Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक दान करने की भावना थी अब वही मैं नवधा भक्ति से दान कर रहा हूं दान का फल मुझ कर्ता को ही प्राप्त होगा, इसी प्रकार यह द्रव्य वही शुद्ध है जिसको कि घन्टों पहिले से शोधन, पाचन, आदि क्रियाओं से संस्कृत किया गया है, इत्यादिक अन्वित संबन्ध नहीं हो सकते हैं । दान का संरंभ करने वाला न्यारा है, फलभोक्ता भिन्न है, शुद्ध खाद्य, पेय, तब न्यारे थे अब न जाने नये उत्पन्न हुये कैसे हैं ? यों तत्त्वों को क्षणिक मानने पर कोई नियम, आखड़ी, व्रत, दान, नहीं पाले जा सकते हैं। अष्टसहस्री में इसका विशेष स्पष्टीकरण है।
नित्यत्वाज्ञत्वनिःक्रियत्वाच्च तदभावः । क्रिया गुणसमवायादुपपत्तिरिति चेन्न, तत्परिणामाभावात् । क्षेत्रस्य वा चेतनत्वात् । स्याद्वादिनस्तदुपपत्तिरनेकान्ताश्रयणात् । तथाहि -
___ दूसरे वैशेषिक या नैयायिकों के प्रति यह कहना कि उन्होंने है आत्मा को सर्वथा नित्य स्वीकार किया है “सदकारणवन्नित्यं” सत् होकर जो स्वकीय उत्पादक कारणों से रहित है वह नित्य है । वैशेषिकों ने आत्मा को मूलरूप से ज्ञानरहित भी इष्ट किया है। धन के योग से धनवान के समान सर्वथा भिन्न हो रहे ज्ञान के समवाय से आत्मा को ज्ञानवान माना गया है। मूल में आत्मा अज्ञ है तथा नैयायिकों ने आत्मा को सर्वव्यापक होने के कारण क्रिया शून्य अभीष्ट किया है। जो विचार सर्वत्र यहाँ वहाँ ठसाठस भरा हुआ है वह एक स्थान से दूसरे स्थान को कथमपि नहीं जा सकता है “सर्वमूर्तिमद्दव्यसंयोगित्वं विभुत्वं' यह वैशेषिकों के यहाँ विभुत्व का पारिभाषिक लक्षण है। यों जिस दर्शन में आत्मा का नित्यपन, अज्ञपन, क्रियारहितपन, इष्ट किये गये हैं उस दर्शन में नित्य, अज्ञ और निष्क्रिय होने के कारण उन विधि आदि के स्वरूप का अभाव है जो नित्य है वह पहिले यदि अदाता था तो सर्वदा अदाता आत्मा ही बना रहेगा तथा जो दाता है तो सदा दाता ही रहेगा। पात्र का गोचरी, भ्रामरी, गर्तपूरण, अक्षम्रक्षण व्रतियों अनुसार दाता के घर पर आना, और दाता का प्रतिग्रह आदि करना ये सब बातें सर्वथा नित्य आत्मा में नहीं सुघटित होती हैं। जो ज्ञान गुण से सर्वथा भिन्न है वह अज्ञ आत्मा विचारा घट, पट आदि के समान क्या विधि, श्रद्धा, आदि को करेगा ? कथमपि नहीं। इसी प्रकार निष्क्रिय हो रहे व्यापक आत्मा में आहार, विहार, उच्चासन, अर्चन, भक्ति, आदि कुछ भी धार्मिक कृत्य नहीं बनते हैं। अतः क्षणिकवादी बौट के समान आत्मा को नित्य मान रहे नैर
नैयायिकों के यहां भी विधि, श्रद्धा, अहिंसा, आदि कोई भी व्रत या शील नहीं सिद्ध हो सकते हैं। यदि यहां वैशेषिक . यों कहे कि "अयुतसिद्धानामाधार्याधारभूतानामिहेदंप्रत्ययहेतुः संबंधः समवायः” यों सर्वथा भिन्न
भी हो रहे क्रिया और गुणों का एकपन के समान समवाय संबन्ध हो जाने से आत्मा के विधि, श्रद्धा, अहिंसाव्रत, दिग्विरतिशील, आदि अनुष्ठान बन जायेंगे। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि सर्वथा भिन्न हो रहे जान. दा. तधि, प्रतिग्रह. आदिक उस आत्मा के परिणाम नहीं कहे सकते हैं। सह्याचल का परिणाम विन्ध्य पर्वत नहीं हो सकता है। बात यह है कि देवदत्त को वस्त्र का योग हो जाने से वस्त्रवान् कह सकते हो किन्तु आत्मा का स्वभावपरिणाम वस्त्र नहीं है तिसी प्रकार आत्मा को क्रिया गुणों के समवाय से औपाधिक क्रियावान , गुणवान् , कहा जा सकता है किन्तु आत्मा की क्रिया या गुणों के साथ एकरसपरिणति नहीं होने के कारण इन प्रस्तावप्राप्त दान, ग्रहण, अहिंसा, मैत्री, आदि स्वरूप परिणतियां नहीं हो सकती हैं। अथवा सांख्यों के प्रति हमें यों कहना है कि उनके यहां प्राकृतिक क्षेत्र को अचेतन स्वीकार किया गया है "प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात्पंचभ्यः पंचभूतानि" सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुणमय प्रकृति से महत्तत्त्व प्रकट होता है उस बुद्धि या महान् से अहंकार होता है अहंकार से पांच कर्मेन्द्रिय और पाप ज्ञानेन्द्रिय एक