Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना
६ त्रिलोकसार यह आचार्यप्रवर श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती द्वारा विरचित लोकानुयोगका एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है । इसका रचनाकाल शककी दशवीं शताब्दि है । इसमें बहुतसी प्राचीन गाथायें ग्रन्थ के अंग रूपमें सम्मिलित करली गई हैं। परन्तु उनके निर्माताओंका नामोल्लेख आदि कुछ भी नहीं पाया जाता है । इसमें लोकसामान्य, भावनलोक, व्यन्तरलोक, ज्योतिर्लोक, वैमानिकलोक और नर तिर्यग्लोक, ये छह. अधिकार हैं । इसकी समस्त गाथासंख्या १०१८ है । यद्यपि ग्रन्थकारने इसमें उपर्युक्त ६ अधिकारोंका निर्देश नहीं किया है तथापि प्रारम्भमें "भवण-वितर-जोइस-विमाण-णरतिरियलोयजिणभवणे । सव्वामरिंद-णरवइसंपूजिययवंदिर वंदे ॥२॥" इस मंगलगाथा द्वारा द्वितीयादि अधिकारों की सूचना कर दी है । इसी प्रकार इन भावनलोकादि अधिकारों के प्रारम्भमें प्रथम गाथाके द्वारा वहां वहांके जिनभवनोंको नमस्कार किया गया है ।
जिस प्रकार तिलोयपण्णत्तिमें तीनों लोकोंका विस्तृत वर्णन किया गया है उसी प्रकार इसमें भी प्रायः उन सभी विषयोंका विवेचन पाया जाता हैं । विशेषता यह कि जहां तिलोय. पण्णत्तिमें गणितसूत्रों द्वारा कई स्थानोंमें विस्तारादिके सिद्ध हो जानेपर भी उन्हीं स्थानोंमें पुनः पृथक् पृथक् सिद्धाकों द्वारा प्ररूपणा की है, वहां इस प्रन्यमें केवल करणसूत्रों द्वारा ही काम निकाला है। जैसे ४९ नरकप्रस्तारोका विस्तार ( देखिये ति. प. गा. २, १०५-१५६ और त्रि. सा. गा. १६९)।
. १ लोकसामान्य अधिकारमें पहले संख्याप्ररूपणामें संख्यात, असंख्यात व अनन्त संख्याओं तथा सर्वधारा आदि १४ धाराओंकी प्ररूपणा करके फिर पल्य, सागर व सूच्यंगुल आदि आठ प्रकारके उपमामानका स्वरूप बतलाया गया है। आगे चलकर अधोलोकस्थ रत्नप्रभादि सात पृथिवियोंमें स्थित नारकबिल, नारकियोंके उत्पादस्थान, विक्रिया, वेदना, आयु, उत्सेध, अवधिविषय और गति-आगतिकी प्ररूपणा है । यह नारकारूपणा तिलोयपण्णत्तिमें नारकलोक नामक द्वितीय अधिकारमें की गई है ।
यहां तिलोयपण्णत्तिसे निम्न कुछ विशेषतायें भी हैं
(१) तिलोयपण्णत्ति महाधिकार १, गा. २१५ से २३४ [ यहां पाठ कुछ स्खलित हो गया प्रतीत होता है ] तक सामान्यलोक, आगे गा. २४९ तक अधोलोक और इसके
। इनकी प्ररूपणा ति. प. में. पृ. १७८-१८२ पर एक गधभाग द्वारा की गई है । २ ति. पं. १,९३ - १६२,
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