Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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त्रिलोकप्रज्ञप्तिको प्रस्तावना आश्चर्य नहीं। इसके कर्ताके सामने कोई दूसरा प्राचीन लोकविभाग ग्रन्थ रहा है, जिसकी भाषाका परिवर्तन करके उन्होंने यह रचना प्रस्तुत की है। यह बात ग्रन्थकारने स्वयं कही है, जो विचारणीय है। इसमें कुछ मतभेदोंका भी जो उल्लेख किया है वह प्रायः तिलोयपण्णत्तिसे मिलता है । जैसे- १२ और १६ कल्प', सर्वार्थसिद्धिमें जघन्य आयु' इत्यादि ।
५ हरिवंशपुराण यह पुन्नाटसंघीय जिनसेन सूरि द्वारा विरचित प्रथमानुयोगका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसका रचनाकाल शक संवत् ७०५ (वि. सं. ८४० ) है । यह ग्रन्थ ६६ सोंमें विभक्त है। इसकी समस्त श्लोकसंख्या लगमग १०००० है । यह ग्रन्थ यद्यपि प्रथमानुयोगका है, फिर भी इसमें भूगोल, आयुर्वेद, ज्योतिष और संगीत आदि अन्य विषयोंकी भी यथास्थान प्ररूणा पायी जाती है । ग्रन्थका मनन करनेसे उसके रचयिताकी बहुश्रुतज्ञताका परिचय मिलता है ।
इसके चतुर्थ सर्गमें अधोलोक, पंचममें तियरलोक, छठेमें ऊर्बलोक और सातवें सर्गमें कालका वर्णन विस्तारसे किया गया है । यह वर्णन प्रायः तिलोयपण्णत्ति जैसा ही है । यद्यपि इन दोनों ग्रन्थों में कहीं कहीं कुछ भिन्न मत भी देखने में आते हैं, परन्तु दोनोंकी वर्णनशैली बहुत कुछ मिलती-जुलती है । उदाहरणार्थ -- जिस प्रकार तिलोयपण्णत्ति के प्रथम और द्वितीय महाधिकारोंमें अधोलोकका विस्तार, वातवलय, नारकबिलों के नाम, उनकी संख्या व विस्तार, नारकियोंकी आयु, उत्सेध, अवधिविषय और जन्मभूमियों आदिका विस्तृत वर्णन पाया जाता है, उसी प्रकार उन सबका वर्णन हरिवंशपुराणके चतुर्थ सर्गमें भी किया गया है । विशेषतायें यहां ये है
(१) तिलोयपण्णत्तिकारने विस्तारादिकी प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः गणित-सूत्रोंका उल्लेख किया है और फिर तदनुसार सभी जगह कहीं सिद्धांकों द्वारा और कहींपर सिद्धांकों को न देकर भी वर्णन किया है। परन्तु हरिवंशपुराणकारने गणित-सूत्रों का उल्लेख कहीं भी न करके केवल सिद्धांकों द्वारा ही उनका वर्णन किया है । उदाहरणार्थ- अधोलोकका आठ स्थानों में
१ जे सोलस कप्पाई केई इच्छंति ताण उवएसे । तस्सिं तस्सिं वोच्छं परिमाणाणि विमाणाणं ॥ ति. प. ८-१७८.
ये च षोडश कल्पाँश्च केचिदिच्छन्ति तन्मते । तस्मिस्तस्मिन् विमानानां परिमाणं वदाम्यहम् ॥ लो. वि. १०-३६. २ तेत्तीसउवहि उवमा पल्लासंखेज्जभागपरिहीणा । सव्वट्ठसिद्धिणामे मण्णते केइ अवराऊ । ति. प. ८-५११. सर्वार्थायुर्यदुत्कृष्टं तदेवास्मिंस्ततः पुनः । पल्यासंख्येयभागोनमिच्छन्त्येकेऽल्पजीवितम् ॥ लो. वि. १०-२३५.
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