Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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८५४ ] तिलोयपण्णत्ती
[८:५६८णाथि णहकेसलोमा ण ब्रम्ममंसा ण लोहिदवसाओ । णट्ठी ण मुत्तपुरिसं ण सिराओ देव संघडणे ॥ ५६८ घण्णरसगंधपास भइसयवेगुब्वदिव्वबंधादो । णेहोदिदबाधादि' उवचिदकम्माणुभावेणं ॥ ५६९ उप्पण्णसुरविमाणे पुव्वमणुग्घाडिदं कवाडजुगं । उग्घडदि तम्मि काले पसरदि आणंदभेरिरवं ॥ ५७०
। एवं उपपत्ती गदा । सोदूण भेरिसई जय जय गंद त्ति विविहघोसेणं । एंति परिवारदेवा देवीओ रत्तहिदयाओ ॥ ५७१ यायति किम्विससुरा जयघंटा पदहमदलप्पहुदिं । संगीयणचणाई पप्पवदेवा पकुवंति ॥ ५७२ देवीदेवसमाज दट्ठणं तस्स कोदुगं होदि । नावे कस्स विभंग कस्स वि ओही फुरदि णाणं ॥ ५७३ णादूण देवलोयं अप्पफलं जादमेदमिदि केई । मिच्छाइट्टी देवा गेइंति विसुद्धसम्मत्तं ॥ ५७४ तादे देवीणिवहो आणंदेणं महाविभूदीए । एदाणं देवाणं भरणं सेसं पहिमणे ॥ ५७५
देवोंके शरीरमें न नख, केश और रोम होते हैं; न चमड़ा और मांस होता है; न रुधिर और चर्बी होती है; न हड्डियां होती हैं, न मूत्र और मल होता है; और न नसें ही होती हैं ॥ ५६८ ॥
संचित कर्म के प्रभावसे अतिशयित वैक्रियिक रूप दिव्य बंध होनेके कारण देवोंके शरीरमें वर्ण, रस, गंध और स्पर्श बाधा रूप नहीं होते ॥ ५६९ ॥
देवविमानमें उत्पन्न होनेपर पूर्वमें अनुद्घाटित (विना खोले) कपाटयुगल खुलते हैं और फिर उसी समय आनन्दभेरीका शब्द फैलता है ॥ ५७० ।।
इस प्रकार उत्पत्तिका कथन समाप्त हुआ । भेरीके शब्दको सुनकर अनुरागयुक्त हृदयवाले परिवारके देव और देवियां । जय जय, नन्द ' इस प्रकारके विविध शब्दों के साथ आते हैं ॥ ५७१ ॥
किल्विष देव जयघंटा, पटह व मर्दल आदिको बजाते हैं और पप्पव (१) देव संगीत व नृत्योंको करते हैं ॥ ५७२ ॥
देव और देवियोंके समूहको देखकर उस देवको कौतुक होता है। उस समय किसीको विभंग और किसीको अवधि ज्ञान प्रकट होता है ॥ ५७३ ॥
अपने ( पूर्व पुण्यके ) फलसे यह देवलोक प्राप्त हुआ है, इस प्रकार जानकर कोई मिथ्यादृष्टि देव विशुद्ध सम्यक्त्वको ग्रहण करते हैं ॥ ५७४ ॥
फिर देवीसमूह आनन्दपूर्वक हर्षितमन होकर महा विभूतिके साथ इन देवोंका भरणपोषण करते हैं ॥ ५७५ ॥
... १द ब होदिदनाघांधिं. २द मर.
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