Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ. १. गा. . भिक्षुगुणप्रतिपादनम् दशमशक, उपलक्षणत्वात्-मत्कुणमुलमुलादिक च प्राप्य एतैर्दष्टे सति अव्यग्रमनाः स्थिरचित्तो भनेद, तथा दशमशकादिरहित स्थानलाभेऽपि असमष्टो भवेद , हृष्टचित्तो न भवेत् । एतादृशः सममुखदुःख. सन् यः कृत्स्न-सफल प्राप्त सुखदुःखम् अभ्यासीत अधिसहेत, स भिभुरुच्यते। अनेन मुनिभिः पान्तशयनासनशीतोष्णदशमशकादिपरीपहः सोढव्य इत्युक्तम् ॥४॥ विविध देशमशक च भक्तवा) तथा शीत उष्णकी वेदना को एव विविध प्रकार के दशमशक मत्कुण सुल सुल आदि जीवों द्वारा उत्पन्न हुई वेदना को सहन करके (अव्वग्गमणे-अव्यग्रमना.) सदा स्थिर चित्त पना रहता है और (असपढेि-असप्रहृष्टाः) दशमशकादि रहित स्थान के लाभ में हर्पित चित्त नहीं होता है। इस प्रकार दुःख और सुख में समचित्त रहते हुए (कसिण अहियासए स भिक्खू-कृत्स्नम् अध्यासीत स भिक्षुः) जो प्राप्त हुए सय सुखदुःख को शातिभाव से मन करता है वहीं भिक्षु है।
भावार्थ-प्रान्तशयन आसन आदि को उपयोग में लाते समय 'ये ठीक नहीं हैं नवीन होना चाहिये तथा “यह आहार आदि भोजन सामग्री सरस नहीं है नीरस है-सरस होती तो अच्छा होता-यह शीत उष्ण वेदना नहीं सही जाती पर क्या करे? सहनी पडती है, कोई इसके लिये गति ही नहीं है" इत्यादि विचारों से रहित जिसकी दृष्टि है ऐसा साधुजन ही भिक्षु हैं। पदार्थों में विपम दृष्टिवाला मुनिजन भिक्षु नहीं है ॥४॥ વેદનાને અને વિવિધ પ્રકારના ડાસ, મચ્છર, માકડ, સુલસુલ આદિ જી દ્વારા उत्पन्न थती वहनाने सहन ४शन अन्धग्गमणे-अव्यग्रमनाः २ वित्त मनी २३ छ तथा असपहिडे-असमहष्ट. अस, भ२७२ माहिया रहित स्थानमा सालथी प्रसन्न ચિત્ત થતા નથી આ પ્રમાણે દુખ અને સુખમા સમચિત્ત રહીને સિળ દિ यासए स भिक्खू-कृत्स्नम् अध्यासीत सः भिक्षु प्राप्त यता सुभ कमने हुमने શાતિથી સહન કરે છે તેજ ભિક્ષુ છે
ભાવાર્થ-પ્રાન્ત શયન આસન આદિને ઉપયોગમાં લેતી વખતે “આ ઠીક નથી, નવુ હોવુ જોઈએ” તથા “આ આહાર આદિ ભોજન સામગ્રી નિરસ છે, સરસ હોત તે સારૂ થાત, આ ઠડીની અને ઉષ્ણુતાની વેદના સહન થતી નથી પર તુ શુ કરીએ, સહેવી પડે છે આને માટે બીજે કંઈ ઉપાય નથી” ઈત્યાદિ વિચારથી રહિત જેમની દષ્ટિ છે એવા સાધુજન જ ભિક્ષુ છે પદાર્થોમાં વિષમ દૃષ્ટિવાળા મુનિજન ભિક્ષુ નથી જા