Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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- ९.५६ ]
णमो महाधियारो
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पडिकमणं पडसरणं पडिहरणं धारणा नियत्ती य शिंदणगरहणसोही लब्भंति निषादभाषण ॥ ४९ जो हिंद मोहठी राय पदोसे' वि खविय सामण्णे । होजं समसुहदुक्खो' सो सोक्खं अक्खयं लहवि ॥ -
जहदि जो दुरे ममत्तं भई ममेदं ति देहदविणेसुं । सो मूढो अण्णाणी बज्झदि वुट्टकम्मेहिं ॥ ५१ goon होइ विभो विहवेण मओ मएण मइमोहो । मइमोहेण य पावं तम्हा' पुण्णो वि वजेो ॥ ५४ परमबाहिरा जे ते अण्णाणेण पुष्णमिच्छति । संसारगमणहेतुं विमोक्खहेतुं अयाणंता' ॥ ५३
हुमणदिज! एवं णत्थि विसेसो त्ति पुण्णपावाणं । हिंडदि घोरमपारं संसारं मोहसंछष्णो ॥ ५४ मिच्छत्तं अण्णाणं पावं पुण्णं चएवि तिविद्देणं । सो णिच्चयेण जोई झायब्वो अप्पयं सुद्धं ॥ ५५ जीवो परिणमदि जदा सुहेण असुद्देण वा सुहो असुहो । सुद्वेण तहा सुद्धो हवदि हु परिणामसम्भावो ॥
निजात्मभावना से प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, प्रतिहरण, धारणा, निवृत्ति, निन्दन, गर्हण और शुद्धिको प्राप्त करते हैं ॥ ४९ ॥
जो दर्शन मोह रूप ग्रन्थिको नष्ट कर श्रमण अवस्था में राग-द्वेषका क्षपण करता हुआ सुख - दुखमें समान हो जाता है वह अक्षय सुखको प्राप्त करता है ॥ ५० ॥
जो देह और धनमें क्रमशः 'अहम्' और 'ममेदं' इस प्रकारके ममत्वको नहीं छोड़ता है वह मूर्ख अज्ञानी दुष्ट आठ कर्मों से बंधता है ॥ ५१ ॥
चूंकि पुण्यसे विभव, विभवसे मद, मदसे मतिमोह और मतिमोहसे पाप होता इसलिये पुण्यको भी छोड़ना चाहिये ॥ ५२ ॥
जो परमार्थसे बाहिर हैं वे संसारगमन और मोक्षके हेतुको न जानते हुए अज्ञानसे पुण्यकी इच्छा करते हैं ॥ ५३ ॥
पुण्य और पापमें कोई भेद नहीं है, इस प्रकार जो नहीं मानता है वह मोहसे युक्त होता हुआ घोर एवं अपार संसारमें घूमता है ॥ ५४ ॥
मिध्यत्व, अज्ञान, पाप और पुण्य, इनका [ मन, वचन, काय ] तीन प्रकारसे त्याग करके योगीको निश्चयसे शुद्ध आत्माका ध्यान करना चाहिये ॥ ५५ ॥
परिणामस्वभाव रूप जीव जब शुभ अथवा अशुभ परिणामसे परिणमता है तत्र शुभ अथवा अशुभ होता है, और जब शुद्ध परिणामसे परिणमता है तब शुद्ध होता है ॥ ५६ ॥
१ द व रायपदोसो. ६ द व णयाणंता.
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२ द व समसुहदुक्लं. ८ द व समोहकण्णो
७ द ब एणं.
३ ब हु.
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४ ब माया.
५ द व तम्मा.
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