Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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७४.] तिलोयपण्णसी
[७. ५००० दक्खिणभयणं आदी पजयसाणं तु उत्तरं अयणं । सम्बसि सूराणं विवरीदं होदि चंदाणं ॥ ५०० छञ्चेव सया तीस भगणाणं' अभिजिरिक्खविक्खंभा । दिवा सम्वंदरिसिहिं सब्वेहि अणतणाणेणं ॥ ५०१
६३०। सदभिसभरणी अद्दा सादी तह अस्सिलेस्पजेट्ठा य । पंचुत्तरं सहस्ला भगणागं सीमविक्खंभा । ५०२ एवं चेव य तिगुणं पुणब्बसू रोहिणी विसाहा य । तिपणेव उत्तराओ अवसेसाणं भवे बिउणं ॥ ५०३ चउवणं च सहस्सा णव य सया होति सयलरिक्खाणं । विगुगियगयणक्ख डा दोचंदाणं पिणादव्यं ।। ५०४
५४९००। एयं च सयसहस्सा अट्टागउदीसया य पडिपुण्णा । एसो मंडलछेदो भगणाणं सीमविक्खंभो ॥ ५०५
१०९८.०। अट्ठारसभागसया तीसं गच्छदि रवी मुहुत्तेणे | णक्खत्तसीमछेदो ते चेटुं इमेण बोद्धव्वा ॥ ५०६
१८३० ।
सब सूर्योका दक्षिण अयन आदिमें और उत्तर अयन अन्तमें होता है । चन्द्रोंके अयनोंका क्रम इससे विपरीत है ॥ ५०० ॥
__ नक्षत्रोंमें अभिजित् नक्षत्रका विस्तार अर्थात् उसके गगनखण्डोंका प्रमाण जो छह सौ तीस है उसे सभी सर्वदर्शियोंने अनन्त ज्ञानसे देखा है ॥ ५०१ ॥ ६३० । - शतभिषक्, भरणी, आर्दा, स्वाति, आश्लेषा और ज्येष्ठा, इन नक्षत्रगणोंके सीमाविष्कम्भ अर्थात् गगनखण्ड एक हजार पांच हैं ॥ ५०२ ॥
__ पुनर्वसु, रोहिणी, विशाखा और तीनों उत्तरा (उत्तराफल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तग भाद्रपदा) इनके गगनखण्ड इससे (१००५) तिगुणे तथा शेष नक्षत्रोंके दूने हैं ॥ ५०३ ॥
सब नक्षत्रों के गगनखण्ड चौवन हजार नौ सौ हैं । इससे दूने दोनों चन्द्रोंके गगनखण्ड समझना चाहिये ॥ ५०४ ॥ ५४९०० ।
इस प्रकार एक लाख अट्ठानबै सौ गगनखण्डोंसे परिपूर्ण यह मण्डलविभाग नक्षत्रगणोंकी सीमाके विस्तार स्वरूप है ॥ ५०५ ॥ १०९८०० ।
सूर्य एक मुहूर्तमें अठारह सौ तीस गगनखण्डोंको लांघता है । नक्षत्रों की सीमाका विभाग....इस प्रकार जानना चाहिये ॥ ५०६ ॥
१द ब भागाणं. २ द ब खे. ३द चेट्टइ.
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