Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक
ही कहें जा रहे हैं कि इस उक्त कथन करके यदि पर शब्दको प्रकृष्ट अर्थ का वाचक भी मान लिया जाय तो भी उस पर शब्द की सार्थकता का निराकरण हो जाता है क्योंकि उस प्रकृष्ट से निराला निवर्तनीय अपकृष्ट का तो यहाँ कोई निरूपण नहीं किया गया है अतः प्रकृष्ट अर्थ की अपेक्षा भी पर शब्द सार्थक नहीं होसका । यदि पर शब्द को इष्ट अर्थ का वाची माना जाय तो भी वह वैसा का वैसा ही निराकृत होजाता है क्योंकि यहाँ कोई निवर्तनीय अनिष्ट नहीं है । यदि यहाँ कोई अनिष्ट होता तो उस अनिष्ट की निवृत्ति करने के लिये इष्टवाची पर शब्द का कथन सार्थक होता भले ही "परं धाम गतः" के पर का अर्थ इष्ट कर लिया जाय किन्तु फल कुछ नहीं निकला। इनके अतिरिक्त अब कोई पर शब्द की सार्थ - कता को पुष्ट करने वाला अन्य प्रकार शेष नहीं रहा है जिससे कि यह पर शब्द का प्रयोग करना सफल होजाता । यहाँ तक कश्चित् पण्डित सूत्रकार के पर शब्द की व्यर्थता को पुष्ट कर चुका है।
सोऽप्ययुक्तवादी, परवचनस्यान्यार्थत्वात् । परं जीवाधिकरणादजीवाधिकरणमित्यर्थः तेनाद्यावधिकरणादिदमपरं जीवाधिकरणमिति निवर्तितं स्यात् । जीवाजीवप्रकरणात्तत्सिद्धिरिति चेत्, ततोऽन्यस्याजीवस्यासंभवात् । इष्टवाचित्वाद्वा परशब्दस्य नानर्थक्यमनिष्टस्य निर्वर्तनादनिष्टजीवाधिकरणत्वस्य निर्वत्यत्वात् । एतदेवाह ।
अब ग्रन्थकार समाधान करते हैं कि वह बड़ी देर से पर शब्द को अनर्थक कह रहा कश्चित् पण्डित भी युक्तिपूर्वक कहने की टेव रखने वाला नहीं है क्योंकि पर शब्द का कथन करना यहां “अन्य” इस अर्थ के लिये है जिसका तात्पर्य अर्थ यह निकलता है कि जीवाधिकरण से अजीवाधिकरण आस्रव निराला है तिस अन्य अर्थ को कहने वाले पर शब्द करके आदि के जीवाधिकरण से यह अजीवाधिकरण भिन्न है । इस प्रकार यहां "पर" शब्द का प्रयोग कर देने से जीवाधिकरण आस्रव की निवृत्ति कर दी जावेगी, उन संरम्भ आदि से ये निर्वर्तना आदि न्यारे हैं यह भी पर शब्द करके समझ लिया जाय । यदि यहां कोई यों कहें कि “अधिकरणं जीवाजीवाः” इस सूत्र अनुसार जीव और अजीव का प्रकरण होने से ही उस जीवाधिकरण से अजीवाधिकरण के भिन्न पने की सिद्धि होजावेगी यों कहने पर तो ग्रन्थकार कहते हैं कि उस प्रकरण से तो अजीव को अन्य हो जाने का असम्भव है जीवमें भी निर्वर्तना आदिक घटित होजाते हैं । इस समाधान में कुछ अस्वरस होने से वा शब्द करके दूसरा समाधान करते हैं कि अथवा इष्ट का वाचक होने से पर शब्द का व्यर्थपना नहीं है पहिले जो कश्चित् ने इस समाधान पर आपेक्ष किया था कि यहां कोई निवर्तनीय नहीं है उस पर हमारा यह कहना है कि इष्ट वाची पर शब्द करके अनिष्ट की निवृत्ति होरही है। निर्वर्तना आदि में अनिष्ट होरहे जीवाधिकरणपन की पर करके निवृत्ति कर दी जाती है। इसी बात को ग्रन्थकार अग्रिम वार्त्तिक द्वारा यों स्पष्ट कर कहते हैं। एक बात यहां यह भी समझ लेनी चाहिये कि पूर्व और पर के अन्तराल में पाया जारहा मध्यम पदार्थ भी वस्तुभूत है लोक या पूर्ण आकाश के मध्यप्रदेश आठ यथार्थ हैं। भूत और भविष्य काल के बीच में एक समय वर्तमान काल भी सत्यार्थ है; कोरा आपेक्षिक नहीं है । जगत् के छोटे से छोटे कार्य की पूर्ण उत्पत्ति होने में एक समय अवश्य लगजाता है अतः तीव्र गति से चौदह राजू तक या मन्द गति से निकटवर्ती दूसरे प्रदेश तक परमाणु की जाने की क्रिया से परिच्छिन्न हुआ व्यवहार काल का से छोटा अखण्ड अंश एक समय वर्तमान काल वास्तविक है। कल्पित नहीं ।
सव