Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सप्तमोऽध्याय
६५७ मन तथा रूपतन्मात्रा, रसतन्मात्रा, स्पर्शतन्मात्रा, शब्दतन्मात्रा यों ये सोलह विवर्त आविर्भूत होते हैं। पुनः पांच तन्मात्राओं से पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश ये पांच भूत अभिव्यक्त हो जाते हैं । यों एक प्रकृति और तेईस विकृतियां इस प्रकार चौबीस तत्त्वों को क्षेत्र कहते हैं। क्षेत्र की चेतना करने वाला पुरुष पच्चीसवां तत्त्व है यों पच्चीस तत्त्वों को इष्ट कर रहे सांख्यों के प्रति आचार्य कहते हैं कि आपने प्रकृति को ही कर्ता अभीष्ट किया है प्रकृति के ही व्रत, आखड़ी, उपवास, दान, श्रद्धा, अहिंसा, सामायिक, आदि विकार माने हैं किन्तु जब चौबीसों प्रकार का क्षेत्र अचेतन है ऐसी दशा में घट, पट आदि के समान इस अचेतन क्षेत्र के विधि आदिक विवर्त कथमपि नहीं बन सकते हैं। प्रतिग्रह, व्रत, आदिक तो चेतन आत्मा के परिणाम हैं जो कि अचेतन के असंभव हैं। यदि क्षेत्र के विधि आदिक परिणतियां मानी जायेंगी तो वह अचेतन नहीं हो सकता है । नैयायिकों के समान सांख्यों ने भी आत्मा को नित्य, ज्ञानरहित, क्रियाशून्य, शुद्ध, स्वीकार किया है इस कारण आत्मा के भी विधि आदि के होने की उपपत्ति नहीं है । हाँ स्याद्वादियों के यहां तो उन विधि, दान, आदि का होना सिद्ध हो जाता है क्योंकि जैनों के यहां अनेकान्त पक्ष का आश्रय किया जा रहा है । आत्मा नित्य अनित्य आत्मक हो रहा परिणामी है कतिपय पूर्व परिणतियों को छोड़ता संता उत्तर विवों को आत्मसात् कर ध्रुव बना रहता है अतः उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, स्वरूप आत्मा के सर्व पुण्य पाप क्रियायें या शुद्ध परिणतियें बन जाती हैं इसी स्याद्वाद सिद्धान्त को ग्रन्थकार शिखरिणी छन्द में वार्तिक द्वारा स्पष्टरूप से कह कर दिखलाते हैं।
अपात्रेभ्यो दत्तं भवति सफलं किंचिदपरं। न पात्रेभ्यो वित्तं प्रचुरमुदितं जातुचिदिह । अदत्त पात्रेभ्यो जनयति शुभं भूरि गहनं
जनोऽयं स्याद्वादं कथमिव निरुक्तं प्रभवति ॥१॥ यहाँ लौकिक या शास्त्रीय व्यवस्थाओं में कोई कोई पदार्थ यदि अपात्रों के लिये भी दे दिया गया होता है तो वह सफल यानी दाता या पात्र के लिये श्रेष्ठ फल का देने वाला है तथा कोई दूसरा पदार्थ या धन यदि अत्यधिक भी पात्रों के लिये दिया जाय तो भी वह कदाचिदपि सफल नहीं हुआ कहा गया है तथा पात्रों के लिये नहीं दिया गया या दिया गया भी दान पश्चात् आपत्तिकाल में शुभ और बहुत तथा दुरधिगम्य फल को उत्पन्न करता है ऐसी अनेकान्तपूर्ण दशा में स्याद्वाद शब्द की निरुक्ति से लब्ध हुये कथंचित् पक्ष परिग्रह अर्थ की यह विचारशील मनुष्य भला किसी भी प्रकार आद्योत्पत्ति कर ही लेता है । अर्थात् अनेक स्थलों पर पात्र को देना व्यर्थ कहा गया है किन्तु स्याद्वाद मत अनुसार विशुद्ध परिणामों से अपात्र को भी दिया गया दान सफल है और संक्लेश परिणामों अनुसार पात्र के लिये भी अर्पित किया गया दान निष्फल है । इसी प्रकार कदाचित् रोग आदि अवस्थाओं में पात्रों के लिये नहीं भी देना पुण्य को उपजाता है, जब कि पात्र के लिये अशुद्ध पदार्थ का दान या क्लेशवर्द्धक खाद्य, पेय, का दान पाप को उपजाता है। स्याद्वाद का सर्वत्र साम्राज्य छा रहा है स्याद्वाद के प्रभुत्व की लग रही है।
किंचिद्धि वस्तु विशुद्धान्तरमपात्रेभ्योऽपि दत्तं सफलमेव, संक्लेशदुर्गतं तु पात्रेभ्यो दत्तं न प्रचुरमपि सफलं कदाचिदुपपद्यतेऽतिप्रसंगात्, तथा दत्तमदत्तमपि पात्रेभ्योऽपात्रेभ्यश्च शुभमेव फलं जनयति संक्लेशांगाप्रदानस्यैव श्रेयस्करत्वात् । ततः पात्रायापात्राय वा स्याद्दानं सफलं,