Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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- ५. ३१४ ]
पंचमो महाधियारो
[ ६१५
पढमधरंतमण्णी भवणतिए सयलकम्मणरतिरिए । सेढिघणमेत्त लोए सव्त्रे पक्खेसु जायंति ॥ ३१२ संखेज्जाउवसण्णी सदरसहस्लारगो त्ति जायंति । णरतिरिए णिरएसु वि संखातीदाउ जाव ईसाणं ॥ ३१३ वोसीसभेदसंजुदतिरिया हु अणंतरम्मि जग्मम्मि । ण हुंति सलागणरा भयणिजा णिव्वुदिपवेसे' ॥ ३१४ | एवं संकर्म गदं ।
एतो चोत्तीसपदमप्पा बहुगं वत्तइस्लामो । तं जहा -
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पंचेंद्रियतिरिक्खसणिअपजत्ता असंखेज्जगुणा | ४ | ६५५३६ | ५ | ५ । सण्णिपजत्ता संखेजगुणा ।
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४
४ | ६५५३६ | ५ | ५ | चउरिंदियपजत्ता संखेज्जगुणा = ५८३६ । पंचेंदियतिरिक्खा असणिपत्ता
४ १४ । ६५६१
५
विसेसाहिया = ५८६४ रिण रा. = ४ । ४ । ६५६१ । ४ । ६ १५३६
५
संव्वत्थोवा उकाइयबादरपजत्ता
- २ मू.
१ । ३ मू.
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१ ब मंडपवेसे,
11^1
असंज्ञी जीव प्रथम पृथिवीके नारकों, भवनत्रिक ( भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क ) और समस्त कर्मभूमि मनुष्य व तिर्यंचोंमें उत्पन्न होत हैं । ये सब श्रेणी के घनप्रमाण लोकमें कहीं भी पैदा होते हैं ॥ ३१२ ॥
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संख्यात वर्षकी आयुवाले संज्ञी जीव शतार- सहस्रार स्वर्ग तकके देव, मनुष्य, तियंच और नारकियों में भी उत्पन्न होते हैं । परन्तु असंख्यात वर्षकी आयुवाले संज्ञी जीव ईशान कल्प तक देवोंमें ही उत्पन्न होते हैं ॥ ३१३ ॥
उपर्युक्त चौंतीस भेदोंसे संयुक्त तिर्यंच जीव निश्चय ही अनन्तर जन्ममें शलाकापुरुष नहीं होते । परन्तु मुक्तिप्रवेशमें ये भजनीय हैं, अर्थात् अनन्तर जन्ममें ये कदाचित् मुक्तिको भी प्राप्त कर सकते हैं ॥ ३१४ ॥
इस प्रकार संक्रमका कथन समाप्त हुआ ।
अब यहांसे आगे चौतीस प्रकारके तिर्यंचोंमें अल्पबहुत्वको कहते हैं । वह इस प्रकार है - (१) बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीव सबसे थोड़े हैं । (२) इनसे असंख्यातगुणे पंचेन्द्रिय तिर्यंच संज्ञी अपर्याप्त हैं । ( ३ ) इनसे संख्यातगुणे संज्ञी पर्याप्त हैं । ( ४ ) इनसे संख्यातगुणे चार इन्द्रिय पर्याप्त हैं । (५) इनसे विशेष अधिक पंचेन्द्रिय तिर्यच असंज्ञी पर्याप्त हैं । (६) इनसे
२ द ब सव्वोवा.
| 71 ६५५२६ ॥ ५
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