Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वातिक
वैशेषिक अनिष्ट प्रसंग को उठा रहे हैं कि काल द्रव्य (पक्ष) क्रियावान् हो जाना चाहिये (साध्य) अव्यापक द्रव्य होने से ( हेतु ) पुद्गल के समान (दृष्टांत) । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह हम तुम दोनों को अनिष्ट हो रहे काल के क्रिया-सहित पन का प्रसंग उठाना अनुचित है क्योंकि सदा लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर स्थित हो रहेपन करके पृथक-पृथक कालाणु द्रव्यों की अच्छी सिद्धि कर दी गयी है । वे कालाणुयें आकाश के प्रदेश पर अपने प्रतिनियर्स स्वभावों करके स्थित हो रहीं परोक्षक विद्वानों करके अवश्य स्वीकार करनी पड़ती हैं, अन्यथा यानी-प्रत्येक प्रदेश पर प्रत्येक कालाणु के नहीं मानने पर तो प्रतिनियत स्वभावों को लिये हुये व्यवहार काल के भेदों की स्थिति नही बन पाती है । यों तो कभी कभी उन व्यवहार काल के विशेषों की परावृत्ति हो जाने का प्रसंग हो जायगा किन्तु परावृत्ति ( रद्दोबदल ) होती नहीं है, अतः कालाणुओंको क्रिया-रहित और प्रत्येक प्रदेश पर नियत मान लेना उचित है।
___ अणुपरिमाणानि च तानि कालद्रव्याणि स्कंधाकारत्वेन कार्यानुमितिप्रतीयमानस्य कार्यस्य प्रत्याकाशप्रदेशं सकृद्र्व्यवहारकालभेदलक्षणस्याणुनापि कालद्रव्येण कतुं शक्यत्वात् । एतेन सर्वगतः काल इति पक्षस्यागमवाधोपदर्शिता । कथं ? "लोयायासपएसे एक्के क्के जे ठिया हु एक्केका । रयणाणं रासी इव ते कालाय मुणेयव्या" इत्यागमस्यावधितस्य सिद्धेः। अत एव द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्वादिति हेतुः कालात्ययापदिष्टः कालोऽसर्वगत एव व्यवतिष्ठते । तथा चात्मनः परममहत्वे साध्येऽस्यैव हेतोः कालेन व्यभिचारः सिद्ध्यतीति नातस्तत्मिद्धिर्येन क्रियावानात्मा क्रियाहेतुगुणत्वाल्लोष्ठव दित्यनुमानमनवद्यं न भवेत् । पक्षस्यानुमानवाधनानवताराद्धेतोश्च कालात्ययापदिष्टत्वाभावादिति सूक्तमाकाशान्तानां निष्क्रियत्वं तद्वचनेन सामर्थ्याज्जीवपुद्गला । सक्रियत्वप्रतिपादनं च कालस्य वक्ष्यमाणस्य निष्क्रियत्वात् ।।
वे काल द्रव्य अणु परिमाण वाले हैं क्योंकि स्कन्ध आकारपने करके कार्य अनुमिति द्वारा प्रतीत किया जा रहा जो प्रत्येक आकाश के प्रदेश पर युगपत् व्यवहार काल के अनेक भेद-स्वरूप कार्य है वह अणु-स्वरूप भी काल द्रव्य करके किया जा सकता है। इस कार्यके लिये व्यापक काल या लम्बे चौड़े काल द्रव्य की आवश्यकता नहीं है ।
इस उक्त कथन करके वैशेषिकों के काल सर्वगत है, इस पक्ष की प्रागमप्रमाणसे आ रही वाधा दिखलाई जा चुकी है। अनुमान प्रमाण से तो वैशेषिकों के पक्ष की बाधा हो ही चुकी।
___यागम प्रमाण से वाधा किस प्रकार आती है ? उसको यों सुनो। प्राचीन किस। सिद्धान्त ग्रन्थ की गाथा है श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त-चक्रवर्ती ने भी द्रव्य-संग्रह ग्रन्थ में उल्लेख किया है "लोकाकाश के एक एक प्रदेश पर एक एक होकर जो रत्नों की राशि के समान स्थित हो रहीं हैं वे कालाणुयें समझ लेनी चाहिये । इस अवाधित हो रहे आगम की सिद्धि है।