Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्य ग्रन्थोंसे तुलना
(४७) (२) लवणसमुद्र विभागमें लवणसमुद्रका विस्तार, उसके मध्यमें स्थित पाताल, पर्वत, जलकी वृद्धि-हानि, देवनगरियां और अन्तरद्वीपज मनुष्योंकी प्ररूपणा की गई है।
(३) मानुषक्षेत्र विभागमें धातकीखण्ड और पुष्कर द्वीपमें स्थित इष्वाकार पर्वत, क्षेत्र, कुलपर्वत, मेरु पर्वत, वनचतुष्टय, कालोदक समुद्र, अन्तरद्वीपज मनुष्य, मानुषोत्तर पर्वत, और उसके ऊपर स्थित कूट, इत्यादिकोंका वर्णन है ।
(४) द्वीप-समुद्रविभागमें आदिम एवं अन्तिम १६-१६ द्वीप-समुद्रोंका नामोल्लेख करके राजुके अर्धच्छेदोंका पतन और द्वीप-समुद्रोंके अधिपति व्यन्तर देवोंके नामोंका निर्देश किया है। पश्चात् नन्दीश्वर द्वीपके विस्तार व परिधिका प्रमाण, उसमें स्थित अंजनशैल, वापिकायें दधिमुख, रतिकरगिरि, और सौधर्मेन्द्रादिकके द्वारा किये जानेवाले पूजा-विधानका कथन किया गया है। आगे जाकर अरुणवरद्वीप व अरूणवर समुद्रका निर्देश करके आठ कृष्णराजियां कुण्डलद्वीप, कुण्डलगिरि व उसके ऊपर स्थित कूट, रुचकवर द्वीप, रुचकादि, उसके ऊपर स्थित कूट, दिक्कुमारिकाएं और उनका सेवाकार्य इत्यादिकी प्ररूपणा की गई है।
(५) कालविभागमें उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालोंके सुषम-सुषमादि विभाग, प्रथम तीन कालोंमें होनेवाले मनुष्यों की आयु व उत्सेधादिका प्रमाण, दश प्रकारके कल्पवृक्ष व उनका दानकार्य, क्षेत्रानुसार कालविभाग, कुलकरोंकी उत्पत्ति और उनका शिक्षणकार्य, पूर्वाग व पूर्वादिकोंका प्रमाण, भोगभूमिका अन्त व कर्मभूमिका प्रवेश, तीर्थकरादिकोंकी उत्पत्ति, पांचवें व छठे काल की विशेषता, अवसर्पिणीका अन्त और उत्सर्पिणीका प्रवेश तथा कुलकरादिकोंकी उत्पत्ति आदिकी प्ररूपणा की गई है।
इस प्रकरणमें आदि व अन्तके कुछ अंशको छोड़कर प्रायः सर्वत्र ही आदिपुराणके श्लोकोंका ज्योंका त्यों या उनका पादपरिवर्तनके साथ उपयोग किया है। यहां प्रारम्भमें लगभग ४०-४५ श्लोकोंके पश्चात् 'उक्तं चार्षे' कह कर तृतीय कालमें पल्योपमका आठवां भाग शेष रहनेपर उत्पन्न होनेवाले प्रतिश्रुति आदि कुलकरोंका वर्णन करते हुए जो श्लोक दिये गये हैं वे आदिपुराणके तीसरे पर्वमें क्रमशः इस प्रकार उपलब्ध होते हैं-- ५५-५७, ६३-६४, ६९-७२, ७६-७७, ७९, ८१-८३ इत्यादि ।
यहां १४ कुलकरोंकी आयुका प्रमाण क्रमशः इस प्रकार बतलाया है-- पत्यका
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१ यथा- इमे भद्रमृगाः पूर्व संवसन्तेऽनुपद्रवाः। इदानीं तु विना हेतोः शृङ्गैरभिभवन्ति नः ॥ इस श्लोककी पूर्ति वहां क्रमशः आदिपुराणके ९५ वें श्लोकके चतुर्थ चरण, ९६ वेंके चतुर्थ चरण और ९७ वें श्लोकके पूर्वार्ध भागसे की गई है।
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