Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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१९८] तिलोयपण्णत्ती -
[७. २५२एक्कणवपंचतियसत्तदुगा अंकक्कमेण जोयणया । सत्तकलाओं परिही आसहिपुरवइजयंताणं ॥ २५२
२७३५९९ ।। णवचउसत्तगहाई णवयदुगा जोयणाई अंककमे । पंचकलाओ परिही विजयपुरीपुंडरीगिणीणं पि ॥२५३
२९०७४९ / तियजोयणलक्खाई पण्णरससहस्सआणि उणणउदी । सव्वभंतरमग्गे परिरयरासिस्स परिमाणं ॥ २५४
३१५०८९ । सेसाणं मग्गाणं परिहीपरिमाणजाणणणिमित्तं । परिहिक्वेवं वोच्छं गुरूवदेसाणुसारेणं ॥ २५५ सूरपहसूइवड्डी दुगुणं कादूण वग्गिदूणं च । दसगुणिदे जे मूलं परिहिक्खेवो इमो होइ ॥ २५६ सत्तरसजोयणाणिं अदिरेका तस्स होइ परिमाणं । अट्टत्तीसं असा हारो तह एक्कसट्ठी य ॥ ३५७
ओषधीपुर और वैजयन्ती नगरीकी परिधि एक, नौ, पांच, तीन, सात, और दो, इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् दो लाख तिहत्तर हजार पांच सौ इक्यानबै योजन और सात कला अधिक है ॥ २५२ ॥ २७३५९१ ।।
विजयपुरी और पुण्डरीकिणी नगरियोंकी परिधि नौ, चार, सात, शून्य, नौ और दो, इन अंकोंके क्रमसे अर्थात् दो लाख नब्बै हजार सात सौ उनचास योजन और पांच कला अधिक है ॥ २५३ ॥ २९०७४९४ ।
__सूर्यके सब मार्गोंमेंसे अभ्यन्तर मार्गमें परिधिराशिका प्रमाण तीन लाख पन्द्रह हजार नवासी योजनमात्र है ॥ २५४ ॥ ३१५०८९ ।
शेष मार्गोकी परिधिके प्रमाणको जानने के निमित्त गुरूपदेशके अनुसार परिविक्षेपको कहते हैं ॥ २५५ ॥
सर्यपथोंकी सूचीवृद्धिको दुगुणा करके उसका वर्ग करने के पश्चात् जो प्रमाण प्राप्त हो उसे दशसे गुणा करनेपर प्राप्त हुई राशिके वर्गमूल प्रमाण उपर्युक्त परिधिक्षेप ( परिधिवृद्धि ) होता है ॥ २५६ ॥
सूर्यपथसूचीवृद्धि ६३ । (१० x २) ४१ ० = १७३६ परिधिक्षेप ।
उक्त परिधिक्षेपका प्रमाण सत्तरह योजन और एक योजनके इकसठ भागोंमेंसे अड़तीस भाग अधिक है ॥ २५७ ॥ १७३१ ।
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