Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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तिलोयपण्णत्ती
[६.५- पणुवीस जोयणाणि रुंदपमाणं जहण्णभवणाणं | पत्तेकं बदलत्तं तिचउब्भागप्पमाणं च ॥ ९ महवा रुंदपमाणं पुह पुह कोसो जहण्णभवणाणं । तम्वेदीउच्छेहो कोदंडाणि पि पणुवीसं ॥ १० को १ । दं २५।
पाठान्तरम् । बहरूतिभागपमाणा कूडा भवणाण हॉति बहुमज्झे । वेदी चउवणतोरणदुवारपहुदीहिं रमणिजा ॥ ११ कूडाण उवरि भागे चेटू ते जिणवरिंदपासादा । कण्यमया रजदमया रयणमया विविहविण्णासा ॥ १२ भिंगार-कलस-दप्पण-धय-चामर-वियण-छत्त-सुपइट्ठा । इस अट्टत्तरसयवरमंगलजुत्ता य पत्तेक्कं ॥ १३ दुंदुहि-मयंग-मद्दल-जयघंटा-पडह-कसतालाणं । वीणा-सादीणं सद्देहिं णिच्चहलबोला ॥ १४ सीहासणादिसहिदा चामरकरणागजक्खमिहुणजुदा । तेसुं अकिट्टिमाओ जिणिंदपडिमाओ विजयते ॥ १५ कम्मक्खवणणिमित्तं णिभरभत्तीए विविहदब्वेहिं । सम्माइट्री देवा जिणिदपडिमाओ पूजंति ॥ १६
जधन्य भवनों से प्रत्येकके विस्तारका प्रमाण पच्चीस योजन और बाहल्य एक योजनके चार भागोमेंसे तीन भागमात्र है ॥ ९॥
अथवा जघन्य भवनोंके विस्तारका प्रमाण पृथक् पृथक् एक कोश और उनकी वेदीकी ऊंचाई पच्चीस धनुष है ॥ १० ॥ को. १ । दं. २५ ।
पाठान्तर । भवनोंके बहुमध्य भागमें वेदी, चार वन और तोरणद्वारादिकोंसे रमणीय ऐसे बाहल्यके तीसरे भागप्रमाण कूट होते हैं ॥ ११ ॥
इन कूटोंके उपरिम भागपर विविध प्रकारके विन्याससे संयुक्त सुवर्ण, चादी और रत्नमय जिनेन्द्रप्रसाद हैं ॥ १२ ॥
प्रत्येक जिनेन्द्रप्रासाद झारी, कलश, दर्पण, ध्वजा, चंबर, बीजना, छत्र और ठौना, इन एक सौ आठ आठ उत्तम मंगल द्रव्योंसे संयुक्त हैं ॥ १३ ॥
उपर्युक्त जिनेन्द्रप्रासाद दुन्दुभी, मृदंग, मर्दल, जयघंटा, भेरी, झांझ, बीणा और बांसुरी आदि वादित्रोंके शब्दोंसे हमेशा मुखरित रहते हैं ॥ १४ ॥
उन जिनेन्द्र भवनोंमें सिंहासनादि प्रातिहार्योंसे सहित और हाथमें चामरोंको लिये हुए नागयक्ष देवयुगलोंसे संयुक्त ऐसी अकृत्रिम जिनेन्द्रप्रतिमायें जयवन्स होती हैं ॥ १५ ॥
सम्यग्दृष्टि देव कर्मक्षयके निमित्त गाढ़ भक्तिसे विविध द्रव्योंके द्वारा उन जिनेन्द्रप्रतिमाओंकी पूजा करते हैं ॥ १६ ॥
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