Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक
स्याददानं, स्यादुभयं स्यादवक्तव्यं च स्याद्दानं वाऽवक्तव्यं चेति, स्याद्वादिनयप्रमाणमयज्योतिःप्रतानो अपसारितसकलकुनय तिमिरपटलः सम्यगनेकान्तवादिदिनकर एवं विभागेन विभावयितुं प्रभवति न पुनरितरो जनः कूपमण्डूकवत्पारावारवारिविजृ भितमिति प्रायेणोक्तं पुरस्तात्प्रतिपत्तव्यं ॥
जिस वस्तु से दाता 'और पात्र का अंतरंग विशुद्ध हो जाय ऐसी कोई भी खाद्य, ज्ञान, पुस्तक, पेय वस्तु होय वह वस्तु अपात्र के लिये भी दे दी जाय तो परिपाक में नियम से सफल ही होगी। हाँ जो संक्लेशों द्वारा दाता या पात्र की दुर्गति कर देने वाली वस्तु है वह पात्रों के लिये अत्यधिक भी दे दी जाय तो भी कदाचित् सफल नहीं बन सकती है। क्योंकि अतिप्रसंग दोष लग जायेगा, यानी क्रोधी राजा, या डाकू, वेश्या, अफीमची, मद्यपायी, आदि को दिया गया अथवा दुष्ट लोभी दाता कर के दिया गया पदार्थ भी सफल हो जाना चाहिये, जो कि किसी को इष्ट नहीं है । तथा पात्रों के लिये और अपात्रों के लिये कोई भी पदार्थ दिया गया होय अथवा नहीं भी दिया गया होय विशुद्ध भावनाओं अनुसार परिपाक से शुभ ही फल को उत्पन्न कराता है कारण कि संक्लेशांगों करके नहीं प्रदान करना ही जैन सिद्धान्त में श्रेयस्कर यानी पुण्यवर्द्धक या परंपरया मुक्ति संपादक अभीष्ट किया है। आत्मा की यावत् परिणतियों में विशुद्धि और संक्लेश अनुसार शुभ अशुभ व्यवस्थायें नियमित की गई हैं तिसकारण उक्त छंद: में कहा गया स्याद्वाद सिद्धान्त यों पुष्ट हो जाता है कि पात्र के लिये अथवा अपात्र के लिये अर्पित किया गया कथंचित् सफल हो रहा दान है ( प्रथम भंग ) । और पात्र, अथवा अपात्र के लिये संक्लेश पूर्वक दिया गया विफल हो रहा कथंचित् अदान है ( द्वितीय भंग ) । एवं क्वचित् दिया गया दान क्रम से अर्पणा करने पर दान, अदान, उभय स्वरूप है विशुद्धि और संक्लेश का मिश्रण हो जाने पर उभय धर्म सध जाता है ( तृतीय भंग ) तथा दानपन, अदानपन, इन दोनों धर्मों को युगपत् कहने की विवक्षा करने पर " स्यात् अवक्तव्य" धर्म सधता है। विरोधी सारिखे प्रतिभास रहे दो धर्मों को स्वाभाविक शब्दशक्ति अनुसार कोई भी एक शब्द युगपत् कह नहीं सकता है संकेत करने का साहस करना भी व्यर्थ पड़ता है ( चतुर्थ भंग ) विशुद्धि अंश का आश्रय करने पर और एक साथ दोनों विशुद्धि, संक्लेशों की अर्पणा करने पर " स्यात् दानं अवक्तव्यं च" यह पांचवां भंग घटित हो जाता है (पाँचवां भंग) तथैव व्यस्तरूप से संक्लेश और समस्तरूप से विशुद्धि संक्लेशों का आश्रय करने पर "अदानं च अवक्तव्यं "भंग जाता है ( षष्ठ भंग ) । न्यारे न्यारे क्रम से अर्पित किये गये विशुद्धि संक्लेशों और समस्तरूप सह 'अर्पित किये गये विशुद्धि संक्लेशों का आश्रय कर सातवां भंग व्यवस्थित है (सप्तम भंग) । इस प्रकार यह समीचीन, अनेकान्तवादी, विद्वान् सूर्य के समान हो रहा ही अनेक सप्तभंगियों की विभाग करके विचारणा करने के लिये समर्थ हो जाता है। जिस अनेकान्तवादी सूर्योपम पण्डित का स्याद्वाद से परिपूर्ण हो रहे नय और प्रमाणों की प्रचुरता को लिये हुये प्रकाश मण्डल चारों ओर फैल रहा है और उस अनेकान्त वादी सूर्य ने संपूर्ण कुनयों स्वरूप अंधकार पटल को नष्ट कर दिया है । किन्तु फिर दूसरे कूपमण्डूक के समान बौद्ध, वैशेषिक, नैयायिक आदिक जन तो सिद्धान्त स्वरूप गम्भीर, विशाल, समुद्र के जल की विभणाओं पर प्रभुता प्राप्त करने के लिये योग्य नहीं हैं इस बात को हम पूर्व प्रकरणों में बहुत स्थलों पर कह चुके हैं वहां से व्युत्पत्तिलाभ कर अनेकान्तसिद्धान्त की प्रतिपत्ति कर लेनी चाहिये । भावार्थ - यहाँ दान के प्रकरण में आचार्यों ने स्याद्वाद सिद्धान्त की योजना करते हुये दानपन, आदानपन, इन दो मूल भंगों की अपेक्षा सप्तभंगी को लगाया है। अदान में पड़े हुये नञ का अर्थ कुत्सित भी हो जाता है । यों कुदान से भी कुभोग के लौकिक सुखों की प्राप्ति हो जाती है तब तो कुदान करना भी