Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-७.५५२] सत्तम। महाधियारो
[७५१ वहसाहसुक्रबारसि उत्तरपुवम्हि फग्गुणीरिक्खे । सत्तारसएक्कसयं पश्वमदीदेसु दसमय उसुयं ॥ ५४॥ पणवरिसे दुमणीणं दक्खिणुत्तरायणं उसुयं । चय' आणेज्जो उस्सप्पिणिपढमादिचरिमंतं ॥ ५४७ पल्लस्ससंखभाग दक्खिणअयणस्स होदि परिमाणं । तेत्तियमेत्तं उत्तरअयणं उसुपं च तद्दगुणं॥ ५४४
दक्खि प | उत्त प | उसुप १२। भवसप्पिणिए एवं वत्तध्या ताओ रहडघडिएण' । होति भणताणता पुण्वं वा दुमणिपक्खित्तं ॥ ५४९ चत्तारो लवणजले धादइदीवम्मि बारस मियंका । बादाल कालसलिले बाहत्तरि पुक्खरद्धम्मि ॥ ५५०
। १२ । ४२ । ७२ । णियणियससीण भद्धं दीवसमुदाण एक्कभागम्मि । भवरे भागं अद्धं चरंति पंतिक्कमेणं च ॥ ५५॥ एकेकचारखेत्तं दोहोचंदाण होदि तम्वासो । पंचसया दुससहिदा दिणयरबिबादिरित्ता य ॥ ५५२
दशवां विषुप वैशाख मासमें शुक्ल पक्षकी द्वादशीके दिन ' उत्तरा' पद जिसके पूर्वमें है ऐसे फाल्गुनी अर्थात् उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रके रहते एकसौ सत्तरह पर्वोके वीत जानेपर होता है ॥ ५४६ ॥
___ इस प्रकार उत्सर्पिणीके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक पांच वर्षपरिमित युगोंमें सूर्योके दक्षिण व उत्तर अयन तथा विषुपोंको ले आना चाहिये ।। ५४७ ॥
दक्षिण अयनका प्रमाण पल्यका असंख्यातवां भाग और इतना ही उत्तर अयनका भी प्रमाण है । विषुपोंका प्रमाण इससे दूना है ॥ ५४८ ॥ दक्षिण अयन पल्य ' असं., उत्तर पल्य : असं., विषुष ( पल्य : असं.)४२।
इसी प्रकार (उत्सर्पिणीके समान) अवसर्पिणी कालमें भी अरघटकी घटिकाओंके समान उन दक्षिण-उत्तर अयन और विषुपोंको कहना चाहिये। सूर्यके प्रक्षेप पूर्ववत् अनंतानंत होते हैं ॥ ५४९ ॥
लवण समुद्रमें चार, धातकीखण्ड द्वीपमें बारह, कालोद समुद्रमें ब्यालीस और पुष्करार्द्ध द्वीपमें बहत्तर चन्द्र हैं ॥ ५५० ॥ ४ । १२ । ४२ । ७२ ।
___ द्वीप व समुद्रोंके अपने अपने चन्द्रोंमेंसे आधे एक भागमें और आधे दूसरे भागमें पंक्तिक्रमसे संचार करते हैं ॥ ५५१ ॥
दो दो चन्द्रोंका जो एक एक चारक्षेत्र है उसका विस्तार सूर्यविम्बसे (१६) अधिक पांचसौ दश योजनप्रमाण है ॥ ५५२ ॥
१[चिय ]. २ द ब रहउपडिएण.
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