Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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७३०] तिलोयपण्णत्ती
[७. ४१९एवं आदवतिमिरक्खेत्तफलं एक्कतिव्यकिरणम्मि । दोसुं विरोचणेसु णादध्वं दुगुणपुष्वपरिमाणं ॥ ४१९ भट्ठारस विव साया तावखेतं' तु हेढदो तवदि । सम्वेसिं सूराणं सतमेकं उरि तावं तु ॥ ४२०
१८०० । १८० । एत्तो दिवायराणं उदयस्थमणेसु जाणि रूवाणिं ! ताई परमगुरूणं उवदेसेणं परवेमो ॥ ४२१ नाणविहीण वासे चउगुणसरताडिदम्मि जीवकदी । इसुवग्गा छग्गुणिदा तीए जुदो होदि चावकदी ॥ नियजोयणलक्खाणि दस य सहस्साणि ऊणवीसहि । अवहरिदाई भणिदं हरिवरिससरस्स परिमाणं ॥ ४२३
३१००००
तम्मझे सोधेज्जं सीदिस्समधियसदं च ज सेस । सो आदिममगादो बाणं हरिवरिसविजयस्स ॥ ४२४
यह उपर्युक्त आतप व तिमिरक्षेत्रफल एक सूर्य के निमित्तसे है। दोनों सूर्योके रहनेपर इसे पूर्वप्रमाणसे दुगुणा जानना चाहिये ॥ ४१९ ॥
सब सूर्योके नीचे अठारह सौ योजन प्रमाण और ऊपर एक सौ योजनमात्र तापक्षेत्र तपता है ॥ ४२० ॥ १८०० । १०० ।।
__ यहांसे आगे सूर्योके उदय व अस्त होने में जो स्वरूप होते हैं, उन्हें परम गुरुओंके उपदेशानुसार कहते हैं ॥ ४२१ ॥
___ बाण रहित विस्तारको चौगुणे बाणप्रमाणसे गुणा करनेपर जीवाकी कृति होती है । बाणके वर्गको छहसे गुणा करनेपर जो राशि प्राप्त हो उसे उपर्युक्त जीवाकी कृतिमें मिला देनेसे धनुषकी कृति होती है ॥ ४२२ ॥
___ हरिवर्ष क्षेत्रके बाणका प्रमाण उन्नीससे भाजित तीन लाख दश हजार योजन मात्र कहा गया है ॥ ४२३ ॥ ३१९:०० ।
इसमेंसे एक सौ अस्सी योजन ( जम्बूद्वीपका चार क्षेत्र ) कम करनेपर जो शेष रहे उतना प्रथम मार्गसे हरिवर्ष क्षेत्रका बाण होता है ॥ ४२४ ॥
जं. द्वी. चा. क्षे. १८० = ३४२०; ह. क्षे. बाण ३१ ००० ० - रिण ३४०० = ३ ० ६.५८° आदि मार्गसे हरिवर्ष क्षेत्रका बाणप्रमाण ।
१ [ अट्ठारसजोयणसय तावक्खेत्तं ].
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