Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
८३२] तिलोयपण्णसी
[८.४४१सोहम्मादिचउक्के कमसो अवसेसकापजुगलेसुं । होति हु पुछ्वुत्ताई याणविमाणाणि पत्तेक्कं ॥ ४४१
पाठान्तरम् । एक्कं जोयणलक्खं पत्तेक्कं दीहवाससंजुत्ता। याणविमाणा दुविहा विक्किरियाए सहावेणं ॥ ४४२ ते विक्किरियाजादा याणविमाणा विणासिणो होति । अविणासिणो य णिचं सहावजादा परमरम्मा ॥ धुन्वंतधयवदाया विविहासणसयणपहुदिपरिपुण्णा | धूर्वघडेहिं जुत्ता चामरघंटादिकयसोहा ॥ ४४४ वंदणमालारम्मा मुत्ताहलहेमदामरमणिजा । सुंदरदुवारसहिदा वजकवाडुजला विरायति ॥ ४४५ सच्छाई भायणाई वत्थाभरणाइआई दुविहाई । होति हु याणबिमाणे विक्किरियाए सहावेणं । ४४६ विक्किरियाजणिदाई विणासरूवाई होति सब्वाइं । वत्थाभरणादीया सहावजादाणि णिच्चाणि ॥ ४४७ सोहम्मादिसु अट्ठसु आणदपहुदीसु चउसु इंदाणं । सूवरहरिणीमहिसा मच्छा भेकौहिछगलवसहा य ॥ कप्पतरू मउडेसु चिण्हाणि णव कमेण भणिदाणिं । एदेहिं ते इंदा लक्खिजंते सुराण मज्झम्मि ॥ ४४९
पाठान्तर ।
_सौधर्मादि चारमें और शेष कल्पयुगलोंमें क्रमसे प्रत्येकके पूर्वोक्त यानविमान होते हैं ॥ ४११॥
इनमेंसे प्रत्येक विमान एक लाख योजन प्रमाण दीर्घता व व्याससे संयुक्त है। ये विमान दो प्रकार हैं, एक विक्रियासे उत्पन्न हुए और दूसरे स्वभावसे ॥ ४४२ ॥
विक्रियासे उत्पन्न हुए वे यान विमान विनश्वर और स्वभावसे उत्पन्न हुए वे परम रम्य यान विमान नित्य व अविनश्वर होते हैं ॥ ४४३ ॥
। उक्त यान विमान फहराती हुई ध्वजा-पताकाओंसे सहित, विविध आसन व शय्या आदिसे परिपूर्ण, धूपघटोंसे युक्त, चामर एवं घंटादिकसे शोभायमान, वंदनमालाओंसे रमणीय . मुक्ताफल व सुवर्णकी मालाओंसे सुशोभित, सुन्दर द्वारोंसे सहित, और वज्रमय कपाटोंसे उज्ज्वल होते हुए विराजमान हैं ॥ ४४४-४४५ ॥
यान विमानमें स्वच्छ भाजन, वस्त्र और आभरणादिक विक्रिया व स्वभावसे दो प्रकारके होते हैं ॥ ४४६॥
विक्रियासे उत्पन्न सब वस्त्राभरणादिक विनश्वर और स्वभावसे उत्पन्न हुए ये सभी नित्य होते हैं ॥ ४४७ ॥
सौधर्मादिक आठ और आनत आदि चार कल्पोंमें इन्द्रोंके मुकुटोंमें क्रमसे शूकर, हरिणी, महिष, मत्स्य, भेक, सर्प, छगल, वृषभ और कल्पतरु, ये नौ चिह्न कहे गये हैं । इन चिह्नोंसे सुरोंके मध्यमें वे इन्द्र पहिचाने जाते हैं ॥ ४४८-४४९ ॥
१दब कच्छ. २ ब धुव्व. ३दय मच्छा मेका,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org