Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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- ८. २१ ]
अट्टम महाधि
[ ७७१
पीकर आइवं चरिमो सव्वट्टसिद्धिणामो ति । तेसट्ठी समवट्टा णाणावररयणणियरमया ॥ १७
३।'
पंचत्ताले लक्खं जोयणया इंदओ उडू पढमो' । एक्कं जोयणलक्खं चरिमो सच्चट्ठसिद्धी य ॥ १८ ४५००००० | १०००००।
पढमे चरिमं सोधिय रूऊणिय दयम्पमाणेणं । भजिदृणं जं लद्धं ताओ इह हाणिवडीओ ॥ १९ ते रासि ६२ । ४४००००० । १ ।
सत्तरिसहरुसणवस्य सगसट्ठीजोयणाणि तेवीसं । सा इगितीसहिदा हाणी पढमादु चरिमदो वढी ॥ २०
७०९६७
३१
चउदालकखजोयण उणतीससहस्रूयाणि बत्तीसं । इगितीसहिदा अट्ठ य कलाओ विमलिंदयस्स वित्थारो ।
४४२९०३२
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आदित्य और अन्तिम सर्वार्थसिद्धि नामक इस प्रकार ये समान गोल और नाना उत्तम रत्नोंके समूहोंसे रचे गये तिरेसठ इन्द्रक विमान हैं ॥ १२-१७॥
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इनमेंसे प्रथम ऋतु इन्द्रक विमान पैंतालीस लाख योजन और अन्तिम सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक एक लाख योजनमात्र विस्तारसे सहित है ॥ १८ ॥ ४५००००० | १००००० ।
प्रथम इन्द्र के विस्तारमेंसे अन्तिम इन्द्रक के विस्तारको घटाकर शेष में एक कम इन्द्रकप्रमाणका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना यहां हानि-वृद्धिका प्रमाण समझना चाहिये ॥ १९ ॥ १०००००
प्र. इं. ४५०००००, अन्तिम इं. १०००००; ४५००००० = ४४०००००; ४४००००० ÷ (६३ - १ ) = ७०९६७ ३३ हानि - वृद्धि |
सत्तर हजार नौ सौ सड़सठ योजन और एक योजनके इकतीस भागोंमेंसे तेईस भाग अधिक प्रथम इन्द्रकी अपेक्षा उत्तरोत्तर हानि और इतनी ही अन्तिम इन्द्रककी अपेक्षा उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई है ॥ २० ॥
चवालीस लाख उनतीस हजार बत्तीस योजन और इकतीससे भाजित आठ कला , अधिक विमल इन्द्रके विस्तारका प्रमाण कहा गया है ॥ २१ ॥ ४४२९०३२ ई ।
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१ द ब ६३. २ ब पढमे ३ द य चरिमजुदो.
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