Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
फैन्य
S
त्रिलोकप्रज्ञप्ति की अन्य प्रयोस तुलना अन्य प्रकारसे बतलाया है । यह मत वर्तमान लोकविभाग ( २, ३३-४०) में पाया जाता है। विशेषता यह है कि इसी लोकविभागमें आगे जाकर श्लोक ४४ के पश्चात् 'उक्तं च त्रिलोकप्रज्ञप्ती' कहकर ति. प. की २४७८ से ८८ तक जिन ११ गाथाओंको उद्धृत किया है वे उसके पूर्व मतके विरुद्ध पड़ती हैं ।
(४) ति. प. गा. ७-११५ में ज्योतिषी देवोंकी नगरियोंका बाहल्य लोकविभागाचार्यके मतानुसार अपने अपने विस्तारके बराबर बतलाया है । इस विषयको लोकविभागमें खोजने पर वहां सूर्य-चन्द्रादिके विमानोंका विस्तारप्रमाण तो मिलता है, परन्तु उनके बाहत्यका प्रमाण वहां दृष्टिगोचर नहीं होता । हां, वहांपर छठे प्रकरणके १५ वें श्लोकसे आगे 'पाठान्तरं कथ्यते ' कहकर निम्न श्लोक द्वारा उक्त विमानोंका बाहल्य अपने अपने विस्तारसे आधा अवश्य बतलाया है जो तिलोयपण्णत्तिमें प्रकरणानुसार पाया जाता है।
रवीन्दु-शुक्र-गुर्वाख्याः कुजाः सौम्यास्तमोदया।
ऋक्षास्ताराः स्वविष्कम्भादर्धवाहल्यकाः मताः ॥ को. वि. ६ १६.
(५) तिलोयपण्णत्ति (८, ६१४-६३४ ) में लौकान्तिक देवोंकी प्ररूपणा करके आगे (गा. ६३५.३९) लोकविभागाचार्यके मतानुसार उनके अवस्थान व संख्या आदिकी प्ररूपणा फिरसे भी की गई है। यह मत वर्तमान लोकविभागमें अंशतः पाया जाता है, क्योंकि, वहां उनकी संख्यामें कुछ भेद दिखायी देता है। ति. प. में सारस्वत और आदित्य आदिकोंके मध्यमें जिन अनलाभ और सूर्याभ आदि दो दो देवोंके नामोंका उल्लेख किया गया है उनका निर्देश भी यहां नहीं किया गया।
(६) तिलोयपत्ति (९.६) में सिद्ध की उत्कृष्ट और जघन्य अवगाहनाका प्रमाण क्रमशः ५२५ धनुष और ३३ हाथ बतला कर फिर आगे गाथा ९ में 'लोकविनिश्चय ग्रन्थ लोकविभाग के अनुसार उक्त अवगाहनाको अन्तिम शरीरसे कुछ कम बतलाया है । यह मत वर्तमान लोकविभागमें प्राप्त होता है । यथा
गव्यूतेस्तत्र चो;यास्तुर्ये भागे व्यवस्थिताः ।
अन्त्यकायप्रमाणात्तु किंचित्संकुचितात्मकाः ॥ लो. वि. ११.७. इस प्रकार वर्तमान लोकविभागके रूपको देखकर उसपर विचार करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि इसकी रचनाके आधार तिलोयपण्णत्ति और त्रिलोकसार आदिक ग्रन्थ भी रहे हों तो
i
n................................
१ लो. वि. प्रकरण ६ श्लोक ९, ११ इत्यादि । २ ति. प. म. ७ गा. ३९, ६८,. ८५, ९१ इत्यादि। ३ लो. वि. प. १०७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org