Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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(१२)
त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना परिवर्तित रूपमें पायी जाती हैं । उदाहरण स्वरूप निम्न गाथाओंका मिलान किया जा सकता है
ति.प.म.९॥ १९
प्र.सा. १२-१०४
२८-३० ३१ २-९९२,६८-७०२-१००
२-१०४
२मूलाचार इसके रचयिता श्री वट्टकेराचार्य हैं। इसमें १२ अधिकार व समस्त गाथायें १२५२ हैं । यह प्रायः मुनिधर्मका प्रतिपादन करता है । इसका रचनाकाल निश्चित नहीं है। फिर भी ग्रन्यकी रचनाशैली आदिको देखते हुए वह प्राचीन ही प्रतीत होता है। ति. प. गा. ८-५३२ में ' मूलाआरे इरिया ' द्वारा सम्भवतः इसी ग्रन्थका उल्लेख किया गया प्रतीत होता है । यह माणिकचन्द ग्रन्थमाला द्वारा दो भागोंमें प्रकाशित हो चुका है । इसके अन्तमें जो पं. मेधाविविरचित हस्तलिखित प्रतिका प्रशस्ति-पाठ दिया गया है वही प्रशस्ति-पाठ आवश्यक परिवर्तनके साथ तिलोयपण्णत्तिकी बंबई प्रतिके अन्तमें भी पाया जाता है । देखिये ति. प. पृ. ८८३ भादि)।
इसका अन्तिम (१२वा ) अधिकार पर्याप्तयधिकार ( पर्याप्तिसंग्रहिणी ) है । इसमें आहारादिक छह पर्याप्तियां, देवशरीरकी विशेषता, चारों गतियों के जीवोंका शरीसिंध, जम्बूद्वीपकी परिधिका प्रमाण, जम्बूद्वीपादिक सोलह द्वीपोंके नामोंका निर्देश, द्वीप-समुद्रसंख्या, समुद्रोंके नाम व उनका जलस्वाद, मत्स्यादिकोंकी सम्भावना व उनका देहप्रमाण, गर्भज आदिकोंका देहप्रमाण, शरीराकृतिभेद, इन्द्रियविषय, योनिस्वरूप, चतुर्गति जीवोंका आयुप्रमाण, संख्याप्रमाण, उपमाप्रमाण, योग, वेद, देव-देवी आदिकोंकी उत्पत्ति, लेश्या, प्रवीचार, देवोंमें आहारकालका प्रमाण, देव-नारकियोंका अवधिविषय, गल्यागति, निवृतिसुख, इन्द्रिय-प्राण-जीवसमास-गुणस्थान-मार्गणास्थानादि, कुलकोटि, चारों गतियोंमें अल्पबहुत्र एवं बन्धस्वरूप व उसके भेद, इन विषयोंकी प्ररूपणा की गई है।
उपर्युक्त विषयों से प्रायः ( बन्धादिकको छोड़कर ) सभी विषय तिलोयपण्णत्तिमें यथास्थान चर्चित हैं । इतना ही नहीं, बल्कि कितनी ही गाथायें दोनों ग्रन्थों में ज्योंकी त्यों या साधारण शब्दपरिवर्तनके साथ पायी जाती हैं। जैसे
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