Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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तिलीयपण्णत्ती
१६.४१
मयसित्थमसंगठभायारो ग्यणतयादिगुणजुत्तो। णियादा झायन्वो खयरहिदो जीवघणदेसो॥४१ ओ भादमावणमिण गिलुवजुत्तो मुणी' समाचरदि ! सो सम्वदुक्खमोक्खं पावइ अचिरेण कालेणं ॥ कम्मे पोकम्मम्मि व अहमिदि अयं च कम्मणोकम्मं । जायदि सा खलु बुद्धी सो हिंडह गरुवसंसारं ॥ जो खबिदमोहकम्मो विसयविरत्तो मणो णिरुभित्ता । समवढिदो सहावे सो मुच्चर कम्मणिगलेहि ॥ पनिष्विदिअणुभागप्पदेसबंधेहिं वजिभो अप्पा । सो हं इदि चिंतेजो तत्थेव य कुणह थिरभावं ॥ ४५ केबलणाणलहावो केवलदसणसहावो सुहमइओ । केवलविरियसहाओ सो हं इदि चिंतए गाणी ॥ ४६ जो सम्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणप्पणों अप्पा। सो सम्वदुक्खमोक्खं पावइ भचिरेण कालेणं ॥ ४७ जोछदि णिस्सरितुं संसारमहण्णवस्स रुहस्स । सो एवं जाणित्ता परिझायदि अप्पयं सुद्धं ॥ ४८
___ मोमसे रहित मूषकके ( अभ्यन्तर ) आकाशके आकार, रत्नत्रयादि गुणों से युक्त, अविनश्वर और जीवधनदेशरूप निज आत्माका ध्यान करना चाहिये ॥ ११ ॥
.. जो साधु नित्य उद्योगशील होकर इस आत्मभावनाका आचरण करता है वह थोड़े समयमें ही सब दुःखोंसे छुटाकारा पा लेता है ॥ ४२ ॥
कर्म और नोकर्ममें • मैं हूं' तथा मैं कर्म नोकर्म रूप हूं; इस प्रकार जो बुद्धि होती है उससे यह प्राणी महान् संसारमें घूमता है ॥ ४३ ॥
जो मोहकर्म ( दर्शनमोह और चारित्रमोह ) को नष्टकर विषयोंसे विरक्त होता हुआ मनको रोककर स्वभावमें स्थित होता है वह कर्मरूपी सांकलोंसे छूट जाता है ॥ १४ ॥
जो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्धसे रहित आत्मा है वही मैं हूं, इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये और उसमें ही स्थिरभावको करना चाहिये ॥ १५ ॥
जो केवलज्ञान व केवलदर्शन स्वभावसे युक्त, सुखस्वरूप और केवल वीर्यस्वभाव है वही मै हूं, इस प्रकार ज्ञानी जीवको विचार करना चाहिये ॥ ४६॥
जो जीव सर्व संगसे रहित होकर अपने आत्माका आत्माके द्वारा ध्यान करता है वह थोड़े ही समयमें समस्त दुःखोंसे छुटकारा पा लेता है ॥ १७ ॥
जो भयानक संसाररूपी महासमुद्रसे निकलनेकी इच्छा करता हे वह इस प्रकार जानकर शुद्ध आत्माका ध्यान करता है ॥ ४८॥
१९वणी. २६ मोक्खे, व मोक्खी. ३द ब कमसो. ४द व अप्पाण अपनो.
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