Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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[ सत्तमो महाधियारो ]
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अक्खलियणाणदंसणसद्दियं सिरिवासुपुज्जाजणसामिं । णमिऊणं वोच्छामो जोइसियजगस्स पण्णत्तं ॥ १ जोइसियणिवासखिदी भेदो संखा तहेव विष्णासो । परिमाणं चरचारो अचरेसरुवाणि आऊ य ।। २ आहारो उस्सासो उच्छेहो ओहिणाणसत्तीओ | जीवाणं उप्पत्तीमरणाई एक्कसमयम्मि || ३ भाउगबंधनभावं दंसणगहणस्स कारणं विविहं । गुणठाणादिपवण्णणमहियारा सत्तर सिमाए ॥ ४
[ १७ ] 2
रज्जुकदी गुणिदव्वं एक्कसयदसुत्तरेहिं जोयणए । तस्सि अगम्मदेसं सोधिय सेसम्मि जोदिसिया ॥ ५
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४९ । ११० ।
पिय अगम्मत्तं समवहं जंबुदीवबहुमज्झे । पणएक्कखपणदुगणवदोतिखतिय एक्कजेोयणंककमे ॥ ६
१३०३२९२५०१५ | | णिवासखेत्तं सम्मत्तं ।
अस्खलित ज्ञान-दर्शनसे सहित श्रीवासुपूज्य जिनेन्द्रको नमस्कार करके ज्योतिर्लोककी प्रज्ञप्तिको कहते हैं ॥ १ ॥
'ज्योतिषी देवोंका निवासक्षेत्र, भेद, संख्या, 'विन्यास, परिमाण, 'चर ज्योतिषियोंका संचार, "अचर ज्योतिषियोंका स्वरूप, 'आयु, 'आहार, "उच्छ्वास, "उत्सेध, "अवधिज्ञान, शक्ति, " एक समय में जीवों की उत्पत्ति व मरण, "आयुके बन्धक भाव, "सम्यग्दर्शनग्रहण के विविध कारण और " गुणस्थानादि वर्णन, इस प्रकार ये ज्योतिर्लोक के कथनमें सत्तरह अधिकार हैं ॥ २-४ ॥
राजु वर्गको एक सौ दश योजनोंसे गुणा करनेपर जो लब्ध आवे उनमेंसे अगम्य देशको छोड़कर शेषमें ज्योतिषि देव रहते हैं ॥ ५ ॥ रा' × ११० ।
वह अगम्य क्षेत्र भी समवृत्त जम्बूद्वीपके बहुमध्य भागमें स्थित है । उसका प्रमाण अंकक्रमसे पांच, एक, शून्य, पांच, दो, नौ, दो, तीन, शून्य, तीन और एक, इन अंकों से जो संख्या निर्मित हो उतने योजनमात्र है ॥ ६ ॥ १३०३२९२५०१५ यो. ।
निवासक्षेत्रका कथन समाप्त हुआ ।
१ अतः प्राक् द ब प्रत्योः एतत्पचमुपलभ्यते - मुनिकुमुदाकरंगढनु राग दिनादमरल्विनं कृशाननविरतातिसद्रितम मसुदूडिये पापिनं जग । ज्जननयनोत्पलं बिरिविनं सुतपोधरणीधराप्रदिं जनयिसिदं सुकांतिकुलचंद्रमुनींद्रशशकिमंडलं ॥ २ द व अवर. ३ द ब ँ । १०० ।
४द अग्गमदेसिं.
TP. 83
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