाश्रयत्वस्याख्यातार्थस्य तत्राभावान्न तत्प्रसङ्गः । न चाख्यातस्य स्पन्दत्वादिरूपेणैव व्यापारे शक्तिरिति वाच्यम् , धातो नाथत्वस्यावश्यकतया आख्यातस्य तत्कल्पनायां गौरवादिति भावः । एतदप्यापाततः, क्रियायां यादृशविभागायनुकूलत्वं तस्यैव तन्मते धात्वर्थस्याख्यातार्थव्यापारे संसर्गत्वात् । न च तथापि चैत्रः पचतीत्यादौ आख्यातार्थयत्नत्वप्रकारकबोधस्य स्वारसिकत्वेन प्रामाणिकानुभवसिद्धस्यापलापप्रसङ्ग इति वाच्यम् , भवन्मतेऽपि प्रवृत्तित्वस्य आख्यातशक्यतावच्छेदकत्वात् । अचेतने अग्निः पचतीत्यादौ च व्यापारे लक्षणा | स च व्यापारः संयोगादिरेव । न चैवं पचेतेत्यादौ विध्यर्थकृतिसाध्यत्वस्यानन्वयापत्तिः । कृतेः कृतिताध्यत्वाभावात् । विध्यर्थकृतिसाध्यत्वेष्टसाधनत्वयोरेकत्रान्वयित्व नियमेन धात्वर्थफले तदन्वयस्थासंभवादिति वाच्यम्, तत्र धातोः फलानुकूलव्यापारे लाक्षणिकतया धात्वर्थ एव विध्यर्थकृतिसाध्यत्वेष्टसाधनत्वादीनामन्वयसंभवात् । वस्तुतस्तु पचतीत्यादौ
१ तत्र च इति पाठः। २ यत्नानुभ० इति पाटः ।
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः।
१५५ धातुतः फलानुकूलस्पन्दत्वादिप्रकारकबोधस्य स्वारसिकत्वेन प्रामाणिकानुभव. सिद्धस्यापलापप्रसङ्ग इत्येव तन्मते दोषो बोध्यः ॥ १६ ॥
(राम०) मण्डनमतं दूषयितुमुत्थापयति-धातोरर्थ इति । फलावच्छिन्नव्यापारबोधकत्वेन सिद्धान्तसिद्धस्य गम्यादिधातोः फलमर्थ इत्यर्थः। लाघ. वादाह-व्यापारमात्रमिति । आख्यातस्यार्थ इत्यन्वयः। मात्रपदेनानुकूलत्वव्यवच्छेदः। नन्वेवं पचतीत्यादौ व्यापारे कथं धात्वर्थफलानुकूलत्वस्य लाभ इत्यत आह-आख्यातस्येति। जन्येति । धात्वर्थफलाख्यातार्थव्यापारयोजन्यजनकभाव इत्यर्थः। लडादीति । चैत्रः पचतीत्यादौ लडों वर्तमानत्वं चैत्रः पचेतेत्यादौ लिङर्थ इष्टसाधनत्वमन्वेतीत्यत्रान्वितम् । एकपदेति । एकेनाख्यातपदेन व्यापारवर्तमानत्वाघोबर्बोधनादिति भावः । तत्रैव आख्या. तार्थव्यापार एव। . भाषप्रत्ययस्येति । पाक इत्यादिस्थले भावविहितस्य घनादेरित्यर्थः । व्यापारोऽर्थः, अनुकूलत्वं संसर्ग इति भावः। नन्वतन्मतेऽपि घो व्यापार. बोधकत्वे मानाभाव इत्यत आह-तेनेति । व्यापारस्य घमर्थत्वाभावे पाको भविष्यतीत्यादौ धात्वर्थफल एव भविष्यत्वादेरन्वयो वक्तव्यः, तथा च विक्लितिरूपफलानुकूलव्यापारस्य वर्तमानत्वेऽपि विलयनुपाददशायां पाको भविष्यतीति प्रयोगो वस्तुगत्या न भवति स स्यादित्यर्थः । व्यापारस्य घमर्थः स्वाभावे दूपणान्तरमाह-न वेति । व्यापारविगमे व्यापारीभूतस्थाल्याग्नि. संयोगादिनाशे । फलसत्त्वे विक्लृत्तिरूपफलसत्त्वे। इतीत्यस्य नवेत्यनेनान्वयः । अनयोर्दोषयोरिष्टापत्तावपि न प्रतीकार इत्यभिप्रेत्याह-नापीति । गमनमित्यत्र भावघुटो व्यापारार्थकत्वाभावे गमनमित्यस्य संयोग इत्येवार्थः । तथा च घटभूतलयोमिथो गमनमित्यस्य योग्यत्वापत्तिः । व्यापारस्य घुडर्थवे च स्पन्दरूप एव संयोगानुकूलव्यापारो गमनमित्यस्यार्थो भविष्यति स च नोभयत्तिरिति नोकप्रसङ्ग इति भावः ।।
ननु फलमात्रस्य धात्वर्थत्वे धात्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वं कर्मलक्षणं न संभवति असंभवात् । अन्यत्र कर्मत्वं दुर्वचमिति कथमेतदिस्यत आहप्रत्ययेति । प्रत्ययोपनीतो यः परसमवेतव्यापारस्तजन्यं यत्फलं तच्छालित्वमेव कर्मत्वमित्यर्थः। परत्वं स्वभिन्नत्वम् । स्वपदं च यत्र ग्रामादौ कर्मत्वं ग्रात्यं तत्परम् । इत्थं च प्रत्ययोपनीतपरत्वानुपादे गमिधात्वर्थकमस्वस्य स्वस्मिन् स्यात् । स्वभिन्नसमवेतादृष्टात्मकव्यापारजन्यधात्वर्थशालिस्वस्य स्वस्मिन्नपि सत्त्वादिति 'प्रत्ययोपनीतेति । तदातूत्तरप्रत्ययप्रतिपाये
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वादार्थसंग्रहः [४ भाग त्यर्थः। गच्छतीत्यादौ चादृष्टादिव्यावृत्तानुकूलविशेषसंसर्गत्वात् स्पन्दस्य बोध इति न तत्रादृष्टस्य प्रतिपाद्यतेति भावः । परसमवेतत्वानुपादानेऽपि । एव दोषः स्यादिति तदुपादानम् । वर्तमानत्वादेस्तत्तत्क्रियादिरूपकालोपाधिरूपप्रत्ययोपनीतपरसमवेतव्यापारतया तजन्यधात्वर्थसंयोगादिशालिस्वमादाय स एव दोष इति 'व्यापारेति । व्यापारपदोपादानाच्च व्यापारत्वेन प्रत्ययोप नीतत्वलाभालोक्तदोपः। धात्वर्थपदानुपादाने च पूर्वदेशादौ गम्यादिकर्मत्वा. पत्तिः। प्रत्ययोपनीतपरसमवेतस्पन्दरूपव्यापारजन्यविभागादिशालित्वादिति तदुपादानम् । विभागादेव न गम्यायर्थत्वमिति नातिप्रसङ्गः। एवं चेति द्वितीयादेराधेयत्वार्थत्वे चेत्यर्थः। फलविशेषेति । विक्तृत्तीत्यर्थः। नन्वेवं कर्तृकर्मप्रत्ययस्थले तुल्यवत्पदार्थबोधायुपगमे वैपरीत्येन कर्तृकर्मव्यवहारापत्तिरित्यत आह-फलेति। तथा च धास्वर्थविशेषणकप्रत्ययार्थव्यापारविशेष्यकबोषजनकप्रत्ययश्च कर्तृप्रत्ययः, धात्वर्थविशेष्यकप्रत्ययार्थव्यापारविशेषणकबोधजनकप्रत्ययश्च कर्मप्रत्यय इति न वैपरित्यमिति भावः। - आख्यातार्थव्यापारस्य धात्वर्थविशेष्यतयाऽन्वयस्य पचतीत्यादिस्थले ब्युस्पनत्वेन पच्यत इत्यादौ व्यापारविशेषणकधात्वर्थविशेष्यकान्वयबोधो न संभ. वति, उक्तव्युत्पत्तिविरोधादित्यत आह-वस्तुतस्विति । तथा च कर्मप्रत्यय. स्थले आख्यातार्थव्यापारो न भासते किन्तु तृतीयार्थव्यापार एवेति नोक्तव्युत्पत्तिभङ इति भावः। ननु कर्मप्रत्ययस्थले फलस्य धात्वर्थस्य कथं नामार्थे तण्डुलादो भेदेन साक्षादन्वयो व्युत्पत्तिविरोधादित्यत आह-सामानाधिकरण्येति । तृचस्थले नामाप्रत्ययार्थयोरभेदान्वयबोधस्यानुभवसिद्धस्यानुरोधा. दित्यर्थः ।
नन्वेतन्मते. यदि प्रत्ययार्थवर्तमानातीतत्वादिकं जानातीत्यादिवद्वात्वर्थफलेऽन्वितं तदा तस्य फलस्य भावित्वदशायां व्यापारस्य वर्तमानत्वेऽपि पच्यत इत्यादिप्रयोगो न स्यात् । एवं व्यापारस्यातीतत्वे फलस्य विधमानतादशायां पक्वस्तण्डुल इत्यादिप्रयोगानुपपत्तिरित्यत आइ-चैत्रेणेति । सुबर्थ एवेति । वस्तुतस्त्वितिमतानुसारेण पूर्वमते चाख्यातार्थव्यापार एवान्वयो बोध्यः । ननु पचमान इत्यादौ व्यापाराश्रयस्य कृदर्थत्वेन व्यापारस्य तदेकदेशतया कथं तत्र वर्तमानत्वान्वय इत्यत आह-पचमान इत्यादि । अनायत्या, अन्यथानुपपत्त्या । तदन्वयः शानजाद्यर्थे वर्तमानत्वान्वयः ।।
ईदृशमेकदेशान्वयमनभ्युपगम्याह-स्तां वेति । शक्यौ शानजादिशक्यौ । विशिष्ट व्यापाराश्रयस्वरूपम् । अन्वयबललभ्यं व्यापाराश्रययोः पदार्थयोः पर
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः।
१५७ स्पराकाङ्क्षायोग्यतादिगम्यम्। ननु मृगोऽस्तीत्यादौ सामान्यहरिणपराविशेषवाचकान्मृगपदार पशुईरिण इध्याकारकशाब्दबोधवारणाय एकपदोपात्तयोविशेष्यविशेषणभावेनान्वयः प्रसिद्ध इति कथमेकपदोपात्तयोापाराश्रययोर्विशेषणविशेष्यभावेनान्वयो भविष्यतीत्याशङ्कामपाकर्तुमाह-एवकारस्येवेति । पाथ एव धनुर्धरत्वमित्यादौ धनुर्धरत्वे पार्थान्ययोगव्यवच्छेदबोधाय यथाऽन्ययोगे व्यवच्छेदे च खण्डशक्तिरेकपदोपात्तयोश्च विशेषणविशेष्यभावेनान्वयो व्युत्पन्नस्तथा शानजादिस्थलेऽपि वक्तव्यमित्यर्थः । ननु पार्थ एव धनुर्धरत्वमित्यादौ खण्डशक्तिस्वीकारेऽप्येकदेशे अन्यत्वे पार्थादेरन्वयो बाध्यस्तथा च तत्र लाघवादन्ययोगव्यवच्छेदे एकैव शक्तिरिति दृष्टान्तदान्तिकवैषम्यमित्यत आहअन्ययोगप्रतियोगिकव्यवच्छेदस्येति । उभयाभावविशिष्टाभावसाधारणस्यान्ययोगव्यवच्छेदस्येत्यर्थः । अतिप्रसक्तस्वात् पार्थ एव धनुर्धरत्वमित्यादौ पार्थान्ययोगघटोभयत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताक-व्यवच्छेदस्यान्ययोगव्यवच्छेदस्य दव्यस्वादावपि सत्त्वाम् । तथा च पार्थ एव द्रव्यत्वमित्यादेरपि प्रसङ्ग इति भावः । शक्याप्रसिद्धिरिति । अन्ययोगस्य केवलान्वयित्वात् तत्त्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकव्यवच्छेदस्याप्रसिद्धिरित्यर्थः । नन्वन्यसमवेतत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकव्यवच्छेदे एवकारस्य शक्तिर्वाच्या । स चासमवेताभावादावेव प्रसिद्ध इति नाप्रसिद्धिरित्यत आह-बाधितत्वमिति । पार्थ एव धनुर्धरत्वमित्यादौ धनुर्धरत्वेऽन्यसमवेतत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकव्यवच्छेदस्य बाधितत्वमित्यर्थः । तथा च पार्थ एव धनुर्धरत्वमित्यादिप्रयोगोऽयोग्यः स्यादिति भावः । इदं च गुरुधर्मस्य प्रतियोगितावच्छेदकत्वमते, अन्यथाऽन्यसमवेतत्वाभावस्य लाघवेन समवेतत्वावच्छित्रप्रतियोगिताकत्वेनाप्रसिद्धरपरिहारादिति ध्येयम् । नन्वन्यसमवेतत्ववृत्तिप्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकताकत्वमेव एवकारशक्यतावच्छे. दकम् । तञ्च पदार्थान्यसमवेतत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकव्यवच्छेदेऽपि तिष्ठति । पार्थान्यसमवेतत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकव्यवच्छेदस्याप्यधिक त्विति न्यायेन ताशप्रतियोगिताकव्यवच्छेदत्वात् गौरवेण पर्याप्तेरविवक्षणादित्यत आह-पार्थ एवेत्यादाविति । पार्थपदं सप्तम्यन्तं धनुर्धरस्वमिति विशेष्यत्वम् । अन्यथा पदस्य प्रथमान्तत्वे, तस्य ततोऽन्यत्वादित्यस्यासङ्गत्यापत्तेः । तस्य पार्थान्यसमवेतत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकव्यवच्छेदस्य । ततः अन्यसमवेतत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकव्यवच्छेदात् । यद्यप्यधिकन्विति न्यायेन सोऽपि शक्य एव तथाप्यन्यसमवेतत्वत्वत्तिप्रतियोगितावच्छेदकताकव्यवच्छेदत्वस्य शक्यतावच्छेदकत्वे विशिष्टाभावोभयाभावमादायातिप्रसङ्गेनान्यसमवेतत्वत्वपर्याप्त१ प्रतिसिद्ध इति पाठः। १४
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वादार्थसंग्रहः
[४ भाग. प्रतियोगितावच्छेदकताकेति वक्तव्यं तन्त्रायं दोष इति मामकी सूक्ष्मदृष्टिः स्वेति । पार्थान्यसमवेतवावच्छिन्नप्रतियोगितावच्छेदकत्वेनैवकारस्य शक्तिकल्पने चेत्यर्थः । अननुगमाव पार्थपृथिव्यादिभेदेन नानात्वात् । शक्यानन्यं पृथिव्यामेव गन्ध इत्यादौ पृथिव्यन्यसमवेतत्वत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकव्यवच्छेदस्य शक्यत्वेन शक्यानन्त्यमिति भावः । नन्वन्यसमवेतत्वादी व्यवच्छेदे च खण्डशक्तावपि कथं पार्थ एवेत्यादौ पार्थान्यसमवेतत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकव्यवच्छेदस्य बोधस्तेन रूपेण शक्तरकल्पनादित्यत आह-नील इत्यादि । नीलघटत्वावच्छिन्नस्याभावस्य प्रतीतिर्यथेत्यर्थः। अन्वयितावच्छेदकत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वस्य व्युत्पत्तिबललभ्यत्वेन पार्थान्यसमवेतस्वरूपाम्वयितावच्छेदकावच्छिनप्रतियोगिताकत्वं व्यवच्छेदे प्रतीयत इति भावः। नन्वेकपदोपात्तयोविशेषणविशेष्यभावेनान्वयस्यानङ्गीकारे अगत्या शक्यानन्त्यं स्वीकार्यमित्यत आह-समानं चेदमिति । कृतौ आख्यातार्थकृतौ, कालेति, वर्तमानखादीत्यर्थः । तथा च नैयायिकमते एकपदोपात्तयोर्विशेष्यविशेषणभावेनान्वयः, यथा पचतीत्यादौ तथा पचमान इत्यादौ मण्डनस्यापीति भावः । ननु चैत्रेण तण्डुलः पच्यत इत्यादिवत् महीरुहेण विहगः संपुज्यत इत्यादावपि महीरुहवृत्तिव्यापारजन्यधात्वर्थसंयोगशालिवमों वाच्यः । तथा च निश्चले विहगादिकर्मजन्यसंयोगशालिनि महीरुहादौ महीरुहेण विहगः संयुज्यते इति प्रयोगो योग्यः स्यादित्यत आह-धात्वर्थेति । ईदृशव्यवहारानभ्युपगम आह-संयोगेति । महीरुहटत्तिसंयोगाश्रयो विहग इत्याकारिकाया एव प्रतीतेश्चेत्यर्थः । सकर्मकत्वं संयुक्तधात्वादीनां सकर्मकत्वमपीत्यर्थः। नन्वेवं पाक इत्यादिवत् संयोग इत्यादावपि संयोगानुकूलव्यापारः कृदर्थः । तथा च निश्चले महीरुहादावन संयोग इति प्रयोगो न स्यादित्यत आह–संयोग इत्यादाविति । तथाच संयोग इत्यादौ कृतो न व्यापारवाचकतेति नोक्तदोष इति भावः । ननु पचतीत्यादौ पाकजनकवर्तमानयत्नस्य न शाब्दबोधोऽपि कदाचिदानुमानिकादिरूप एवेत्यत आह-पचतीत्यादेरिति । प्रयोगस्य प्रसङ्गादित्यग्रिमेणान्वयः। नन्वदृष्टव्यावृत्तमनुकूलत्वमाख्यातार्थव्यापारे भासते तथैवाकांक्षादिज्ञानस्य हेतुत्वकल्पनादिति नोक्तदोष इत्यत आह-विभागेति । त्यजतीत्यादेरिति । अत्र धात्वर्थो विभागः तदनुकूलश्च पूर्वदेशसंयोगः नासंयुक्तस्य विभाग इति युक्तरिति भावः।
मण्डनमतं सम्यक् त्यजतीत्यादौ धात्वर्थविभागनिरूपितस्य स्पन्दवृत्तेरनुकूलस्यैवाख्याताधर्थव्यापारगतत्वेन भानाभ्युपगमात् कथमन्यथा फलानु
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः । कूलव्यापारस्य धात्वर्थत्वमतेऽपि पचतीत्यादौ विक्तृत्त्यनुकूलव्यापारत्वेनादृष्टादीनां न प्रतीतिरित्यस्मद्गुरुचरणसरोरुहद्वन्द्वम् ॥ १६ ॥
(रघु० ) मण्डनमतं दूषयितुं तन्मतं दर्शयति-धातोरर्थः फलमिति । तथा च फलानुकूलव्यापारे धातोः शक्तिवादिनोऽपि फले शक्तिकल्पनस्यावश्यकतया तत्रैव तत्कल्पनमुचितमिति भावः । नन्वेवं गच्छतीत्यादौ संयोगरूपफलानुकूलव्यापारबोधस्यानुभवसिद्धस्य कथं निर्वाह इत्यत आह-अनुकूलव्यापार इति । पदार्थैकदेशे अन्वयानङ्गीकारे त्वाह - व्यापारमात्रं वेति । ननु केवलव्यापारस्याख्यातार्थत्वे गच्छतीत्यादौ धात्वर्थसंयोगाख्यातार्थव्यापारयोः कथं जन्यजनकभावस्तत्राह-जन्यजनकभाव इत्यादि । नन्वेवं सति सर्वत्र फलस्य धात्वर्थत्वे गच्छति यजेतेत्यादौ संयोगस्वर्गादिरूपफले वर्तमानत्वेष्टसाधनत्वादेरभावात्तदन्वयानुपपत्तिरित्यत आह-लडादीत्यादि. । लडाद्यर्थः वर्तमानत्वादिकं, लिङाद्यर्थ इष्टसाधनत्वादिकमित्यर्थः । वर्तमानत्वादीत्यादिना भविष्यत्वादिपरिग्रहः । इष्टसाधनत्वादीत्यादिना कृतिसाध्यत्वपरिग्रहः । एकपदोपात्तत्वेति । एकपदजन्योपस्थितिविषयत्वेनेत्यर्थः । तत्रैवेति । व्यापार एवेत्यर्थः । तथाचाख्यातार्थव्यापारे वर्तमानत्वादेरन्वयाङ्गीकारे आसत्यर्थ वर्तमानत्वादेरुपस्थित्यन्तराकल्पने लाघवमिति भावः ।
ननु फलस्य धात्वर्थवे ओदनादिरूपपाकफलानुत्पत्तिदशायां तदनुकूलपाकादिरूपव्यापारसत्त्वे पाको भविष्यतीति प्रयोगापत्तिः । तत्र निरर्थकघसमभिव्याहृतपचधात्वर्थे ओदनादिरूपे फले वर्तमानप्रागभावप्रतियोगित्वरूप. भविष्यत्वस्य सत्त्वादत आह--भावप्रत्ययस्य घनादेरिति, भावविहितस्य घत्रादिप्रत्ययस्येत्यर्थः । अनुकूलव्यापार एवेति । तथा च तत्र भावविहितघजर्थतादृशव्यापारस्य सिद्धतया तत्र प्रवर्तमानप्रागभावप्रतियोगित्वरूपभविष्यत्वस्य बाधितत्वेन तथा प्रयोगापत्त्यसम्भवादिति भावः । तेनेति । भावविहितघञ्प्रत्ययस्यानुकूलव्यापारार्थकत्वेनेत्यर्थ: । फलानुवाददशायामिति । ओदनादिरूपफलानुत्पाददशायामित्यर्थः । तादृशफलोत्पाददशायां तु तत्र वर्तमानप्रागभावप्रतियोगित्वरूपभविष्यत्वस्यौदनादिरूप. फलेऽभावेन तथाप्रयोगासंभवात्तथैवोक्तमिति । घोऽनुकूलव्यापारार्थकत्वे युक्त्यन्तरमाह- नवेति । व्यापारविगमे, पाकादिरूपव्यापारविगमे इत्यर्थः । पाको विद्यत इति । अत्र तदा धात्वर्थे ओदनादिरूपफले वर्तमानकालसंबधित्वरूपविद्यमानत्वस्य सत्त्वेन तथा प्रयोगापत्तिसंभवादिति भावः । भाव
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१६० वादार्थसंग्रहः
[४ भागः विहितघनादीत्यत्रादिपदग्राह्यल्युट्प्रत्ययस्य व्यापारार्थकत्वे युक्तिमाह-नापीत्यादि । अत्र भावविहितल्युट्प्रत्ययस्य निरर्थकत्वे संयोगरूपफलमात्रस्य गमधात्वर्थे तस्य च घटभूतलोभयवृत्तितया घटभूतलयोर्मियोगमनमिति प्रयोगापत्तिर्दुरैिवेति तस्य व्यापारार्थकत्वमावश्यकमिति भावः।।
नन्वेतन्मते कर्मत्वं न धात्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वम् । फलस्यैतन्मते धात्वर्थतया धात्वर्यतावच्छेदकत्वाभावेन तथा लक्षणस्यासंभवदुक्तित्वात् । नापि परमात्रसमवेतव्यापारजन्यधात्वर्थफलशालित्वं तत् । स्वात्मानं प्रयाति विहग इति प्रयोगापत्तेः । विहगस्य स्वस्मात्परो य: स्वावयवस्तत्समवेतो यः स्वात्मकव्यापारः तजन्यधात्वर्थसंयोगात्मकफलशालित्वादित्यत आह-प्रत्ययोपनीतेति । प्रत्ययोपनीतो यः परसमवेतव्यापारस्तजन्यं यद्धात्वर्यफलं तच्छालित्वमेतन्मते कर्मत्वमित्यर्थः । तथाविधस्वात्मकव्यापारस्य प्रत्ययोपनीतत्वाभावेन न स्वात्मानं प्रयाति विहग इति प्रत्ययप्रसङ्गः । न चात्र व्यापारपदं व्यर्थमिति वाच्यम् , व्यापारत्वेन प्रत्ययोपनीतत्वप्राप्तये तस्योपादानात् । अन्यथा वर्तमानत्वादिः प्रत्ययोपनीतो यः परसमवेतकालोपाधिस्तजन्यधात्वर्थफलशालित्वेन स्वात्मनोऽपि कर्मत्वसंभवे न स्वात्मानं प्रयाति विहग इति प्रत्ययापत्तिः । न च तथापि धात्वर्थेति व्यर्थ गच्छतीत्यादौ पूर्वदेशस्यापि कर्मत्वापत्तिः, तथापि प्रत्ययोपनीतो यः परसमवेतव्यापारस्तजन्य फलं विभागस्तच्छालित्वात् तदुपादाने च न तथापत्तिः । तस्य धात्वर्थत्वाभावात् । अत्र परसमवेतत्वं कर्मप्रत्ययार्थः । तस्य च क ख्यातस्थले आख्यातार्थव्यापारे कर्माख्यातस्थले च निष्कृष्टमते तृतीयार्थव्यापार एवान्वय इति । परत्वं तु धात्वर्थे आधेयतासंबन्धेन यदन्वेति तदपेक्षया धात्वर्थेऽधिकरणतासंबन्धेन यत्रान्वेति तदपेक्षया च बोध्यम् । इत्थं च ग्रामं गच्छतीत्यादौ ग्रामवृत्तिसंयोगजनकग्रामभिन्नसमवेतव्यापारवांश्चैत्रः । चैत्रेण ग्रामो गम्यते इत्यत्र चैत्रवृत्तिग्रामभिन्नसमवेतव्यापारजन्यसंयोगशाली ग्राम इति बोधः । ननु कर्ताख्यातकर्माख्यातयोर्व्यापारत्वरूपैकधर्मावच्छिन्नबोधकत्वे कथमेकत्र कर्तृप्रत्ययव्यवहारोऽत आह-फलव्यापारयोरिति । तथा च फलस्य विशेषणत्वे व्यापारस्य विशेष्यत्वे कर्तृप्रत्यय इति व्यवहारः । एवं फलस्य विशेष्यत्वे व्यापारस्य विशेषणत्वेन च कर्मप्रत्ययव्यवहार इति भावः।
ननु कर्माख्यातस्थले धात्वर्थफलस्य साक्षान्नामार्थेऽन्वयबोधाङ्गीकारे नामार्थ. धात्वर्थयोः साक्षाढ़ेदान्वयबोधो नाङ्गीक्रियते इति व्युत्पत्तिभङ्ग इत्यत आइ१ चैत्र इति यावत्-इति पाठः ।
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१३ ग्रन्थः] माख्यातशक्तिवादः।
१६१ वस्तुतस्त्विति । अधिकरणत्वमित्यादिप्रथमान्तद्वयस्य पूर्वोक्त-अर्थ इत्येनावयः । ननु कर्माख्यातवत्कर्मकृतोऽत्याश्रयत्वबोधकत्वे तस्य नामार्थेऽन्वयवोधाप्रसङ्गः, नामार्थयो/देनान्वयस्यानङ्गीकारादित्यत आह-कर्मकृत इति । आश्रय इति । फलस्येत्यादिः । कर्तृकृतो यत्नाश्रयबोधकत्वे एकाकारबोधजनकत्वरक्षार्थमाख्यातस्यापि यत्नत्वविशिष्टशक्तत्वापत्तिरत आह-कर्तृकृत इति । कर्तृकर्मेत्यादि । उपदर्शितोभयस्थले कर्तृकर्मभ्यां सह कृत्प्रत्ययार्थाभेदान्वयबोधस्यानुभवविरोधादित्यर्थः । जानातीत्यादिप्रयोग इति । आख्यातकर्मकर्तृकृतामिति शेषः । पूर्वोक्तैव रीतिरिति । आश्रयत्वविषयकत्वे काख्यातकर्माख्यातयोराश्रयविषयौ च कर्तृकृत्कर्मकृतोरर्थ इत्यर्थः । सुबर्थ एवेत्यादि । पच्यत इत्यत्र व्यापारत्याख्यातार्थत्वाभावात् फले वर्तमानत्वान्वयबोधाङ्गीकारे व्यापारासत्त्वदशायां फलसत्त्वदशायामपि पच्यत इति प्रयोगापत्तिः । एवं पक्क इत्यादावाख्यातस्याभावेन तदर्थव्यापारेऽतीत्वस्य बोध इति वक्तुमशक्यत्वेन धात्वर्थफलेऽतीतत्वस्यान्वयाङ्गीकारे फलसत्त्वदशायां व्यापारनाशदशायां पक्वस्तण्डुल इति प्रयोगानुपपत्तिश्चेति भाव: । वर्तमानत्वादीत्यादिना अतीतत्वादिपरिग्रहः । ननु पचमान इत्यादौ शानच्प्रत्ययार्थैकदेशे व्यापार एव वर्तमानत्वादेरन्वयः स्वीकर्तव्यः । तथाच पदार्थः पदार्थेनान्वेति, न तु पदार्थंकदेशेनेति व्युत्पत्तिभङ्ग इत्यत आह-पचमान इत्यादि । तथाच प्रकृतस्थले तादृशव्युत्पत्तेः सङ्कोचः कल्प्यत इति भावः । __ सर्वत्र तादृशव्युत्पत्तिस्वीकारे त्वाह-स्तां वेति । नन्वेवं सति तत्र व्यापाराश्रयताबोधस्यानुभवसिद्धस्य लोपप्रसङ्ग इत्यत आह-विशिष्टमिति | आश्रयतासंबन्धेन व्यापारविशिष्टाश्रयत्वमित्यर्थः । मन्वयलभ्यमिति । एकपदोपस्थापितयोरर्थयोः परस्परमन्वयबोधाङ्गीकारेणाकाङ्क्षाकार्यकारणभावसिद्धशाब्दबोधविषय इत्यर्थः । तथाचकपदोपस्थाप्ययोः परस्परमन्वयबोधे बाधकाभावेन तादृशविशिष्टार्थबोधो नानुपपन्न इति भावः । नन्वेकपदोपस्थाप्ययोरर्थयोः परस्परमन्वयबोधो व्युत्पत्तिसिद्ध इत्यत्र मानाभाव इत्यत आह-एवकारस्येति। तथाचैकपदोपस्थाप्ययोरर्थयोः परस्परमन्वयबोधानङ्गीकारे पार्थ एव धनुर्धर इत्यादौ पार्थान्ययोगव्यवच्छेदबोधोऽनुपपन्नः । एवकारस्यापि अन्ययोगे व्यवच्छेदे च प्रत्येकं शक्तिद्वयस्वीकारेणोपदर्शितानुपपत्तिग्रस्तत्वादिति भावः । नन्वेवकारस्योभयशक्तिर्न स्वीक्रियते किन्त्वन्ययोगप्रतियोगिकत्वविशिष्टव्यवच्छेद एव । तथाचोपदर्शितान्वयबोधो नानुपपन्न इत्यत आह-अन्ययोगेत्यादि ।
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१६२ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः अन्ययोगप्रतियोगिकत्वविशिष्टव्यवच्छेदमात्रस्येत्यर्थः। अतिप्रसक्तत्वादिति । सर्वसाधारणत्वादित्यर्थः । तथा च पार्थ एव धनुर्धर इत्यादिवत् , चैत्र एव धनुर्धर इत्यादिप्रयोगापत्ति: । चैत्रान्ययोगघटोभयव्यवच्छेदस्य चैत्रान्ययोगप्रतियोगिकस्य धनुर्धरे विद्यमानत्वादिति भावः । नन्वन्ययोगत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकव्यवच्छेद एव एवकारशक्यः । तथा च न चैत्र एव धनुर्धर इत्यादिप्रयोगः । पार्थरूपधनुर्धरे चैत्रान्ययोगस्य विद्यमानतया धनुर्धरत्वावच्छेदेन चैत्रान्ययोगत्वावच्छिन्नाभावासत्त्वादतस्तत्र दोषमाह-अन्ययोगत्वावच्छिन्नेत्यादि । अन्ययोगत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकव्यवच्छेदस्य शक्यत्वे अन्यतादात्म्यत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकव्यवच्छेदस्य शक्यत्वे शक्याप्रसिद्धिः। पार्थ एव धनुर्धर इत्यादौ अन्यतादात्म्यत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावरूपशक्याप्रसिद्धिः। पृथिव्यामेव गन्ध इत्यादौ अन्यसमवेतत्वावच्छिन्नाभावरूपशक्या. प्रसिद्धिदोषो न संभवति । असमवेते तस्य प्रसिद्धिसंभवात् । अतस्तत्र दोषमाह-बाधितत्वं चेति । पृथिव्यामेव गन्ध इत्यादौ गन्धे अन्यसमवेतत्वाभावस्य बाधितत्वं चेत्यर्थः । ननु तत्र गंधे अन्यसमवेतत्वव्यवच्छेदस्य बाधितत्वेऽपि पृथिव्यन्नसमवेतत्वाभावस्य तत्राबाधसत्वेन बोधसंभवात् । एवं पार्थ एव धनुर्धर इत्यादौ भन्यतादात्म्याभावाप्रसिद्धावपि पार्थान्यतादात्म्याभावस्य प्रसिद्धिसंभवेन बोधसंभवादतो दूषणान्तरमाहपार्थ एवेत्यादाविति । तस्य पार्थान्यतादात्म्यत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकव्येवच्छेदस्य ततोऽन्यत्वात् । एवकारशक्यतावच्छेदकावच्छिन्नान्यत्वात् । शक्यतावच्छेदकावच्छिन्नस्यैव पदादुपस्थितिसंभवेन एवकारात्पार्थान्यतादात्म्यव्यवच्छेदस्य प्रत्ययासंभव इति भावः । ननु स्वान्यतादात्म्यत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकाभावादी एवकारस्य शक्तिः कल्पनीया । अत्र स्वपदं यत्पदसमभिव्याहृतविभक्तिसमभिव्याहृत एवकारः श्रुतस्तत्परम् । तथा च नोपदर्शितानुपपत्तिस्तत्रादोषमाह-स्वान्येत्यादि । स्वत्वस्याननुगमात् । पार्थपृथिव्यादिसाधारणानुगतस्वत्वस्याभावात् । पार्थान्ययोगव्यवच्छेदादौ एवकारस्य नानाशक्तिकल्पने शक्त्यानन्त्यम् । तथाचानन्तशक्तिकल्पनभिया उपदर्शितप्रकारो नादरणीय इति भावः । नन्वेवकारस्यान्यस्मिन् योगे व्यवच्छेदे च नानाशक्तिवादिमते कथं पार्थ एव धनुर्धर इत्यादौ पार्थान्यतादात्म्यव्यवच्छेदबोध इत्यत आहतस्मादित्यादि । यथा नीलो घटो नास्तीत्यादौ घटत्वावच्छिन्ने नीलस्यान्वयेन नीलघटत्वावच्छिन्नाभाव: प्रतीयते तथा पार्थ एवेत्यादौ एवकारार्थ अन्यैक
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१६३
१३ ग्रन्थः ]
आख्यातशक्तिवादः ।
देशे भेदे पार्थस्यान्वयेनान्यस्य च योगेऽन्वयो न योगस्य च व्यवच्छेदेऽन्वये पार्थान्यतादात्म्यव्यवच्छेदः प्रतीयते इति समुदितग्रन्थार्थः । ननु कर्तृकृदर्थव्यापाराश्रयैकदेशे व्यापारे वर्तमानत्वाद्यन्वयस्वीकारे मण्डनमते पदार्थः पदाथनोन्वति न तु पदार्थैकदेश इति व्युत्पत्तिसङ्कोच एव दोषः । व्यापाराश्रययस्तस्य नानाशक्यत्वेनानन्तशक्तिकल्पनाप्रसङ्ग इत्यत आह- समानं चेति । तथाचाख्यातस्य कृतित्वेन कृतौ शक्तिवादिनापि कर्तृकृदर्थकृत्याश्रयैकदेशे कृतौ वर्तमानत्वादेरन्वयाभ्युपगमे उपदर्शितव्युत्पत्तिभङ्गः । कर्तृकृतः कृतावाश्रये च शक्तिद्वयस्वीकारेऽनन्तशक्तिकल्पनाप्रसङ्गोऽवश्यमभ्युपेय इति मतयेsपि समानमिति भावः । ननु आख्यातकर्तृकृतोर्व्यापारतदाश्रययोः शक्यत्वे संयुज्यते संयुक्त इत्यादावपि तथैव वक्तव्यतया युजधातोः सकर्मकत्वापत्तिः । प्रत्ययोपनीतधात्वर्थानुकूलव्यापारजन्य फलशालित्वरूपकर्मत्वस्य तत्र वृक्षादौ संभवादित्यत आह- धात्वर्थेत्यादि । तथा च तत्र प्रत्ययस्य व्यापारार्थकत्वे तथाविधव्यापारविरहिणि वृक्षे तादृशप्रत्ययानुपपत्तिरिति भावः । नन्वदृष्टवदात्मसंयोगादिरूपव्यापारस्य तत्र वृक्षादौ सर्वदा सत्त्वेन तत्र तथाविधव्यापारविरह एवाप्रसिद्ध इति संयुज्यत इत्यादौ प्रत्ययस्य व्यापारार्थकत्वेनोक्तानुपपत्तिरतो दूषणान्तरमाह-संयोगमात्रप्रतीतेश्चेति । मात्रपदेन व्यापारव्यवच्छेदः । तथाच तथा सति तत्र व्यापारस्यापि बोधः स्यादिति भावः । न कर्मत्वमिति । व्यापारस्य प्रत्ययोपनीतत्वाभावेन प्रत्ययोपनीततादृशव्यापारजन्यफलशालित्वरूपकर्मत्वस्य तत्र क्वाप्यभावान्न सकर्मत्वमिति भावः । ननु घञो व्यापारार्थत्वे भावे घञत्यनुशासनविरोधः । तादृशानुशासने घञः प्रयोगसाधुत्वमात्रप्रतीतेरत आह-संयोग इत्यादाविति । तथा च तादृशानुशासनं तत्स्थलाभिप्रायकमिति न दोष इति भावः ।
तत्रेत्यादि । तत्र लक्षणया तादृशानुभवोपपादने तु लाघवाद्यत्नत्वमेवाख्यातशक्यतावच्छेदकं युक्तमिति भावः । मण्डनमते दोषान्तरमाह - फलेति । तथा च ' पाकानुकूला साधारणव्यापाराभाववति अदृष्टादिरूपसाधारणव्यापारवति पुरुषे पचतीत्यादिप्रयोगप्रसङ्गो मण्डनमते दुर्वार इति भावः । नन्वसाधारणजनकताश्रयव्यापारस्याख्यातार्थत्वेनोक्तदोष इत्यत आह-विभागादीति । चलति, इष्टापत्तिः संभवतीत्यतो निश्चलादावित्युक्तम् ॥ १६ ॥
( जय० ) मण्डनमतं मंडयन्नाह - धातोरर्थ इति । फलं च विक्लि - त्यादि । फलावच्छिन्नव्यापारस्यार्यत्वे नागृहीतविशेषणन्यायेन फलमात्रस्यैव १ खण्डयन्नाहेत्यन्यत्र । चिंत्यमेतत्सुधीभिः ।
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१६४ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः तत्त्वौचित्यादिति भावः। अनुकूलत्वस्य संसर्गत्वे लाघवमभिप्रेत्याह-व्यापारमात्रमिति । नन्वेवं जानातीत्यादौ धात्वर्थ एव वर्तमानत्वादेरन्वयादत्रापि तथात्वे फलानुत्पादकाले व्यापारसत्त्वे पक्ष्यतीति स्यात्, न तु पचतीति व्यापार• विगमे च फलसत्त्वे पचतीति स्यान्न तु पपाचेत्यत्राह-लडादीति । यथासंख्ये. नान्वयः। वर्तमानत्वादीत्यादिपदादतीतत्वभविष्यत्वयोः परिग्रहः । इष्टसाधनत्वादीत्यादिपदाकृतिसाध्यत्वबलवदनिष्टाजनकत्वपरिग्रहः । तत्रैव आख्यातार्थव्यापार एव । ___ धातोः फलार्थत्वे भावप्रत्ययघनादेनिरर्थकत्वे वक्ष्यमाणदोषादाह-भावप्रत्ययस्येति । अत्रानुकूलताकृत्यादिव्यावृत्ता प्राह्या । तेन चैत्र इन्धनादिकं वा पाकवदित्यादिर्न व्यवहारः । तादृशानुकूलता संसर्ग इत्येव ज्यायः । ननु व्यापारभविष्यत्वातीतत्ववर्तमानत्वानामेव परंपरया फलेऽन्वयो वाच्य इति न पूर्वोक्तदोषोऽत आह-नापीति । मिथ इति । उत्तरसंयोगरूपधात्वर्थफलस्य द्विनिष्ठत्वादिति भावः। ___ नन्वेवं धात्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वरूपं कर्मत्वं व्याहतमत आहप्रत्ययेति । चैत्रो ग्रामं गच्छतीत्यादौ चैत्रभिन्ने प्रामाद्यवयवे समवेतो यो आमादिरूपो व्यापारस्तजन्यसंयोगादिरूपफलशालिनश्चैत्रस्य वारणाय प्रत्ययोपनीतत्वं व्यापारविशेषणम् । ग्रामादिस्तु न प्रत्ययोपनीत इति भावः । प्रत्ययोपनीतस्वस्पंदजन्यधात्वर्थसंयोगाद्यात्मकफलशालिनि चैत्रैऽतिप्रसङ्गवारणाय 'परसमवेतेति । गमनात्मकश्च व्यापारो न चैत्रान्यसमवेत इति भावः । चैत्रो गच्छतीत्यादौ प्रत्ययोपनीतः परसमवेतः सूर्यक्रियादिरूपवर्तमानत्वादि. स्तजन्यसंयोगभागित्वम् । चैत्रो गन्तेत्यादौ प्रत्ययोपनीतव्यापाराश्रयश्चैत्रोऽपि चैत्रावयवे समवेतस्तजन्यफलशालित्वं चैत्रेऽपीति पुनरतिव्याप्तेर्वारणाय व्यापारेति । व्यापारत्वेन प्रत्ययोपनीतेत्यर्थः। तादृशव्यापारजन्यसाक्षात्कारशालिन आत्मनो गमनादिजन्यविभागशालिनः पूर्वदेशादेश्च वारणाय धात्वर्थेति । तद्धात्वर्थेत्यर्थः । फलेति स्वरूपकथनम् । फलादेर्धात्वादिलभ्यत्वादाधेयत्वद्वितीयार्थमाह-फलेति । आदिपदाभ्यां कर्मकर्तृकृद्योगषष्ठयाः परिग्रहः । अन्वयप्रकारमाह-एवं चेति । अत्र फलविशेषो विक्लित्तिः । व्यापारः कृतिर्न तु वह्निसंयोगस्तस्य चैत्रावृत्तित्वात् । गच्छतीत्यादौ च क्रिया स्थादिसाधारण्यादिति बोध्यम् । ननु यद्युभयत्रैव व्यापारोऽर्थस्तदा कर्तृकर्मप्रत्ययव्यवहारभेदो न स्यादत आह-फलेति । तथा च फलविशेषणकस्वार्थव्यापारविशेष्यकबोध
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः।
१६५ जनकप्रत्ययत्वं कर्तृप्रत्ययत्वं स्वार्थव्यापारविशेषणकफलविशेष्यकबोधजनकप्रत्ययत्वं च कर्मप्रत्ययत्वमिति भावः । इदमुपलक्षणम् । कर्तृकर्मणोर्मुख्यविशेष्यतानिबन्धनोऽपि व्यवहारभेदो बोध्यः ।
संख्याकालादिभेदविशिष्ट-धातूत्तरप्रत्ययजन्योपस्थितेर्धात्वर्थविशेषणकबोधे तन्त्रत्वात् , धात्वर्थत्य फलस्य भेदेन प्रातिपदिकार्थेऽन्वयस्याव्युत्पन्नत्वाचाहवस्तुतस्त्विति । इत्थं च चैत्रेण पच्यते तंडुल इत्यत्र चैत्रस्तृतीयाथें व्यापारे, व्यापारः फले, फलमधिकरणत्वे, अधिकरणत्वं च तण्डुले प्रकार इति बोध्यम् । फलाश्रय इति । तथा च चैत्रेण ग्रामो गत इत्यत्र तृतीयार्थों व्यापारः, स च धात्वर्थे फले, फलं चाश्रये, आश्रयश्चाभेदेन ग्रामादावन्वेतीति भावः । व्यापाराश्रय इति । चैत्रो ग्रामं गत इत्यादाविति भावः । सामानाधिकरण्यानुरोधात् अभेदान्वयानुरोधात् । वन्वेवं जानातीत्यादौ फलव्यापारयोरप्रतीतेः का गतिरत आह-जानात्यादाविति । तत्र धातोर्शानादिकं, प्रत्ययस्याश्रयविषयत्वादिकं वर्तमानत्वादिकं चार्थः । वर्तमानत्वादेश्च धात्वर्थ एवान्वय इति भावः । पूर्व समानपदोपात्तत्वप्रत्यासत्त्या व्यापारे वर्तमानत्वाद्यन्वय इत्युक्तम् । __ व्यापारस्य कर्माख्यातस्थले तृतीयार्थत्वे च कुत्र तदन्वय इत्यत आहसुबर्थ इति । तृतीया कर्तृविहितषष्ठयोः साधारणत्वाय सुबर्थत्वेनाभिहितम् । वर्तमानत्वादीत्यादिपदादतीतत्व-भविष्यत्वयोर्लिङादाविष्टसाधनत्वादेश्च परिप्रहः । फलार्थकघातूत्तरप्रत्ययाधीनवर्तमानत्वाद्यन्वयबोधे प्रत्ययजन्यव्यापारोपस्थितिरेव तन्त्रमिति भावः । ननु पचमान इत्यादौ कर्तृकृदथैकदेशे व्यापारे कथं वर्तमानत्वाद्यन्वय इत्यत आह-पचमान इति । वर्तमानत्वातीतत्वभेदेनोदाहरणद्वयम् ।
स्तां वेति । तथा च व्यापारस्य नैकदेशत्वमिति भावः । नन्वेकपदाथयोः परस्परान्वयस्याव्युत्पन्नत्वात्कयं व्यापारान्विताश्रयरूपविशिष्टलाभ इत्यत्राह-एवकारस्यैवेति । तथा च तत्रैवात्रापि तथान्वयो नाव्युत्पन्न इति भावः । ननु तत्रान्ययोगव्यवच्छेदो विशिष्ट एवार्थोऽस्वित्यत आह-अन्ययोगप्रतियोगिकेति । अतिप्रसक्तत्वादिति । तथा च सत्त्वादिनिष्ठस्य पृथिव्यन्यसमवेतत्वस्य द्रव्यत्वेऽप्यभावसत्त्वात्पृथिव्यामेव द्रव्यत्वमित्यादिप्रयोगप्रसङ्ग इति भावः । शक्या प्रसिद्धिरिति । पार्थ एव धनुर्धर इत्यादावन्यतादात्म्यत्वाद्यवच्छिन्नस्य केवलान्वयित्वात्तदवच्छिन्नव्यवच्छेदोऽप्रसिद्ध इत्यर्थः ।
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वादार्थसंग्रहः [४ भागः न च पृथिव्यामेव गन्ध इत्यादावन्यसमवतेत्वत्वावच्छिन्नाभावो नाप्रसिद्ध इति वाच्यम् । समवेतत्वत्वापेक्षयाऽन्यसमवेतत्वत्वस्य गुरुत्वेन तत्रापि तदवच्छिन्नाभावाप्रसिद्धितादवस्थ्यात् । यदि च गुरुधर्मोऽपि प्रतियोगितावच्छेदकस्तदात्राप्रसिद्धेरभावात्सर्वसाधारणं दोषमाह-बाधितत्वं चेति । अन्यसमवेतत्वत्वावच्छिन्नाभावः सामान्यादौ प्रसिद्धोऽपि गन्धादौ बाधित: पृथिव्या अपि जलाधपेक्षयान्यत्वादिति भावः । नन बाधानवतारस्थले तत्प्रसिद्धिरस्त्वत आह-पार्थे एवेत्यादि । पार्थ इति सप्तम्यन्तम् । पार्थ एव धनुर्धरत्वमित्यादी पार्थान्यसमवेतत्वत्वावच्छिन्नव्यवच्छेदस्याप्रत्ययप्रसङ्गादित्यर्थः। तस्य पार्थान्यसमवेतत्वत्वावच्छिन्नव्यवच्छेदस्य । तत: अन्यसमवेतत्वत्वावच्छिन्नव्यवच्छेदात्। असमवेतमात्रनिष्ठात् । तथा च शक्यतावच्छेदकानाक्रान्तत्वात् तद्वोधो न स्यादिति भावः । पार्थ एव धनुर्धर इत्यभिप्रायेणान्यतादात्म्यत्वावच्छिन्नाभावस्याप्रसिद्धत्वेन तस्य ततोऽन्यत्वादित्यस्यासंगतिर्बोध्या । एवकारत्वमेव शक्ततावच्छेदकं, न तु तत्तत्स्थलीयैवकारत्वम् । येन प्रकृतस्थलीयैवकारशक्या प्रसिद्धया तत इत्यस्यानुपपत्तिः स्यात् । इत्थं च तत एवकारशक्यतावच्छेदकावच्छिन्नादन्यसमवेतत्वत्वावच्छिन्नाभावादित्यर्थ इत्यपि ब्रमः । ननु भवन्मतेऽप्यन्ययोगस्य व्यवच्छेदे प्रतियोगितामात्रेणान्ययोगत्वावच्छिन्नप्रतियोगितया वाऽन्वये विवक्षितार्थालाभ इत्यत आह-नीलो घटो नास्तीति । यथा नअर्थाभावे विशेषणतावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वस्य व्युत्पत्तिबलाद्भानं तथा यथाश्रत एवकारार्थव्यवच्छेदेऽपीति भावः । इदं एकपदार्थयोः परस्परान्वयित्वम् । तथा च कृतिवर्तमानत्वयोरेकपदार्थयोः परस्परान्वयवदत्रापि तथाऽन्वयो नाव्युत्पन्न इति भावः । नन्वेवमाख्यातमात्रस्य व्यापारवाचित्वे संयुजिप्रभृतेरपि सकर्मकत्वे चैत्रो ग्रामं संयुज्यते इत्यादिप्रयोगः स्यादत आह-धात्वर्थेति । धात्वर्थ: संयोगस्तदनुकूलव्यापारः क्रियारूप: । नन्वेवमपि संयुज्यत इत्यत्र चैत्रस्य संयोगानुकूलकर्मवत्त्वे बाधविरहाद्वयापारवानित्यसंभवात्सकर्मकत्वं स्यादत आहसंयोगवत्त्वमात्रेति । तथा चात्र नैयायिकानामिवास्माकमप्याख्यातस्याश्रयत्वं कृतश्चाश्रय एवार्थ इति प्रत्ययोपनीतव्यापाराभावान्न सकर्मकत्वमिति भावः। नन्वेवमपि संयोग इत्यादौ घनादिना व्यापाराभिधानाद्धातोः सकर्मकत्वं स्यादत आह-संयोग इति । मंडनेनानुक्तस्याभिधानान्मंडनमतानुयायिन इत्युक्तम् ।
पाकेति । पाकस्य धात्वर्थत्वाभावाद्यत्नत्वेन यत्नस्य चाख्यातार्थत्वाभावात् पाकानुकूलयत्नत्वेन बोधो न स्यादित्यर्थः । ननु तादृशबोधो लक्षणया शक्ति
१ अन्यसमवेतेत्यपि पाठान्तरम् ।
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१३ प्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः ।
तत्र तत्र तत्तत्फलानुकूलतत्तद्वयापारविशेष एव धात्वर्थः । सर्वत्र धात्वाश्रयत्वमेव कर्तत्वं संख्यावर्त. मानत्वादिकं कचिदाश्रयत्वादिकमपि वा आख्यातार्थे इति गुरुमतमपि तत्र तत्र तादृशयत्नाननुभवप्रसङ्गादनुपादेयम् ॥ १७॥ इति महोपाध्याय-श्रीरघुनाथशिरोमणिभट्टाचार्यकृत
आख्यातवादः समाप्तः।
भ्रमेण वा भविष्यतीत्यत आह-फलेति । नन्वसाधारणानुकूलत्वस्य संसर्गत्वान्नायमपीत्यत आह-विभागेति । विभागाद्यनुकूलस्पन्दस्य त्यजिघात्वर्थत्वान्नातिप्रसंग इति भावः । ननु विभागस्य परंपरया कृतौ यादृशमनुकूलत्वं तादृश एव संसर्ग इति नायमपि दोष इति चेत्, तथापि निराकृतं प्रागेव व्यापारत्वस्याख्यातशक्यतावच्छेदकत्वं यत्नत्वस्य लाघवेन तत्त्वौचित्यात् । घनादेः शक्यन्तरकल्पनायां गौरवाजानाति संयुज्यते जानीयात्संयुज्यादित्यादौ धात्वर्थे प्रत्ययार्यान्वयस्य क्लृप्तत्वात्सर्वत्र तथात्वौचित्याच्च । किं च क्वाचित्कस्पंदादिरूपक्रियाया अपि धातुना प्रतिपादनात्स्पंदत्वादेः संयोगत्वाद्यपेक्षया गुरुत्वाभावाच्च शक्यतावच्छेदकत्वं दुर्वारम् । यत्र च फलापेक्षया व्यापारो गुरुस्तत्रास्तु फलमेवार्थो व्यापारे लक्षणा, पृथक्शक्तेरेवोपगमादिति दिक् ॥१६॥
(मथु० ) गुरुमतमाह-तत्र तत्रेत्यादिना । तत्तत्फलेति । तानि तानि फलानि संयोगविभाग-विक्लित्ति-स्वत्व विशेषादिरूपाणि, तदनुकूलो व्यापारविशेषः गमि-त्यजि-पचीनां कर्तुः स्पन्दत्वददात्यादेर्शानरूप इत्यादिव्यापारविशेष इत्यत्र विशेषपदोपादानात् नोदनादृष्टतजनककृत्यादिव्युदासः । पचेः साक्षाद्विक्लित्तिजनकस्य तण्डुलावयव क्रियादेयुदासः । तस्य पच्यर्थत्वे तण्डुलं पचतीत्यादौ तण्डुलपदस्य तण्डुलावयवपरतया परसमवेतस्य द्वितीयार्थस्य धात्वर्थसाक्षाद्विक्लित्तिजनकस्पन्दस्य पच्यर्थत्वेऽपि पचतीत्यादौ चैत्रादेः स्वजनककृत्यादिमत्वसंवन्धेन धात्वर्थाश्रयत्वादिति भावः। आश्रयत्वादिकमिति ।
आदिपदात्प्रतियोगित्वपरिग्रहः । भावकर्माख्यातवारणाय क्वचिदित्युक्तम् । कर्माख्यातस्य फलमेवार्थः । तादृशेति । वर्तमानत्वादिविशिष्टेत्यर्थः । ताहशानुभवः स्वारसिकत्वेन विशेषणीयः । तेन लक्षणया तत्र यत्नानुभव इति
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१६८ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः निरस्तम् । इदमुपलक्षणम् । यत्नत्वादिकमुपेक्ष्य आश्रयत्वादेर्गुरुत्वादित्यपि गोध्यमिति दिक् ॥ १७॥
इति महामहोपाध्याय-श्रीमथुरानाथतर्कवागीश
विरचितमाख्यातवादरहस्यं समाप्तम् । (राम) गुरुमतं दूषयितुमाह-तत्र तत्रेति । पचति-गच्छतीयादावित्यर्थः । पचतीत्यादौ विक्लित्यनुकूलव्यापारोऽधः सन्तापनादिः । गच्छ. तीत्यादौ संयोगानुकूलव्यापार इत्यर्थः । नन्वेवं न्यायमताविशेष इत्यत आहसर्वत्रेति । धात्वर्थाश्रयत्वं च क्वचित् परम्परया क्वचिच्च साक्षादित्यर्थः । तथा चाश्रयतासंबन्धेन धात्वर्थस्य चैत्रादावन्वयः । साक्षाद्भेदेन नामार्थधा. त्वर्थप्रकारकान्वयबोधश्चाव्युत्पन्न एवेति भावः । नन्वेवमाख्यातार्थः को भवि. ज्यतीत्याकाङ्क्षायामाह-संख्येति । पचतीत्यादौ वर्तमानत्वादिकमाख्यातार्थः । नामार्थधात्वर्थयोर्भेदेन साक्षादन्वयस्याव्युत्पन्नत्वमते स्वाह--क्वचिदिति । पचतीत्यादावाश्रयत्वमाख्यातार्थ इति न नामार्थधात्वर्थयोरित्यादिव्युत्पत्ति. विरोध इति भावः । नश्यतीत्यादौ प्रतियोगित्वस्यैवाख्यातार्थत्वे क्वचिदित्यु. क्तम् । आश्रयत्वादीत्यादिपदेन क्वचित्प्रतियोगित्वमित्यस्य संग्रहः । गुरुमतमपीत्यस्याउपादेयमित्यनेनान्वयः । अनुपादेयत्वे हेतुमाह-तत्र तत्रेति । पचति गच्छतीत्यादावित्यर्थः । वस्तुतस्तु चैत्रः पचतीत्यादिप्रयोगो न स्यात् पाकादेविक्लित्त्यनुकूलव्यापारस्य स्थालीवह्निसंयोगादेराश्रयत्वस्य चैत्रादावभावात पाकविशेष्यकानुकूलकृतिमत्त्वादिरूपपरम्परासंबन्धेनाश्रयत्वं च न प्रामाणिक तथानुभवविरहात् । अपि च तादृशपरम्परासंबन्धावच्छिनाश्रयत्वत्वापेक्षया लाघवेन कृतित्वजातेः शक्यतावच्छेदकताया एव युक्तवादित्यादि स्वयमूहनीयमिति संक्षेपः। इति श्रीमहामहोपाध्याय-रामचन्द्रन्यायवागीशभट्टाचार्य
विरचिताख्यातवादटिप्पणी समाप्ता। ( रघु० ) प्राभाकरमतमुपन्यस्य तत्र दूषणमाह-तत्र तत्रेत्यादिना । तत्र तत्र गच्छतीत्यादौ । तत्तत्फलेति । संयोगविभागादीत्यर्थः । 'क्वचिदा श्रयत्वादिकमपीति । भावाख्यातस्थले आश्रयत्वादेरभावात्क्वचिदिति । प्रसङ्गादिति । लक्षणादिना तादृशानुभवोपपादने तु लाघवतर्कस्यैव शरणीकरणीयस्वादिति भावः।
इति श्रीरघुदेवभट्टाचार्यकृताख्यातवादटिप्पणी समाप्ता । (जय० ) गुरुमतमाह-तत्र तत्रेति । तानि तानि संयोगविभागविक्लित्यादिरूपाणि । तदनुकूलो व्यापारो गमित्यज्योः स्पन्दः । पचेरमिसंयोगः,
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१३ प्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः ।
१६९ विशेष: अन्यदीयगमनानुकूलनोदनादृष्टजनककृत्यादिव्यावृत्तः । सर्वत्रैषां वृत्तिर्न भवतीत्यत उक्तं तत्र तत्रेति । गमित्यज्यादिधातुविशेषे इत्यर्थः । धात्वर्थाश्रयत्वं तत्तद्धातुसमभिव्याहृताख्यातप्रतिपाद्यस्तत्तद्धात्वर्थसंबन्धः । तत्र च गमित्यजिधात्वर्थस्य तु संयोगविभागानुकूलस्संदस्याश्रयत्वं कर्तर्यव्याहतमेव । पच्याद्यर्थामिसंयोगाद्याश्रयत्वस्य कर्तर्यभावेऽपि स्वजनककृतिसंबन्धेन तत्संबन्धित्वं चैत्रादावव्याहतं तदेव चाख्यातार्थः। यत्तु विक्लित्त्यनुकूला कृतिरेव पच्यर्थः, कृतेरपि क्रियाद्वारा विक्लित्त्यनुकूलत्वादिति, तन्न, विक्लित्त्यनुकूलकृतिविगमेपि पाको विद्यत इत्यादिप्रयोगात् । पाक इत्यादौ तेजःसंयोगः, पचतीत्यादौ तदनुकूला कृतिः पच्यर्थ इत्यपि केचित् । आख्यातार्थः किमित्यत्राह-संख्येति । आदिपदादतीतत्वादीष्टसाधनत्वादेरात्मनेपदार्थस्य फलस्य ग्रहणम् । धात्वथस्य नामार्थे भेदेनान्वयो नास्तीति स्वोक्तमनुसृत्याह-कचिदिति । आदिपदान्नश्यतीत्यादौ प्रतियोगित्वपरिग्रहः। कर्माख्याते फलार्थके भावाख्याते चाश्रयत्वाद्यर्थत्वाभावात्वचिदित्युक्तम् । तत्र तत्र चैत्रः पचति, सुंदरः पचतीत्यादौ । मण्डनमतदूषणेनैव तन्मतं दूषितमित्यस्मत्कृत-शब्दालोकरहस्ये विस्तरः ।। १७ ॥
अपूरि जयरामेण विबुधानन्ददायिनी ।
आख्यातवादव्याख्यानसुधा कण्ठे निघीयताम् ॥ १ ॥ इति श्रीजयरामन्यायपञ्चाननकृताऽऽख्यातवादटीका समाप्ता।
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वादार्थसंग्रहः शिरोमणिकृताख्यातशक्तिवादः । आख्यातस्य यत्नो वाच्यः पचति पाकं करोतीति यत्नार्थककरोतिना सर्वाख्यातविवरणात् । व्यवहरादिव बाधकं विना विवरणादपि व्युत्पत्तेः किरोतीत्यादियत्नप्रश्ने पचतीत्याद्युत्तरस्य यत्नार्थकत्वं विनानुपपत्तेश्च । अचेतने रथो गच्छतीत्यादौ च अनुकूलव्यापारे लक्षणेति प्राश्वः ॥१॥ .
न्यायवाचस्पतिकृता व्याख्या। आख्यातस्येति । अभियुक्तानां तादृशपरिभाषाविषयत्वरूपं आख्यातत्वं न शक्यतावच्छेदकं तदज्ञानेऽपि शाब्दबोधात् । किंतु तिङादिकम् । तत्त्वं दशलकारसाधारणं तथा, तदज्ञाने शक्तिभ्रमाच्छाब्दधीरिति केचित् । एवं सति आख्यातत्वस्यैव तथात्वौचित्यात् । शक्यतावच्छेदकलाघवादेश्च सर्वत्र तत्पदस्यैव शक्तिकल्पनात् । घटादिपदानां शक्ति विलोपापत्तेरिति । एवं कृतेऽपि यत्ने शक्तिः । लटः शतृशानचाविति सूत्रेण लटस्तयोरादेशत्वावगमात् । किंच तिकादिकमेव । वर्तमानस्वादियत्नयोरेकोचारणान्तभावे सा पुष्पवन्तादिपदवत् शक्यतावच्छेदकम्, अतएवातीतयत्ने वर्तमानबोधे न तात्पर्यम् । तत्र पचतीत्यादि न प्रयोगः । उक्तपुष्पदन्तावितिवत् । अन्यथा लकारस्य तत्र सत्त्वात् सामान्यतः केवलयलभानापत्तेः, यत्नो वाच्यः। यत्नत्वं वाच्यतावच्छेदकमित्यर्थः।
सर्वाख्यातेति । व्यापारबोधकसर्वाख्यातेत्यर्थः । शक्याबोधकत्वेनोभयमतसिद्धसर्वाख्यातेत्यर्थ इति वा । तेन नश्यतीत्यादौ तथा विवरणेऽपि न क्षतिः । अथवा सर्वाख्यात-विभाजकोपाधेर्यस्नार्थक-पचवित्रीयमाणार्थकवृत्तित्वादित्यर्थः । पचेत्पाकं कुर्यादित्यादिना लिडापर्थस्यापि विवरणात् । विवरणं तदर्थबोधाभिप्रायपूर्वकतदर्थस्वाभिमतकथनम् । पचति पाकं करो
१ यत्नवाचकत्वम् इ. पाठः । २ 'शक्तिग्रहात्' इ. पाठः । ३ तीति प्रश्ने इ. पाठः। ४ त्युत्तर-इति पाठः ।
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१३ ग्रन्थः] आख्यातनक्तिवादः।
१५१ तीति विवरणधर्म्यशे शहिवारणायाह-बाधकं विनेति । रथो गच्छतीत्यादी व्यापाविवरणेऽपि तत्वस्य गुरुत्वान्न शक्यतावच्छेदकत्वम् । अतो बाधकं क्नेितीति केचित् विवरणादायाति तदाहुः। शक्तिग्रहं व्याकरणोपमानक्रोशानवाक्याव्यवहारतश्च । वाक्यस्य शेषाद्विवृत्ते वदन्ति सानिध्यतः सिद्धपदस्य वृहाः। विवरणं चातुमानविधया शक्तिग्राहकत्वम् । यत्नवं आख्यातवाच्यतावच्छेद. कम् । यत्नत्वविशिष्टबोधकं तदीयविवरणविषयतावच्छेदकत्वात् । अभियुक्तानवाच्यतावच्छेदकत्वेन तात्पर्यविषयाद्वा । आख्यातं यत्नत्वविशिष्टबोधकम् । यलत्वविशिष्टबोधकपदाभिळप्यमानार्थकत्वात् , इति वा अनुमानम् ।
ननु विवरणं सन्दिग्धम, मीमांसकैर्व्यापारवानित्येव विवरणा-यद्वा । अन्यलभ्यत्वं धर्मिणि शक्तौ यथा बाधकं तथाऽन्यलभ्यत्वयलेऽपि इत्याशयेनाह-किं करोतीति । यदूपविशिष्टे प्रभविषयत्वसम्बन्धः प्रभवाक्येन प्रतिपायते तद्रूपविशिष्ट विशेषधर्मेण तत्सम्बन्धबोधकोत्तरवाक्यादेव प्रमनिवृत्तिः । तथा च किंविषयकयत्नवानिति प्रश्ने पचतीति वाक्यस्य पाकविषयकयत्नवानित्यर्थकस्वं विनानुपपत्तेरित्यर्थः। किमिच्छतीति प्रश्ने घटमिच्छतीत्युत्तरवत् । यद्यपि किं करोतीति प्रश्ने पाकमित्येवोत्तरमुचितं तथापि संशयनिवर्तकविशिष्टार्थबोधकोत्तरवाक्यप्रयोग एव साम्प्रदायिक इत्यभिप्रायेणेदम् । अचेतने अचेतनान्वितार्थबोधके ॥ १ ॥
रामकृष्णनिर्मिता व्याख्या। मुकुन्दचरणद्वन्द्वमाधाय हृदयाम्बुजे ।
आख्यातवादसव्याख्या रामकृष्णेन तन्यते ॥ १॥ आख्यातस्येति । यत्नत्वमाख्यातवाच्यतावच्छेदकमित्यर्थः। तेन व्यापारशक्तिवादिना यत्ने सामान्यत: शक्तिस्वीकारेऽपि न सिद्धसाधनम् । एवं च यत्नत्वमाख्यातवाच्यतावच्छेदकम् । तत्त्वबोधकविवरणवत्वादिति प्रयोगः। विवरणं प्रमाणत्वव्याप्यमिति हेतौ तत्प्रवेशः। बाधकमिति । कुत्रचिदाश्रयत्वप्रतियोगित्वादिविवरणेऽपि गौरवान्न तत्र शक्तिरित्यर्थः । व्युत्पत्तरिति । व्युत्पत्ति: शक्तिग्रहः । कोशादिवत् पिकः कोकिल इत्यादिविवरणे यथा कोकिल: पिकपदवाच्य इति बोधस्तथा पचति पाकं करोतीत्यादिविवरणस्यापि तत्तदर्थे तत्तत्पदवाच्यताबोधकत्वमिति विवरणं शक्तिग्राहकमिति भावः।
एवं विवरणस्थले समभिव्याहारान्तरस्थपदार्थकथनम् । कोशस्थले तु समभिव्याहारस्थस्यैवार्थकथनमिति भेदः । तादृशं विवरणं न सर्वसंमतमत आह
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वादार्थसंग्रहः [४ भागः किमिति । एतादृशप्रश्नोत्तरभावस्तु सर्वसंमत इत्यभिप्रायः। यद्वा-पाकमित्यशब्दार्थकर्मत्वस्य विवरणवदिदमुपपत्स्यत इत्याशङ्कायामाह-किमिति । किमादिशब्दस्य प्रश्नविषयत्वेन रूपेण शक्तेः। किं करोतीत्यादिवाक्येन प्रश्नविषयनिरूपितविषयिताश्रयकृत्याश्रयतावानिति जनितो बोधः। कृतिविषयस्य प्रश्नविषयत्वमादाय पर्यवस्यतीति ताशप्रश्ननिवृत्तये पचतीत्युत्तरम् । प्रश्नो यद्यपि जिज्ञासैव, सा च सामान्यतो न सम्भवति, स्वकारणीभूतज्ञानस्यैवान्ततःसिद्धत्वात्। अत एव सामान्यतो घटज्ञानेच्छा न सम्भवति, कारणीभूतघटज्ञानज्ञानस्यैव घटज्ञानत्वात् । किन्त्वसिद्धप्रत्यक्षादिगोचरा भवति । तथा च प्रकृतेप्युक्तरीत्या प्रश्नविषयविषयकज्ञानसत्त्वात् सामान्यतो जिज्ञासा दुर्लभा, तथापि वस्तुगत्या ये कृतिविषयत्वव्याप्यपाकत्वादिप्रकारकाः पचति गच्छतीत्यादि. प्रत्यया: तदन्यतरेष्वेव कृतिविषयगोचरज्ञानत्वादि...सामान्यरूपेणेच्छा । सा च तदन्यतरसिद्धावेव निवर्तते । अतएव किं पचतीत्यादावपि ओदनं पचति सूपं पचतीत्यादिप्रकारकज्ञानानामन्यतमेष्वेव सामान्यत इच्छा । सा च ओदर्न पचतीत्यायेकतरज्ञाने जात एव निवर्तत इति किंशब्दात्तादृशजिज्ञासाविशेषमवगत्य श्रोतुस्तथैवोत्तरं प्रश्नवाक्यस्थपचतीत्यनेन साकाङ्क्ष कदाचिदोदनमिति, कंदाचिदोदनं पचतीति । एवं किं द्रव्यमित्यादावपि । द्रव्यत्वव्याप्यघटत्वपटत्वादितत्प्रकारकज्ञानेष्वेव द्रव्यत्वव्याप्यप्रकारकज्ञानत्वेन द्रव्यज्ञानत्वेन ज्ञानत्वेन वा जिज्ञासा । उत्तरमपि तदनुरूपमेव । प्रतिबन्धकश्च तादृशजिज्ञासायाः सामाधिकरण्येन स्वविषय एवेति न काऽप्यनुपपत्तिः । एवं निर्वहिः स्यान्निधूमः स्यादित्यादिशब्दस्थले निर्वह्नित्वप्रकारक-पर्वतज्ञानप्रयुक्त-निघूमत्वप्रकारकशानविषयोऽयमिति बोधः स्यात्पदनिर्धूमपदनिर्वह्निपदैलक्षणादिना समर्थनीयः । अत एव निधूमत्वप्रकारक-पर्वतज्ञानद्वेषप्रयुक्तस्तत्प्रयोजक-निर्वह्नित्वप्रकारकपर्वतज्ञाने द्वेषो जायत इति तादृशज्ञानेच्छा निवर्तते । ततश्च बलवत्या आहार्यतादृशनिर्वह्नित्वज्ञानसामग्र्या निवृत्तौ निराबाधानुमितिरिति रीत्या परिशोधकस्य तकस्यानुमितावुपयोगः। .. अथ सति बाधाभावे परामर्शनाहत्यानुमितिरेव जन्यत इति कुत्र विषयपरिशोधकस्य तर्कस्योपयोग इति चेत् यत्र निर्वह्विपर्वतज्ञानगोचरेष्टसाधनता. विषयको निर्वहिपर्वतज्ञानस्य निर्धूमत्वप्रकारकपर्वतज्ञानातिरिक्तफलगोचरेष्टसाधनताविषयकश्च वहिव्याप्यधूमपरामर्शः । तदनु च तत्पूर्वकालीनफळेच्छायाः सत्त्वेनेच्छासामग्र्या बलवत्त्वेनेच्छैव निर्वह्निपर्वतज्ञानविषयिणी तत्फलविषयिणी
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः।
१७३ च जायते नानुमितिः । तदनन्तरमपीच्छाघटितसामग्र्या बलवत्त्वान्निर्वह्निपर्वतज्ञानमाहार्यमुपनीततादृशेष्टसाधनतादिविषयकं जायते, ततस्तादृशेच्छा, ततः पुनरपि तादृशं ज्ञानमिति क्रमेणानुमितिनं जायत एवेति ।
यदा पुनर्विषयपरिशोधकतर्कावतारस्तदा तर्कात्मकनिघूमत्वप्रकारकपर्वतज्ञानरूप-द्विष्टसाधनताज्ञानात्मकेन तादृशपरामर्शेन विनश्यदवस्थज्ञानोत्पादितस्वपूर्वकालीन-निघूमत्वप्रकारक-पर्वतज्ञानसहकृतेन द्वितीयक्षणे निर्वह्नित्वप्रकारकपर्वतज्ञाने द्वेष एव जायते, न पुनर्निर्वह्नित्वप्रकारक-पर्वतज्ञाने इच्छाद्वेषस्येव द्वेषसामग्र्या अपि विरोधिसामग्रीत्वेनेच्छाप्रतिबन्धकत्वात् तदनन्तरमपि नेच्छाद्वेषेण प्रतिबन्धात् द्वेषोऽपि तदा न जायते, तत्पूर्व फलद्वेषाभावात् । अनुमितिसामग्री तु निराबाधा प्रवर्तते इति भवत्यनुमितिरिति ।
नन्वेवमपि तर्को व्यर्थः, तदानीं फलेच्छाया अभावेनैवेच्छासामध्यभावादनुमित्युत्पत्तौ बाधकाभावादिति चेत् , न, फलेच्छाया अकारणत्वात् , इष्टसाधनताज्ञानेन तस्याः कारणतावच्छेदकत्वात् । तदवच्छेदकत्वं च तस्या एककालावच्छेदेन एकात्मवृत्तित्वेन । कालश्चात्रानुभवानुसारेण क्षणद्वित्रात्मकः स्थूलो ग्राह्यः । इत्थमेव बलवदनिष्टाननुबन्धीष्टसाधनताज्ञानस्य कारणत्वं संगच्छते । अन्यथा द्वेषेच्छाज्ञानानामेकदा मिलनाभावादसङ्गतेः। एवं तदानीमपि क्षणद्वयपूर्व फलेच्छासत्वादिच्छासामग्री निराबाधेवेति सुधीभिर्विभावनीयम् ।
एवं च वह्निश्चेत्प्राज्वलिष्यत् ओदनमपाक्षीदित्यादौ प्रज्वलनाश्रयवयभावप्रयुक्तौदनकर्मकपाकाभाववानिति बोधः । अत्र च पूर्वप्रतीके वह्निपदे स्वाभावे लक्षणा । प्रयुक्तत्वं चेत्पदार्थः । उत्तरप्रतीके चाख्यातस्यैवाभावोऽर्थः । निष्ठत्वं च प्रथमार्थः । उत्तरप्रतीके चाख्यातस्यैवाभावोऽर्थः । यद्वा-वहि. निष्ठप्रज्वलनाभावप्रयुक्त-प्रज्वलनाभावप्रयुक्त-तादृशपाकाभाववानित्येव बोधः । एवं चोभयप्रतीके आख्यातस्यैवाभावोऽर्थः । निष्ठत्वं च प्रथमार्थः । स च धात्वर्थे चेति । वह्निपदे वह्निकर्तृकलक्षणया वह्निकर्तृक-प्रज्वलनाभावप्रयुक्तौदनकर्मकपाकाभाववानिति बोध इति कश्चित् । तच्चिन्त्यम् । वन्हिपदस्थक्रियाविशेषणत्वे द्वितीयाद्यापत्तेः । यत्नार्थकत्वं विनेति । अन्यथा पाकविषयव्यापारवानिति बोधस्य प्रश्नविषयत्वाभावेन ततः प्रश्नानिवृत्तिप्रसङ्गात् । अचेतनेत्यादिलक्षणेऽत्यन्तं प्राचां मतम् ॥ १ ॥
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१७४ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः अन्यदीयगमनानुकूलनोदनादिमति गच्छतीत्यप्रयोगात् जानातीच्छति-यतते-द्वेष्टि-विद्यते-निद्रातीत्यादौ च क्रियानुकूल-कृति-व्यापारयोरप्रतीतेः गत्यादिमत्त्वमात्रप्रतीतेश्चाश्रयत्वे नश्यतीत्यादौ च प्रतियोगित्वे निरूढलक्षणा । चैत्रः पचति तण्डुलः (न्यायवा०) नवीनमतमाह-अन्यदीयेत्यादिना । नोदनादीति । आदिपदादभिघातादिसंग्रहः । निश्चलेऽपि पुरुषे रथगमनानुकूलव्यापारवति गच्छतीति स्यादित्यर्थः । न च ग्रामं गच्छतीच्यादौ यथावधिगमनसमये स्वरूपयोग्यतां प्रयोजकतां वा आदाय तथा प्रयोगः, तथानोदनानुकूलयत्नवति पुरुषे शक्त्यैव गच्छतीति धीः कुतो न स्यादिति वाच्यम् , तत्र तादृशप्रयोजकताव्यापारवृत्तप्रयोजकतैव गमनकृत्योः सम्बन्ध इति नातिप्रसङ्गः । इह तु नोदनाख्यो रथपुरुषनिष्ठ एक एव व्यापारः, स चेद्रयो गच्छतीति व्यवहार जनयेत्तदा पुरुषो गच्छत्यपीति भावः । ननु गमनविशिष्टो व्यापारस्तत्र भासते इति वाच्यमत आह-जानातीति द्वेष्टीत्यन्तं प्रयोगवाहुल्यदर्शनाय । नन्वत्रापि ज्ञानं विशिष्ट एव व्यापारो यत्नः संयोगादिस्तत्र भासते अतो विश्ते इति सत्तावर्तमानशे......ल......सम्बन्धः । तदनुकूलो व्यापारो गुणादौ मुतरां नास्तीति भावः । निद्रातीति । मिडाख्यनारममनःसंयोग एव निद्रा, तदनुकूलो व्यापार असाधारणो व्यापारस्तदानीमात्मनि नास्ति, अदृष्टं तु साषारणमेवेति भावः । न च मिहामनःसंयोगस्य निद्रवे मनो निद्रातीति स्यात्, परम्पराप्सम्बन्ध विशेषेणैव तद्भानात् । केचित्तु द्वेष्टीत्यन्तेन द्वेषायनुकूलकृतिव्यक्च्छेदः, विद्यतेत्यादिना व्यापारव्यवच्छेद इत्याहुः।। - अनुभव प्रमाणमाह-गत्यादीति । नश्यतीत्यादौ नाशानुकूलव्यापारस्याअयत्वस्य वा बोधे हन्तरि कपाकादौ च नश्यतीति प्रसङ्गः । गमनार्थकगमिधातुसमभिव्याहताख्यातस्य गमनाश्रयत्वप्रकारकबोधत्वं कार्यतावच्छेद. कम् । अतस्त्वं गच्छतीत्वादावपि युष्मत्पदादेः शरीरविशेष लक्षणेत्यपि क्वन्ति । निरूढेति । अनादिप्रयोगसत्त्वेऽपि यत्नत्वापेक्षया गौरवात् । न शक्तिः किन्तु निरूतुलक्षणैव । अनादिप्रयोगानुसारिणी लक्षणा निस्टलक्षणा । इत रावपपत्तिज्ञान विना बोषिका लक्षणा वा सा । नतु रथो मच्छतीत्यादौ भाषे
१ अनान्यत्र च गलिता ग्रन्थः । अतस्तत्तत्स्थाने......एतद्विधं चिहं निवेशितम् । एवमेवाग्रेऽपि ज्ञेयम् ।
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१३ ग्रन्थः ] याख्यातशक्तिवादः । मैत्रः पच्यते तण्डुल इत्यादावन्वयाबोधात् धात्वर्थप्रातिपदिकार्थयोर्भेदेन साक्षादन्वयस्याव्युत्पन्नतया संबन्धमर्यादया तद्भानस्यासंभवादिति तु नव्याः॥२॥ यतासम्बन्धेन रथादौ गमनादेोधोऽस्तु कृतलक्षणया । अतश्चैत्रः पचतीत्यादि । भेदेन अभेदातिरिक्तसम्बन्धेन । शिवस्तु तेन स्तोकं पचतीत्यादौ स्तोकपाकयोरभेदान्वये बोधेऽपि न व्यभिचारः । सत्ता तदंशे प्रकारतया । तण्डुल पच. तीत्यत्र पाकप्रकारीभूतकर्मत्वे प्रकारतया परम्परान्वयोस्तीति तब्यवच्छेदायेदम् । ___ अयमर्थः-यदि क्रियानामार्थयोः साक्षात्सम्बन्धस्तदा तण्डुलः पचतीत्यादौ कर्मतासंसर्गेण पाके तन्दुलस्य चैत्रः पच्यते इत्यत्र कर्तृतासंसर्गेण पाके मैत्र. स्यान्वयप्रसङ्गः, तद्भानस्याश्रयत्वादिभानस्य । न च पचति तण्डुल इत्यत्राख्यातेन कर्मत्वानभिधानाद्वितीयैव साधुः, एवं मैत्रः पच्यते इत्यत्राख्यातेन कर्तृत्वानभिधानात् तृतीयैव साधुः, तथा चासाधुत्वज्ञानादेव न शाब्दधीरिति वाच्यम् , असाधुत्वज्ञानाभावे काले शाब्दधीप्रसङ्गात् । अनभिहिते कर्मस्वादौ तत्प्रकारकबोधे एव द्वितीयादिः साधुरिति तत्संसर्गबोधेन दोष इति कश्चित् । नन्वत्राभेदेन नामार्थप्रकारकान्वयबोधोऽप्रसिद्धः, प्रसिद्धौ विभक्त्यर्थोपस्थितेव्यभिचार एवेति ।
न च कर्मताविशेष्यक-तण्डुलप्रकारकान्वयबोधे तन्दुलवाचकपदोत्तर-विभक्तिजन्यकर्मत्वोपस्थितिः कारणम्, एवं कर्तृत्वादावपि तण्डुलः पचतीत्यादौ तथाकार्यकारणभावाकल्पनान शाब्दधीरिति वाच्यम् । एवं सति तण्डुलपदोत्तरद्वितीयारूपाकाङ्क्षाज्ञानादीनां कर्मत्वादिविशेष्यकबोधे हेतुत्वस्य क्लृप्तत्वात तदभावादेव न शाब्दधीरिति कृतम् । विभक्त्यर्थोपस्थितेहेतुतर्यो......त चेन्न, नामार्थप्रकारकबोध प्रति विभक्तिजन्यायाः प्रत्ययजन्याया एव वा उपस्थितेतत्वात् । तत्र च समानविशेष्यकरवं प्रत्यासत्तिः । तथा च पाकादौ विभक्त्यर्थोपस्थितेरभावात्तन्दुलः पचतीत्यादौ न शाब्दधीरिति । न च तण्डुल. पदोत्तरद्वितीयारूपाकाङ्क्षाज्ञानाभावादेव न तथा, तस्याः कर्मस्वविशेष्यकबोधे हेतुस्वात्तदभावेऽपि सामान्यसामग्र्या कार्यापादनसम्भवात् । द्वितीयाया प्रमाहीनशक्तेस्तण्डुलः कर्मस्वमिति पदात् कर्मत्वोपस्थितावपि तण्डुलं पचतीयादितोऽन्वयबोधाद्विभक्त्यर्थोपस्थितेहेतुतया अवश्यवाच्यत्वाघ । एवं धात्वर्थप्रकारकान्क्यबोधे विभक्त्यर्थोपस्थितेः सामान्यविशेष्यतया हेतुत्वमिति । . त्यो गच्छतीत्यादौ गमनादेः साधाइन्वयः । तण्डुलो भवतीत्वादौ यत्र तण्डुलपदस्य तण्डुलपाके लक्षणा, तत्र व्यभिचावारणाय वाला विशिष्टे वृषि
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१७६
' वादार्थसंग्रहः। [४ भागः ज्ञानप्रयोज्यतत्तद्विशेष्यतातिरिक्तविशेष्यतासम्बन्धेन तण्डुलप्रकारकबोधे विभक्त्यर्थोपस्थितेहेतुता बोध्या । यद्वा- यत्र तण्डुलं कुरु इत्यादौ द्वितीयायाः पाकादौ लक्षणा, तत्र पाकविशेष्यकतण्डुलप्रकारकबोधे विभक्त्यर्थोपस्थिते. हेतुत्वं क्लृप्तमिति तदभावात्तण्डुलः पचतीत्यत्र शाब्दधीः । एवं गच्छतीप्यत्र यत्राख्यातस्य रथादौ लक्षणा तत्र रथविशेष्यकगमनान्वयबोधे विभक्त्यर्थोपस्थितेहेतुस्वकल्पनात् । अन्यत्र रथो गच्छतीत्यादौ आश्रयत्वे लक्षणा । यदि व्याख्यातस्य रथादौ लक्षणास्थले पदजन्यरथोपस्थितित्वेनैव हेतुत्वं, न तु विभक्त्यर्थोपस्थितित्वेनेति विमृश्यते तदा धात्वर्थस्य रथादौ साक्षादन्वयेनातुपपत्तिगन्धोऽपि । मणिकृतामाशयोऽप्ययमेव । अतएव चैत्रो जानातीत्यादौ ज्ञानान्वयः साक्षादेव तैः समर्थितः । अन्ये तु सामान्यतो नामार्थप्रकारकबोधे विभक्त्यर्थोपस्थितेर्हेतुत, न तु विशिष्यतण्डुलादिप्रकारकबोधे गौरवात् । नामवं चात्र विभक्तिभिन्नत्वम् । अतो धात्वर्थप्रकारकबोधेऽपि विभक्त्यर्थो. पस्थितिरपेक्षितस्याहुः।
अत्रेदै बोध्यम्-पूर्वोक्ततन्दुलादिप्रकारकबोधे विभक्त्यर्थोपस्थितेहेतुतायां निपातातिरिक्तत्वं देयम् । तेन तण्डुलो नास्तीत्यादौ न व्यभिचारः । निपातातिरिक्तत्वं च...प्रकारे विशेष्ये च विशेषणम् । तेनाभावः पश्यतीत्यादौ शाब्दबोधाभावादभावप्रकारकबोधे विभक्त्यर्थोपस्थितेर्हेतुताकल्पने घटः पटो नेत्यादौ अभावस्य पटे साक्षात्प्रकारस्वेऽपि न दोषः । अत्र यद्यपि निपाता. तिरिकपदार्थत्वमप्रसिद्ध सर्वेषामेव तत्पदार्थत्वात् , तथापि निपातजन्योपस्थिति-प्रयोज्य-तत्प्रकारतानिरूपित-विशेष्यताभिन्नत्वे सति निपातजन्योपस्थिति-प्रयोज्य-तत्तद्विशेष्यताभिन्ना या विशेष्यता तत्सम्बन्धेन नामार्थप्रकारक. बोधे विभक्त्यर्थोपस्थितिहेतुरिति ।
यत्तु निपातजन्यनामार्थप्रकारकबोधे विभक्त्यर्थोपस्थितिहेतुरिति, तन्न, भूतल न घटः घटः प्रमेय इत्यस्य शान्दबोधस्य घटवद्भूतलमित्याकारतापत्तेः, अस्य निपातजन्यवाद । यद्वा-तन्दुलप्रकारकबोधे तण्डुलपदोत्तरनिपातातिरिकप्रकृतिभिन्नजन्योपस्थितिः कारणम् । तद्भिनत्वं निपातो विभक्त्यर्थो वा। अर्थेवं घटो नश्यतीत्यादौ घटाभावं पश्यतीति शाब्दधीः स्यात्, नमो निपातत्वात् । न च धात्वर्थविशेष्यतानिरूपितप्रकारतासम्बन्धेन अन्वये धियं प्रति विशेध्यतया विभक्त्यर्थोपस्थितेः कारणत्वं...कल्प्यम् । गज इव गच्छति पिक इव रौतीत्यादौ इवार्थस्य गमनादौ प्रकारत्वात् । न च गजसादृश्यं गमने बाधितम, गजपदादेर्गजगमनादौ लाक्षणिकवादिति चेत्, न, गजसादृश्यस्य कर्तर्येवान्वयात् गजादिगमनसादृश्यगमनत्वमेवेति ।
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१३ ग्रन्थः ] माख्यातशक्तिवादः।
केचित्तु नामार्थयोभेदेनान्वयबोधे विभक्त्यर्थोपस्थिते न हेतुत्वं, किन्तु निपातातिरिक्तनामार्थप्रकारकनामार्थविशेष्यकबोधे निपातजन्योपस्थितिविशेप्यतया हेतुः । निपातातिरिक्तपदात् घट: पटो नेत्यत्र भेदस्य घटप्रकारत्वेऽपि न दोष इत्याहुः । तन्न, तण्डुलं पचतीत्यादौ बोधवारणाय उक्तप्रकारस्यावश्यकत्वात् । परे तु तण्डुलं पचति जानातीत्यादौ कर्मत्वादिकं संसर्गोऽपि । तण्डुलः पचतीयादावन्वयाबोधात्तन्दुलादिप्रकारकबोधे प्रथमान्यविभक्त्यर्थोपस्थिते. रेकरवान्यविभक्त्यर्थोपस्थितेर्वा हेतुस्वकल्पनात् । कार्यतावच्छेदकसम्बन्धस्तु समवायः । अत एव जानाति चैत्र इति शाब्दबोधे ज्ञानवान वेति न संशयः । यद्वा-तण्डुलः पचति ज्ञानं चैत्र इत्यादिसमभिव्याहारस्तु तण्डुलादिप्रकारकशाब्दबोधे प्रतिबन्धकः। तण्डुलं पचति चैत्रो जानातीत्यादिसमभिव्याहारजन्या उपस्थितयः, उत्तेजिका विशिष्टाभावे सति पाकचैत्रादौ तण्डुलः ज्ञानादिप्रकारको. बोध इत्याहुः ॥ २॥
(रामकृ०) ननु रथो गच्छतीत्यादौ नोदके क्रियोसत्तिर्न भवतीति तद्वथावृत्तः कश्चिदनुकूलोऽस्ति क्रियोत्पत्तौ स एव व्यापारत्वेन विवक्ष्यताम् । नोदनस्यैव वा सम्बन्धविशेषः क्रियाप्रयोजकत्वेन व्यापारत्वेन स्वीक्रियताम् । जानामीत्यादिचतुष्टये च तादृशव्यापारस्य मनःसंयोगस्य मनोऽतिप्रसञ्जकत्वेऽपि विशिष्टज्ञानमादाय जानातीत्यत्र इच्छतीत्यादित्रितयसामान्ये च ज्ञानस्य यतत इत्यत्र चेच्छायाश्च तादृशव्यापारत्वमस्त्विति चेदित्यादिकं विभाव्यैव वक्ष्यति-अप्रतीतेरिति । नत्वभावादिति गत्यादिमत्त्वमात्रप्रतीतेश्चेति च । अत्र निद्रातीत्यत्र निद्रामन:संयोगादिरूपायां निद्रायामिच्छाघटितपरम्परयेवाश्रयत्वं वक्तव्यम् । अतो नातिप्रसङ्गातिप्रसङ्गो । रथो गच्छतीत्यादावाख्यातलक्षणं विना रथगमनयोरन्वये बाधकमाह-चैत्रेत्यादि । एकत्र कर्मतासंसर्गेण तण्डुलत्वप्रकारकबोधाभावः, परत्र कर्तृतासंसर्गेण चैत्रप्रकारकबोधाभावः । अत्र प्रथमयैव साधुस्वनिर्वाहे साधुत्वज्ञानस्यासाधुत्वनिश्चयाभावस्य हेतोः सत्त्वेऽपि शाब्दबोधाभावो निराकांक्षत्वादेवेति भावः । साक्षादिति स्वरूपकथनम् । भेदेनेत्युपादानात् स्तोकं पचतीत्यादिव्यावृत्तम् । अत्र यद्यपि विशेष्यतासम्बन्धेनामेदातिरिक्त-सम्बन्धकप्रातिपदिकार्य-प्रकारकबोधं प्रति निपातसुप्तद्धिताधन्यतरजन्योपस्थितेविषयतया कारणत्वकल्पनयैव तदतिप्रसङ्गवारणं सम्भवति । प्रकृते च धात्वर्थप्रकारक-प्रातिपदिकार्यविशेष्यकबोधे किमपि बाधकं नोक्तं वथापि धात्वर्थप्रकारकबोधस्य विशेष्यतासम्बन्धेन नामार्थे अभावात् विशे
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१८
वादार्थसंग्रहः ।
[ ४ भ्रामः
1
I
यतासम्बन्धेन धात्वर्थप्रकारकबोघं प्रति तिङतदन्यतरजन्योपस्थितेः कारणत्वं कल्पनीयमिति हृदयमूह्यम् । अत्र सर्वत्र कार्यतावच्छेदककोटौ नामार्थत्वादिकं नामजन्यप्रतीतिवैशिष्टयादिगर्भ कारणतावच्छेदककोटावपि जन्यत्वमुपधानमेवेति नातिप्रसङ्गः । एवं विशेष्यतासम्बन्धेनाभेदसम्बन्धक- तन्नामार्थकबोघं प्रति तन्नामोत्तरसार्थकविभक्त्यसमानकालीना तन्नामोत्तरविभक्तिविजातीयविभक्त्यसमभिव्याहृतपदजन्योपस्थितिः कारणम् । तेन स्तोकं पचतीत्यत्र धातोर्धान्येन धीत्यत्र धनपदस्य नीलो घट इत्यादौ घटपदस्य संग्रहः । अकाली नेत्यन्तोपस्थितिविशेषणान्नोदनं पचतीत्यादावोदनस्य पाकोपरि तादृशप्रकारतेति । अत्राभेदो द्विविधः, तादात्म्यतदवच्छिन्नाव्याप्तिश्च । तेनोद्देश्यविधेयस्थलसंग्रहः । वस्तुतस्तु यथा कथंचिद्रूपेण तस्य कल्पित कार्यकारणभावद्वयस्यापि ज्ञानं जानातीत्यादी व्यभिचारः । तत्र धात्वर्थस्यापि सुबर्थोपर्यपि प्रातिपदिकार्थस्य च तिङर्थोपयैपि प्रकारत्वादिति घटप्रकारककर्मत्वादिविशेष्यकनिरूपितत्वादिसंसर्ग कशाब्दबोधविशेषं प्रति घटमेतादृशानुपूर्वीज्ञानं कारणम् । शाब्दबोधे विशेषश्च अन्यवहितोत्तरतासम्बन्धेन तत्तदानुपूर्वीज्ञानवत्वमेव । आनुपूर्व्यपि अव्यवहितोत्तरत्वसम्बन्धेन पूर्वपूर्ववत्तद्वर्णवत्त्वमुत्तरोत्तरवर्णे । इयमेव च पदवृत्तिः शक्ततावछेद्रिका प्रातिपदिक सुबादिवृत्तिः । धातुतिङादिवृत्तिश्वाकांक्षा | मौनिश्लोकाद वर्णप्रत्यक्षाभावेऽपि तादृशानुपूर्वीकवर्णानुमानम् । एवं तादात्म्येन घटप्रकारकतादृशबोधे द्रव्यं घट इत्यानुपूर्वीज्ञानम् । एवं पाकप्रकारककृतिविशेष्यकं बोधं प्रति पचतीति । घटः कर्मत्वमित्यादिकमभेदसंसर्गकतत्पदार्थो । तण्डुलः पच्यत इत्येतादृश विशिष्ट आख्यातार्थप्रकारकतन्दुलविशेष्यक बोध इत्याद्यनुभवानुसारेण स्वयमूह्यम्। एवं च तत्र तस्यास्तस्यानुपूर्व्या: प्रयोजकं नान्यत्र । कपालस्येव पटे इत्येव च तत्तदर्थे तस्य तस्य वाक्यस्य निराकांक्षत्वम् । अत्र नियतः संसर्ग आकांक्षाज्ञानतोऽनियतश्च तात्पर्यज्ञानभास्य इति । यदि घटपदामपदयोः प्रत्येकं गृहीतशक्तिकस्य तात्पर्यज्ञानादिसत्त्वेऽपि तादृशसमभिव्याहारविशेषस्य तादृशशाब्दबोधं प्रति कारणताग्रहरूपव्याकरणादिकारितव्युत्पत्तिशून्यस्य तादृशशाब्दबोधाभावोऽनुभवसिद्धस्तदा तादृश कार्यकारणभावग्रहरूपव्युत्पत्तिरपि कारणम् । अतएव विपरीतव्युत्पन्नस्य घटः कर्मत्वमित्यादितोऽपि बाधः । व्यभिचारोद्धारस्तु घटं कलशमित्यनयोरिव कर्त... इति न किंचिदनुपपन्नम् | आसत्तिश्च यद्यत्पदार्थानां परस्परमन्वयबोघस्तेषां विशेष्यविशेषणवाचकपदानां निरुक्तानुपूर्वी तज्ज्ञानं चान्वयव्यतिरेकाभ्यां कारणम् । अतएव च
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१३ ग्रन्थः ] आख्यातशक्तिवादः ।
कृत्रश्च यत्नाभिधायकत्वं क्रियाजन्यत्वप्रतिसंघानाविशेषेऽपि यत्नजन्यत्वाजन्यत्वप्रतिसंधानात् पटांकुरयोः कृताकृतव्यवहारात् ज्ञात्रादिवदाश्रयपरतृजन्तकर्तृपदस्य यत्नाश्रयबोधकत्वाच । क्रियायास्तदनुकूलव्यापारस्य वा कृअर्थत्वे तदाश्रयः कारकमात्रं वा कर्तृपदार्थः स्यात् । अथ रथोगच्छति गमनं करोति बीजादिना अंकुरादिः कृत इति विनापि यत्नं कृतः प्रयोगान्न तस्य यत्नवाचकत्वं, कर्तृपदे च श्लोकादौ योजनया तादृशानुपूर्वीज्ञानं कार्यते । अतएव च पदार्थपक्षकवैशे. षिकानुमानव्याख्यानप्रस्तावे आसत्तिश्चार्थोपस्थापकपदाव्यवधानरूपति मिश्राः। न च निराकाङ्क्षानासन्नस्थलेऽपि शाब्दसमानाकारो मानसबोधो दुर्वार एवेति किमपराद्धं शाब्दबोधेनेति वाच्यम्, संशयाकारतादृशमानसबोधसामग्यास्तदानी प्रायश: सौलभ्येन शाब्दसमानाकारनिश्चयनियमाभावात् । शाब्दबोध. स्वीकारे च शाब्दसामग्र्या बलवत्वेन नियमतो निश्चयस्वीकारापत्तेः । अतएव भूतलं घटवन्न वेति संशयो भूतलं घटवदिति शब्दस्थल निवर्तते । न निवतते च भूतलं घट इति शब्दस्थले । इदमेव च पदेनानेकार्थोपस्थापनस्थले तात्पर्यग्रहस्य हेतुतायां बीजम् । अतएव तत्रापि भूतलं तुरगवन्न वा लवणवन्न वेति संशये सति भूतलं सैन्धववदित्यत्र यस्मिन्नर्थे तात्पर्य गृह्यते तत्संशयो निवर्तते, न पुनरन्य इति स्वयमूह्यमिति दिक् ।
एकदेशिनस्तु द्वितीयादीनां कर्मत्वादिशक्तौ मानाभावः । कर्मत्वत्वादिप्रकारकबोधश्च संदिग्धः । तण्डुलः पचतीत्यादावतिप्रसङ्गवारणं तु कर्मत्वसंसर्गबोधादौ द्वितीयासमभिव्याहारादेः कारणत्वस्वीकारेणापि भवतीत्यूचुः ॥ २ ॥
(न्यायवा०) कृषो यत्नवाचकत्वे एव तेन आख्यातविवरणात् आख्यातस्य यत्नवाचकत्वं सेत्स्यति अतः कृषः यत्नार्थकत्वं साधयति-कृञश्चेति । क्रिया संयोगादिः, संयोगादिजन्यत्वं पटे अंकुरे चास्ति, तथापि पटकृतो अंकुर इति व्यवहारात् यत्न एव कृत्वाच्य इत्यर्थः । ईश्वरकृतिजन्यत्वज्ञानदशायां अंकुरेऽपि कृत इति व्यवहारात्प्रतिसन्धानानुधावनम् । ननु कृधातोः कृतिशक्तत्वे तृचश्च कर्तृशक्तो कर्तेत्यत्र वृत्तिकर्तेति बोधः स्यादतो शात्रादीति । सविषयार्थकधातृत्तरतृचः समवायित्वबोधकत्वात् । क्रियायाः कृत्वे कर्त
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वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
कृञो यत्ने निरूढिलक्षणा, यदि क्रियायाश्रयमात्रेण न तत्प्रयोगः, एवञ्चाचेतनेऽपि पचतीत्यादिप्रयोगात् क्रियानुकूलव्यापारप्रतीतेर्बाधकं विना गौणत्वायोगात् जनकव्यापार एवाख्यातार्थः, तण्डुल क्रयणा- देव न पाकादिजनकत्वमिति नातिप्रसङ्गः । कथं तर्हि पचतीत्यादौ पाकजनकयत्नानुभव इति चेत्, यत्नाविनाभूत पाकादिना क्रियाविशेषकारणस्य यत्नस्यानुमानात् । पचति पाकविषयकयत्नवानिति तात्पर्यविवरणम् । अन्यथा धर्मिणोऽपि वाच्यतापत्तेः ॥३॥ -व्यवस्था विरहरूपबाधकमप्याह-आये बाधकं तदाश्रय इति द्वितीये कारकमिति । कारकमात्रस्यैव क्रियानुकूलव्यापारवत्त्वादित्यर्थः । अत एव कृताकृतविभागेन कर्तृरूपव्यवस्थया यत्न एव कृतिः पूर्वापरस्मिन् सैव भावना इत्याहुराचार्याः । तस्य कृञः । यदीत्यनेन तत्रापि प्रयोगोऽस्तीति सूचितम् | दहनो दाहकर्ता इत्यादिप्रयोगात् । तत्प्रयोगः कर्तृपदप्रयोगः ।
आख्यातस्य व्यापारवाचकत्वं साधयति एवं चेत्यादिना । एवं कृञो यत्नार्थकत्वाभावः । अचेतनेपीति । स्थाली पचतीत्यादिप्रयोगात् । रथो गच्छतीत्यादौ तु मतद्वयेऽपि गमनाश्रयत्वे लक्षणैव । जनकव्यापारेति । व्यापारश्च प्रकृते संयोगयत्नत्वादिसाधारणो जन्यमात्रमेव । ननु तण्डुलकय- यजनकत्वात्तमादाय पचतीति स्यात् अतस्तण्डुलेति । अन्यथा तवापि तन्दुलकयणानुकूलकृत्यादिनापि तथाप्रसङ्गादिति बोध्यम् । तर्हि आख्यातस्य 'यत्नबोधकed पाकादिनेति । पाकादियत्नासाध्य एवेति । व्याप्तिज्ञानादत्र पाकशब्दो धर्मपरः । इयं क्रिया यत्नजन्या पाकध्वात् । तादात्म्येन पाकाद्वा इत्यनुमानेन तदनुभव इति पचति पाकयस्नवानिति विवरणादेवाख्यातस्य यत्नार्थकत्वं स्यादत आह- पचतीति । तात्पर्येति । धूमोऽस्तीति वाक्पस्य वह्नाविवानुमानलभ्येऽर्थे वक्तुस्तात्पर्यसम्बन्धत्वादित्यर्थः । अन्यथा विवरणस्यैव शक्तिनिर्वाहकत्वे अनन्यलभ्यस्यापि शक्यत्व इति वा । धर्मिण: कर्तुः ॥ ३ ॥
(रामकृ०) ननु सर्वमिदं कृञो यत्नार्थकत्वे सिद्धे भवतीति तत्तु न सिद्धम्, 'अनुकूलव्यापाररूपक्रियामात्रस्यैव तदर्थत्वादिति, तत्सिसाधयिषुराह - कृञ इति । अनुकूलव्यापारीभूतसंयोगादिरूपक्रियाजन्यत्वाविशेषेऽपि । यत्नजन्यत्वाजन्य
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः।
१८१ अथैवं यत्नस्य वर्तमानत्वं न प्रतीयेत तस्यापदार्थत्वात् । अन्यत्र धात्वर्थक्रियायां स्वार्थव्यापारे वा लडादेवर्तमानत्वाद्यनुभावकत्वस्य व्युत्पन्नत्वाच । न च पाकजनकवर्तमानव्यापारेण पाकजनकवर्तमानयत्नानुमान, यत्नविगमेऽपि व्यापारानुवृत्तेः । धर्मिविशेषनिष्ठता च यत्नस्य न प्रतीयेत तवयधिकरणव्यापारस्यापि पाकजनकत्वात्, चैतन्या विनाभूत
चैत्रत्वादिविशेषितेन तेन यत्नानुमानमिति चेन्न, वेति । पटांकुरयोर्यथासङ्खयेनान्ययः । अत्र यत्नः प्रवृत्तिरूपः । तेनास्मन्मते ईश्वरकृतिजन्यस्यांकुरे प्रतिसन्धानेऽपि न क्षतिः । ननु कृतः कृतिशक्तौ धातो. रपि कृतिवाचकत्वे कर्तेत्यत्र कृतिकर्तेति बोधः स्यादत आह-ज्ञात्रेति । बोधकत्वादिति । निरूढलक्षणया सविषयार्थकधातुसमभिव्याहृतकृतः समवायित्वमात्रबोधकत्वादित्यर्थः । साधकमुक्त्वा बाधकमाह-क्रियाया इति । क्रिया स्पन्दः । तदनुकूलेति, कार्यानुकूलेत्यर्थः । प्रथमे बाधकमाह-तदाश्रयः क्रियाश्रयः । द्वितीये तदाह-कारकेति । अधिकरणादेरिति । तदनुकूलव्यापारसंयोगादिसत्त्वादिति भावः । गच्छतीत्यस्य विवरणं गमनं करोतीति। बीजादिना की अचेतने स्थाल्यादौ । यत्नाविनेति । क्रिया सयत्ना पाकत्वात् पाकाद्वा इत्यनुमानादित्यर्थः । अन्यथा प्रकारान्तरलभ्यस्यापि शक्यत्वे विवरणविषयस्यैव शक्यत्वे वा । धर्मिणः कादिः ॥ ३ ॥
(न्यायवा०) एवं यत्नस्यापदार्थत्वे तस्य यत्नस्य अत्र पचतीव्यादितोऽन्यत्र जानातीत्यादौ स्वार्थव्यापारे...ति पचतीत्यादौ। अत्र स्वार्थच्यापारादन्यत्र । तथाच धात्वर्थक्रियायाः स्वार्थव्यापारान्यतरस्मिन्नेव वर्तमानबोधकत्वं, न स्वनुमानोपस्थितेऽपीत्यर्थ इति कश्चित् । अत्र चाभयत्वबोधकाख्यातजन्यवर्तमानत्वबोधे धात्वर्थोपस्थितिक्पारे बोध......तजन्यतद्वोधे आख्यातजन्यव्यापारोपस्थितिः हेतुः समानविशेष्यत्वं प्रत्यासत्तिः । नश्यतीत्यादौ वर्तमानोत्पत्तिरेवार्थः । तादृशल्यापारे एतादृशयत्नानुमाने कालिकव्याप्तौ व्यभिचारमाहयत्नविगमेऽपि । ननु तादृशचेष्टायवच्छिन्नव्यापारेण तदनुमेयस्थूलकालमादाय चाव्याप्तिरतो धर्मिविशेषेति ।
ननु यलसामानाधिकरण एव व्यापारः पाकजनकः, तथा च तेनैव धर्मिविशेषसिदिः स्यादतो व्यधिकरणेति । व्यधिकरणं काष्ठसंयोगादेः । तेन
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वादार्थसंग्रहः [४ भागः सत्यं, चैत्रत्वाद्यप्रतीतावपि शोभनः पचतीत्यादौ शोभनादेःपाकजनकयत्नवत्त्वप्रतीतेरिति चेत्,सत्यं, तत्राख्यातस्य जनकयत्ने लाक्षणिकत्वात् । मैवं, जनकव्यापारमपेक्ष्य लाघवेन जनकयत्नस्यैव शक्यत्वात् । यत्नं विहाय जनकमात्रे शक्तिरस्तु लाघवात् तथा चाचेतनेऽपि प्रयोगो मुख्य एवेति चेत्, न,
अपचत्यपि पाकजनकादृष्टवति पचतीति प्रयोगापाकानुकूलव्यापारेण तादृशव्यापारवत् चैत्रत्वेन तादृशयत्नसाधने दोषमाहचैत्रत्वाद्येति । हेतौ शब्दात् अप्रत्ययात् प्रकारान्तरेण प्रतीतिर्न सर्वत्रेति भावः । शोभनत्वस्य स्थाल्यादिसाधारणत्वात् शोभन सति ताहशव्यापारवत्वं न यत्नापेक्ष इति भावः । लाक्षणिकत्वादिति । तथा च तत्रैव वर्तमानान्वय इति । लाघवेनेति । व्यापारत्वापेक्षया यत्नत्वस्य जातित्वेन लाघवम् । व्यापारत्वस्याखण्डोपाधित्वे मानाभावः । सखण्डत्वे त्वननुगतत्वमिति तत्त्वम् ।
न च शक्यतावच्छेदकतया व्यापारस्वं सिद्धयति, येन रूपेण शाब्दबोधोऽनुभवसिद्धस्तस्यैव शक्यतावच्छेदकत्वकल्पनात् । अन्यथा भूत-मूर्त-विभु-पक्ष. व्यायादिपदानां शक्यतावच्छेदकताया अखण्डोपाधिसिद्धिः स्यात् । न स्याच पचति नश्यतीति जानातीत्यादौ यत्नप्रतियोगित्वज्ञानाश्रयस्वादिसंशयनिरासः । त्वन्मते लाघवेनाश्रयत्वादिसाधारणस्याखण्डोपाधेरेव प्रकारत्वात् । यत्तु पततीत्यत्र पतनानुकूलगुरुत्वभानात् गुरुत्वे एवाख्यातशक्तिाघवात् न । तथापि व्यापारे शकिनिरासात् । लाघवेन यत्ने शक्तेरनिराकरणात् ।
शंकते यत्नमिति । अचेतनेऽपि स्थाल्यादौ पचतीति प्रयोग इत्यर्थः । अदृष्टजनककृतिकाले पचतीति प्रयोगं वारयति-मानाभावादिति । तादृशकृते यवदृष्टं व्यापारस्तदाह-भावे वेति । ननु जनकत्वेन अदृष्टान्यैव व्यक्तिर्भासत इति व्युत्पत्तिः कल्पनीया अत आह-यत्नमात्रमिति । नान्तरीयशर्कराभोजनेऽपि शर्करामुक्त इति प्रयोगात् । तत्र च कृतिविषयत्वा. भावात् । अतो जनकत्वं वेति । अजनकयत्नेऽपि पाकविषयत्वसम्भवात् । अतो जनकत्वं वेति । अतएवामवातजडस्य गमनविषयके यस्ने सत्यपि
१ अविनाभावम।
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१३ प्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः। पत्तेः । पाकजनकादृष्टजनककृतेश्च न पाकजनकत्वं मानाभावात् । अतएव क्षित्यादेः कृत्यादिजन्यत्वे साध्ये तजनकादृष्टजनककृत्यादिना अर्थान्तरप्रसङ्गोऽपि प्रत्युक्तः । भावे वा तादृशकृतिनिवारणायादृष्टादारकत्वेन जनकतायास्त्वयापि वाच्यत्वात् । यत्नमात्रं शक्यं विषयित्वं जनकत्वं वा संबन्धमर्यादया भासत इति तु नव्याः ॥ ४॥ गच्छतीति न प्रयोगः । जनकत्वस्य गुरुत्वेऽप्यननुगस्या तस्यैव पाककृत्योः संसर्गतास्वीकारात् । अखण्डैव वा जनकत्वेत्यन्ये । नन्वीश्वरः पचतीति प्रयोगः स्यात्, तत्र रागजन्यतावच्छेदकजातेराख्यातयक्यतावच्छेदकत्वेन तथा प्रयोगाप्रसक्तः । न चैवं मीनशरीरेण वेदं पठंतीति धीन स्यात्, न ध्याच निश्चसितीत्यादौ जीवनयोनियत्नलाभ इति वाच्यम्, आख्यातस्य तत्र लाक्षणिकत्वात् , जीवनयोनियत्ने मानाभावाच । चेष्टादिद्वारा विलक्षणमेव जनकत्वं भासते । अतो नेश्वरः पचतीति प्रयोग इत्यनेन चात्मा पचतीति स्याद्विशेषदर्शिनामिष्टापत्तेः । नचै...चैत्रः पचतीति न स्यात् , चैत्रपदस्य चैत्रत्वावच्छिनात्मनि लाक्षणिकत्वात्।
केचित्तु सर्वत्रावच्छेदकत्वसम्बन्धेन कृतेरन्वयः, अतो नेश्वरः पचतीति प्रयोगः । न च त्वं पचसीत्यादिप्रयोगो न स्यात् , तत्र युष्मत्पदस्य संबोध्यात्मवाचकत्वात्, न स्याच मीनशरीरे वेदं पठतीति प्रयोगः, ईश्वरयनस्य शरीरानवच्छेद्यत्वात् इति वाच्यम्, तत्र युष्मत्पदस्य शरीरे लाक्षणिकत्याप्रतीतिबलाद्वयाप्यवृत्तेरप्यवच्छेदकत्वस्वीकारात् । न च हस्तः पचतीति प्रयोगः स्यात् , इष्टापत्तेः, हरति रिपुनृपाणामस्य पाणिः शिरांसीति प्रयोगादित्याहुः॥४॥
(रामकृ०) एवं यत्नस्यानुमानिकत्वे । कदाचित्पदान्तरेण यत्नोपस्थितावपि बाधकमाह । अन्यत्रेति अन्यत्र स्वार्थव्यापारादन्यस्याम् । स्थलान्तरे वा ॥ अथ यदा पाकजनकव्यापारस्तदा पाकजनकयत्न इति व्याप्त्या वर्तमानकालावृत्तित्वमनुमेयमिति वा । अथवा यो यदा यादृशव्यापारवान् इति व्याप्त्या वर्तमानकालावृत्तित्वममुमेयमिति वा । स तदा तादृशयत्नवानिति व्याप्त्या धर्मिणि वर्तमानतादृशयत्नवत्त्वमनुमेयमिति, तत्राद्यव्यभिचारेण दूषयति-यत्ने... १ कर्तृज इति पाठः। २ द्वारकत्वेन जनकताया रूढ्यापि वाच्यत्वादिति फारः।
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१८४ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः कर्त-कर्मणी लकारवाच्ये, चैत्रः पचति पच्यते तण्डुल इति सामानाधिकरण्यानुरोधात्, अन्यथा पचतीत्यत्रापि कर्तरि तृतीया पच्यत इत्यत्र कमणि द्वितीया स्यात् तयोरनभिहिताधिकारीयत्वात् त्यादि । तत्रैव दूषणान्तरमाह-धर्माति । द्वितीये वह्यादावपि व्यभिचारमाहतद्वथधिकरणेति, यत्नव्यधिकरणेत्यर्थः ।
अथ चैत्रत्वे सति यो यदा यादृशव्यापारवानिति वक्तव्यमित्याह-चैतन्येति शब्दाचैत्रत्वाद्यप्रतीतावपि प्रकारान्तरेणोपस्थितिस्तु न नियता। वर्तमानयत्नवत्त्वप्रतीतिस्तु नियतेति भावः । यद्वा-व्यापारानुवृत्तेरेतावत्पर्यन्तं यत्नस्य वर्तमानत्वप्रतीतौ बाधकम् । धर्मीत्यादिकस्तु चित्रत्वादी शुद्धयत्नवत्त्वबोधोऽपि न सम्भवतीत्येतत्पराभिन्नो ग्रन्थः । अतएव तत्र केवलयत्नपदमेव श्रूयत इति । तत्र शोभनः पचतीत्यादौ । स्वमते बाधकमुद्धर्तुमाह-तदित्यादि । अतएव अदृष्टजनककृतेर्जनकत्वे प्रमाणसद्भावे वा । अदृष्टाद्वारकत्वस्य स्वजनकीभूतादृष्टाजनकत्वस्य । त्वयापीति । पाकजनकादृष्टजनककृतिमादायातिप्रसङ्गस्योभयमतसाम्यादिति भावः ।
नवीनमतमाह-यत्नेति । सिद्धपाकविषयकासिद्धतत्फलोद्देश्यककृतिमादाय पचतीति प्रयोगापत्त्याह-जनकत्वं वेति । अत्र जनकत्वं फलोपधाम, तच्च चेष्टादिद्वारकम् । तेन न स्वरूपयोग्यपुरुषान्तरीयकृतिमादायातिप्रसङ्गः । अतएव ईश्वरो गच्छति पचतीद्यप्रयोगः (१)। तादृशजनकताविशेषः संसर्ग आकांक्षाज्ञानभां......तेन योग्यताभ्रमदशायां पुनरिष्टापत्तिरेव । ईश्वरकृतिव्यावृत्तं कृतिविशेषणत्वं शक्यतावच्छेदकमिति केचित् ॥ ४ ॥
(न्यायवा०) वैयाकरणमतमुपस्थापयति-कर्तृकर्मणीति । सामाना. धिकरण्याभिन्नाभ्यां धर्माभ्यामेकर्मियोधकत्वं, तच्च नामाख्यातस्य कर्तृत्वेन कर्तृबोधकं विना अनुपपन्नमिति भावः । ईशसामानाधिकरण्यं ययसिद्ध तदाह-अन्यथेति । आख्यातेनानभिहिते कर्तरीत्यर्थः । तयोस्तृतीयाद्वितीययोः । अविशिष्टत्वाम् कर्माख्यातेनापि कृत्यनाभिधानात् । तथा च कृत्यनभिधानमपि न तृतीयानियामकम् । कर्माल्यातस्थळे तृतीयानापत्तेरिति भावः । इदं प्राची मतेन ।
स्वमते कर्माख्यास्य कलवाचकरवं वक्ष्यति । कर्तृक गतसहयामिधाना
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अन्य:J
१३ प्रन्यः ] आख्यातशक्तिवादः । कृत्यभिधानस्याविशिष्टत्वात् । कर्तृ-कर्मसङ्ख्याभिधानानभिधानाभ्यां नियमः-न चैवं चैत्रेण दृष्टो घट इत्यादौ विनापि तिडं सङ्ख्याप्रतीतेः क्लुप्तशक्तः सुप एव संख्योपस्थितिसंभवे तिडो न तदभिधायकत्वमिति वाच्यम् । चैत्रो मैत्रश्च गच्छत इत्यादौ विनापि तादृशसुपं द्वित्वादिप्रत्ययात् लाघवादेकवच
नत्वादिनैव एकत्वादौ शक्तत्वाच-इत्यपि नास्ति, नभिधानाभ्यामेव नियमो भविष्यतीच्याह-कर्तृकर्मेति । इत्यपि नास्तीत्यतन्यायमतं नियमः तृतीयादिनियमः । तथा चाख्यातेन कर्तुः सन्यायामनभिहितायां तृतीयाकर्मणः सङ्ग्यायामनभिहिता या द्वितीया इत्यर्थः । तर्हि क्रियारहित वाक्यमस्तीति रीत्या घटो द्रव्यमित्यादिवाक्ये अस्तिपदाध्याहारे तिङ एव सङ्ख्याया बोध इति वक्तं शक्यम् । अतः क्रियावद्वाक्यमाहचैत्रेणेति । चैत्रो मैत्रश्चेति । न चैत्रपदादुत्तरसुप एवं द्वित्वे लक्षणा, सुविभक्तौ तदभावात् । भावे वा चैत्रे मैत्रे वा द्वित्वमनुभूयेत, न तूभयमादाय उभयस्यैकप्रकृत्यर्थत्वाभावात् इति ।
न चैकत्वविशिष्टे कथं द्वित्वान्वयः, एकत्रः, एको मैत्रः, द्वौ गमनानुकूल. कृतिमन्तौ इति बोधसम्भवात् । ननु तथापि ब्राहाणाः पचत इत्यत्र बहवो ब्राह्मणाः, द्वौ पाकानुकूलकृतिमन्तौ इति बोधः स्यात् । आख्यातजन्यद्विस्वबोधे ब्राह्मणाः पचन्ते ब्राह्मणः पचत इत्यादिज्ञानस्य प्रतिबन्धककल्पनात् । द्वित्वादिति । इदमुपलक्षणम् । वक्ष्यमाण दिशा द्विवचनत्वेनैव द्विस्वशक्तिरित्यपि बोध्यम् । ननु तथाप्याख्यातस्य द्विवचनबहुवचनयोदित्वबहुत्वादी शक्तिरस्तु न त्वेकरवे......अतो लाघवादिति ।।
भब यपपि एकवचनत्वं नैकसकरवम्, भामाश्रयात् । न त्वैकत्वबोधकरवे, एकत्वे च तस्यैकत्वेऽप्यालाक्षणिकस्यापि तच्छकत्वप्रसङ्गात् । तथाप्येकवचनखेन परिभाषाविषयत्वं तस्वम् । तान्येकवचन द्विवचनबहुवचनानीति संज्ञासूत्रदर्शनेन सुप्ति कवचनादिषु तथापरिमाणभाषानिनयात् । नामत्वं धातुस्वारूपातत्वा दिवद्विनाभाषां न तेषामननुगमेन सर्वे विशंघुलमापायतेति (1) मेरमः ।
केचित्तु तलि तिठतीत्यादौ लप्तविभक्तिप्रतिसन्धान विनापि एकस्वरोधात ताकि एव तत्र शकिरन्यथा नीलघट इत्यादेरप्यध्याहृतास्तीति कियौकत्रगोधनात् न सुपः संख्यायां भकिः स्यात् । न च तन्दुळ पचतीत्यादौ एप
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वादार्थसंग्रहः। [४ भागः कृता संख्यानभिधानात् । किंच एकत्वादिसंख्याभिधाने न नियमः पदार्थतावच्छेदकावच्छिन्नस्याकांक्षादिवशात् कर्तृकर्मसाधारण्येनान्वयबोधस्य दुर्वारत्वात् । ककत्वत्वादिनाभिधानेऽपि कर्नादेरप्यभिधेयत्वं, शक्तौ शक्ततावच्छेदकशक्यतावच्छेदकयोश्च गौरवमधिकम् । तस्मादाख्यातत्वेन कर्तरि, आत्मनेपदत्वेन च कर्मणि एकवचनत्वादिना तत्तद्रूपेण वा एकत्वादी शक्तिः, एकपदोपात्तत्वाच्च एकत्वे शक्तिः क्लृप्तेति वाच्यम्, तथापि प्रथमैकवचनस्यैकत्वे शक्तौ विनिगमनाविरहादित्याहुः।
यत्तु पचतीत्यत्र पाककर्तुरेकत्वसंशयामावात्तिकस्तत्र न शक्तिः, तन्न, एकत्रप्रतीतावपि धर्म्यभाने संशयानुच्छेदात धर्मिणि लक्षणायां चैकत्वविशिष्ट एव तस्यायकत्वात् । कश्चित्तु पचतीत्युक्त शक्त्या लक्षणया वा उपस्थिते कर्तरि एकत्वस्य प्रतीतेः तत्र तिप्लादीनां शकिरित्याह, तन्न, न्यायनये पचती. त्यत्र सर्वत्र लक्षणायां बीजाभावेन क्वचित्पाककृतिमात्रप्रतीतेः। सर्वत्र कर्तर्यः कत्वप्रतीत्यसिद्धेः कृतेति तदुत्तरसुप एव संख्याबोधकत्वान कृतः संख्यायां शक्तिः। तथा च चैत्रो ग्राम गतवानित्यादावपि तृतीया । मैत्रेण ग्रामो गत इत्यादावपि द्वितीया स्यात् । कृता संख्यानभिधानादित्यर्थः ।
मन्वाख्यात एवायमुक्तानुक्तविभागोऽतः किञ्चेति । न नियमः संख्यान्वयः कर्माख्याते कर्मण्येव कर्माख्याते कर्तर्यवेति नियमो न। कर्मकर्तृसाधारण्येनेति । तथा च तण्डुलं पचतीत्यत्र तण्डुलनिष्ठापि संख्या कदाचिदाख्याते. नाभिधीयते । एवमन्यत्रापि वैयत्यं बोध्यम् । ककत्वादिना शक्तौ बाधादेव कमैकत्वं न भासते अतः कषेकत्वेति । कāकस्वेन शक्तौ बहुशक्तिकल्पना. शक्ततावच्छेदक-कर्बकत्वबोधकरवे शक्यतावच्छेदकत्वे कर्तृकत्वे गौरवमित्यर्थः। एकवचनत्वे पूर्वोक्तदोषद्वयमभिप्रेत्याह-तत्तद्रूपेणेति । तिवादित्यर्थः । एकपदेति । कर्माख्यातजन्यसङ्ख्याप्रकारकबोधे कळख्यातजन्यकर्तरुपस्थिविहेतुः । एवं कर्माख्यातस्थलेपीति भावः । वाच्यगामित्वं आख्यातोपस्था. प्यकर्तृकान्वयित्वम् । नचात्मनेपदस्य कर्मवाचकत्वमस्त्येव कर्तृवाचकत्वं त्वाख्यातत्वेनैवः । तथाच चैत्रः पच्यते तन्दुल इति प्रयोगः स्यात् अतः
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१३ ग्रन्थः] माख्यातशक्तिवादः।
१८७ संख्याया वाच्यगामित्वम् । कर्तृ-कर्मबोधकत्वं च एकदाऽव्युत्पन्नम्, अतएव मैत्रः पच्यते तण्डुल इत्यादयो न प्रयोगाः। कर्तरि यकोऽसाधुत्वाच पच्यते
चैत्र इत्यादयोऽपि कर्तरि नेति वैयाकरणाः ॥५॥ कर्तृकर्मेति । आख्यातजन्ये कर्तृबोधे कर्मतात्पर्यज्ञानं, कर्मतात्पर्यबोधे च कर्तृवात्पर्यज्ञानं विरोधिफलबलात्तथा कल्पनं कृतिकर्मत्वशक्तावपि तुल्यमिति भावः। - अत इति । मैत्र: पाककर्ता तण्डुलः पाककर्मेति बोधो मैत्रः पच्यते तन्दुल इति वाक्यादितो न भवतीत्यर्थः । ननु तत्र मास्तु तत्र कर्तृकर्मणोर्द्वयोर्बोधः, चैत्रः पच्यते इत्यत्राख्यातत्वेन कर्तृशक्कादात्मनेपदात् कर्तृलाभस्तु स्यादतः कर्तरीति.........समभिव्याहृताख्यातजन्यकर्तरुपस्थितेः, आख्यातजन्यकर्तृबोधे हेतुत्वादिति भावः ॥६॥
(रामकृष्ण० ) वैयाकरणमतमाह-कर्तृकर्मणीति । सामानाधिकरण्येति । भिन्नाभ्यां धर्माभ्यामेकर्मिबोधकत्वमिह सामानाधिकरण्यम् । अन्यथा कर्बाद्यनभिधाने । तयोस्तृतीयाद्वितीययोः । अथ कृत्यभिधानानभिधानाम्यां कत्रभिहितत्वानभिहितत्वव्यवस्थेत्यत्राह-कृत्यभिधानस्येति । अविशिष्टत्वात् कर्तृकर्मप्रत्ययसाधारण्यात् । इदं च प्राचा मतेन । स्वमते कर्मप्रत्ययस्थले तृतीयाया एव कृत्यभिधायकत्वस्य व्यवस्थाप्यत्वात् कर्तृकर्मसंख्यत्यादिरित्यपि नास्तीत्येको ग्रन्थः । चैत्रो मैत्रश्चेति । अत्र प्रथमायामेव द्वित्वलक्षणया निर्वाहे तिशक्तिर्न कल्प्यत इति भ्रमो हेयः । तथा सति द्वौ चैत्रौ द्वौ मैत्रौ इति बोधापत्तेः । तिङस्तदर्यत्वे स्वार्थविशेष्यचत्रमत्रोभयमिति तयोरेव द्वित्वमन्वेति ।
एवं द्विवचनबहुवचनयोः शक्ति व्यवस्थाप्यैकवचनेऽपि वां व्यवस्थापयतिलाघवादिति । एकवचनसुस्वेन तथा कल्पने गौरवमिति भावः । अत्र एकवचनत्वं नैकत्वशक्तत्वमात्माश्रयात् । एकत्वबोधकत्वं तु लाक्षणिकसाधारणम् । एकवचनत्वेन शास्त्रकारपारिभाषितस्य तत्तदन्यतरत्वस्य तत्तज्ज्ञानविषयत्वस्य वा तथात्वे मानाभावः। किंच ज्ञानव्यक्तीनां प्रत्येकमादाय विनिगमनाविरहेण नानाशक्तिकल्पने क लाघवम्, कथं वा सुम्मात्रवृत्त्यन्यतरत्वापेक्षया तिङ-सुप्-साधारणान्यतरत्वस्य लघुत्वम् । किंच एकवचनत्वं न शक्ततावच्छेदकम्, घटपदनिष्ठघटवचनत्ववत् । किन्तु अव्यवहितोत्तरतासम्बन्धेन घटवट्टत्वादिवत् उत्तरोत्तरवणें पूर्वपूर्वतत्तद्वर्णवत्त्वमेवेत्यादिकं विचिन्त्यानुपद
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२८८ वादार्थसंग्रहः ।
[४ भागः मेव वक्ष्यति-ताद्रूप्येण वेति । यत्त केवलं पचतीत्युक्ते एकत्वसंशयाभावात् एकत्वे शक्तिरिति तन्न, एवमपि कर्चनुपस्थितौ पाककृतिरेकत्वमित्येव बोधात् संशयानिवृत्तेः । तिङः कर्तरि लक्षणास्थलेऽपि एकत्वविशिष्टकर्तरि लक्षणैव । तादृशबोधोपपत्तो सन्देहनिराससम्भवान्नैकत्वशक्तिकेल्पनम् । तडित्तिष्टतीत्या. दावपि लुप्ताया एव विभक्तेः प्रतिसन्धानम् । अन्यथा दधि पश्येत्यादौ का गतिः । यत्त सुप एकत्वशक्तिमहाभावदशायां तिङ एकत्वशक्तिग्रहे सति एकत्वानुभव: सर्वसिद्ध इति तिङ एकत्वशक्तिर्दुर्वारेति मतं तत् घटपदे पटे शक्तिग्रहेण समं तुल्ययोगक्षेममित्युपेक्षितम् । कृतेति । क्लप्तशक्तेस्तदुत्तरसुप एव तथा बोधकत्वादिति भावः । एकत्वत्वादिरूपेण तिङ: संख्याभिधाय. कत्वात् योग्यतावशादबाधितस्थले कर्तृकर्मसाधारण्येनैव तदन्वये भवन्मते विनिगमनाभावात्तिङभिहितसंख्याकत्वाभिहितत्वमपि न नियामकं सम्भवति । मन्मते तु एकपदोपात्तप्रत्यासत्या तिर्थसंख्या कर्तरि कर्मणि वा एकस्मिन्नेवान्वेतीत्याशयेनाह-किश्चेत्यादि । न नियम: अभिहितत्वानभिहितत्वनियमाभाव: । पदार्थतावच्छेदकावच्छिन्नस्य शक्यतावच्छेदकीभूतैकत्वत्वाद्यवच्छिन्नस्य......कर्तकर्मेति । तथाच तिर्थसंख्यान्वयित्वादुभयोरप्यु. कत्वं स्यादित्यर्थः । अत्र कन्वितस्वार्थकैकवचनत्वं कर्मान्वितस्वार्थंकवचनत्वं च शक्ततावच्छेदकं ककत्वं कर्मैकत्वं च शक्यतावच्छेदकम् । तथाच कत्रे. कत्वरूपेण यत्र तात्पर्यवशात्तिडा संख्याऽभिधीयते तत्र कर्चभिहितत्वम् । एवं रीत्या कर्माभिहितत्वमपीत्यत्राह-ककत्वाभिधानेविति । शक्यतावच्छेदकतया कर्तुरभिधानं शक्तो गौरवं तन्नानात्वं शक्ततावच्छेदक-शक्यतावच्छेदकयोश्च शरीरगौरवम् । पूर्वोक्तास्वरसादाह-तत्तद्रूपेणेति । सुस्वतित्वा. दिवेत्यर्थः । एतन्मते केवलं पचतीति प्रयोगस्थलेऽनुभवसिद्ध एकत्वबोधो न, तिङस्तत्र शक्ति विनेति बोध्यम् । यद्वा-तत्तिष्ठतीत्यादौ सुबनुसन्धान विनापि एकत्वबोधात्तिङ एव तत्र शक्तिः। अन्यथा अश्रयमाणतिङः स्थले चैत्रेण दृष्ट इत्यादावपि तिङपस्थिति कल्पयित्वा तत एव एकत्वबोधः स्वीक्रियतामिति वैपरीत्यमेव न रोचयः । एकेति । एकेनैवाख्यातेन संख्याकायोरुभयोरुपस्थापनादेकपदोपात्तत्वम् । न च सर्वेषामेव पदार्थानां एकपदोपस्थितिसत्त्वात् किमत्र लास्वमिति वाच्यम्, पदान्तरार्थेन समं तस्यान्वये तत्पदे तत्पदघटितानुपूर्वीज्ञानस्य कारणत्वमेतदन्वयबोधे कल्पनीयमिति तदपेक्ष्य एतत्पदघटकवर्णानुपूर्वीशानमात्रस्य कारणताकल्पने लाघवमिति ।
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१३ ग्रन्थः] माख्यातशक्तिवादः।
अत्र वदन्ति-भावनाविशेष्ये संख्यान्वयः समानपदोपात्तत्वेन एकान्वयित्वस्योचितत्वात् । भावनायाश्च विशेष्यत्वेनान्वययोग्यः कर्मत्वाचनवरुडः प्रथमान्तपदोपस्थाप्यः । तथैवाकांक्षितत्वात् । चैत्रः
एकदेति । पक्ष्यत इत्यस्य कर्तरि कर्मणि चाव्युत्पन्नत्वादाख्यातार्थद्वयस्य युगपदुपस्थितस्य यथायोग्यं कर्तरि कर्मणि च युगपदन्वये बोधकाभावात् । कर्तृविशेष्यकान्वयबोधतात्पर्यज्ञानादेः कर्मविशेष्यकान्वयबोधे तदन्वयबोधतात्पर्यशानादेश्च कर्तृविशेष्यकान्वयबोधे प्रतिबन्धकत्वं कल्प्यते । फलाभावस्य निर्णीतत्वादिति भावः । न प्रयोगा इति । अत्र शाब्दबोधाभावे तात्पर्यम् । प्रयोगसाधुत्वे बाधकाभावात् । कर्तरि यक इति । आत्मनेपदं तु पचिघातोरुत्तरं कर्तर्यपि साध्विति यक इत्युक्तम् ॥ ५ ॥
(न्यायवा० ) लाघवादाख्यातस्य कृतौ शक्तिः, न तु कर्तरि । आख्या. तेन कर्तृसङ्ख्यानभिधानाभिधानाभ्यामेव तृतीयादिनियम इति सिद्धान्तः । तत्र सहयाया कर्तृकर्मसाधारण्येन बोधः स्यादिति बाधकमुद्धरति-भावनेनेति । तथाचाख्यातजन्यसह याचोधे भावनाप्रकारकबोधसामग्रीत्वेन हेतुस्वम् । प्रथमान्तपदजन्योपस्थित्यादेर्वा हेतुत्वमिति भावः । अतः पचेत नेत्यादौ कृतिसाध्यत्वरूपाख्यातार्थविशेष्ये पाकादौ न संख्यान्वयः । पाकादेः प्रथमान्तपदानुपस्थाप्यत्वात् । यत्तु आख्यातत्वेन लत्वेन वा यच्छक्तत्वमा वच्छिपते सा भावना कृतिसाध्यत्वं न तथेति तत्र रथो गच्छतीत्यादौ रथे सायानन्वयापत्तेः । त्वदीत्याभयत्वस्य भावनात्वाभावात् ।
भावनायाश्रेति । विशेषत्वेन धावादावन्वयात् विशेष्यत्वेनेत्युक्तम् । कर्मणि कुतो नान्वयस्तत्राह-कर्मत्वाचनवरुद्ध इति । कर्मत्वविशेषणत्वेन तन्दुलादेरुपस्थितत्वे भावनानिराकाङ्क्षत्वमित्यर्थः । प्रथमेति । तथाचेतरविशेपणत्वेन तात्पर्यविषयत्वे सति प्रथमान्तपदोपस्थाप्यत्वं भावनान्वये तन्त्रम् ।। नच सत्यन्तमेवास्तु तन्दुलं पचति जानातीत्यादौ यत्र तन्दुलस्य कर्मत्वविशेष्यतया बोधे यत्तात्पर्य तत्रापि तन्दुले भावनानन्वयात् । नच प्रथमान्तोपस्थाप्यत्वमेवास्तु चन्द्र इव मुखमस्तीत्यादौ चन्द्रे भावनानन्वयात्, सत्यम, तस्याप्यपेक्षितत्वादिति । __ अयमों भावनाश्रयसाकांक्षा पुरुषोऽपि क्रियारूपविशेषणसाकांध इति उमयाकांक्षासत्त्वेनान्वयबोधः । तन्दुलमित्यादेः फलेनाम्वयानिसकांधत्वम् । • १ ख. "स्थाप्य एव साकांक्षत्वात् । चै । २ मधुरानाथास्तु चैत्रेण सुप्यते, अल्पतः प्रागिदं वाक्यं व्याचक्षते।
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वादार्थसंग्रहः [४ भागः पति पच्यते तण्डुल इत्यादौ कर्तृ-कर्मणी प्रथमान्तपदोपस्थाप्यतया भावनाविशेष्ये इति तत्रैव सङ्ख्यान्वयः। चैत्रेण सुप्यते गगनेन स्थीयते इत्यादौ तदुक्तमाचा:-न बन्यतराकांक्षा अन्वयहेतुः किस्तूभयाकांक्षा । प्रातिपदिकार्थो हि फलेनाम्वयमलभमानः क्रियासम्बन्धमपेक्षते । भावनापि व्यापार. भूता सती व्यापारिणमित्युभयाकांक्षेति । नचैवं चैत्रादिविशेषणतया भावनायां कुतो नान्वय इति वाच्यम्, अननुभवात् । न च भावनाप्रकारकबोधे प्रथमान्तोपस्थाप्यत्वादेस्तन्नसत्वात् । चैत्रः पचतीत्यादाविव भावनाप्रकारकबोधो मास्तु, तद्विशेष्यकस्तु स्यादिति वाच्यम् ,भावनाप्रकारक-बोधत्वस्याख्यातकार्यतावच्छेदकत्वात् । न च चैत्रेण घट एव दृश्यते इत्यत्र एवकारार्थेऽन्यस्मिनपि घटस्य विशेषणतया इतरविशेषणत्वेन तात्पर्यज्ञानामावस्यासत्त्वात् कथं भावनान्वयः, कर्मस्वायनवरुद्ध इत्यनेन तन्मुख्यविशेष्यकबोधे तात्पर्यज्ञानस्य हेतुताया उक्तत्वात् । मुख्यविशेष्यकत्वं तु स्वरूपसम्बन्धविशेषोऽतिरिक्तं वा न स्वितराविशेषणत्वम् । तथा सत्यत्रैव घटे मुख्य विशेष्यकत्वन्यवहारो न स्यादिति ध्येयम् । __ यत्तु कर्मत्वाचनवरुद्धत्वोको धात्वर्थादिसाधारण्यम्, प्रथमान्तपदोपस्थाप्यत्वोको चन्द्र इव मुखमस्तीत्यत्र चन्द्रसाधारण्यम् । अतो द्वयं चन्द्रवारणाय इतरविशेषणत्वे तात्पर्याविषयत्वार्थककर्मत्वेति । तत्र इतरविशेषणत्वेत्यस्य सम्यक्त्वात् । केचित्तु आत्मानं जानातीत्यत्रात्मनः कर्मत्व विशेषणतया भावनान्वयो न स्यादतो इतरविशेषणत्वमात्रतात्पर्याविषयत्वार्थकं कर्मत्वेति वाच्यम, तथाच यत्र तन्दुले कर्मत्वविशेषणत्वे भावनाविशेष्यत्वे च तात्पर्यग्रहस्तत्र तन्दुले भावनान्वयवारणाय प्रथमान्तेतीत्याहुः । (?)
ओदनः पचति चैत्र इत्यत्र प्रथमायाः कर्मले लक्षणायामोदनस्य भावनाया विशेष्यत्वेनान्वयादाह-कर्मत्वेति । कर्मत्वबोधकपदार्थसमभिव्याहतपदोपस्थाप्यत्वार्थकमिति कश्चित् । भात्मानं जानातीति सङ्घहायेतरविशेषणान्वयबोधकत्वे गृहीततात्पर्यकान्यपदोपस्थाप्यत्वं तंत्रमित्यपरे । प्रात स्तिष्ठति नक्तं तिष्ठति इत्यत्र प्रथमान्तपदोपस्थाप्य प्रातःकाले स्थित्यन्वयात्कर्मत्वेति तदपि तत्पदान्यपदोपस्थाप्यार्थकम् । न च प्रातरित्यत्र प्रथमैव न स्वव्यतिरिक्तलिमार्थवचन एव तद्विधानादित्यपरे । ननु प्रथमान्तपदोपस्थाप्यस्य विशेषणतया कृतो नान्वयस्तथैवेति । तादृशानुभवादित्यर्थः ।।
उक्तार्थमुदाहरणेन स्पष्टयति-चैत्र इत्यादिना । सुप्यत इत्यत्र स्वापानुकूलव्यापारस्य कदाचित्सम्भवादत माह-गगनेति । धात्वर्थ विशेष्यक एवा
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः। प्रथमान्तपदाभावात् धात्वर्थस्थ भावनायां विशेषणतयैवान्वयस्य व्युत्पन्नत्वात्, भावनाया बाधितत्वाच, भावनाविशेष्यविरहादनन्वितैव संख्या। एकवचनं तु साधुत्वार्थम् । अत एव स्वापस्य द्वित्वबहुत्वेऽप्यौ. त्सर्गिकमेकवचनमेव । एवं च भावतिङ यथायथं वर्तमानत्वादीष्टसाधनत्वादिकमर्थः, तच धात्वर्थ एवान्वेति, तथैव प्रत्ययात् । तदबोधकानां तु घनादीनां प्रयोगधातुत्वमात्रम् । भावनायाश्च कर्तरि न्वयोऽस्तु, प्रथमान्तपदस्य तु भावाभिन्नाख्यातार्थप्रकारकबोधे हेतुत्वमस्तु अतो धात्वर्थस्येति । धात्वर्थप्रकारकस्यार्थबोधे आख्यातस्य हेतुस्वकल्पनादित्यर्थः । नन्वत्रापि भावाख्यातभिन्नस्य तथाहेतुस्वकल्पनमत आह-भावनाया इति । गगने स्थीयत इत्यादौ । इदं च कृतिरेव भावनेत्याशयेन । वस्तुतस्त्वाश्रयत्वस्य भावनात्वेऽपि प्रथमान्तपदोपस्थाप्यतद्विशेष्यविरहात् संख्यानन्वय इति पूर्वोक्तमेव साधु । तथा कार्यकारणभावे भावभिन्नत्वप्रवेशे गौरवात् । प्रथमान्तपदोपस्थाप्याभावेन भावनान्वयस्थासम्भावितत्वमेव बाधितत्वमिति केचित् । यत्तु चैत्रेण सुप्यते इत्यत्र चैत्रवृत्त्याश्रयताया निरूपकत्वसम्बन्धे. नान्वये तस्य प्रतियोगितानवच्छेदकत्वान्मैत्रेण न सुप्यत इति न स्यात् । अतएवाश्रयताया वृत्तिनियामक-सम्बन्धेनान्वयो वाच्यः । स च बाधित इत्यर्थः । तत्र, आधेयतावान् स्वाप इति बोधसम्भवात् । तस्मात्प्रथमान्तपदाभावादाख्यातेन तादृशाधेयताप्रकारकः स्वापविशेष्यको बोधो न जन्यत इति बोध्यम् । अतएव संख्याया इतरान्वयादेव औत्सर्गिक प्रथमोपस्थितं एवं भावनाया अनन्वितत्वेभावस्थले वर्तमानस्वाधन्वयः कुत्र स्यादितो भावतिङामिति । यथायथं लट लिङ्गादि (१)। एवं चैत्रेण सुप्यत इत्यादौ चैत्रनिष्ठस्वापो वर्तमान इत्यादिबोधो बोध्यः । यएपीष्टसाधनत्वं सर्वत्रैव धात्वर्थेऽन्वेति तथापि भावप्रत्ययेऽपि तदपरित्यागप्रदर्शनायेदम् । अन्यत्र भावनाया उपस्थितत्वात् कदाचित्तत्रेष्टसाधनत्वान्वयः सम्भवत्यपि अत्र तदभावादास्वर्थ एवान्वय इति वा आशयः । सौदंडमतेनेदम् । तन्मते कृताविष्टसाधनत्वान्वयादित्यन्ये ।
ननु भावतिका यथायथं भाश्रयताभावना वार्थः, तत्रैव वर्तमानस्वेष्टसाधनखादेरन्वयः तृतीयार्थस्तनिष्ठत्वं चैत्रेण सुप्यते इत्यादौ स्वापाश्रयता वर्तमाना चैत्रनिष्ठेत्यादिबोधोऽस्तु अत आह-तथैवेति । स्वापादावेव वर्तमानत्वादिबोध्यस्यानुभाविकरवादाश्रयत्वादिर्न भावतिर्थ इति भावः ।
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१९२ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः ओश्रयित्वेन कर्मणि पुनरन्यथान्वयः, तव कर्तृ-कर्माभिधायित्ववच्चास्माकमपि तथान्वयबोधकत्वम् । अतो मैत्रेण पचति तण्डुलः, तण्डुलं पच्यते मैत्रः, मैत्रः पक्ष्यते तण्डुल इत्यादयो नं प्रयोगाः। भावना च व्यापारमात्रोपलक्षिका अचेतनानुरोधात् । भिनाभ्यां रूपाभ्यामेकधर्मिबोधकत्वलक्षणं सामानाधिकरण्यमप्रसिद्ध संभवदन्यादृशं तु न वार्यते॥६॥
तबोधकानां वर्तमानत्वाधबोधकानाम् । भावनायाः कुत्र कीगन्वयस्तमाह-आश्रयित्वेन आश्रयत्वसंसर्गेण । अन्यथा वक्ष्यमाणरीत्या तवेत्यादि यथा त्वन्मते परस्मैपदेन कर्मणोनभिधानं तथा मन्मते तदुपस्थाप्यकृतेविषयतया कर्मणि नान्वयः । आख्यातजन्ये विषयतासम्बन्धेन कृतिबोधे आत्मनेपदजन्यकृत्युपस्थितेरेव हेतुत्वादिति । यथा तव मते कर्तरियकोऽसाधुत्वं तथा मम कृतेराश्रयतया बोधेऽपि तस्यासाधुत्वम् । यथा तव कर्तृकर्मणोनकदा. न्वयस्तथा आनयतया विषयतया च नैकदा कृतेरन्वयः । क्रमेणोदाहरणानि । मैत्रेणेत्यादि । इत्यादय इत्यादिपदाच्चैत्रेण पचति तन्दुल इत्यत्र कृतेः समवायितया चैत्रस्तन्दुलं पच्यते चैत्रेणेत्यत्र विषयतया तन्दुले न बोधः। प्रथमा. न्तपदाभावात् । अत्रातिप्रसङ्गभिया त्वयापि तनियामकतापी...वाच्यत्वादित्याशयः।
ननु कृतिरेव भावना तथाच तदन्वयः नियमेऽपि रथो गच्छतील्यादौ कथं नियमोऽत आह-भावना चेति । व्यापारी व्याप्याश्रयत्वादेरुपलक्षकः, जानातील्यावतरोधात् । भिन्नाभ्यामिति । नील-घट इत्यत्र घट एव धर्मी नीलखेन नीलपदेन घटत्वेन घटपदेनोपस्थाप्यते धर्मिवाचकस्वं चोभयोस्तथा...क... कृते कर्तृत्वेन कर्तानाख्यातेनोच्यते......मिन्नधर्मावच्छिन्नैकधर्मिवृत्तिमत्यलक्षणम् । सामानाधिकरण्यं नामाख्यातयोरसिद्धमित्यर्थः । अन्यादृश एकर्मिविशिष्टे धर्मान्तरबोधकत्वम् । परस्पराान्वितस्वार्थबोधकत्वमिति यावत् । तथा चैत्रपदोपस्थाप्यं चैत्रत्वादिविशिष्टे पाककृतिबोधकत्वमाख्यातस्येत्यर्थः ॥ ६ ॥
(रामकृ०) अत्र वा पुनरर्थे । आख्यातार्थे संख्यान्वयित्वमेवाभिहितत्वमित्यत्र कर्तृकर्मसाधारण्येन संख्यान्वयबोधनियामकाभावेन पूर्वोक्तमतिप्रसङ्ग
१ आश्रयत्वेनेति आश्रितत्वेनेति पाटद्वयम् ।
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१३ ग्रन्थः ] आख्यातशक्तिवादः।
१९३ मुद्धरति-भावनेत्यादिना । भावना चात्र संख्याकालाद्यतिरिक्त आख्यातार्थः । समानेति । अतएवैकयोगनिर्दिष्टानां सह वा प्रवृत्ति: सह वा निवृत्तिरिति प्रवादः।
औचित्यादिति । तदुभयप्रकारकशाब्दबोधं प्रति एकैवानुपूर्वीप्रयोजिकेति लाघवादित्यर्थः । यद्यपि संख्यान्वयनियामकत्वकल्पनायां समानपदोपात्तान्वयित्वमपेक्ष्य समानपदोपात्तत्वमेव लध्विति पूर्वोक्तरीत्यानुपूर्वीज्ञानस्य कारणताया तन्मत एव लाघवमिति च प्रतिभाति । तथापि कृतीनामानन्त्यात्तत्र शक्यतावच्छेदकत्वकल्पनामपेक्ष्य लाघवेन कृतित्वस्यैव शक्यतावच्छेदकत्वे सिद्धे वादृशकल्पनामतस्तद्गौरवं फलमुखमिति ।
ननु भावनान्वयेऽपि नियामकाभावात्तद्दोषतादवस्थ्यमत आह-भावनायाश्वेति । धात्वर्थविशेषणत्वेनान्वयादाह-विशेष्यत्वेनेति । कर्मत्वेत्यादि । इद. मपि तथाविशेषणत्वसूचनाय । अतएव चन्द्र इव मुखमुत्पद्यते इत्यादौ भुक्त्वा व्रजतीत्यादौ चानाख्यातार्थश्चन्द्रे क्त्वाप्रत्ययार्थे वा । कर्मत्वाचनवरुद्धो धात्व. र्थोऽपीत्यत माह-प्रथमेति । एवं च विशेष्यतासम्बन्धेनाख्यातार्थभावना. प्रकारक-समवायादिसंसर्गक-शाब्दबोधं प्रति इतरानन्वितार्थक-प्रथमान्तनामजन्योपस्थितिर्विषयतासम्बन्धेन कारणमिति सामान्यतः कार्यकारणभावः । - यत्तु चन्द्रस्येतरान्वितंत्वेन निराकाङ्कृत्वम् , एवं कर्मत्वाद्यनवरुद्धस्यापीति । तन्न, एकविशेष्यावरुद्धस्य विशेष्यान्तर एवाकाङ्क्षाविरहः, न तु विशेषणेऽपि । अतएवं कर्मत्वविशेषणस्यापि घटस्य नीलान्वये निराकक्षित्वं नीलं घटमानयेत्यादौ । विशेषणतयैवेति । तथा च न धात्वर्थे भावनान्वयः । अन्तिमोदाहरणमभिप्रेत्याह-भावनाया इति । बाधितत्वं धात्वर्थे प्रातिपदिकार्थे च । यद्यपि चात्र भावनापदेन संख्याकालाद्यतिरिक्त आख्यातार्य एवोच्यते अन्यथा जानातीत्यादौ संख्यान्वयो न स्यात् , तथा च प्रकृतेराश्रयत्वादेरबोध एव, तयापि पूर्वोक्तरीत्या कर्मत्वाद्यनवरुद्ध-प्रथमान्तपदाभावाद्भावनान्वयो बोद्धव्यः । अतएवाह-भावनाविशेष्यविरहादिति । अतएव संख्याया अनन्वयादेव । प्रथमोपस्थितमेकवचनमेव साधुत्वाय कलप्यत इति सम्प्रदायः ।
एवं चेति । भावनाया अबोधकत्व इत्यर्थः । यथायथं लटतिडादिनिय. न्त्रितम् । तथैवेति । वर्तमानत्वप्रकारेण धात्वर्थस्यैव प्रत्ययादित्यर्थः । इष्टसाधनत्वादेः सर्वत्र धात्वर्यान्वयस्वीकारेणात्र विशेषाभावेऽपि वस्तुगतिमवल. म्ब्योक्तम् । भावनाया विशेषणत्वेनान्वयनियमे संसर्गव्यवस्थामाह-भावनायाश्रेति । अन्यथा वक्तव्यक्रमेण ।
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१९४ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः ___ अथ तण्डुलं पचति चैत्रः इत्यादावाश्रयतया
चैत्रोऽस्तु भावनाविशेष्यः मैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादौ तण्डुलस्तु कथं, विषयतयेति चेत्, रथेन गम्यते ग्रामः इत्यादौ सविषयकव्यापारानभिधाने का गतिः । अत्र प्राञ्चः-- मैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यत्र मैत्रनिष्ठपाकभावनाविषयः, मैत्रनिष्ठभावनाविषय
ननु भवन्मते कर्मप्रत्ययस्थले आश्रयतया कर्तृप्रत्ययस्थले अन्यथेति वैपरीत्यमेव किं न स्यात् ? अस्माकं तु धर्मिणि शक्तिबलादेव प्रतिनियततत्तसंसर्गप्राप्तिरित्याशङ्कायां भवन्मते कर्तृकर्मशक्तावपि भवद्भिः कर्तृबोधे यन्नियामकं वक्तव्यमस्माभिरपि आश्रयतया कृतिप्रकारकबोधे तन्नियामकं वक्तव्यम् , भवद्भिश्च कर्मप्रत्ययस्थले यन्नियामकं वाच्यमस्माभिरपि, अन्यथा कृतिप्रकारकबोधे तन्नियामकं वक्तव्यम्, अन्यथा भवन्मतेऽपि पचतीत्यत्र कर्मबोधः, पच्यत इत्यत्र कर्तबोधः, पक्ष्यत इत्यत्रोभयबोधः किं न स्यादित्याशयवानाह-तवेत्यादि । तदुक्तं सामानाधिकरण्यं निराकरोति-भिन्नाभ्यामिति । अन्यादृशं तदर्थान्वयिस्वार्थकत्वादिरूपम् ॥ ६ ॥
(न्यायवा०) कर्मणि पुनरन्यथान्वयं विवृणोति-अथेत्यादिना । मैत्रेण पच्यते रथेन गम्यते इत्यादी विभिन्न एव कार्यकारणभावः । अतएव...... पाकारकूलकृतो मैत्रादिनिष्ठत्वस्यान्ये च गमने तस्य भानम् । अतएव चाये विषयत्वस्य भानं नान्त्यमित्याशयेनाह-मैत्रणेत्यादि । कर्मप्रत्यये फलानु. भवस्यानुभवसिद्धत्वादाह-मैत्रनिष्ठभावनेति । अत्र निष्ठत्वं तृतीयार्थः । सच भावनाय सत्यां कि...स च फले तप तन्दुले प्रकार इत्यन्वयबोधः (?) क्रमः । अत्र ययपि फलावच्छिनक्रियाबोधकत्वं धातोस्तथा च फलादौ कीदृशे ...कस्य कथमन्वयः । तथापीदं दूषणमग्रे एव वाच्यमिति केचित् । परे तु फलं पाकादिश्च पृथगेव पचधात्वादेरर्थः । तथाच नोक्तदोषः । नच भावनाविशेष्यकस्यैव धात्वर्यान्वयस्य पचतीत्यादौ दृष्टत्वात् कथमत्र भावनाविशेषणकपाकान्वय इति वाच्यम् , पाकस्य भावनायां तस्याः फलेऽन्वयात् । नच क्रियाजन्यत्वालामः फले क्रियायामिव फलेऽप्यन्वयेऽपि रोधात् । यत्र घटत्व. मित्यत्र प्रत्ययार्थे इतरवे साकल्ये च घटस्य प्रकारतयाऽन्वयः। तथा च चैत्र. निष्ठपाकभावनाविषयः पाकजन्यं यत्फलं तद्वान् तन्दुल इति प्राचीनमतं
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१३ प्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः । पाकजन्यफलशाली वा तण्डुलः प्रतीयत इति साक्षात्परम्परया भावनाया विशेष्यस्तण्डुलः, रथेन गम्यते ग्राम इत्यत्र रथनिष्ठगमनानुकूलव्यापारजन्यफल-. शाली ग्रामः प्रतीयते इति व्यापारविशेष्यो ग्राम इति ॥ ७॥
नव्यास्तु भावनादेराख्यातलभ्यत्वात् आधेयत्वमात्रं तृतीयार्थोऽस्तु संख्यामानं वा, संबन्धस्तु पचसावित्याहुः । तत्र, तथापि फले धात्वर्थे विभक्त्यर्थभावनाविशेषणकान्वयबोधस्वीकारात् । .
केचित्तु चैत्रेण पच्यत इत्यत्र कृतिस्तृतीयार्थः पाके स च फळे तथाभयत्वे तच तन्दुले प्रकारः । आश्रयत्वं त्वाख्यातार्थः । अत्रापि धातोः क्रियाफलयोः खण्डशः शक्तिरस्तीत्याहुः । ननु द्वितीयकल्पे पाकस्य कथं भावनाविशेष्यस्वम् । प्रथमान्तपदादुपस्थाप्यत्वादितिदूषणं मुख्यविशेष्यतया भावनान्वयबोधे प्रथमान्तपदोपस्थाप्यत्वमपेक्षितमित्याशयेन परिवरति-साक्षादिक मन कल्पामिप्रायेण, द्वितीयाभिप्रायेण परम्परयेति । रथनिष्ठेति अत्र तृतीयार्थों निष्ठत्वं. गमने तच्च व्यापारे स च फले तच ग्रामे प्रकार इति । फलव्यापारयोरन्वये उक्तप्रकारो बोधः ॥ ७॥
(रामकृ०) अथेत्यादिकेन कथमित्यन्तेन प्रश्नः । चेतनाचेतनयोविभिन्न एवान्वय इत्यभिप्रायेणाह-मैत्रेणेत्यादिना । कर्मप्रत्ययस्थले फलबोधोऽनुभवसिद्ध इत्यभिप्रायेण द्वितीयम् । आख्यातार्थभावनाया धात्वर्थविशेषणत्वेनाप्यन्वयस्य तैः स्वीकारादिदमुक्तम् । उभयत्रापि पक्षे निष्ठत्वं तृतीयार्थः। एवमग्रेऽपि । साक्षादिति । आद्यकल्पे साक्षात् द्वितीयकल्पे परम्परया ॥ ७ ॥
(न्यायवा०) संख्यामात्रं वेति । काख्यात इव कर्माख्यातेऽपि कृतिः चैत्रायोः सम्बन्धो व्याक्यार्थ इत्युभयत्र तदंशेन वैलक्षण्यमित्याशयेनेदम् । तथा च भावनाः परे तृतीयाप्रकृत्यर्थान्वयो नामार्थेन धात्वर्थस्यैवान्वयोऽव्युत्पन्न नत्वाख्यातार्थेनेत्याशयः (?), यद्यपि प्रत्ययानां प्रकृत्यान्वितस्वार्थबोधकत्वं तच प्रकृत्यातिरिक्तनामार्थाविशेषेणकान्वयबोधकत्वम् । अतएव मैत्रेण पच्यते तन्दुलमिष्यत्र तन्दुलो न विशेषणतया भावनायामन्वेति । अन्यथा मैत्र इव
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वादार्थसंग्रहः [४ भागः तीत्यादाविव वाक्यार्थः । अस्तु च फल-कर्मणोरपि संबन्धस्तथा फलं तु कस्यार्थः । न च तदपि तथा, प्रकारीभूय भासमानत्वात्। फलावच्छिन्नक्रियाया धात्वर्थत्वेऽपि क्रियाजन्यफलालाभात् विशेषणविशेष्यभावविपर्ययस्यावश्यकत्वात् । तन्दुलोऽपि विशेष्यतया विशेषणं स्यात्तथापि प्रकृत्यर्थप्रकारकान्वयबोधकत्वं प्रत्ययानां भावनाप्रकारकतन्दुलविशेष्यक-शाब्दबोधत्वमेव च तादृशाकांक्षाज्ञानकार्यतावच्छेदकमिति तन्दुलादिप्रकारकबोधे इति भावः।
केचित्तु आधेयत्वं तृतीयार्थ इति पक्ष एव साधुः । चैत्रेण पच्यत इत्यादौ चैत्रभावनयोः सम्बन्धो न वाक्यार्थः। प्रत्ययार्थविशेष्यतानिरूपितप्रकारतासम्बन्धेन प्रत्ययजन्यबोधे प्रकृतिभिन्ननामान्यपदजन्योपस्थितेहेतुत्वात् । अन्यथा चैत्रेण पच्यते मैत्रो जानातीति प्रयोगे मैत्रस्यापि पाकभावनायामन्वयः स्यादिति प्रकृतिभिन्नत्यादि विशिष्टाभावात् । कृतौ वर्तमानत्वान्वयेऽपि न अतिरित्याहुः। सम्बन्धस्तृतीयाप्रकृत्यर्थभावनयोः सम्बन्धः, वाक्यार्थः संसर्गमर्यादया लभ्यः। तथा संसर्गमर्यादालभ्यः आकांक्षाज्ञानभास्य इत्यर्थः । तदपि फलमपि । तथा वाक्यार्थः । तथाचानुभवविरोधेन न फलस्य संसर्गमर्यादया भानमिति भावः।
ननु धातोः फलावच्छिन्न कियापाचकत्वात् तत एव फललाभ इण्याक्याह-फलावच्छिन्नेति । फलमेव क्रियायां प्रकारः, न तु क्रियापि फले येन कियाजन्यत्वं फले लभ्येत। विशेषणविशेष्येति । यथा घटपदाद्घटत्वं नीलपदानीलगुणः प्रकारीभूय धर्मिभाने भासते तथा फलमपीत्यर्थः । न च फलनिष्ठजन्यतानिरूपकत्वरूपजनकत्वभाने जन्यत्वमपि भानमिति वाच्यम्, जन्यत्वमेव जनकतानिरूपकत्वमित्यस्यापि वक्तुं शक्यत्वात् । तस्माजन्यताजनकताभिन्ने एव । अनन्यथासिहव्यापकत्वरूपजनकत्वभाने तु जन्यस्वभान न सम्भवत्येव । जन्यत्वभाने जनकत्वभानं तु स्यात् तादृशव्यापकसामानाधिकरण्यगर्भत्वाजन्यताया इत्यन्ये । एतेन समानसंवित्सविधत्वन्यायो जन्यजनकतयोनिरस्तः । अनन्यथासिद्धतदभाववदत्तित्वरूपं जन्यत्वम् । तथा च तदभानेऽपि जनकस्वभानमित्येके । वस्तुतो जनकत्वस्य जन्यतानिरूपकत्वरूपत्वं तदाने १ फलाभावादिति पाठः। २ विशेष्यविशेषणोतीत्यन्यत्र पाठः ।
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१३ ग्रन्थः ] आख्यातशक्तिवादः। १९७
तस्मात् फलमात्मनेपदार्थः, इत्थं च आख्यातोपस्थापिताया भावनायाः क्रियाविषयिण्याः फलेऽन्वये फलस्य क्रियाजन्यत्वं न लभ्येत भावनाविषयक्रियायाः फलेऽन्वये तिडुपस्थापितभावनायाः क्रियाविशेष्यत्वेनान्यत्रान्वयः क्लुप्तो भज्येत । तस्मात् कृत्यनभिधायकभावकर्मकृद्योगे क्लृप्सशक्तेः सुपो लब्धया भावनया विशिष्टायाः क्रियायाः फलेऽन्वयः, जन्यताभानेऽपि क्रियाजन्यफलशालित्वं तन्दुलेन प्रकारीभूतं तत्रानुभाविक तन्दुलं पचतीत्यवानापीति भावः। . . .
फलस्येति । क्रियाविषयमावनाजन्यत्वमेव लभ्यते क्रियाजन्यवफलमालिवरूपकर्मत्वबोधः कर्माख्यातेन भानुमविक इति भावः । यद्यपि क्रियायाः फले भावनायां चान्वये नायं दोषः, पाकविषयकभावनाविषयपाकजन्यफलशाळीति बोधसम्भवात् । तथापि तन्दुलं पचतीत्यत्रेवात्रापि फले पाकजन्यत्वमेव भासते, न तु भावनाविषयत्वमपीत्येवं दूषणं बोध्यम् । नह भावनाविषयक्रियाजन्यत्वमेव फले भासते भावनायाः क्रियाविशेषणत्वादित्यत आह-भावनाविषयति । धात्वर्थस्य तृतीयार्थभावनाविशेष्यत्वादाहतिकुपस्थापितेति । अन्यत्रेति । पचतीत्यादौ कृतिरेव पाकविशेष्यत्वेन मासते यत्नार्थकाख्यातान्तधातुजन्यपाकप्रकारकबोधे आख्यातजन्ययलोपस्थितेहेतुत्वकल्पनात् । अतः कालो न विशेष्यत्वेन भासते पचति नश्यतीस्यादौ वर्तमानत्वादेः प्रकारतया अन्वयबोधाच ।
केचित्तु भाख्यातार्थप्रकारकबोधे प्रकृतिभिन्नपदजन्योपस्थितेर्हेतुत्वोकत्वात् भावनायाः पाके विशेषणतयैवान्वयः। आख्यातार्थश्च कृतिसाध्यत्वादिमिनो ग्राह्य इत्याहुः । प्रथमान्तपदानुपस्थाप्यत्वादेव क्रिया न भावनाविशेष्येति ऋजुः पन्थाः । सुपो लब्धयेति । चैत्रेण गतं मैत्रेण पक्कास्तन्दुला इत्यादौ तृतीयायाः कृतौ शक्तिः क्लृप्त्यर्थः । न च तत्र लक्षणा प्रकृतेऽपि तत्सम्मवाद । करणत्वापेक्षया कृतावेव लाघवात्तृतीयायाः शक्तिरित्यन्ये । एवं च तृतीयाजन्यकृतिप्रकारक-पाकविशेष्यकत्वबोधे धातुजन्यपाकोपस्थितेतुत्वं चैत्रेण पक्का इत्यनुरोधेन क्लुप्त मिति भावः।
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वादार्थसंग्रहः
[४ भागः सुबर्थ-कृतेर्विक्तित्त्यां विशेषणत्वेनैवान्वयस्य व्युत्पनत्वात् कर्तृकर्मवच्च कृति-फलयोरप्यभिधाननियमानातिप्रसङ्गः । न वा पक्ष्यते तण्डुलो मैत्र इत्यादयः प्रयोगाः। तिडुपस्थापितायाः संख्याया भावनाया इव प्रथमान्तपदोपस्थाप्येनैवान्वयो व्युत्पन्नः॥८॥
कियाविशेषणतया भावनान्वयं व्युत्पादयति-सुबर्थेति । सवर्थस्य प्रकारतया बोधोऽस्तु कष्टेन पचतीत्यादौ काठकरणत्वादेरिव पाके चैत्रेण पक्कास्तन्दुला इज्यादाविवात्रापि व्युत्पन्न इति बोध्यम् । कर्तृकर्मवञ्चेति । यद्यपीदं तव कर्तृकर्मेत्यादिना पूर्वमेवोक्तं तथापि विषयतया कर्मणि भावनान्वयेऽतिप्रसने पूर्व समाहितम् । इदानी फलार्थकत्वमादायतामापायेति भावः । अतिप्रसङ्गो मैत्रेण पचति तन्दुल इत्यापतिप्रसङ्गः । यथा न स्वन्मते परस्मैपदस्य कर्मानभिधायित्वात्तथाऽस्मन्मतेऽपि तस्य फलानभिधायित्वं नेत्यर्थः। नवेति। यथा तव कर्तृकर्मणो कदाऽन्वयस्तथा ममापि कृतिफळयोरित्यादिपूर्वोक्त मेवेति । ___ इदं तु बोध्यम्-चैत्रः पच्यत इत्यादौ चैत्रकर्तृत्वधीवारणाय यगावसमभिव्याहृताख्यातजन्यकृत्युपस्थितेराख्यातजन्यकृतिप्रकारकबोधे हेतुत्वस्य वाच्यत्वात् तदभावादेव चैत्रः पच्यते तन्दुल इत्यादौन चैत्रादिषु कृत्यन्वयः। न त्वाख्यातजन्यकृतिबोधे कर्मत्वतात्पर्यज्ञान प्रतिबन्धकम्, गौरवात्, चैत्रेण पचति तन्दुलमित्यादौ तु प्रथमान्तपदामावादेव न चैत्रादौ कृत्यन्वय इति ।
ननु कर्मप्रत्ययस्थले भावनाया आख्यातलभ्यत्वे तिकुपस्थाप्यसंख्यायाः कथमन्वयो भावनान्वयित्वेनैव तदन्वयादत आह-भावनाया इवेति । तिकुपस्थाप्यसंख्यान्वयेऽपि प्रथमान्तपदोपस्थाप्यत्वं कर्मत्वायनवरुद्धत्वं तंत्रमिति भावः । न हि यत्न एव भावना तर्हि जानातीत्यादौ संख्यान्वयनियामकं न स्यात् । अतो भावनाधात्वविशेषणकमाख्यातवाच्यमेव तच फकमेव, प्रकृते तथा सति तदन्वयिनैव संख्यान्वय इति केचित् ॥ ८॥
(रामकृ०) नव्यास्त्विति । प्राचीनमतं दूषयितुं पूर्व तदनुवदतिभावनादेरित्यादिना । संख्यामात्रं वेति । नामाख्यातयोः साक्षादन्वये क्षतिविरहादिति भावः । इद चाभ्युपगमवादेन । मैत्रः पक्ष्यते इत्यादेरभावादिति । तथा वाक्यार्थः । तदपि फलमपि। तथा वाक्यार्थः। अथ फकावच्छिन्नक्रियाया धात्वर्थत्वाद्धातोरेव फललाभो भविष्यतीत्यत्राह-फलेति । विशेषणेति ।
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१३ ग्रन्थः] माख्यातशक्तिवादः। फलावच्छिन्नक्रियाया घात्वर्थत्वेन कथं क्रियाजन्यफललाभस्तेन रूपेण शक्त्यग्रहात् । नहि घटपदस्य घटत्वप्रकारकघटविशेष्यकशक्तिशाने सति जात्वपि ततो घटत्वविशेष्यघटप्रकारकज्ञानमिति भावः । __ स्वमतमुपसंहरति-तस्मादिति । इत्थं फलस्यात्मनेपदार्थत्वे । अन्यत्रेति । संख्याकालातिरिक्तस्य प्रत्ययार्थस्य प्रकृत्यर्थविशेष्यत्वेनैवान्वयस्य पचतीत्यादौ क्लप्तत्वादित्यर्थः । चैत्रस्य पाकश्चैत्रेण पक्कास्तन्दुला इत्यादौ क्लसशक्तेः । पूर्व तव कर्तृकर्मेत्यादिना । आश्रयतया कृत्यन्वयबोधः । अन्यथा कृत्यन्वयबोधे च कर्तृकर्मबोधनियामकावनियामकावुत्तौ। नवीनमते तु कर्मप्रत्ययस्थले कृतेर्बोधास्वीकारात्तत्र सम्भवतीत्याह-कर्तृकर्मेति । नातिप्रसङ्गः न चैत्रेण पचति तण्डुलः चैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यादिप्रयोगप्रसङ्गः । एवमेकदा कृति. फलोभयाबोधकत्वनियमाभिप्रायेणाह-नचेति । कर्मप्रत्ययस्थळे भावनान्वयात् पूर्वोक्तसंख्यान्वयनियामकं न सम्भवतीत्यतो लाघवाद्वा आह-तिमिति । तथा च. भावनान्वये यन्नियामकं तदेव संख्यान्वय इत्यर्थः। तन्दुलं पाचयति चैत्रो मैत्रेणेत्यादौ निष्ठत्वं तृतीयार्थः । तच्च णिजयेऽन्वेति । णिजर्थश्च कृतिः । एवं चत्रे तिर्थकृतिः, तदुपरि अनुकूलतासंसर्गेण णिजर्थकृतिः, तदुपरि पाको मैत्रनिष्ठत्वं च, पाकोपरिकर्मता, तदुपरि तन्दुलोऽन्वेति भिद्यते कुशूल: स्वयमेवेत्यादौ च भेदानुकूलव्यापाररूपं कर्तृत्वं भेदाश्रयत्वरूपं कर्मत्वं चैकदा कुशूलेऽन्वेति । धातुना चाकाङ्क्षामर्यादया तत्कुशूलनिष्ठाभेदवृत्तिरेव बोध्यते । किंवा तत्कुशूलकर्मकमेदत्वेनैव बोध्यत इत्यन्यदेतत् । यथोदनं पचतीत्यादावतिप्रसङ्गभङ्गाय तदोदनकर्मकापाकव्यक्तिः । तत्र चाकांक्षावैचित्यात् पाककृतिमत्कर्तृकैवोदनव्यक्ति सत इति न विभिन्नकर्तृकातिप्रसङ्गः । एवमन्य. त्राप्यूह्यम् । ___ आकाशं पच्यतीत्यादौ शशविषाणजन्य कार्मुकमित्यादौ च विशेष्ये विशेषणमित्येव प्रथमतो बोधः । आकाशं न पश्यतीत्यादौ चाकाशविषयिताश्रयज्ञानाश्रयत्वस्य तादृशचाक्षुषाश्रयत्वस्यैव वा अभावो धर्मिणि भासते । तादृशविष. यितायां प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्धश्च पश्यामीति विषयितानिरूपितस्वरूपसम्बन्धविशेषो व्यधिकरणः । अतो मैत्र आकाशं न पश्यतीत्यादौ मैत्रस्याकाशविषयक-चाक्षुषसत्त्वेऽपि न क्षतिरिति । यदि तु तदंशे लौकिकसन्निकर्षाजन्येऽपि दोषविशेषजशाने तन्निरूपितो रजतं पश्यामीत्यनुव्यवसायसिद्ध भाकाशनिरूपितो विषयताविशेषोऽपि स्वीकर्तव्यः । इत्थं चाकाशनिरूपित
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२०० वादार्थसंग्रहः
[४ भागः तादृशविषयिताश्रय-चाक्षुषाश्रयत्वावच्छिन्नप्रतियोगितैव तयोः संसर्गः । आकाशं न दृश्यत इत्यादौ च ज्ञानविषयतायास्तादृशलौकिकविषयतानिरूपितस्वरूपसम्बन्धेनाभाव आकाशे भासते, तेनान्धवृत्तिचाक्षुषासत्त्वे चैत्रीयघटचाक्षुषविषयताया आकाशे सत्त्वेऽपि न तिरिति शशविषाणजन्यं कार्मुकमस्तीत्यादौ च शशविषाणजन्यकामुकत्वमेव प्रतियोगितावच्छेदकं परन्तु प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकः सम्बन्धः शशविषाणयोर्जन्यत्वरूपो व्यधिकरण इति ।
एवं पीत: शंखो नास्तीत्यादावपि पीतत्वशंखत्वोभयावच्छिन्नप्रतियोगितैव सम्बन्धः । यद्वा-पूर्वरीत्या पीतत्वशंखत्वयोः प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकः सम्बन्ध एव समवायः, न तु प्रतियोगिताधर्मघटक इति नाप्रसिद्धिः । वस्तुतस्तु अन्वयितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वव्युत्पत्तिसिद्धमित्यस्याप्यु. परि प्रकारीभूतधर्म आकाङ्क्षावशादभावप्रतियोगिनोः संसर्गतया भासत इत्यर्थः । प्रतिबध्यप्रतिबन्धकमावादी लाघवमनुरुन्धाना नवीनाः पुनस्तत्रैवाखण्डप्रतियोगितामामनन्ति । .. एवं च नीलघटो नास्तीत्यादौ धर्मविधया प्रतियोगितावच्छेदकता । नीलत्वे नीलगुणे धर्मिणि घटत्वे च संसर्गविधया तत्वं च नीलत्वसमवाये नीलगुणसमवाये तद्वदभेदे घटत्वसमवाये च व्यासज्यवृत्तिरवच्छेदकसम्बन्धाश्च प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धास्ते च प्रतियोगिकोटौ तत्तदंशे भासन्तो घटो नास्तीत्यादी घटत्वस्य समवाय इव त एव धर्मा अभावप्रतियोगिनोः संसर्गतयाऽपि भासन्ते ।
एवं दण्डपुरुषवान् चैत्रो नास्ति दण्डिपुरुषवश्चित्रो नास्तीत्यनयोराधे धर्मविधया प्रतियोगितावच्छेदकत्वं दण्डत्वादौ दण्डपुरुषतत्संयोगाश्रयचैत्रत्वेषु च । द्वितीये दण्डत्वादी दण्डसंयोगिपुरुषतत्संयोगिचैत्रत्वेषु सम्बन्धविधया तत्त्वं तु तत्तत्पदार्थानां तेषु तेषु सम्बन्धिषु व्यासज्यवृत्ति......अभावेन 'सह सम्बन्धाः । दण्डसंयोगचैत्रत्वाद्युभयत्र तुल्यान्येवेति । सर्वत्रैव प्रतियोगितावच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धः प्रतियोग्युपरि संसर्गतया तत्तदंशे भासते । प्रतियोगितावच्छेदकसम्बन्ध: पुनरभावप्रतियोगिनोरिति ।
एवं चाकाशं न पश्यति शशविषाणजन्यं कार्मुकं नास्तीत्यादौ त एव पदार्था अभावप्रतियोगिनोः संसर्गतया भासन्ते विशिष्टस्थानतिरेकेण विशिष्टसंसर्ग इत्यस्यार्थान्तरस्याभावादिति ।
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१३ ग्रन्थः ]
आख्यातशक्तिवादः ।
२०१
एवं रक्तरूपदण्ड द्वितयादिनिरूपिता एका प्रकारिता रक्तदण्डो दण्डवानिति विशेष्ये विशेषणन्यायेन रक्तदण्डवानित्यादिज्ञातव्यावृत्ता रक्तदण्डवानिति विशिष्टवैशिष्टयत्रोधे तिष्ठति विशेष्ये विशेषणमित्यत्र च रक्तरूपनिरूपितमेकं दण्डनिरूपितं चैकमिति प्रकारित्वद्वयं तच्च रक्तदण्डः दण्डवानिति समूहालम्बनादव्यावृत्तम् । एवं धर्मितावच्छेदकं विशिष्टमविशिष्टं वा कृत्वा विधेयं च तादृशं कृत्वा तत्तदुभयादिनिरूपिताविलक्षणविषयताबोध्याः । तत्रैव च विधेयोद्देश्यतावच्छेदकयोः परस्परव्यत्ययेन तदुभयादिनिरूपिता एव । ततोऽन्या एताश्च विषयिताः सर्वाः प्रतिबन्ध्यप्रतिबन्धकभावाद्यनुरोधेन क्लृप्ता अनुभवारूढाश्च । ताश्च प्रतिनियतकारणप्रयोज्याः स्वयमूह्याः । एतेन साकार - वादापत्तिभीत्या सर्वत्र विशिष्टवैशिष्ट्यबोधादौ विशिष्टादिनिरूपितः संसर्ग-विशेषोऽतिरिक्तः संसर्गमर्यादया भासते, स च संसर्गविशेषो नान्यत्र संसर्गतया वा अन्यथा वा भासते इति फलबलात्कल्प्यत इत्यादि कुकल्पनमपास्तम्, विषयिताया विषयनिरूप्यत्वानभ्युपगम एव साकारवादापातात् ।
इदं त्ववधेयम् - विशिष्टवैशिष्ट्यबोधादिषु स्वीकृता विषयिताः संशयव्यावृत्ता एव कल्पन्ते । परामर्शादिकारणतायां व्याध्यादितत्तदंशावच्छिन्ननिश्चयत्वमपेक्ष्य लाघवेन तत्तन्निरूपितविषयिता एव संशयव्यावृत्ताया जनकतावच्छेदकत्वौचित्यात् । अतएवानुमानदीधितौ रक्तो दण्डो न वेति संशयानन्तरं रक्तदण्डवानिति विशिष्टवैशिष्ट्यबोधाभावः स्वीकृतो दण्डांशे निर्णयाकारो रक्तत्वांशे संशयाकारस्तु आयत एव तत्र सामग्रीसत्त्वादिति संक्षेपः ।
गवां कृष्णा सम्पन्नक्षीरा इत्यादौ च कृष्णभिन्नगो सामान्यभेदोऽभेदश्च कृष्णोपरि अभेदोपरि च प्रकृत्यर्थो गोरन्वेति । तादृशकृष्णत्वावच्छिन्नाभेदश्च सम्पन्नक्षीरकृष्णयोः सम्बन्धः । एवं च गवाभिन्न- कृष्णाकृष्णाभिन्न- गोसाम्यभिन्नसम्पन्नक्षीराभिन्ना इति बोधः । अतिप्रसङ्गश्वोक्तसम्बन्धाभ्यामेव निराकृतः । गोषु दुधमानास्वागत इत्यादौ भावसप्तमीस्थले च कालीनत्वं सप्तम्यर्थः। काल एव वा तथावृत्तित्वं संसर्गः । एवं च दुह्यमाना - भिन्न- गोकालीनागमनवानिति बोध: दुग्धास्वागत इत्यादौ चोत्तरकालीनत्वमुत्तरकाल एव वा सप्तम्यर्थ इत्यादि स्वयमूह्यम् । छत्रिणो यान्तीत्यादावजहत्स्वार्थलक्षणास्थले च यद्यपि छत्रपदे छत्राभावविशिष्टच्छत्रे लक्षणा । विशेष्यं च स्वाश्रयगमनकालीनगमनवृत्तित्वं यदि चेच्छत्र्यच्छत्रिणोर्विभिन्नदेशीय
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२०२
वादार्थसंग्रहः । [४ भागः चैत्रो गन्ता गतो ग्रामो मित्रा पक्री गतं पुरम् । भोक्ता तृप्यति पक्कानि भुंक्ते पक्तापसार्यताम् ॥ इत्यादौ सामानाधिकरण्याद्यन्यथानुपपत्त्या कर्तृगमनवत्त्वेनैतादृशप्रयोगः तदा वैशिष्टये देशघटितं सामानाधिकरण्यमपि प्रवेश्यताम् । यत्र च छत्री एक: छत्रशून्याश्च बहवः, तत्र बहुत्वान्वयानुरोधात् छत्रविशिष्टछत्राभावे लक्षणा । वैशिष्टयं निरुक्तमेवेत्यापाततो वक्तुं शक्यते तथा छत्रिणौ द्वावच्छत्रिणौ च द्वौ तत्र कथितप्रकाराभ्यां बहुत्वान्वयो दुरुपपाद इति तन्न श्रद्धेयम् । परन्तु यथा पुष्पवन्तादिस्थले एकैकशक्त्या चन्द्रत्वसूर्यत्वाभ्यां प्रकाराभ्यां बोध्यते । शक्यतावच्छेदकता च व्यासज्यवृत्तिरिति केवल. चन्द्रत्वादिप्रकारको बोधो लक्षणयैव । तथा छत्रपदस्य केवलं छत्रत्वं शक्यता. वच्छेदकमिति शक्यतावच्छेदकमव्यासज्यवृत्ति । लक्षणा तु उभाभ्यां छत्रत्वछत्रत्वाभावत्वाभ्यामिति। लक्ष्यतावच्छेदकत्वं व्यासज्यवृत्ति । इदं चोभाभ्यां रूपाभ्यामुपस्थितमुभयथा योग्यमन्वेति । तत्र च गमनाश्रयत्वादिकं बहुत्वादिकमन्वेतीति न क्वाप्यनुपपत्तिरिति दिक् ॥ ८ ॥
(न्यायवा०) नन्वाख्यातोक्तयुक्त्या कृतामपि कृत्यादौ धर्मे शक्तिः स्यादतो धर्मिणि कृतां शक्तिमुपपादयति-चैत्र इत्यादिना । समानविभक्तिकत्वस्य विरुद्धविभक्तिराहित्यस्य वा अभेदान्वये तन्त्रत्वादिति भावः । यधपि चैत्रो दण्डी कुण्डलीत्यत्र समानविभक्तिकत्वेऽपि गुणानां च परार्थस्वादिति न्यायेन दंडिकुण्डलिनोन परस्परान्वयः, तथापीतरविशेषणत्वेन तात्पर्याविषयत्वमपि तत्र तन्त्रं बोध्यम् । कर्मस्थले त्वाह-गत इति । लिङ्गत्रयेऽप्यभेदानुभवं दृढयितुमपरलिङ्गवयमाह-मित्रेत्यादिना। चैत्रो गन्तेत्या भेदान्वयेऽप्युपपत्तिः। न च समानविभक्तिकयोभैदेनान्वयबोधो न दृष्टचरः, निपातस्थले एव दृष्टत्वादिति । अतो यत्र तथा नोपस्थितिस्तदाह- भोक्तेति । यद्वा दोषान्तरमाह-भोक्तेति । अत्र कृतः कृतिवाचकत्वे भोजनकृतिस्तृप्यतीत्यन्वयः स्यात् , सा च बाधिता, न च परम्परया कृतेरन्वयः, कर्तुरमानेऽनुभवविरोधात् । न च नियमेन पुरुष इत्यध्याहार्यम् , तथा च भोका पुरुष इत्यत्राश्रयतया कृतेरन्वय इति वाच्यम्, निर्बीजाध्याहारकल्पेन गौरवात् । पक्वानीति । धर्मे शक्को पक्वस्य तन्दुलादेर्भानं न स्यात् । धर्मे च भोजनकर्मत्वं वाधितमित्याशयः। कर्मप्रत्यये उदाहरति-पक्तेति।
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१३ ग्रन्थः ] आख्यातशक्तिवादः ।
२०३ कर्मणी कृद्धाच्ये । चैत्रस्य नसा मैत्रादन्यो घटात् पृथक् परोऽपरो वेत्यादाविव पदार्थतावच्छेदकेनैव कृत्यादिना धात्वर्थान्वयः, तथैव साकांक्षत्वात्। अस्तु
कृतः कर्तृवाचकत्वे स्वदेकदेशे कृतौ पाकस्य कथमन्वयोऽत आह-चैत्रस्य नप्तेति । नप्तृपदेन जन्यजन्यशरीरविशेष उपस्थाप्यते, न तु जन्यजन्यमात्रम्, चैत्रपुत्ररूपादौ नप्तृपदाप्रयोगात् । तत्र विशेष्ये शरीरे चैत्रस्येत्यन्वये चैत्रपुत्रेऽपि तथा प्रयोगः स्यादतो जन्यत्वरूपैकदेश एव चैत्रस्येत्यन्वय इत्यर्थः । ननु चैत्रजन्यजन्यत्वादिकं न नप्तपदशक्यतावच्छेदकम् , नानार्थत्वप्रसङ्गात् । न वा जन्यजन्यशरीरत्वम्, जन्यत्वस्याननुगमात् । किन्तु एवकारादीनामिव तावत्पदाथै खण्डशक्तिर्वाच्या । तथा चैकदेशान्वयोऽत आह-मैत्रादन्य इति ।
भदं बोध्यम्-पतृपदस्य चैत्रजन्यजन्यशरीरमर्यः । तत्र खण्डशक्तिमति चैत्रांशे शक्तिविरहात् । चैत्रो नप्तनप्वप्रिय इत्यत्र चैत्रीयनप्खलामो न स्यात् । न हि अन्यनत्रीयचैत्रो नप्तृप्रिय इति प्रयोगः । न च चैत्रस्य नप्तृपदवाच्यपदार्थेऽप्यन्वयः, तथा सति चैत्रनप्तृलाभेऽपि पुनक्षेत्रेण नप्तृप्रियत्वं नान्वितं स्यात् । स्याच नामार्ययोर्मेदान्वये व्युत्पत्तिविरोधः । तस्मानप्तृपदस्खण्डशको चत्रोऽप्यसर्भवति । तया च चैत्रमैत्रादीनां सर्वेषां शक्यत्वे गौरवं स्वीकार्यमेव । तथा चत्रबन्यजन्यत्वे मैत्रजन्यजन्यत्वे विशिष्ट एव शक्तिरस्तु, न तु खण्डशतिः। मातृपदादावप्येवम् । अतएव प्राञ्चोऽपीदमेव वर्णयंति । न च चैत्रजन्यजन्यत्वे. नोपस्थिते चैत्रस्येत्यन्बयो न स्यात् । सम्बधत्वेन तद्वानात् इति ।
अन्ये तु मप्तपदे अन्यत्वे खण्डशक्तिरेव । चैत्रांशे तु लक्षणैव । तेन चैत्रनप्लाभः । युगपत्तिद्वयविरोधस्तु निरस्त एवेत्याहुः । केचित्तु चैत्रो नमृप्रिय इत्यत्र चैत्रस्य नप्तृपदवाच्येऽर्थे विशेषणतया नप्तृप्रिय इत्पस्य विशेज्यतया द्विधैवान्वयः । न च नामार्थयोदेनान्वये विभक्त्यर्थोपस्थित्यपेक्षा नाम्नि च नियतान्यत्वस्यैवैतदन्यत्वस्यापि वाच्यत्वादित्याहुः।
मैनादन्य इत्यवान्यपदार्थैकदेशे भेदे पंचम्यान्वयः । अन्यपदस्य स्वमते भेदविशिष्टवाचकत्वं प्राचां मते पृथक विशिष्टवाचकत्वमित्युभयथाप्येकदेशान्वयः। यदप्यन्य इत्यादौ भेदे चाश्रये च शक्तिद्वयस्वीकारे नैकदेशान्वयः, तथापि शक्तिद्वयकल्पनागौरवाद्वरं व्युत्पत्तिभेद एव कल्यत इति भावः । अन्यपदाढ़ेदप्रकारेणैव धर्मिणो भानं, नत्वाश्रयत्वादिप्रकारेण । अतएवान्यपदस्य भिन्न इत्यनेन भेदः । तथा च शक्तिद्वयकल्पनेऽपि न निर्वाह इत्यन्ये । ननु घटादन्य इत्यादावन्वयानुपपत्त्या तथास्तु । अस्तु वा तत्रापि भेदवति घट
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२०४ वादार्थसंग्रहः।
[४ भागः वा कृत्यादिघटित एव कादिना सममन्वयः । मुख्यभाक्तसाधारणस्य फलादिलक्षणकर्मत्वस्य कृत्यादिलक्षणकर्तृत्वस्य चानभिधाने द्वितीयादयः । कृता विशिष्टाभिधाने विशेषणस्याप्यभिधानात्॥९॥ प्रतियोगित्वादेः परम्परासम्बन्धेनान्वयः । अन्यथा तद्दृष्टान्तेन गौनित्या इत्यत्रापि लक्षणा गोत्वेन स्यात् । न च तद्विशेष्यकपदार्थान्तरबोधे दृत्तिजन्यतद्विशेष्यकोपस्थिते हेतुत्वान्न तथा बोधः । मैत्रादन्यो नित्य इत्यत्रैकदेशे भेदे नित्यानन्वयात् ।
अत्रापि तथाकल्पनादत आह-अस्तु वेति । एवं पाकस्य धर्मिण्येव स्वजनककृतिसम्बन्धेनान्वयात् । तथा च पक्तत्यत्र पाकवान् कर्ता इत्यन्वयबोधः । न चैवं पक्ता पचतीत्यन्वयबोध: स्यात् । उद्देश्यतावच्छेदकविधेययो. रेक्याभावादिति वाच्यम्, उद्देश्यतावच्छेदक-विधेयाभेदस्थल इवात्रापि निराकाङ्गत्वाकल्पनात् । केचित्तु तश्रेष्टापत्तिरित्याह चैत्रस्य नप्तेत्यादावपि षष्ठ्य
स्य स्वाश्रयान्यत्वसम्बन्धेनैव धर्मिणि अन्वयो मित्रैरपि तथैवोपपादित शब्दमणौ कृतौ कर्मत्वे भाश्रये च कृतः शक्तिरतो नैकदेशान्वयः । तेन पक्तत्यत्र पाकवान कति बोधे पाकातकूळकृतिमान वेति संशयनिरासो न स्यादित्यपास्तमित्याहः। केचित्तु अस्तु वेत्यापाततः । चैत्रपक्ता मैत्रादन्यो घट इत्यादिबोधेन तद्विशेष्यकापरपदार्यान्वयबोध एव वृत्तिजन्यतद्विशेष्यकोपस्थितेहेतुत्वात् । मतो गौनित्या इत्यादावेकदेशान्वय इत्याहुः, तचिन्त्यम, घटो ज्ञायत इत्यादौ घटत्वे ज्ञानविषयत्वान्वयापत्तेः । चन्द्र इव मुखं चैत्रस्य धनमित्यादौ मुखत्वधनस्वादौ सादृश्यान्वयापत्तिश्च । परे तु यधुक्तसंशयाभाव आनुभविकस्तदा अन्याविपदानां मैत्राविभेदवति लक्षणेति पदान्तरं तात्पर्यग्राहक आश्रये अन्यत्वादौ वा अन्यादिपदानां वा खण्डशः शक्तिरित्याहुः।
ननु कृतः कर्तृकर्मवाचकत्वे तन्दुलं पचति चैत्रेण पक्तत्यपि स्यात् अतो मुख्येति मुख्यं तन्दुलं पक्कत्यादौ भाक्तं घट ज्ञाता इत्यादौ । आदिपदेन जानातीच्छतीयविषयत्वादिसंग्रहः। कृतादित्यादिपदाव रथो गच्छतीयादावाभयत्वादिपरिग्रहः । यद्यपि कृतां कर्मादिशको सिद्धायां कृताकर्मापन भिधाने द्वितीयादय इत्येव वक्तुं गुकं तथापि लाघवात् कर्मत्वायमिधानमित्युक्तम् । ननु कर्तृत्वानमिधानं सर्वदैव कृतस्तद्विशिष्टवाचकत्वादत आह-कृतेति । विशिष्टस्यानतिरेकाद्विशेषणकृतेरप्यभिधानादिति भावः ॥९॥
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१३ ग्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः।
(रामकृ०) कृत्सु व्यवस्थामाह-चैत्र इत्यादिना । चैत्रो गन्तेत्यादौ समानविभक्तिकयोरभेदान्वयस्य व्युत्पन्नत्वादिति भावः । कर्मण्यपि तथा द्रढयति-गत इति । लिङ्गविशेषेणापि सामानाधिकरण्यं द्रढयति-मित्रेति । ननु लाघवादाख्यातवत् कृतामपि कृतावेव शक्तिरस्तु । अभेदसंसर्गबोधश्च संदिग्धः, चैत्रो गच्छतीत्यत्रेव चैत्रो गन्तेत्यादावपि कृदयस्य चैत्रादिना भेदेनैवान्वयोऽस्तु, प्रातिपदिकार्थयोर्भेदेनान्वयबोधे प्रकारीभूतेत्यादिव्युत्पत्तौ तु प्रातिपदिकत्वमर्थवदधातुरपत्यय: प्रातिपदिकमिति सूत्रस्वरससिद्धं कृदयावृत्तमेव वक्तव्यम्, लिङ्गैक्यं तु साधुत्वार्थकमन्यथाप्युपपत्स्यत इत्यत आह-भोक्तेति । कृत: कृतिवाचकत्वेऽत्र भोजनकृतिस्तृप्त्याश्रय इति बोध: स्यात् । न चैवमनुभवविरोधादिति लाघवेन कृतौ शक्तिः कृतिविशिष्ट प्रकृते लक्षणेत्यत्र च ग्रन्थकृतैव वक्ष्यत इति ।
___ कर्तृशक्तत्वे एकदेशान्वयं बाधकमुद्धर्तुमाह-चैत्रस्येत्यादि । नतृपदस्य पुत्रपुत्रशक्तस्य पुत्रेणैकदेशेन यथा षष्ठयर्थान्वयो यथा वा भेदपृथक्त्वादि-गुणविशिष्टशक्तानां अन्यपृथगादिशब्दानां एकदेशेन भेदादिना पञ्चम्यर्थस्तथाऽत्रापीत्यर्थः । तथैव एकदेशेनैव । अस्तु वेति । पाचक इत्यादौ जनककृत्याश्रयत्वं कृतिमात्रं पाककर्ता । नतेत्यत्र स्वाश्रयपुत्रपुत्रत्वं स्वाश्रयपुत्र एव वा जन्यतारूपषष्ठयर्थनप्त्रोरन्य इत्यादौ च स्वाश्रयभेदवत्त्वं स्वाश्रयभेद एव वाऽनुयोगितारूपपञ्चम्यर्थान्वयः । एवं रीत्या परत्रापि सम्बन्धोऽस्त्वित्यर्थः ।
इदमत्रावधेयम्-पुत्रत्वस्य व्याप्तिघटितजन्यत्वघटितत्वाद्वयाप्तेश्च व्यापकव्याप्योभयघटितत्वाच्चैत्रस्य पुत्र इतिवदत्रापि नानार्थनप्तृपदतात्पर्यग्राहकत्वमेव चैत्रस्येत्यस्येति कैकदेशान्वयसम्भावना । अन्यथा चैत्रस्य पुत्र इत्येवं कथं नोद्भावितमिति।
कृदाख्यातसाधारणमभिहितानभिहितत्वविवेकमाह-फलादीति । आदिना विषयत्वादिपरिग्रहः । कृत्यादीत्यादिना आश्रयत्वादिसङ्ग्रहः । ननु विशिष्ट शक्तस्य कृतः कथं कृतिफलाद्यभिधायकत्वमत आह-कृनेति ॥ ९॥
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वादार्थसंग्रहः . [४ भागः यत्तु धातूत्तरप्रत्ययत्वेनैव कृतौ शक्तिः, पाचकादिपदे तु सामानाधिकरण्यानुरोधात् कृतिविशिष्टे लक्षणेति, तन्न, भावकृतोऽपि कृतिवाचकतापत्तेः, घातुत्वादिघटितात्तस्मादाख्यातत्वस्यैव लघुत्वाच । यदपि कर्तृकृतोऽपि कृतौ शक्तिः कृतिविशिष्टे तु लक्षणैवेति, तदप्यसत् यतो विनावच्छेदकरूपं शक्यत्वासंभवात्, गोत्वत्वादिना शक्तौ चातिगौर(न्यायवा० ) कर्मप्रत्ययेऽपि कृतौ शक्तिरस्त्येव समभिहारविशेषाभावान तदोष इत्याशयेन तदुपेक्ष्याह-भावकृत इति । तथा च कृतिनाशकाले इदानीं पाक इति धीन स्यादिति भावः । ननु तत्र प्रत्ययार्थे न तात्पर्यम् , स्थलकालावच्छेदेन वा वर्तमानत्वं भासते अतो धातुत्वादीति । केचित्तु भावकृतोऽपि कृतिवाचकत्वमास्तां किं न च्छिन्नम्। कृतिनाशकाल इदानीं पाक इति बुद्धेरप्रमावमेवात आह-धातुत्वादीत्याहुः। धातुत्वादीत्यादिंपदात् प्रत्ययत्वादिसकदः। तथा च धातुत्वप्रत्ययत्वोभयघटित-तदपेक्षया आख्यातत्वस्यैव लघुत्वादित्ययः। प्रत्ययत्व-घटकान्यतरत्व विशिष्ट तावड्दापेक्षया तदन्यभेदघटितारूपातत्वस्य लघुत्वाञ्चलत्वस्य शक्यतावच्छेदकत्वेऽतिलाघवाच कर्तृकृतः कृतौ शक्तिः पाचक इत्यादौ अभेदान्वयानुरोधाद्विशिष्ट लक्षणेति मतमाहयदपीत्यादिना । यत इति । असदित्यत्र हेर्यतो विशिष्टान्तराणां शक्यत्वं विलीयेव ततोऽसदित्यर्थः । न च शुद्धे गोत्वे शक्तिरास्ताम् , गोत्वत्वं संस्कारवशादुपस्थितं भासते लक्षणायामतिरिक्तत्वमिवेति वाच्यम् , तथा सति धर्मिणो लामो न स्यात् । आक्षेपलभ्यत्वोक्तो जातिशक्तिवादोक्तदोषापत्तेः । गोर्गोत्व. बानित्पन्क्योऽपि न स्यात् । लक्ष्यतावच्छेदकवनियतभानं च न स्यात् गोस्वत्वस्येति ध्येयम् । वस्तुतो लक्ष्यतावच्छेदकेऽपि लक्षणैव । न च तीरत्वविशिष्टबोपलं गङ्गापदलक्षणा ज्ञानकार्यतावच्छेदक इति तीरत्वांशे लक्षणां विनापि निवहि चिजन्यपदार्थोपस्थितिहेतुः, न तु तदंशेऽपि तिजन्येति न तदर्थमपि तलक्षणेति वाच्यम् । एवं घटत्वेऽपि शक्तिर्न स्यात् , कारणताकार्यताशन्यानां कारबवावच्छेदकत्वस्येव शक्तिशन्यस्यापि शक्यतावच्छेदकत्वाविरोधात् । अशक्यापि शक्यानुगमसम्भवादिति ध्येयम् । विशिष्टान्तराणामिति । विभुभूतपदानां महत्तविशेषे भूतत्वादौ शक्तिः
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१३ ग्रन्थः ]
व्याख्यातशक्तिवादः ।
वादस्तु गवादिपदानां गोत्वविशिष्टं शक्यं, विशि ष्टान्तराणां तु शक्यत्वं विलीयेत । केवलविशेषणे स्वारसिकप्रयोग विरहस्तुल्य एवेति ॥ १० ॥
स्यादित्यर्थः । ननु तर्हि केवलेऽपि भूत भूतपदप्रयोगः स्यात् अत आहकेवलेति । तत्रापि केवलकृतौ न प्रयोग इति तुल्यम् । यत्र यत्न विशेष्यकबोधे तात्पर्येण पक्ता गुण इत्युक्तं तत्र भावना पक्तेत्यत्र लक्षणा, परेषां शस्यैव बोध इति चेत् भूतं गुण इत्यत्रापि तुल्यम् । अत एवोक्तं स्वारसिकेति । इतरानुपपत्तिप्रसन्धानाकालीन इति तदर्थः । एवं यत्र यत्रानुपपत्तिप्रतिसन्धानादेव बोधस्तत्र लघुनोऽपि शक्यतावच्छेदकत्वमिति भावः ।
कश्चित्तु विशिष्यतराणामिति । महदादीनां महत्पदवाच्यता न स्यादित्यर्थ इत्याह, तन्त्र, महत्पदस्य शुक्लादिपदं तुल्यतया महत्व एवं शक्तिः । तत्परिमाणं चतुर्विधम्, अणु महद्दीर्घं ह्रस्वं चेति भाष्यकृता विभजनात् । यत्तु लक्षणा आश्रयत्वविशिष्टे वाच्या तर्हि कृतिप्रकारेण धर्मिबोधो न स्यात् किन्तु तदाश्रयत्वेनेत्यनुभवविरोधादिति, तन्त्र, कृतिप्रकारेण धर्मिणि लक्षणासम्भवात् ।
अत्र केचित्-एवं सत्याख्यातेऽपि धर्मिणि शक्तिः स्यात् । न च तत्र केवलकृतौ प्रयोगान्न साम्यम् । अत्रापि चैत्रः पक्तेति केवलकृतौ प्रयोगात् । न चाभेदान्वयाननुभवः स्यात् इष्टत्वात्, अन्यथाख्यातेऽपि तौल्यात् । न चात्राभेदान्वयधीविरुद्ध विभक्तिराहित्य सत्त्वादभेदान्वय एव स्यात्, कृत्या सममभेदान्वये बाधात् । अन्यथा पाकस्य स्तोकं पचतीत्यत्रेव तण्डुलं पचतीत्यत्रापि तण्डुलेनाभेदान्वयः स्यात् । तस्मात्कृतः कृतौ शक्तिः भोक्ता तृप्यतीत्यादौ तृचः कर्तरि लक्षणा । चैत्रो गन्तेत्यादौ क्वचिदाश्रयतया कृतेः कचिचात्पर्यसस्त्रे लक्षणया तद्वतो भेदान्वय इति पत्रादावपि कचित्स्वरसिकप्रयोग एवास्तीति वदन्ति तन्त्र, चैत्रः पक्तेत्यत्र तृजर्थकृते वैत्रेण भेदान्वयासम्म - वात् । नामार्थयोर्भेदनान्वयबोधे विभक्त्यर्थो पस्थि तेर्हेतुत्वात् चैत्रे पक्तेति प्रयोगापत्तेश्वलत्वं आख्यातनिष्ठय व्नशक्यतावच्छेदकमितिपक्षे पचन् गच्छ. तीत्यादौ पाकादिकर्तृलाभो न स्यात्, लटः शतृज्ञानचाविति सूत्रेण तयोरादेशत्वावगमात् । आदेशे च शक्यभावात् । न च तत्र लट एव कर्तरि लक्षणम तथापि शक्त्या चैत्रे पचन्निति प्रयोगः स्यात् । न. स्यात्पचन्तं पश्यतीत्यादौ पाककर्त्रादिबोधः । लडर्थप्रकारकबोधे प्रथमान्तपदोपस्थाप्यस्वस्य तन्त्रस्वात् 4
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२०८ - वादार्थसंग्रहः
[४ भागः एवं च गतो ग्रामो गम्यत इत्यादौ फलस्य कृदात्मनेपदाभ्यामेव लाभात् लाघवाद्धातोरनन्यलभ्यव्यापारविशेषमात्रवाचकत्वस्थितौ ग्रामं गच्छति ग्रामस्य गन्तेत्यादौ द्वितीयादेः फलजनकत्वलक्षणं कर्मत्वमर्थः । फले च प्रातिपदिकार्थोऽधिकरणत्वेनान च कृतः सामान्यतस्तेन तेन रूपेण वा कर्तरि शक्तिः । शतृशानचादौ तु आदेशीभूतलटः स्मरणं वर्तमानवांशबोधे एव तन्त्रम् । यत्नबोधकाख्यात. जन्यवर्तमानावबोधे आख्यातजन्ययत्नोपस्थितेहेतुत्वकल्पनात् । अन्यथा चैत्रः पचतीत्यादौ चैत्रे वर्तमानत्वान्वयापत्तेरित्याहुः ॥ १० ॥
(रामकृ.) भावकृतोऽपीति । तथात्वे च पाचक इत्यादौ पाक- . कृतिरित्यनुभवः स्यात् । स्याच्च व्यापारस्य वर्तमानदशायां कृतेरतीतत्वे पाको नष्ट इति भाव: । धातुत्वादीति । धातूना बहुत्वात्तद्घटितान्यतरत्वरूपधातुत्वमपेक्ष्यैव ततः स्वल्पतरतिङ्घटितान्यतरत्वरूपाख्यातत्वस्य लघुत्वं. सुतरां च धातूत्तरप्रत्ययत्वापेक्षयेति भावः । इदं चाभ्युपगमेन । वस्तुतो धातूत्तरप्रत्ययत्वमाख्यातत्वं वा न शक्ततावच्छेदकं किन्तु तिप्त्वादिकमेवेत्युक्तमेव प्रागिति ।
एतदस्वरसेनैव वा । यदपीति । कृतां विशिष्यशक्तिकल्पनेऽपि कृतित्वमेव शक्यतावच्छेदकम् , लाघवात् । कृतिप्रकारकबोधस्तु लक्षणयैतन्मताभिप्राय इति । प्रतिबन्धान दूषयति-यत इति । अस्तु वा गवादिपदानामित्यादौ हेतुविनित्यादिगौरवादित्यन्तम् । विशिष्टेति । आकाशादिपदस्यापि उक्तयुक्तेः शक्ते शक्तिः शब्दविशिष्टे लक्षणाऽस्त्वित्यर्थः । अथ केवले विशेषणे स्वारसिकप्रयोगाभाव एव केवलविशेषणशक्तो बाधकस्तदा प्रकृतेऽपि तुल्यमित्याहकेवलेत्यादि । एतत्प्रतिबन्धा आख्यातस्यापि कृतिविलोपप्रसङ्गस्तु ध्येयः ॥१०॥
(न्यायवा०) फलावच्छिन्ने व्यापारे धातोर्न शक्तिः किन्तु रहे व्यापारे इति मतं दूषयितुं एवंचेत्यारभ्य केचिदित्यन्तेन तन्मतमुपन्यस्यति । एवं फलस्यास्मनेपदसमर्थने व्यापारविशेषो गमनादिः । तथाच गम्यादिधातुनोत्तरदेश. संयोगाववच्छिन्ना क्रिया न बोध्यते किन्तु तत्तक्रियैवेत्यर्थः । मात्रपदास्फलव्यवच्छेदः। द्वितीयादेरिति । मादिपदादामस्येव्यत्र षष्ट्या अनुकर्षः । इदै चादेशे शक्तिरिति मते। वस्तुतः षष्ठया द्वितीया स्मार्यते। आदेशे शक्तो गौरवार द्वितीयादेरित्यादिपदादात्मनेपदपरिग्रह इत्यन्ये ।
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१३ प्रन्थः] माख्यातशक्तिवादः ।
२०९ न्वेति, फलमात्रं वा अर्थः। जनकत्वं तु संसर्गमर्यादया लभ्यत इति केचित् । तदसत्, ग्रामं गच्छति त्यजतीत्यादौ द्वितीयादितः फलसामान्यलाभेऽपि नियतसंयोग-विभागाद्यलाभेन फलविशेषावच्छिनव्यापारस्यैव धात्वर्थत्वात् । इतरथा त्यजि-गमिप्रभृतीनां पर्यायत्वापत्तेः । तवापि गम्यते ग्राम इत्यादौ ग्रामादेः संयोगादिफलशालित्वं कुतः प्रतीयत इति चेत्, न। तद्वच्छिन्नव्यापारवाचिधातुसमभिव्याहारादेव, यथा इष्टसाधनत्ववाचकादिधेरेव स्वर्गकामादिपदसमभिव्याहारात् स्वर्गादिजनकत्वं, प्रतीतिस्त्वि. ष्ट-फलयोरिष्टत्व-फलत्वाभ्यां स्वर्गत्व-संयोगत्वाभ्यां __ अधिकरणत्वेनेति, संसर्गभूतेनेति बोध्यम् । आधेयत्वसंसर्गेण वा बोधो बोध्यः। लाघवादाह–फलमात्रमिति, तदसत् । व्यापारविशेषमात्रवाचकरवं असत् । नियतेति। तदलाभे गृहाग्राम गच्छतो ग्रामस्येदं गमनं, न तु गृहस्येति न स्यात् । गृहवृत्तिफलजनकत्वसामान्याभावस्य तत्रासरवात् । ननु त्यजिगम्यादेरेव विभागसंयोगरूपफलतात्पर्य ग्राहकत्वं, प्रत्ययस्तु द्वितीयादितः फलत्वेनैवेत्यत इतरथेति । यद्वा-फलत्वं नानुगतमिति संयोगत्वादिविशिष्टे द्वितीयादिशक्तिः, तत्र संयोगादिबोधे गम्यादिस्तात्पर्य ग्राहक इत्यत इतरथेति । इतरथा धातोापारवाचित्वे पर्यायतापत्तेः । गमनस्यागयोरेकार्थता स्यादित्यर्थः । प्रभृतिपदात् भुजिस्पन्दादेः परिग्रहः ।
ननु फलावच्छिनव्यापारवाचित्वेऽपि फलविशेषकाभस्तव मते कथं स्यात्, फलस्व व्यापारविशेषणत्वेन कर्मणि तदन्वयात् । आख्यातस्य फलसामान्यवाचकत्वादित्याशङ्कते-तवापीति । ग्रामं गच्छतीत्यादौ धात्वर्यतावच्छेदकसंयोगे द्वितीयार्थस्थाधेयत्वस्यान्वयधीसम्भवात्तत्रोकम् । तद्वच्छिन्नेति । विशेष्यसंयोगारवच्छिन्नेत्यर्थः । तत्फलस्य ग्रामादावन्वयेऽपि तत्समभिव्याहारेण फलविशेषयोधकत्वं द्वितीयादेरित्यर्थः । इतरसमभिव्याहारेण सामान्यवाचकस्थापि विशेष्यबोधकत्वे दृष्टान्तमाह-यथेष्टेति ।
नन्वेवमिष्टसाधनत्वमिव ज्ञेयाभिधेयकृतिविषयसाधनत्वमपि शक्यं स्यात् विशेषणसम मिव्याहाराद्विशेषबोधोपपत्तिरिति स्वर्गसाधनस्वादिकमेव शक्यमतः
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- वादार्थसंग्रहः [४ भागः वेत्यन्यदेतत् । अस्तु वा बुद्धिविशेषवाचकतदादेरिव व्युत्पत्तिवशादेव प्रकृत्यर्थतावच्छेदकफलतच्छालिवाचकाख्यात-कृतोरपि विशेषरूपेण बो
धकत्वम् ॥ ११ ॥ स्वर्गसाधनत्वादिप्रकारकसंशयो नेत्यत आह-अस्तु वेति । यद्वा-ननु विशेषबाचकत्व विधेर्न वितरसमभिव्याहारादिष्टविशेषवाचकस्वम् , तथा सति स्वर्गकामो दधि न भुञ्जीतेत्यादिन स्यात् । भोजने इष्टसाधनत्वसामान्याभावस्थास्वात् (१) । तथा च दृष्टान्तासङ्गतिः । एवं ग्रामी गम्यते न तु गृहमिति न स्यात् । गमनजन्यफलसामान्याभावस्य गृहेऽसस्वादत आह-अस्तु वेति ।।
अयमर्थः-गृहे चोऽस्ति न वेति प्रभे सोऽस्तीत्युत्तरात् सन्देहनिवृत्तेः विशेषरूपेणैव तदादेर्वाचकत्वं, न तु बुद्धिस्थत्वेन । तथा च घटस्वादीनां पृथक् शक्यतावच्छेदको बहुशक्तिकल्पनमित्यैकशक्तिर्वाच्या तथाच घटत्वादिकमेव शक्यतावच्छेदकं तेषामनुगमकं बुद्धिस्थतावच्छेदक वं तथा चैकैव शक्तिः । शक्यतावच्छेदकस्येव शक्यतावच्छेदकतावच्छेदकस्याप्यनुगमाच्छक्त्यैक्यमिति मतेनाह-बुद्धिविशेषवाचकेति। यद्यप्यन्यत्र शक्यतावच्छेदकतावच्छेदकमपि भासते। प्रकृते तद्भाने विशेषरूपेण तद्बोधकता न स्यात्तथापि बुद्धिस्थतावच्छेबकवृत्तिशक्तमित्याकारः शक्तिग्रहः । पदार्थोपस्थितौ तु बुद्धिस्थतावच्छेदकं न भासते तदंशे तद्वोधकविरहादिति भावः । तथा च तदादिवत्तत्प्रकृत्यर्थतावच्छेदकत्वविशिष्टे शक्तिमहात् यद्धर्मविशिष्टसंयोगादिफलं प्रकृत्यर्थतावच्छेदकं बदमविशिष्टमेवाख्यातादिर्बोधयतीत्यर्थः ॥ ११ ॥
(रामकृ० ) चैत्रो गच्छतीत्युदाहरणस्य चैत्रो गन्तेत्यनेन साम्याहूषयितुं केषांचिन्मवमुपन्यस्यति-एवं चेति । एवं च फलस्यात्मनेपदादिना वाच्यत्वे च । व्यापारविशेषो गमनादिक्रियारूप: । ग्रामस्येत्यत्र षष्ठया एव कर्मत्वमर्थ इति । एकदेशापरीहाराय शक्यतावच्छेदकलाघवाय चाह-फलमानं वेति । मलाभादित्यन्तं फलविशेषेत्यादौ हेतुः । फललाभान्यलाभेऽपि फलत्वरूपेण फललाभेऽपि । नियतेति, प्रतिनियतेत्यर्थः । इतरथा......क्रियाया एव वाच्यत्वे पर्यायेति । उभयत्रापि क्रियारूपशक्याविशेषात् त्यागगमनपदप्रभृतीनामप्येकार्थत्वं स्यादिति भावः ।
१ उपस्थापकत्वमिति पाठ। २ बुद्धिविषयेतीतरटीकासु ।
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१३ प्रन्यः ] आख्यातशक्तिवादः ।
अपि च धात्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वं कर्मत्वम् । न तु धात्वर्थजन्यफलशालितामानं गमि
शङ्कते-तवापीति । संयोगादिरूपतत्तत्फलावच्छिन्नव्यापारस्य धात्वर्थत्ववादिनोऽपि । कुत इति, आत्मनेपदस्य फलसामान्यवाचकत्वादिति भावः । तदवच्छिन्नेति । संयोगावच्छिन्न-क्रियावाचि-धातुसमभिव्याहृतात्मनेपदादिना संयोगरूपं फलं बोध्यते । एवमन्यत्रापि सर्वत्रावच्छेदकीभूतं फलं यत्र यत् तदेव फलमात्मनेपदादिना बोध्यते । तत्तत्समभिव्याहाराणां तथैव कार्यकारणभावकल्पनादिति भावः । अथ फलावच्छिन्नव्यापारवाचित्वं धातोर्मास्तु । तादृशधातुसमभिव्याहारादेव संयोगादिरूपो विशेषस्तत्र तत्र भासतामित्याशङ्कां दृष्टानुरोधित्वात् कल्पनाया निराचिकीर्षन्नाह-यथेत्यादि ।
इत्थं फलयोः स्वर्गत्वसंयोगादित्वादिनैव रूपेण बोधमुपपादयति-अस्तु वेत्यादिना । तदादेरिवेति । यथा बुद्धिविषयतावच्छेदकरूपेण शक्तावपि तदादेर्बुद्धिविषयतावच्छेदकत्वांशत्यागेन शुद्धघटत्वादिरूपेण बोधकत्वं तथा फलं तद्वक्ताख्यातकृयामपि समभिव्याहारविशेषवशायेन संयोगित्वादिना रूपेण धात्वर्थतावच्छेदकत्वं फलस्य तेन रूपेण बोधजननमस्त्वित्यर्थः । __ अयं भावः-यदि बुद्धिविषयत्वरूपेणोपस्थित-घटत्वपटत्वादिशालि-बुद्धिविषयवति शक्तमित्येवं तदादे: शक्तिग्रहः । बुद्धिविषयत्वरूपमुपस्थिती अनुग. मकमात्रं, न तु तदंशेऽपि शक्तिरिति शाब्दबोधे तन्न भासते किन्तु शुद्धं घटत्वपटवादिकं क्वचित्त भासते तद्विशिष्टस्यापि बुद्धिविषयत्वेन तद्विशिष्टस्यापि शक्यतावच्छेदकत्वग्रहात् । खण्डशक्तिवादिनामेवकारादिस्थल इवाकांक्षादि. वशाद्वा । नियमस्तु तात्पर्यत इति तदा प्रकृतेऽप्युपलक्षणीभूते इच्छाविषयत्वफलतावच्छेदकत्वादिरूपेणोपस्थितस्वर्गत्वसंयोगत्वादिविशिष्टे शक्तिमहादाकाक्षावशात्तत्तद्विशेषरूपेणैव बोधोऽस्तु । यदि वा बुद्धिविषये तदादिपदं शक्तमित्याद्युपदेशवाक्यार्थज्ञानसहकृतेन मनसा प्रकरणादिवशात्तदादिशब्दश्रवणानन्तरं विशेषरूपेणोपस्थिते शक्तिग्रहः, तदनु च शाब्दबोध इति मतं तदापि प्रकृवे इष्टसाधनताफलशक्तिबोधक-तादृशपदोपदेशवाक्यार्थज्ञानसहकृतेन मनसा विधिपदकर्माख्यातादिश्रवणादनन्तरं स्वर्गपदेन त्यजिगम्यादिधातुना च विशेषरूपेणोपस्थिते तथैव शक्तिग्रहोऽस्तु, तदनु च शाब्दबोध इति न काप्यनुपपत्तिरिति ॥ ११ ॥ (न्यायवा० ) नतु तत्पदस्य तत्तद्रूपमेव शक्यतावच्छेदकम्, भनन्यगस्या
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वादार्थसंग्रहः [४ भागः पत्योः कर्मत्वस्य पूर्वस्मिन्देशे त्यजेश्चोत्तरस्मिन्देशे स्पन्देः पूर्वापरदेशयोः प्रसङ्गात् । फलावच्छिन्नव्यापारबोधकत्वादेव च धातूनां सकर्मकत्वव्यवहारः । भाक्तस्तु जानात्यादेस्तादृशधातुयोग एव च कर्मगौरवं स्वीकरणीयमेव, अन्यथा शक्तिविषयस्थबुद्धिस्थतावच्छेदकत्वादेरपि भानं स्यात्, अन्यथा मत्सरपदादावपि शक्यतावच्छेदकतावच्छेदकभानं स्यात् । किञ्च ईदृशेन धर्मेण शक्यतावच्छेदकाननुगम्यशक्यैक्ये सैन्धवादा. वप्यन्यतरत्वेन तदनुगमानानार्थता न स्यात् । अतो दृष्टान्तविलये दान्तिकस्यापि विलयः । न च द्वितीयादेविशिष्यसंयोगादिवाचकत्वे गम्यादिधातुविशेष्ययोग एव संयोगावितात्पर्यग्राहको वाच्यः, तथा च त्यागतातात्पर्येण ग्रामं गच्छवीत्युक्ते संयोगरूपफलप्रत्ययापत्तिरिति वाच्यम्, गमिधातुयोगस्य संयोगतात्पर्यवाहकत्वस्यौत्सर्गिकत्वात् । क्वचित्प्रकारान्तरेण प्रकरणादिना विभागतात्पर्यग्रहस्यापि सम्भवात् । तत्र धातोविभागावच्छिन्नस्पन्दे लाक्षणिकत्वम् । शुद्धस्पन्दबोधकगमिधातुयोगस्यैव वा संयोगतात्पर्यग्राहकत्वमि. त्यभिप्रेत्य प्रकारान्तरेण फलस्य धात्वर्थतावच्छेदकत्वं व्युत्पादयति-अपि चेत्यादिना । ननु द्वितीयाया आधेयत्वबोधने तस्य फलेऽन्वये क्रियाजन्यफल. शालिस्वरूपं कर्मत्वं न भातमेवातः कर्मत्वमेवान्यादृशमाह-धात्वर्थतावच्छे
केति । गमिपत्योरिति । गमनजन्यं फलमुत्तरसंयोगो यथा ग्रामे तथा विभागरूपं पूर्वदेशेऽपीत्यर्थः । एवं पतनस्यापि त्यजेरिति उत्तरदेशेऽपि तजन्यसंयोगसत्त्वादिस्यर्थः । स्वमते तु संयोगादिरेव धात्वर्थतावच्छेदकः स्पन्देश्व तदभावादेव न सकर्मताव्यवहारः ।
पात्वर्यतावच्छेदकफलशालित्वस्य कर्मत्वे हेत्वन्तरमाइ-फलावच्छिन्नेति । यद्वा-वस्तुतस्यजिगम्यादिधातूपस्थाप्यक्रियाया:परपूर्वदेशयोः कर्मत्वमस्त्येव । अतस्तामेव क्रियामादाय कदाचित्तरं त्यजति खगः कदाचित्तरोभूमि गच्छति खग इति प्रयोगः, अतो हेत्वन्तरमाह-फलावच्छिन्नेति । न चाननुगतगम्या. दितत्तहातूनामेव सकर्मकन्यवहारविषयत्वम् , सम्भवतोऽनुगमस्थ त्यागा. योगात् । एवं धातोः शुद्धव्यापारवाचित्वे त्यजिगम्यादेः पर्यायतापत्तिः स्मर्तज्या। तथा च सकर्मकत्वव्यवहारप्रयोजकस्यैव कर्मतात्वमिति भावः ।
जानातीत्यादौ तदभावेऽपि सकर्मकत्वव्यवहारमुपपादयति-भाक्तस्त्विति । द्वितीयाया आधेयत्वे शक्तिः कल्प्यते लाघवात् । न तु संयोगादिफलेषु फलेषु नानाशक्तिः गम्यादिधातोश्च क्रियाया विशेषेऽवश्यक्लायको संयोगादेविषय
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१३ प्रन्थः । आख्यातशक्तिवादः । प्रत्ययाः । तत्र च द्वितीययाधेयत्वमभिधीयते तच्चाकांक्षावैचित्र्याद्धात्वर्थतावच्छेदकेऽपि फलेऽन्वेति, अत एव चास्याः पदार्थान्विताधेयत्वबोधकसप्तमीतो भेदः । अस्तु वा कर्माख्यातस्येव द्वितीयाया अपि तयाऽवच्छेदकस्वं कल्प्यते । तत एव फलविशेषलाभ इत्याच्याहुः । ननु अनु. गतरूपेण सकर्मकत्वानिर्वचने को दोषः अतस्तादृशेति । तादृशधातुयोगे सकर्मधातुयोगे तच्चेति । अन्यथानुपपत्तेरेवैकदेशान्वयबोधः कल्प्यत इति भावः । इत एवैकदेशान्वयबोधजनकत्वादेव सप्तम्यर्थस्त्वाधेयता घटादौ पदार्थ एवान्वेतीस्यर्थः।
ननु तत्रेतरपदार्थान्वयबोधे वृत्तिजन्यतद्विशेष्यकोपस्थितिहेतुरिति कथमेकदे-- शान्धयः, अत एकदेशान्वयेऽप्युपपत्तिमाह-अस्तु वेति । नन्वेवमपि द्वितीयासप्तम्योः पर्यायता स्यात् । अतोऽस्तु वेत्यन्ये । तथा फले उत्तरदशादेशसंयो. गादौ (?) जनकतादिसम्बन्धेन ग्रामादिप्रकारः तच क्रियायाम् । तथा च ग्राम गच्छतीत्यादेमीयफलजनक क्रियानुकूलकृतिमानित्यर्थः ।
ननु फलावच्छिन्नव्यापारो धात्वर्थः, द्वितीयार्थश्च फलम् , तथा च ग्रामदृत्तिफलजनिका क्रियेत्यन्वयपर्यवसितः । नचायं......सम्भवी, उद्देश्यतावच्छेदकविधेयतावच्छेदकयोरक्यात् । न च फलानिका क्रिया ग्रामीयफलज. निकेत्यन्वयधीः...... दण्डवान् ...क्त...दण्डवानितिवत् स्यादेवेति वाच्यम्.. प्राचीनस्तत्रापि बोधास्वीकारादत आह-स्तां वेति । ननु फलस्य द्वितीयार्थत्वविशेषरूपेण भानं न स्यात् । न च फलविशेष एव द्वितीयार्थः । संयोगादिनानाफलशक्तौ गौरवात् । लाघवेनाधेय स्वस्यैव द्वितीयार्थवादतः स्तां वेति । धात्वर्थस्तु फलविशेष एवेति न दोष इति केचित् । न चात्र मते आत्मनेपदस्य कृतः फलवाचकता धात्वर्थफलेनान्वयसम्भवादिति वाच्यम् , नामार्थधात्वर्थयोः साक्षादन्वयाभावेन तस्फलकल्पनात् । न च कृतिरेव तथास्तु तथा सति तृतीयार्थ आधेयत्वमाख्यातार्थः कृतिः । तथा च क्रियया फलस्यान्वये क्रिया. जन्यं फलविषयः चैत्रकृतिविषयस्तन्दुल इति बोधः । तथा च चैत्रजन्यकृतित्वस्य क्रियायामभानात् । तद्भानस्यानुभवसिद्धत्वात् । एवं तादृशफलशालिरूप.. कर्मस्वस्य तन्दुलेऽभानप्रसङ्गादिति भावः । न चैवं कर्मप्रत्ययस्थले फलाच्छिन्नक्रियाजन्यफलशाली तन्दुल इति धीः, न चैवं सम्भवति, फलविशिष्टक्रियायाः फलापूर्ववर्तित्वादिति वाच्यम, धातोः फलोपलक्षितक्रियावाचकत्वेन तथा फलजननसम्भवादिति ।
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२१४ वादार्थसंग्रहः
[४ भागः फलमर्थः। स्यादा फलव्यापारौ पृथगेव धात्वर्थों, विशिष्टस्तु अन्वयबललभ्यः ॥ १२ ॥
यद्वा-अस्मिन् कल्पे द्वितीयाया आधेयत्वमिव कर्माख्यातस्याश्रयत्वमेवार्थः । गमनं धात्वर्थान्तरे फले तच्चाश्रयत्वे तच ग्रामादौ प्रकारः । गम्यते ग्राम इत्यादौ गमनजन्यफलाश्रयस्ववान् ग्राम इति बोधः । कर्मप्रत्ययान्तगम्यादिधातुजन्यस्पन्दप्रकारकबोधे तदर्थसंयोगोपस्थितेहेतुत्वं, कर्मप्रत्ययान्तगम्यादिधातुजन्यसंयोगादिप्रकारकबोधे तदर्थस्पन्दोपस्थिते हेतुत्वकल्पनानातिप्रसङ्गः । न चास्मिन् कल्पे सप्तमीतो द्वितीयाया अभेदः, धात्वर्थविशेष्यकाधेयत्वबोधकत्वात् । द्वितीयायाः सप्तम्यर्थस्य नामार्थेऽप्यन्वयात् । नच तन्दुलस्य पाक इत्यत्र षष्ठीस्मारित द्वितीयार्थस्य पाकेऽप्यन्वयात् । मैवम्, तत्र पध्यर्थस्य भानादिति ।
यद्वा-द्वितीयार्थाधेयत्वबोधे सुभिन्नसार्थकप्रत्ययप्रकृतिजन्योपस्थितहेतुत्वं कल्प्यते, न तु सप्तम्यर्थबोधे भूतले देवदत्त इत्यादिप्रयोगादिति विशेष इस्याहुः । इतरा स्मारिता या अर्थस्य धात्वर्थे सेवान्वयात् इत्यनेनैव भेद इत्यन्ये ॥१२॥
(रामकृ०) फलावच्छिन्नव्यापारस्य धात्वर्थत्वे प्राचीनसमति दर्शयति कर्मत्वविभक्त्यन्यथानुपपत्तिमपि प्रमाणयति-अपि चेत्यादिना । पूर्वस्मिन् देश इति । तत्र क्रियाजन्यविभागरूपफलसत्त्वादिति भावः । उत्तरस्मिन्निति । तत्र क्रियाजन्यसंयोगसत्वादिति भावः । स्पन्देरकर्मकत्वायोगादाह-पूर्वापरयोरिति । एकत्र ताशसंयोगस्य परत्र तादृशविभागस्य सत्त्वादिति भावः । स्वमते तु पूर्वेषु धात्वर्थतावच्छेदकं तत्तत्फलमनतिप्रसक्तमेव । उत्तरत्र तु तादृशफलमेव नास्तीति प्रसङ्गशङ्काऽपि न । फलावच्छिन्नव्यापारवाचित्वेऽन्यदप्युपष्टम्भक्रमादफलेत्यादि । ......नादेः फलाभावात् । तादृशधातुयोगे फलावच्छिन्नव्यापारवाचि धातुयोगे। अतएव स्पन्दादेन कर्मप्रत्यया इति ।
एवं चाधेयत्वमेव द्वितीयार्थः, फलस्य धातुत एव लाभादित्यभिप्रायवान् तदनुसारेणैकदेशान्वयं स्वीकुर्वन् शाब्दबोधमुपपादयति-तत्र चेति । अत एव पदार्थैकदेशान्वयाधेयत्वबोधकत्वादेव । एकदेशान्वयासहिष्णुराह-अस्तु वेति । अत्रापि पूर्वोक्तरीत्या कृदाख्यातवन्नियतसंयोगादिरूपफललाभस्तु तदवच्छिन्नव्यापारवाचित्वेन नीलघटत्वस्य शक्यतानवच्छेदकत्वेऽपि परस्परमन्वयबलादुपस्थित-नीलघटत्वावच्छिन्न प्रतियोगितालाभस्तथा प्रकृतेऽपीति भावः ॥ १२ ॥
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१३ ग्रन्थः ]
व्याख्यातशक्तित्रादः ।
२१५
*भूमिं प्रयाति विहगो विजहाति महीरुहं, न तु स्वात्मानमित्याद्यनुरोधात्, क्रियान्वयि परसमवेतत्वमपि कर्मप्रत्ययार्थः । इयांस्तु विशेषो यत्परत्व सुपा प्रकृत्यर्थापेक्षिकं तिङादिना च स्वार्थफलायापेक्षिकं प्रत्याय्यते ॥ १३ ॥
( न्यायवा० ) भूमिं प्रयातीति । भूमिसंयोगस्य भूमाविव विहगेऽपि वृते भूमि प्रयातीतिवत् विहगो विहगं प्रयातीति वारणाय कर्मप्रत्ययस्य परसमवेतस्त्रमर्थ इत्यर्थः । विजहातीति । विभागस्याप्युभयनिष्टत्वात्तथा बोध्यम् । परत्वं भिन्नत्वरूपमेवार्थः । समवेतत्वं संसर्गः । तथा च ग्राम इयत्र द्वितीयार्थं आधेयत्वं भिन्नं च तदुभयं क्रियान्वयि तथा सति ग्रामाधेया ग्रामभिन्नवृत्तिर्या ग्रामभिनीया क्रिया तदनुकूलकृतिमानित्यर्थः । नचैवं यत्र विटप विहगोभयज उत्तरसंयोगस्तत्र विहगस्यापि परसमवेतक्रिया जन्यत्वात् कर्म स्थादिति वाच्यम्, इष्टापत्तेः, तत्रोभयोरेव कर्मस्वात् । नचैवं तत्र विगो विहगं गच्छतीति स्थात् । विहगभिन्नसमवेता या क्रिया तदनुकूलकृते विहगे भावेन तत्पदात्तादृशप्रतीतेरभावादिति । न च यत्र रथाकर्षणादिना रयमभिमुखं सम्पादयन् रथं गच्छति चैत्रस्तत्र चैत्रं गच्छतीति स्थादिति वाच्यम्, तादृशरथ क्रियानुकूक व्यावृत्तानुकूलेत्यस्य संसर्गताया वित्रक्षितत्वात् । अत्र द्वितीया-प्रकृत्यर्थतावच्छेदकं यत्तदवच्छिन्नरूपं परत्वं बोध्यम् । अन्यथा विहगेऽपि विगस्य व्यासज्यवृत्ति-धर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताक-भेदसत्त्वादुक्तदोषः स्यात् । न चैवं प्रमेयतन्दुलं पचतीत्यत्र प्रमेयतन्दुलस्वावच्छिन्नभेदाप्रसिद्धिः । प्रमेयघटो नास्तीति प्रकारस्यानुसरणीयस्वादिति ।
न चात्र ग्रामतात्पर्येण द्रव्यं गच्छति चैत्र इति प्रयोगः, तत्र द्रव्यत्वावच्छिन्नभेदस्य गमनवत्यसम्भवः, तत्र द्रव्यपदस्य द्रव्यविशेषे लाक्षणिकत्वात् । परत्वं यदि प्रकृत्यर्थापेक्षितं सर्वत्र तदा चैत्रेण स्वात्मा गम्यत इत्यपि स्यादत इयांस्त्विति । स्वार्थफलाश्रयेति । स्वार्थफल प्रकारकान्वयबोध विशेष्यापेक्षिकमित्यर्थः ॥ १३ ॥
( न्यायवा० ) क्वचित्सविषयक धातुयोगेऽपि नान्तरीयके शर्कराभोजनादौ शर्कराभोजनं कुरुत इत्यादौ द्वितीयाया जनकत्वे लक्षणा, न विषयियमि
* 'भूमिं प्रयाति' इत्यारभ्य षोडशांकांतर्गत ः 'स्वत्वस्याननुगमाच्छ क्यानन्त्यं ' इत्यन्तस्य ग्रन्थस्य रामकृष्णनिर्मिता व्याख्या स्रस्तेति तां विचिन्वन्तो वयं सखेदं विज्ञापयामो विदुषः ।
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२१६
वादार्थसंग्रहः [ ४ भागः घटं जानाति, इच्छति कुरुते, चैत्रः (मैत्रः)। मैत्रेण ज्ञायते इष्यते, क्रियते घट इत्यादौ सविषयकपदा
र्थाभिधायिधातुयोगे कर्मप्रत्ययेन यथायथं विषयित्वं विषयत्वं च कर्तृतिडा स्वाश्रयत्वं तृतीयया चाधेयत्वं बोध्यते ॥ १४ ॥ ___ अन्वयबोधे त्वयं विशेष:-यदेकत्र कर्तयोश्रयत्वं तत्र क्रिया तत्र विषयत्वं तत्र कर्मविशेषणत्वम् । अन्यत्र कर्मणि विषयता तत्र क्रिया तत्राधेयत्वं तत्र च कर्तेति । ज्ञातो ज्ञाता नष्ट इत्यादौ कर्तृकर्मकृतां विषयाश्रय-प्रतियोगिबोधकत्वम् । यतत इत्यादौ यत्यादिनोपस्थिते यत्ने विषयित्वेन नान्वया, किन्तूद्देश्यत्वेन पदस्वाभाव्यात् । अत एवाभुञानेपि भोजनाय यतते इत्यादयः प्रयोगाः ॥ १५ ॥ त्याहुः । यथायथमिति । द्वितीयाया विषयित्वमाख्यातेन विषयत्वमि. त्यर्थः । अत्र पच्यते तन्दुल इत्यादौ तन्दुलादेरेव परत्वप्रतीतिर्भावनान्वयबोध इवाख्यातोपस्थाप्यपरत्वे विशेषणतया बोधे प्रथमान्तजन्योपस्थितिहेतुः, फलबलात् । प्रथमान्तोपस्थाप्यस्यापि तथात्वमिति । अत्र च पुष्पवन्तादि. पदवदेकोचारणान्तर्भावेन शक्तिर्बोध्या । अन्यथा परप्तमवेतस्थायोग्यतया ऽनन्वयेऽपि स्वात्मानं गच्छतीति प्रयोगापत्तेः ॥ १४ ॥
___ एकत्र कर्तृस्थले । आश्रयत्वमित्यादेविशेषणमित्यनेनान्वयः । ज्ञात इत्यनेन विषयः, ज्ञातव्यनेनामयः, नष्ट इत्यनेन प्रतियोगिळध्यते इति बोध्यम् । धर्मिवाचकत्वं कृतामभिप्रेत्याह-कर्मकर्तृकृतामिति । सविषयाभिधायिधातुयोग इति सामान्यत उक्तेः । अपवादमाह-यतत इत्यादि । करोतीत्यादिविवरणायाह-यत्यादिनेति । आदिना यस्यतीत्यादिसङ्ग्रहः । यतिधातोर्शाने लक्षणायां विषयत्वेनान्वयादाह-यत्न इति । ननु स्पृहावत्सविषयत्वबोध एव चतुर्थी स्यादतोऽत एवेति । भुनाने तु न विलक्षणोदेश्यत्वे. नान्वयादित्यपि बोध्यम् । जनकयात्तप्रयोजकत्वमेव चतुर्श बोध्यते । अतएवाभुजाने भोजनाय यतत इत्यादिरित्याहुः । उद्देश्यत्वेनेति । ताति. रिक्त स्वरूपविशेषो वेत्यन्यदेतत् । अत एव उद्देश्यत्वेनान्वयादेव । अन्यथा भोजनं करोतीतिवद्रोजनकाल एव भोजनाय यतत इत्यपि स्यात् ॥१५॥
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१३ अन्थः] बाख्यातशक्तिवादः।
धातोरथैः फलमनुकूलव्यापारो व्यापारमात्रं वा, आख्यातस्यजन्यजनकभावः संसर्गमर्यादया लभ्यः। लडादितिङाद्यर्थो वर्तमानत्वादीष्टसाधनत्वादिकमेकपदोत्तरत्वप्रत्यासत्या तत्रैवान्वेति ।।
भावप्रत्ययस्य घनादेरनुकूलव्यापार एवार्थः। तेन व्यापारसत्त्वे फलानुत्पादशायां पाको भविष्यतीति न प्रयोगः। न वा व्यापारविगमे फलसत्त्वे पाको विद्यते इति । नापि घट-भूतलयोर्मियः संयोग इति वत् मिथो गमनमित्यादि।
प्रत्ययोपनीतपरसमवेतव्यापारजन्यधात्वर्थफलशालित्वं च कर्मत्वं, फलनिष्ठाधेयत्वं द्वितीयादीनां, ' (न्यायवा० ) मण्डनमतानुसारिमतमाह-धातोरिति । गमियत्यादीनामुत्तरसंयोगादिरूपफलवाचकत्वान पर्यायतापत्तिः। आख्यातजन्यवर्तमानबोधे आरूयातजन्यव्यापारोपस्थितिईतुरित्येक पदोपात्तत्वमित्यस्याशयः।
ननु फलस्य धास्वर्थत्वे फलसत्वे व्यापारविगमेऽपि पाकस्तिष्ठतीत्यादि स्थादत आह-भावप्रत्ययस्येति । अनुकूलव्यापार इति । अत्रापि व्यापार एव शक्यः अनुकूलत्वं संसर्ग इति बोध्यम् । मिथो गमनमिति । गमधा. त्वर्थस्योत्तरसंयोगस्य द्विष्ठत्वेऽपि तदनुकूल व्यापार स्यातत्त्वादिति तन्मते फलस्य धात्वर्थत्वात् ।
धात्वर्थजन्यफलशालित्वं धास्वर्थतावच्छेदकफलशालित्वं कर्मत्वमुभयमप्यनुपपनमत आह-प्रत्ययोपनीतेति । प्रत्ययोपनीतो यो व्यापारः परसमवेतः तजन्यं धात्वर्थरूपफलं तच्छालित्वमित्यर्थः । चैत्रभित्रसमवेतं यद्रामादि तजन्यं यत्फलं धात्वर्थः तच्छालित्वं कर्तरि चैत्रादावप्यस्ति, अतः प्रत्ययोपनीतेति वस्तुकथनम् । द्वितीयादिना परसमवेतत्वम् । आख्यातार्थव्यापरे आ. ख्यातेन तृतीयाथें तद्बोध्यते। परत्वं पूर्ववद्बोध्यम् । परसमवेतव्यापारजन्यं तद्धंसतत्प्रत्यक्षशालिनिकर्मत्ववारणाय धात्वर्थेति । मैत्रनिष्ठेति । निष्ठत्वं तृतीयार्थ व्यापरः, आश्रयत्वं चाख्यातार्थः, व्यापारः फले, तच्चाश्रयत्वे, तब तंडुले, प्रकार इति व्यापारान्वितो धात्वर्थः फलं साक्षादेवान्वितं तण्डले प्रकार इत्यनेन ।
१९
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२१८
वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
व्यापार निष्ठं च तृतीयादिनाऽभिधीयते । एवं च तण्डुलं पचति चैत्र इत्यस्य तण्डुलवृत्तिफलविशेषजनकव्यापारवांचैत्रः, मैत्रेण पच्यते तण्डुल इत्यस्य मैत्रनिष्ठ व्यापारजन्य फलविशेषशाली तण्डुल इत्यर्थः । फलव्यापारयोर्विशेषण- विशेष्यभावभेदादेव कर्तृकर्मप्रत्ययव्यवहारः ।
"
वस्तुतस्त्वाख्यातस्येव तृतीयाया अपि व्यापार एवार्थः । कर्माख्यातस्य च धात्वर्थफलनिरूपितमधिकरणत्वं, कर्मकृत आश्रयः कर्तृकृतश्च व्यापाराश्रयः कर्मकर्तृ सामानाधिकरण्यानुरोधात् । जानातीत्यादिप्रयोगे तु पूर्वोक्तैव रीतिरनुसर्तव्या ।
चैत्रेण पच्यते पक्क इत्यादौ सुबर्ध एव व्यापारे वर्तमानत्वाद्यन्वयः । पचमानः पक्कवानित्यादौ पुनरनायत्या पदार्थतावच्छेदक एव व्यापारे तदन्वयः ।
ननु सहयाकालातिरिक्ता विभक्त्यर्थस्वव्यापारस्य धात्वर्थे प्रकारतया भागमव्युत्पथमतो वस्तुतस्त्विति । मैत्रेण पच्यते इत्यत्र व्यापारस्तृतीयार्थः, फले धात्वर्थे, स चाभयत्वे आख्यातार्थे तच तंदुले अन्वेतीति एतत्कल्पे कर्माख्यातस्य फले न शतिरिति । धात्वर्थनिरूपितमिति निरूपितत्वसम्बन्धेन धात्वर्थस्याधिकरणत्वे | अम्बवचनायेदम् । अधिकरणत्वमात्रमर्थ इति बोध्यम् । पूर्वोक्तवेति । घर्ट जानातीत्यादौ विषयत्वं द्वितीयार्थः, कर्मत्वं तत्र भाक्तमिति ।
नबु पारस्याख्यातार्थत्वाभावे कुत्र वर्तमानश्वान्वयोऽतः सुबर्थेति न चैवमसमानपदोपात्ते व्यापारे वर्तमानत्वान्वयेऽतिप्रसङ्गः, फलबोधकधातुसमभिव्याहारे कमरूपातजन्य वर्तमानत्वबोधे च तृतीयाजन्यव्यापारोपस्थितेर्हेतुस्वादित्याहुः । दोष इत्यत आह- अन्ययोगेति, अतिप्रसक्तत्वात् । अन्ययोगवत्यपि विविध मावा दिसच्चादप्रसिद्धिः । यत्किञ्चित्प्रतियोगिकान्ययोगस्य सर्वत्र सच्चा दिति शेषः ।
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१३ ग्रन्थः ] याख्यातशक्तिवादः।
२१९ स्तां वा व्यापाराश्रयौ शक्यौ विशिष्टमन्वयबललभ्यम्,एवकारस्येवान्ययोगव्यवच्छेदादौ, अन्ययोगप्रतियोगिकव्यवच्छेदस्यातिप्रसक्तत्वात् । अन्ययोगत्वावच्छिन्नप्रतियोगिकव्यवच्छेदस्य शक्यत्वे शक्याप्रसिद्धिः, बाधितत्वं च पार्थ एवेत्यादौ, पार्थान्ययोगत्वावच्छिन्नव्यवच्छेदस्याप्रतीतिप्रसङ्गः। तस्य ततोऽन्यत्वात् स्वान्ययोगव्यवच्छेदेन शक्यत्वे च स्वत्वस्याननुगमाच्छक्यानन्त्यं, नीलो घटो नास्तीत्यादौ नीलघटत्वाद्यवच्छिन्नस्येव पार्थ एवेत्यादावपि पार्थान्ययोगत्वावच्छिन्नस्याभावप्रतीतिः । समानं चेदं कृतौ कालान्वयवादिनाम् । धात्वर्थानुकूलव्यापारविरहिण्यपि महीरुहादौ संयुज्यत इत्यादिव्यवहारात् संयोगवत्त्वमात्रप्रतीतेः, न तु तत्र प्रत्ययस्य व्यापारवाचितेति न सकर्मकत्वम् । संयोग इत्यादौ धात्वर्थमात्रप्रतीतेघनादेः प्रयोगसाधुतामात्रत्वमिति मण्डनमतानुयायिनः ।
तन्न, पचतीत्यादौ पाकानुकूलवर्तमानयत्नांननुभवप्रसङ्गात्। फलानुकूलादृष्टवत्यपि पचतीत्यादेविभाननु योगः सम्बन्धः संयोगसमवायादिः, तथा चान्ययुक्तत्वसमवेतवाभावादेर्गुणादौ ध्वंसादौ च प्रसिद्धिरतो बाधितस्वमिति एकपदवाचयोः कथं परस्परमन्वयोऽत माह-समानं चेति । यद्वा त्वयाऽपि कृतः कृतिमद्वाचखस्वीकारादेकदेशे कृतौ वर्तमानत्वायन्वयो वाच्य इति साम्यमित्यर्थः । ननु यत्र ताशव्यापारोऽस्ति तत्र संयुज्यत इत्यतस्तदनुकूलकात्मके व्यापार वर्त मानताभासते संयुक्तः इत्यादौ, तत्र चातीतत्वमत आह-संयोगवति। .
नन्वस्तु तत्राख्यातस्य यत्ने लक्षणा, शक्तिश्रमो वा, वातः फलेति। सपाटातिरिक्तो व्यापारो वाच्योऽत आह-विभागेति यद्यपि पूर्वसंयोगातिरिको . १ तत्रचेति पाठः । २ यत्नानुभवेति. पाठान्तरम। . .
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२२०
वादार्थसंग्रहः
[४ भागः गाद्यनुकूलपूर्वसंयोगादिमति निश्चलादावपि विहगे त्यजतीत्यादेः प्रयोगस्य प्रसङ्गाच ॥ १६ ॥
तत्र तत्र तत्तत्फलानुकूलतत्तव्यापारविशेष एव धात्वर्थः । सर्वत्र धात्वाश्रयत्वमेव कर्तृत्वं संख्यावर्तव्यापार आख्यातेनोपस्थाप्यते इत्युक्तौ न दोषः, सामान्यशब्दस्य विशेषपरवाह, तथाप्याकाशे गमनमिति प्रयोगापत्तिः। इतरसंयोगस्य तत्रापि सत्त्वादित्याहुः, तञ्चिन्त्यम् । अत्रापि लाघवादाख्यातस्य यत्ने शक्तिरिति दूषणमित्यन्यसिद्धोऽपि वह्निसंयोगो विकृत्युत्पादककाले पचतीति प्रयोगः स्यात् । एवं पाक इत्यादिस्थले घनादीनामनेकेषां शक्तिकल्पनमस्मिन्मते दूपणमित्यपरे । एतेन फलधात्वर्थों यत्नस्तु लाघवादाख्यातार्थ इत्यपि मतं निरस्तम् ॥ १६ ॥
[रामकृ०] केचित्तु-ननु शंखशक्तिपक्षे व्यवच्छेदसामान्य एव शक्तौ कथं व्यवच्छेदविशेषलाभस्तत्राह.-नील इति । यथा अभावमात्रशक्तेन नञपदेन समभिव्याहारविशेषलाभादभावविशेषबोधस्तथाऽन्यत्वादिमात्रशक्तादप्येवकारात् सममिव्याहारविशेषात् पार्थान्यत्वादिलाभ इत्यर्थ इत्याहुः । तत्र नीलविशेषणानुसरणवैयापत्तेः । नन्वेकपदोपात्तानां कथं परस्परमन्वयस्तत्राह--समानं चेति । ननु सर्वत्र व्यापारस्य प्रत्ययार्थत्वे संयुज्यते इत्यत्र गच्छतीत्यतोऽविशेषात् कथं न कर्मप्रयोगस्तत्राह-धात्वर्थेति । व्यापारविरहिणि क्रियाविरहिणि । ननु तत्रापि न व्यापारसामान्याभावः, ततस्तदवच्छेदेन निबिडसंयोगान्तराभावादिरूपप्रतिबन्धकस्यैव सत्त्वादित्यत आह-संयोगवत्वेति । इदमुपलक्षणम् । व्यापारकाले संयुज्यते......त्यप्रतीतेश्चेत्यपि बोध्यम् । अन्यत्र घञादेव्यापारवाचित्वेऽपि संयोग इत्यादौ न तथा इत्याह-संयोग इत्यादावित्यादिना । ननु सार्वत्रिकयत्नानुभवः संदिग्धः कादाचित्कस्तु आनुमानिको मानसो वा शाब्द एव लक्षणया भविष्यतीत्यत आह–फलेति । नन्वसाधारणानुकूलताविशेष एव संसो भविष्यतीत्यत आह--विभागेति । नासंयुक्तस्य विभाग इति पूर्वसंयोगस्यासाधारण्येवानुकूळतेति ॥ १६ ॥
गुरुमतमाह-तत्र तत्रेति । आख्यातमाह-संख्येति । क्वचिदिति । नश्यतीत्यादौ नाशाश्रयत्वमर्थ इति। तत्र तत्रेति । व्यापारत्वस्य गुरुत्वं रथगमना
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१३ प्रन्थः] आख्यातशक्तिवादः।
२२१ मानत्वादिकं क्वचिदाश्रयत्वादिकमपि वा आख्यातार्थ इति गुरुमतमपि तत्र तत्र तादृशयत्नाननुभवप्रसङ्गादनुपादेयम् ॥ १७॥ इति महोपाध्याय--श्रीरघुनाथशिरोमणिभट्टाचार्यकृत
आख्यातवादः समाप्तः। नुकूलनोदनवता गच्छत्तीत्या... दानमपि बोध्यम् । व्यापारत्वस्याखण्डोपाधिश्वे मानाभावः। जनकत्वरूपस्य त्वननुगतत्वम् । एवमाश्रयत्वापेक्षया लाघवेन यत्न एवाख्यातशक्तिरित्याहुः। नन्वधिश्रयणादिक्रियाप्रचयः पाकः, तथा च कस्य. चित् क्रियायामतीतायामनागतायामपाक्षीत् , पक्ष्यतीति स्यादिति चेत् , न, अपाक्षीदित्यत्र चरमक्रियाध्वंसस्य पक्ष्यतीत्यत्रायक्रियाप्रागभावस्यैव भावात्, नियमतः तथैव तात्पर्यात् । यत्तु रत्नकोशमतम्-धात्वर्थो व्यापारः आख्यातार्थ उत्पादकता पचति पाकमुत्पादयतीत्यर्थः । तन्न, उत्पत्तेरापक्षणसम्बन्धरूपाया अननुगमात् ।
अत्रेदं बोध्यम्-ओदनः पक्ता यज्यत इत्यत्र पचधातोरोदनपाके लक्षणा। तथा चौदनपाकसमानकर्तृक-तदुत्तरभावि-भोजन-जन्यफलशाली ओदन इति बोधः।
केचित्तु ओदनोत्तर-प्रथमायाः कर्मत्वे लक्षणात् तत्पाकेन्वेति । ओदनस्तु भावनाया...पि विशेष्यत्वेनान्वेतीत्याहुः । एवं सति ओदनस्य भावनान्वयो न स्यात् । कर्मत्वाचनवरुद्धस्यैव तदन्वययोग्यत्वात् । इत्यनेन कर्मकर्तरि भियते कुशूलः स्वयमेवेत्यादौ कुशूलपदोत्तरप्रथमायाः कर्मत्वं व्यापारश्चार्थः । तेन कुशूल: स्वकर्मकभेदानुकूलव्यापारवान् स्वदृत्तिव्यापारजन्यभेदजन्यफलशाली इति बोधः । स्वतिकर्मत्वप्रत्ययेन यतरेणकर्तृत्वप्रत्यय एव यकोऽसाधुत्वम् । अतश्चैत्रः कुशलं मिद्यत इति न प्रयोगः। यद्वा-कुशलादिपदसममिव्याहृतधातोरेव कुशूलकर्मकभेदे कुशूलवृत्ति-व्यापार-जन्यभेदे च लक्षणा । आख्यातार्थः फलं व्यापारश्च । तेन कुशूलकर्मकभेदानुकूलच्यापारवान् कुशूलवृत्तिव्यापारजन्यभेदजन्यफलवांश्चेति बोध इति बोध्यम् ।
चैत्रं तन्दुलं पाचयति मैत्र इत्यादौ चैत्रपदोत्तरद्वितीयायाः कर्तृत्वलक्षणकर्मत्वमर्थः । णिचश्व व्यापारोऽर्थः। आश्रयत्वे आख्यातस्य दक्षणा णिजर्थः कृतिरेव वा...चेतनेव...हि तंत्र पाचयति पाचयन् इत्यादौ मिचो लक्षणा, माख्यातेन तत्रतत्र व्यापारवादि...बोध्यते णिचो निरर्थकत्वमित्याहुः । तथाच चैत्रकर्तृकस्तन्दुलकर्मको यः पाकस्तदनुकूलव्यापाराश्रयो मैत्र इत्यर्थः। यधपि चैत्रमैत्रोमय
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२२२
वादार्थसंग्रहः
[ ४ भाग:
कर्तृकेऽपि पाके इदं सम्भवति तथापि चैत्रकर्तृकस्वविशिष्टस्य पाकस्यानुकूलत्वं पाकव्यापारयोः संसर्गो बोध्यः ।
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यद्वा-तत्र णिच आख्यातस्य व्यापारोऽर्थः । चैत्र तण्डुलं पाचय मैत्र इत्यादौ चैत्रकर्तृकतन्दुलकर्मक पाकानुकूलव्यापारवान्मैत्र इति बोधः । अतएव केवळ्योरपि पचति -पाचयति शब्दयोर्विलक्षणबोधहेतुत्वम् । चैत्रं घटं ज्ञापयतीत्यादौ चैत्रपदोत्तरद्वितीयायाः समवेतत्वं घटपदोत्तराया विषयित्वं समवेतत्वं घटविषयकज्ञानानुकूलव्यापारवानित्यर्थः । चैत्रं तन्दुल पाचयति मैत्र इत्यादौ जिर्थे व्यापारे चैत्रपदोत्तरद्वितीयार्थः । चैत्रकर्तृकत्वं जनकतासम्बन्धेनातीति केचित् ।
aanat far आलियत इत्यत्र मिथः पदार्थः कर्मत्वं तत्तत्कर्मत्वं वा । तचाश्लेषेणान्वयि । तथा चैत्रकर्मका लेषणानुकूलकृतिमांश्चैत्र: मैत्रकर्मकाछेपणानुकूलकृतिमांचैत्र इति बोधः । तत्तत्समभिव्याहारस्य तादृशबोधहेतुत्वान चैत्र कर्मका श्लेषानुकूलकृतिमांश्चैत्र इति धीरिति ।
विद्यानिवासपुत्रस्य न्यायवाचस्पतेरियम् ।
आख्यातवादव्याख्यानमानन्दयतु कोविदान् ॥ १ ॥ समाप्तेयमाख्यातवादरौद्री ।
(रामकृ० ) गुरुमतमाइ -- तत्रतत्रेति । सकर्मकधातुविशेषेष्वित्यर्थः । व्यापारविशेषः कर्तृत्वनियामको व्यापारविशेष: । अतएव मण्डनमतोक्तो विभागाद्यनुकूलत्यादिदोषोऽपि । अत आह । सर्वत्रेत्यादि । पचतीत्यादौ विक्लत्यनुकूलतेजः संयोगविशेषानाश्रयत्वेऽपि कृतिरूपव्यापारात्मक धात्वर्थाश्रयत्वमस्त्येवेति । न कर्तृत्वानुपपत्तिरिति । आख्यातार्थं विवेचयति — संख्येति । नश्यतीत्यादावाश्रयत्वार्थकत्वासम्भवादाह -- कचिदिति । तत्र च प्रतियोगित्वमर्थ इति प्रागेवोक्तम् । तादृशेति । इदं च वर्तमानयत्नाद्यनुभवस्य सार्वत्रिकत्वं शाब्दत्वं चाभिप्रेत्येति संक्षेपः ॥ १७ ॥
गोविन्दचरणद्वन्द्ववन्दनानन्दशालिना ।
आख्यातवादव्याख्येयं रामकृष्णेन निर्मिता ॥ १ ॥
इति रामकृष्णनिर्मिता व्याख्या समाप्ता । शुभमस्तु सर्वेषाम् ।
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“ गुजराती” प्रिंटिंग प्रेस-स्थानि
क्रय्यसंस्कृतपुस्तकानि
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संस्कृत प्रथमादर्शः (सचित्र)
- ६-० संस्कृत द्वितीयादर्शः (सचित्र)
०- ८-० संस्कृत तृतीयादर्शः (सचित्र)
०-१०-० वैदिकसाहित्यचरित्रम्
२-४-० श्रीकृष्णविलासकाव्यम् (विलासिन्याख्यया
व्याख्यया समेतम्) ... ०-१२-० भासकथासार (प्रथमद्वितीयौ भागौ) ... ०- ८-.. नैषधकाव्यरत्नम् (महाकविश्रीहर्षप्रणीतम् मल्लिनाथसुरीकृत व्याख्यया सहितम् सर्गाः-१-६ ।
१-८-० " " सर्गाः ७-१२ १-१२-० शब्दमञ्जरी (अव्यय समासप्रकरणः धातुमालिका . सहिता पं. अनंत नारायण शास्त्रिणासंकलिता ०-६-० नित्याह्निकम् सस्वरम् (कापडी पुठं) ...
०- ८-० (अंग्रेजी भाषांतर कापडी पुठं)... प्रश्नमार्ग (पूर्वार्ध) (ज्योतिष) पुनश्शेरि नम्पि
नीलकण्ठशर्मणा संस्कृता टिप्पण्या सहित... श्रीरामोदन्तम् गणपति शास्त्रीकृत टीप्पण सहित तर्कसार ऋग्विधानम् ... ... ... प्राकृत संविधानम्... ... fatalap text with English Trans. oवाक्यतत्वम् ... कोकिल संदेशः ... ... ... श्यामला दण्डकम्-श्यामला नवरत्न मालिका. .- १-६
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शिवनाम कल्पलतालवालः पद्मपुराणम् महामुनिश्रीमद्वयास प्रणीतं श्री
मधुसुदन सरस्वती विरचीत. (चार भाग) २४- ०-० श्रीमद् भागवत् श्रीधरी टीका सहित (प्रख्यात
गणपत कृष्णाजी के छापाखानामें छपी हुए.) २०-०-०
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________________ (2) श्री सनत्सुजातीयं सभाष्यं ( टीका सहित च) 1- 0-0 श्रीमद योगवासिष्ठ भाषा निर्वाण (बडा) ... 7- 0-0 न्याय प्रवेश pt II. 0- 2-0 (3) संन्यास निर्णयः अष्ट विवरण संहितः 1- 0-0 (5) अन्तकरण प्रबोधः पंचटीकोपेतः ... (8) श्री सुबोधिनी (प्रथम जन्म प्रकरणाध्याय द्वयी टिप्ण्यादि सकल परिकर सहिता) कृष्णाश्रय स्तोत्रम्। षड्भि ाख्याभिः समुल्लसितम् ... ... १श्रीमद् भागवत् प्रथम स्कन्ध श्री सुबो धिनी प्रकाशः ... ... ..." श्री सुबोधिनी (श्रीमद् भागवत दशम-पूर्वार्ध राजस-प्रमेय प्रकरणम्.) अ.४०-४६. रास पंचाध्यायी प्रकाशः ... ... श्रुति रहस्यम् ... ... ... 1-0-. विवेकधर्याश्रयः चतमभिष्टिकाभिः समलं कृतः १श्रीमद् गोपाल पूर्वतापिन्युनिषद ... १श्री तत्वार्थ दीपः (निबंध) अवतार वादावली (प्रथमो भाग) ... ... 2- -0 श्रीमद् भागवत् श्री सुबोधिनी तृतीय स्कंध... ६दशम स्कन्ध सुबोधिन्यां द्वितीय तामस प्रकरणम् १राज मार्तण्ड-नाडी परिक्षा-1 वैद्य मनोरमा-धाराकल्प " क्षेम कुतुहलम् ... ... ... 0-12-0 सिद्ध मंत्र तथा वातघ्नत्वादि निर्णय वैद्य जीवन (सटीक भाषा) ... नपुसक संजीवन ... ... ... 0-8-0 सुश्रुत संहिता (मूळ सहित हिंदी ) रस कामधेनु संहिता (वैद्यक) .. iiiiii सासन बिल्डिंग, एलफिन्स्टन् सर्कल, कोट-मुंबई नं. 1