Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-७. २९६) सत्तमा महाधियारो
[७०५ एत्तो बासरपहुणो मग्गविलेसेण मणुवलोयम्मि । जे यादवतमखेत्ता जादा ताणिं परूवेमो ॥ २९१ मंदरगिरिमझादो लवगोदधिछट्टभागपरिपंत । णियदायाम। भादवतमख तं सकटउद्धिणिहा ॥ २९२ तेलीदिसहस्साणिं तिणिसया जोय गाणि तेत्तीसं । सतिभागा पते आइवतिमिराग आयामो ॥ २९३
८३३३३ || इच्छं परिरयरासि तिगुणिय दसभाजिदम्मि जं लछ । सा घम्मखेत्तपरिही पढमपहावहिदे सूरे ॥ २९४
णव य सहस्स। च उसय छाती दी जोय गगि तिागण कला पंचहिदा तारखिदी मेरुणगे पढमपहद्रिदकम्॥ि
खेमक्खापणिधीए तेवण्गपहस्पतिसयअडवीसा' । सोलसहिदा तियंसा तावखिदी पढमपहट्रिकम्मि ॥
अब यहांसे आगे वासरप्रभु अर्थात् सूर्यके मार्गविशेषसे जो मनुष्यलोकमें आतप व तम क्षेत्र हुए हैं उनको कहते हैं ॥ २९१ ।।
मन्दर पर्वतके मध्य भागसे लेकर लवणसमुद्र के छठे भाग पर्यंत नियमित आयामवाले गाड़ीकी उद्धि ( अपवविशेष ) के सदृश आतप व तमक्षेत्र हैं ॥ २९२ ॥
प्रत्येक आतप व तिभिरक्षेत्रों की लंबाई तेरासी हजार तीनसौ तेतीस योजन और एक योजनके तृतीय भागसे सहित है ॥ २९३ ॥ ८३३३३३ ।
___इच्छित परिधिराशिको तिगुणा करके दशका भाग देनेपर जो. लब्ध आत्रे उतना सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहनेपर उस आतप क्षेत्रकी परिधिका प्रमाण होता है ॥ २९४ ॥ ३ ।
सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहनेपर मेरु पर्वतके ऊपर नौ हजार चारसौ छ्यासी योजन और पांचसे भाजित तीन कला प्रमाण तापक्षेत्र रहता है ॥ २९५ ॥ ९४८६३ ।
सूर्यके प्रथम पथमें स्थित रहनेपर क्षेमा नामक नगरीके प्रणिधिभागमें तापक्षेत्रका प्रमाण तिरेपन हजार तीन सौ अट्ठाईस योजन और एक योजनके सोलह भागों से तीन भाग अधिक होता है ॥ २९६ ॥ ५३३२८१६ ।
१द अडतीसा.
TP.89
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