Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सप्तमोऽध्याय
६४१. कंदर्पाद्यास्तृतीयस्य शीलस्येहोपसूत्रिताः ।
तेषामनर्थदण्डेभ्यो विरतेर्बाधकत्वतः ॥१॥ उपसंहार कर इस सूत्र में सूचित कर दिये कंदर्प आदिक पांच (पक्ष ) तीसरे अनर्थदण्डत्याग शील के अतीचार हैं (साध्यदल) क्योंकि उन कंदर्प आदि को अनर्थदण्डों से विरति हो जाने का बाधकपना है । ( हेतु ) यों अनुमान द्वारा व्रत को एकदेश रूप से दूषित करने वाले परिणामों को अतीचारपना व्यवस्थित कर दिया है।
अथ चतुर्थस्य शीलस्य केतिक्रमा इत्याह;
अब चौथे सामायिक शील के पांच अतीचार कौन से हैं ? ऐसी विनीत शिष्य की जिज्ञासा प्रवर्तने पर श्री उमास्वामी भगवान् इस अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं ।
योगदुःप्रणिधानानादरस्मत्यनुपस्थानानि॥३३॥
काय, वचन, और मन का अवलम्ब लेकर जो आत्म प्रदेश परिस्पन्द होता है वह योग है। योग की दुष्टप्रवृत्तियाँ करना अथवा सामायिक के अवसर पर योगों को दूसरे अनुपयोगी प्रकारों से एकाग्र करते रहना योगदुःप्रणिधान हैं। उन में शरीर के अवयव हाथ, पांव, सिर, आदि को निश्चल नहीं धारे रहना या शान्तिपरिणतियों के उपयोगी हो रहे नासाग्रनयन और खडी अवस्था में पाँवों की दोनों एडियों को मिलाकर दोनों अंगूठों में चार अंगुल का अन्तर रखना, तथा पाठ पढ़ते हुये सिर हिलाना आदि ध्यानानुकूल आकृतियों का स्थिर नहीं रख सकना कायदुःप्रणिधान है । बीच-बीच में गाने लग जाना, संस्कार रहित होकर अर्थ को नहीं समझाने वाले वर्ण या पद का प्रयोग कर देना, अतिशीघ्र, अतिबिलम्ब, अशुद्ध, धृष्ट, स्खलित, अव्यक्त, पीडित, दीन, चपल, नासिकास्वरमिलित, शब्दों का प्रयोग करना वचनदुःप्रणिधान हैं । पुरुषार्थपूर्वक किये जाने योग्य विशुद्ध मानसिक विचारों के करने में उदासीनता धार कर क्रोधादि के अनुसार या अन्य सावध कार्यों में व्यासंग हो जाने से मन की अन्यप्रकारों करके प्रवृत्ति करना मनोदुःप्रणिधान है। सामायिक करने में उत्साह नहीं रखना प्रातः मध्याह्न, सायंकाल, नियत समयों में सामायिक नहीं करना अथवा जैसे-तैसे उद्वेगचित्त से सामायिक पूरा करना, अनादर है। करने के अनन्तर ही झट भोजन, व्यापार, क्रीडन, आदि में सोत्साह लग जाना, भी सामायिक का अनादर समझा जाता है । सामायिक करने में चित्त की एकाग्रता नहीं रखना स्मृत्यनुपस्थान है अथवा सामायिक मुझ को कर्तव्य है अथवा नहीं करूं, सामायिक मैंने किया अथवा नहीं किया, यों प्रबल प्रमादसे स्मरण नहीं रखना भी पांचवां अतीचार है। मंत्र या पदों का भूल जाना लोक का चिन्तन करते हुये उसकी ऊंचाई चौड़ाई आदि का भूल जाना भी अस्मरण कहा जा सकता है। मनोदुःप्रणिधान और स्मृत्यनुपस्थान में यही अन्तर है कि क्रोध आदि का आवेश हो जाने से सामायिक में देर तक चित्त को स्थिर नहीं रखना स्मृत्यनुपस्थान है और मानसिक चिन्ताओं का परिस्पन्द होने से एकाग्रता करके मन का अवधान नहीं करना मनोदुष्प्रणिधान है यों ये पांच सामायिक शील के अतीचार हैं।
योगशब्दो व्याख्यातार्थः, दुष्प्रणिधानमन्यथा वा दुःप्रणिधानं, अनादरोऽनुत्साहः अनैकाऽयं स्मृत्यनुपस्थानं । मनोदुःप्रणिधानं तदिति चेन्न, तव्रतादन्याचिंतनात् । कुतश्चतुर्थस्य शीलस्यातिक्रमा इत्याह
योग शब्द के अर्थ का व्याख्यान पहिले छठे अध्याय की आदि में “कायवाङ्मनःकर्म योगः"