Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-७. ३५६] सत्तमौ महाधियारो
[१० • घडवण्णसहस्सा सगसयाणि भट्टरस जोयणा असा । पण्णरस भोसहिपुरे तावो बाहिरपट्टिदककम्मि ।
अट्ठावण्णसहस्सा इगिसयउणवपण जोयगा अंसा। सगतीस बहिपहटिदतवणे ताओ पुरम्मि चरिमम्मि ।।
तेसट्ठिसहस्साणि सत्तरसं जोयणाणि चउअंसा । पंचहिदा बहिमग्गद्विदम्मि दुमणिम्मि पढमपहताभो ॥
तेसविसहस्साणिं जोयणया एक्कवीस एक्ककला । बिदियपहातावपरिही बाहिरमग्गट्ठिदे तवणे ॥ ३५५
एवं मज्झिमपहंत णेदव्वं । तेसट्टिसहस्साणि तिसया चालीस जोयणा दुकला । मज्झपहतावखेत्तं विरोचणे बाहिरमग्गढिदे ।।३५६
एवं दुचरिममग्गंतं णेदव्वं ।
सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर औषधिपुरमें तापक्षेत्र चौवन हजार सात सौ अठारह योजन और पन्द्रह भागमात्र रहता है ॥ ३५२ ॥ ५४७१८४।
सूर्यके बाह्य पथमें स्थित होनेपर अन्तिम पुर अर्थात् पुण्डरीकिणी नगरीमें तापक्षेत्र अट्ठावन हजार एक सौ उनचास योजन और सैंतीस भागप्रमाण रहता है ॥ ३५३ ॥
५८१४९४१ । सूर्यके बाह्य मार्गमें स्थित होनेपर प्रथम पथमें तापक्षेत्र तिरेसठ हजार सत्तरह योजन और पांचसे भाजित चार भागप्रमाण रहता है ॥ ३५४ ॥ ६३०१७ ।
सूर्यके बाह्य मार्गमें स्थित होनेपर द्वितीय पथकी तापपरिधिका प्रमाण तिरेसठ हजार इक्कीस योजन और एक भागमात्र होता है ॥ ३५५ ॥ ६३०२१६ ।
इस प्रकार मध्यम पथ पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
विरोचन अर्थात् सूर्यके बाह्य मार्गमें स्थित होनेपर मध्यम पथमें तापक्षेत्रका प्रमाण तिरेसठ हजार तीन सौ चालीस योजन और दो कला अधिक रहता है ॥ ३५६ ॥
६३३४०२। इस प्रकार द्विचरम मार्ग तक ले जाना चाहिये ।
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