Book Title: Tiloy Pannati Part 2
Author(s): Vrushabhacharya, A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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त्रिलोकप्राप्तिको प्रस्तावना बाराधनामें गा. १७९-१८६ में कन्दर्प, किविषिक, आभियोग्य, आसुरी एवं सम्मोहा, इन पांच संक्लिष्ट भावनाओंके भेद और उनका स्वरूप बतला कर आगे १९५९-१९६१ गाथाओंके द्वारा उक्त भावनाओंका फल क्रमशः कन्दर्पिक, किल्लिषिक, आमियोग्य, असुरकाय
और सम्मोह, इन देवपर्यायोंकी प्राप्ति बतलाया गया है । यह विषय तिलोयपण्णत्ति गा. ३, २०१-२०६ में भी चर्चित है।
४ लोकविभाग तिलोयपण्णत्तिमें अनेकों वार ( १-२८१, ४-२४४८, ७-११५, ८.६३५ आदि) लोकविभाग ग्रन्थका उल्लेख पाया जाता है । परन्तु तिलोयपण्णत्तिकारके सामने जो लोकविभाग प्रन्थ रहा है वह कब और किसके द्वारा रचा गया है , इसका कुछ भी पता नहीं लगता। वर्तमानमें जो लोकविभाग प्रन्थ उपलब्ध है वह संस्कृत अनुष्टुप छन्दोंमें है। यह ग्रन्थ सिंहरिके द्वारा, सर्वनन्दि-मुनि-विरचित ग्रन्थकी भाषाका परिवर्तन कर लिखा गया है। यह ग्यारहवीं शताब्दिके पश्चात् रचा गया प्रतीत होता है। कारण यह है कि इसमें अनेक स्थानोंपर तिलोयपण्णत्ति, आदिपुराण ( आर्ष), जंबूदीवपण्णत्ति और त्रिलोकसार ग्रन्थोंका कहीं स्पष्टतया नामोल्लेखपूर्वक और कहीं 'उक्तं च ' के रूपमें निर्देश किया गया है । तिलोयपण्णत्ति की तो इसमें लगमग ९० गाथायें पायी जाती हैं। इसकी जो प्रति हमारे सामने है वह अशुद्धिबहुल और त्रुटित पाठोंवाली है।
इसमें निम्न ग्यारह प्रकरण हैं-१ जंबूद्वीपविभाग २ लवणसमुद्रविभाग ३ मानुषक्षेत्र. विभाग ४ द्वीप-समुद्रविभाग ५ कालविभाग ६ ज्योतिर्लोकविभाग ७ भवनवासिलोकविभाग ८ अधोलोकविभाग ९ व्यन्तरलोकविभाग १. स्वर्गविभाग और ११ मोक्षविभाग । समस्त श्लोकोंका प्रमाण लगभग १९००-२००० है।
(१)जंबूद्वीपविभागमें प्रथमतः जंबूद्वीपका विस्तार बतलाकर विजयाई, छह कुलाचल, उनके ऊपर स्थित कूटादिक, विदेह विजय, मेरु, भद्रशालादि वनचतुष्टय, जिनभवनरचना और दूसरा जंबूद्वीप, इन सबका कथन किया गया है।
, भव्येभ्यः सुस्मानुषोरुसदसि श्रीवर्धमानार्हता यत्रोक्तं जगतो विधानमखिलं ज्ञानं सुधर्मादिभिः ।
आचार्यावलिकागतं विरचितं तत् सिंहसूरर्षिणा भाषायाः परिवर्तनेन निपुणैः सम्मान्यता साधुभिः ।। वैश्वे स्थिते रविसुते बृषभे च जीवे राजोतरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे । प्रामे च पाटीलकनामनि पाणराष्ट्र शास्त्रं पुरा लिखितवान् मुनिसर्वनन्दी ।
(अन्तिम प्रशस्ति)
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