Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययसूत्रे किं च-- मूल्म्-पतं सयणासण भइत्ता, सीउण्हं विविहं च दसमसंग ।
अव्वर्गमणे असर्पहिडे,जे" कसिणं अहियाँसए से भिकावू ॥४॥ छाया--प्रान्त शयनासन भक्तवा, शीतोष्ण विविध च दशमशकम् ।
अव्यग्रमना असाहटो, यः कृत्स्नम यासीत स भिक्षुः || टीका-'पत' इत्यादि।
मुनिः प्रान्तम्-असार शयनासन-शयन च आसन चेति शयनासनम् , तत्र-शयन-सस्तारकादिकम् , आसन-पीठफलकादिक च, उपलक्षणत्वाद-आहारवस्त्रादिक भक्तवा-सेवित्वा, तथा-शीतोष्ण च सेवित्वा, वथा-विविधम्नानाप्रकार तथा सत्कार सम्मान के पाने पर भी जिनके चित्त मे जरासा भी हर्पका भाष जागृत नहीं होता है क्योंकि वेप जिस प्रकार उनको परिहार्य कहा गया है उसी प्रकार स्र्पभाव भी परिहार्य कहा है, क्यों कि हर्पभाव मे रागपरिणति रहती है। तया अनुकूल एव प्रतिकूल सयोग को मुनिजन सहन करते है। यही वात "कृत्स्नमभ्यासीत" इस पद द्वारा सूत्रकारने प्रदर्शित की है। इस प्रकार की परिस्थिति सपनमुनि भिक्षु कहलाता है ॥३॥
'पत संयणासण' इत्यादि।
अन्वयार्थ-जो मुनि (पत सयणासण भइत्ता-मान्तम् शयनासनम् भक्तवा) असार शयन-सस्तार आदि, आसन-पीठफलकादिकको उपयोग में लाकर के, तथा उपलक्षण से असार आहार तथा वस्त्रादिक का सेवन करके (सीउण्ड विविद दसमसग च भइत्ता-शीतोष्ण દ્વેષ જે રીતે એમને પરિહાર્ય કહેવામાં આવેલ છે એ પ્રમાણે હર્ષભાવ પણ પરિહાર્ય કહેવાયેલ છે કેમકે, હર્ષભાવ રાગ પરિણતિ રહે છે તથા અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ સ યોગને भुनिशन सहन ४२ता २ छ । वात "कृत्स्नम यासीत" मा ५४ द्वारा सूत्रधारे પ્રદર્શિત કરેલ છે આ પ્રકારની પરિસ્થીતિથી સંપન્ન મુનિ ભિક્ષુ કહેવાય છે . ૩
"पत सयणासण" त्याला "पत सयणासण" इत्यादि
मन्वयाथ- मुनि पत सयणासण-भइत्ता-पान्तम् शयनासनम् भक्तवा અસાર શયન–સસ્તાર આદિ, આસન-પીઠ ફલકાદિકને ઉપયોગમાં લઈને તથા ઉપ सक्षYथी मभार माहा२ तथा वाहिनु सेवन ४ीन तेभ ४ सीउण्ह विविह दसमसग च भइत्ता-शीतोष्ण विविध दशमशक च भत्तवा 31 मन तानी