Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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७२८ ]
तिलोय पण्णत्ती
[ ७. ४०९
चगउदिसहस्सा पणसयाणि बादालजोयणा तिकला | दसपविहत्ता बहिपठितघणे तुश्मिमग्गतमं ॥
ि
९४५४२
एवं मज्झिमम गाइल्लमग्गं ति णेदव्वं ।
पंचादिसहस्सं दसुत्तरा जोयणाणि विष्णि कला । पंचहिदा मज्झपट्टे तिमिरं बहिपठिदे' तबणे ॥ ४१०
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९५०१०
१०
एवं दुरिममग्गं तिव्वं ।
पंचाणउदिसहस्सा चउसयचडणउदि जोयणा अंसा । बाहिरपदतमखेत्तं दीहत्तं बाहिरुदविदे ॥ ४११
९५४९४
तिegregreअट्ठा पंचेक्कक्रक्कमेण चउअंसा | बहिपठिददिवसयरे लवणोदहिछट्टभागतमं ॥ ४१२
१५८११
दाणिं तिमिराणं भंगाणं होंति एक्कभाणुम्मि । दुगुणिदपरिमाणाणि दोखुं पिय हेमकिरणेसुं ॥ ४१३
सूर्य के बाह्य मार्ग में स्थित होनेपर चतुर्थ मार्ग में तमक्षेत्र चौरानबे हजार पांच सौ ब्यालीस योजन और दशसे विभक्त तीन कला अधिक रहता है ॥ ४०९ ॥ ९४५४२ ।
इस प्रकार मध्यम मार्गके आदिम मार्ग तक ले जाना चाहिये ।
सूर्य के बाह्य पथमें स्थित होनेपर मध्यम पथमें तिमिरक्षेत्र पंचानबे हजार दश योजन और पांच से भाजित तीन कला अधिक रहता है ।। ४१० ।। ९५०१०३ ।
इस प्रकार द्विचरम मार्ग तक
जाना चाहिये ।
सूर्य के बाह्य अ ( मार्ग ) में स्थित रहने पर बाह्य पथमें तमक्षेत्र पंचानत्रै हजार चार सौचन योजन और एक भागमात्र लम्बा रहता है ॥ ४११ ॥ ९५४९४ ।
सूर्य के बाह्य मार्ग में स्थित होनेपर लवणोदधिके छठे भागमें तमक्षेत्र तीन, एक, एक, आठ, पांच और एक, इन अंकों के क्रमसे एक लाख अट्ठावन हजार एक सौ तेरह योजन और चार भाग अधिक रहता है || ४१२ ।। १५८११३३ ।
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ये तिमिरक्षेत्रों के भंग एक सूर्यके रहते हुए होते हैं। दोनों सूर्यो के होते हुए इन्हें द्विगुणित प्रमाण जानना चाहिये ॥ ४१३ ॥
१ द ब पिहिपहट्ठिदे २ द ब एदाणं.
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