Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
View full book text
________________
त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्य ग्रन्थोंसे तुलना
(vi)
त्रिलोकप्रज्ञप्ति में पूर्वंग व नियुतांग आदि अंगान्त स्थानों को उत्तरोत्तर ८४ से गुणित तथा पूर्व व नियुत आदि स्थानों को उत्तरोत्तर ८४ लाखसे गुणित बतलाया है । अन्तमें गा. ४-३०८ के द्वारा यह भी प्रगट किया है कि ३१ स्थानोंमें ८४ संख्याको रखकर परस्पर गुणा करनेपर ९० शून्याङ्क रूप ' अचलात्म ' प्रमाण उत्पन्न होता है। यहां चूंकि ३१ स्थानों में ८४ को रखकर परस्पर गुणा करनेकी प्रक्रिया बतलाई गई है । अतः निश्चित है कि ये पूर्वंग व पूर्व आदि ' अचलात्म' पर्यन्त स्थान ३१ होने चाहिये । परन्तु हैं वे २९ ही (देखिये परिशिष्ट पृ. ९९७)। इसी लिये ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें से किन्हीं दो स्थानों की सूचक गाथा किसी प्रतिलेखककी असावधानी से छूट अवश्य गयी है । ये छूटे हुए स्थान पूर्वांग व पूर्वके पश्चात् पवग पर्व होने चाहिये । ये दोनों स्थान इसी प्रकार आदिपुराण (३-२१९) में पाये भी जाते हैं। हरिवंशपुराण में भी इसी स्थलवर पाठ कुछ भ्रष्ट हो गया प्रतीत होता है । यथा
1
भवेद् वर्षसहस्रं तु शतं चापि दशाहतम् । दशवर्षसहस्राणि तदेव दशताडितम् ॥२३॥ ज्ञेयं वर्षसहस्रं तु ( ? ) तच्चापि दशगुणम् । पूर्वांगं तु तदभ्यस्तमशीत्या चतुरप्रया ॥२४॥ तत्तद्गुणं च पूर्वांगं पूर्वं भवति निश्चितम् । पूर्वगं तद्गुणं तच्च पूर्वसंज्ञं तु तद्गुणम् ||२५|| इ. पु. ७.
यहां श्लोक २४ में 'ज्ञेयं वर्षसहस्रं तु' के स्थान में 'शतवर्षसहस्रं तु' ऐसा कोई पद रहा होना चाहिये । चूंकि लोक २४-२५ में पूर्वांग व पूर्व ये दोनों स्थान पुनरुक्त हैं, अतः श्लोक २५ में उनके स्थान में पूर्वंग व पर्व पद ही रहे होंगे, ऐसा प्रतीत होता है । यहां गुणकारका भी कुछ स्पष्ट निर्देश नहीं किया गया ।
अनुयोगद्वार सूत्रमें इसी सूत्र ( ११४ ) की श्री मलधारीय हेमचन्द्रसूरि निर्मित वृत्तिमें पूर्वंग व पूर्व आदिक सभी स्थानों को उत्तरोत्तर चौरासी लाखसे गुणित बतलाया गया है । इस प्रकारके गुणनक्रमसे उत्पन्न हुई संख्याका वहां अङ्कक्रमसे इस प्रकार निर्देश भी किया गया है— ७५८२६३२५३०७३०१०२४११५७९७३५६९९७५६९६४०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६ आगे १४० शून्य । समस्त अंक १९४ होते हैं ।
अनुयोगद्वार सूत्रके एक दूसरे सूत्र ( १३७ ) में भी उपर्युक्त कालभेदों का उल्लेख किया गया है । वहाँ 'उच्छ्वास' के आगे ' निश्वास' पद अधिक है तथा अयुतके पश्चात् प्रयुतांग- प्रयुत और इनके पश्चात् नेयुतांग- नयुत पद पाये जाते हैं ।
११ वैदिकधर्माभिमत भूगोल
( विष्णुपुराण के आधारसे )
जिस प्रकार जैन प्रन्थों (तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार व बृहत्क्षेत्रसमास आदि )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org