Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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-६. ८२ ]
महाधि
[ ६५१
बाणउदिसहस्राणि लक्खा अडदाल बेणि कोडीओ | इंद्राणं पत्तेक्कं सत्ताणीयाण परिमाणं ॥ ७५
२४८९२०००।
भोमिंदण पइण्णयअभिजोग्गसुरा हुवंति किञ्चिसिया | ताणं पमाणदेदू उवएसो संपइ पणट्टो || ७६ एवंविद्दपरिवारा वैतरहंदा सुदाइ भुजंता । णंदति नियपुरेसुं बहुविद्द केलीओ' कुणमाणा || ७७ यिणियइंदपुरीणं दो वि पासेसु होंति णयराभिं । गणिकामहल्लियाणं वरवेदी पहुदिजुत्ताणं ॥ ७८ चुलसीदिसहस्सा णि जोरया तप्पुरीण बिध्यारो । तेत्तियमेत्तं दीहं पत्तेक्कं होदि नियमेणं ॥ ७९
१८४०००।
चोपपाददेवा हत्यपमाणे वसंति भूमीदो । दिगुवासिसुरायंतरणिवासिकुंभंडपणा ॥ ८० अणुपण्णा अपमाणय गंधमहगंव भुजंगपीदिकया । बारसमा आयासे उबवण्ण वि इंदपरिवारा ॥ ८१ Baf उवरि वसंतेतिणि वि णीवोववादठाणादो । दस हत्थसहस्साइं सेसा विउणेहि पत्तेकं ॥ ८२
प्रत्येक इन्द्रोंकी सात अनीकों का प्रमाण दो करोड़ अड़तालीस लाख बानवे हजार है ॥ ७५ ॥। २४८९२००० ।
व्यन्तरेन्द्रोंके जो प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विपिक देव होते हैं, उनके प्रमाणका निरूपक उपदेश इस समय नष्ट हो चुका है ॥ ७६ ॥
इस प्रकार के परिवार से संयुक्त होकर सुखोंको भोगनेवाले व्यन्तरेन्द्र अपने अपने पुरोंमें बहुत प्रकारकी क्रीड़ाओं को करते हुए आनन्दको प्राप्त होते हैं ॥ ७७ ॥
अपने अपने इन्द्रकी नगरियों के दोनों पार्श्वभागों में उत्तम वेदी आदि संयुक्त गणिकामहत्तरियोंके नगर होते हैं ॥ ७८ ॥
उन पुरियों से प्रत्येकका विस्तार चौरासी हजार योजनप्रमाण और इतनी ही नियमसे लंबाई भी है ॥ ७९ ॥ ८४००० ।
पाद देव पृथिवीसे एक हाथप्रमाण ऊपर निवास करते हैं । इनके अतिरिक्त दिग्वासी देव, अन्तरनिवासी, कूष्माण्ड, उत्पन्न, अनुत्पन्न, प्रमाणक, गन्ध, महागन्ध, भुजंग, प्रीतिक और बारहवें आकाशोत्पन्न, ये इन्द्रके परिवार-देव क्रमसे ऊपर ऊपर निवास करते हैं । इनमें से तीन प्रकारके ( दिग्वासी, अन्तरनिवासी, कूष्माण्ड ) देव नीचोपपाद देवोंके स्थानसे उत्तरोत्तर दश हजार हाथोंके अन्तरसे और शेष देवोंमेंसे प्रत्येक इससे दूने अर्थात् बीस हजार हाथोंके अन्तर से रहते हैं ।। ८०-८२ ॥
१६ केदीओ, व केदाओ.
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