Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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८८०] तिलोयपण्णत्ती
[९. ५७धम्मेण परिणदप्पा [अप्पा] जदि सुद्धसंपजोगजुदो । पावइ णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो य सग्गसुहं ॥ ५७ असुहोदएण आदा' कुणरो तिरियो भवीय णेरइयो । दुक्खसहस्सेहिं सदा अभिपदो' भमइ भञ्चतं ॥ ५८ भदिसयमादसमुत्थं विसयातीदं अणोवममगंतं | अव्वुच्छिण्णं च सुहं सुद्धवजोगप्पसिद्धाणं ॥ ५९ रागादिसंगमुक्को दहइ मुणी सेयनाणझाणेणं । कम्भिधणसंघायं अणेयभवसंचियं खिप्पं ॥ ६० जो संकप्पवियप्पो तं कम्मं कुणदि असुहसुहजगणं । अप्पासभावलद्धी जाव ण हियये परिफुरइ ॥ ६॥ बंधाणं च सहावं विजाणिदुं अप्पणी सहावं च । बंधेसु जो ण रज्जदि सो कम्मविमोक्खणं' कुणइ ।। ६२ जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोण्हं पि । अण्णाणी ताव दु सो विसयादिसु वदृदे जीवो ॥ ण वि परिणमदि' ण गेण्हदि उप्पजदि ण परदव्वपजाए । णाणी जाणतो वि हु पोग्गलदव्वं अणेयविहं ॥
धर्मसे परिणतस्वरूप आत्मा यदि शुद्ध उपयोगसे युक्त होता है तब निर्वाणसुखको और शुभोपयोगसे युक्त होकर स्वर्गसुखको प्राप्त करता है ॥ ५७ ॥
अशुभोदयसे यह आत्मा कुमानुष, तिर्यंच और नारकी होकर सदा अचिन्त्य हजारों दुःखोंसे पीड़ित होकर संसारमें अत्यन्त घूमता है ॥ ५८ ॥
शुद्धोपयोगसे उत्पन्न अरहन्त और सिद्ध जीवोंको अतिशय, आत्मोत्थ, विषयातीत, अनुपम, अनन्त और विच्छेद रहित सुख प्राप्त होता है ॥ ५९ ॥
- रागादि परिग्रहसे रहित मुनि शुक्लध्यान नामक ध्यानसे अनेक भवोंमें संचित किये हुए कर्मरूपी ईंधनके समूहको शीघ्र जला देता है ॥ ६ ॥
जब तक हृदयमें आत्मस्वभावलब्धि प्रकाशमान नहीं होती तब तक जीव संकल्पविकल्प रूप शुभ-अशुभको उत्पन्न करनेवाला कर्म करता है ॥ ६१ ॥
जो बन्धोंके स्वभावको और आत्माके स्वभावको जानकर बन्धोंमें अनुरंजायमान नहीं होता है वह कर्मोंके मोक्षको करता है । ६२ ॥
जब तक आत्मा और आस्रव इन दोनोंके विशेष अंतरको नहीं जानता है तब तक वह अज्ञानी जीव विषयादिकोंमें प्रवृत्त रहता है ॥ ६३ ॥
ज्ञानी जीव अनेक प्रकारके पुद्गल द्रव्यको जानता हुआ पर द्रव्यपर्यायसे न परिणमता है, न ग्रहण करता है, और न उत्पन्न होता है ॥ ६४ ॥
१द बयानो. २द ब अच्चिदुदो. ३द ब समेतं. ४द ब बद्धाणं. ५द ब रंमविमोक्खयं. ६दब विसेसंमतरं. ७दब परणमदि. ८ब दव्वमणेयविहं.
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