Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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६९१]
तिलोयपण्णत्ती
[ ७.२२०
तेसीदीअधियसयं दिणेसवीहीण होदि विश्वालं । एकपहम्मि चरंते दोणि चिय भाणुनिबाणि ॥ २२० सद्विजदं तिसयाणि मंदररुंदं च जंबुदीवस्स । वासे सोधिय दलिदे सूरादिमपहसुरद्दिविश्ञ्चालं ॥ २२१ ३६० | ४४८२० 1 एक्कत्तीससहस्सा एक्कसयं जोयणाणि अडवण्णा । इगिसट्ठीए भजिदे धुर्वरासी होदि दुमणीणं ॥ २२२
दिवसयर बिंबरुंद चउसीदीसमधियस एणं । ध्रुवरासिस्स य मज्झे सोहेज्जसु तत्थ अवसेसं ॥ २२३ | तैसीदिदसणं भजिदव्यं तम्मि होहि जं लद्धं । वीहिं पडि णादव्वं तरणीणं लंघणपमागं ॥ २२४ तमेतं पविचं तं माणं दोणि जोयणा होंति । तस्सि रविवित्रजुदे पदसूचिचभो दिगिंदस्स ॥ २२५
३११५८ ६१
सूर्यकी एक सौ तेरासी गलियोंमें अन्तराल होता है । दोनों ही सूर्यबिंब एक पथमें • गमन करते हैं ॥ २२० ॥
जम्बूद्वीप के विस्तारमेंसे तीन सौ साठ योजन और मेरुके विस्तारको घटा करके शेषको आधा करनेपर सूर्य के प्रथम पथ और मेरुके मध्यका अन्तरालप्रमाण होता है ॥ २२१ ॥ जं. विस्तार यो. १००००० ३६० = ९९६४०; ९९६४० १०००० (मेरु विस्तार)=८९६४०; ८९६४० ÷ २ = ४४८२० प्रथम पथ और मेरु बीचका अन्तराल ।
इकतीस हजार एक सौ अट्ठावन योजनों में इकसठका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना मणि अर्थात् सूर्येकी ध्रुवराशिका प्रमाण होता है ॥ २२२ ॥ ३ ११५८ 1
६१
१७० ६१
ध्रुवराशि के बीच में से एक सौ चौरासीसे गुणित सूर्यविम्बके विस्तारको घटा देनेपर जो शेष रहे उसमें एक सौ तेरासीका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना सूर्योका प्रत्येक वीथी के प्रति लंघनप्रमाण अर्थात् अन्तराल जानना चाहिये ॥ २२३ । २२४ ॥
८८३२ ३११५८ | × १८४ = ;
३११५८
६१
ध्रु. रा. २२३२६ २२३२६ ६ १ ६ १
२ यो ।
;
६१ २२३२६ ÷ १८३ २२३२६ = ६१×१८३ १११६३ = उतने मात्र जो वह प्रत्येक वीथीका अन्तराल है उसका प्रमाण दो योजन है । इसमें सूर्यबिम्बके विस्तारको मिलानेपर सूर्य के पथसूचीचयका प्रमाण होता || २२५ ॥
यो. २ +
१७० ६१
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