Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सप्तमोsort
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फांसी के अपराधी को भी क्षमा कर दिया जाता है "अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं" जगत् में अहिंसा व्याप जाय इस का पूर्ण लक्ष्य है । इसी प्रकार चोरी, अब्रह्म और परिग्रह के लक्षणों में कतिपय सिद्धान्तरहस्य प्रकट किये गये हैं। व्रती के अगारी और अनगार भेदों को बखान कर दिग्विरति आदि का आत्मीय विशुद्धि पर अवलंबित रहना पुष्ट किया है । व्रतशीलों के अन्त में सल्लेखना का व्याख्यान कर प्रथम आह्निक को समाप्त कर दिया है। इसके अनन्तर सम्यग्दृष्टि के अतीचारों की व्याख्याकर आठ अंगके विपरीत दोषों को पांच अतीचारों में ही गतार्थ कर अनुमान प्रमाण द्वारा शंकादि अतीचारों को साध दिया है। आगे व्रतों और शीलों में पांच पांच अतीचारों के कहने की प्रतिज्ञा कर पांच व्रत और सात शील तथा सल्लेखना के अतीचारों को कह रहे सूत्रों का व्याख्यान किया है। सभी अतीचारों में व्रतों का एक देश भंग और एक देश रक्षण का लक्ष्य रक्खा गया है। व्रतों को सर्वथा नष्ट कर देने वाले या व्रतों के पोषक परिणामों को अतीचारपना नहीं है। दान के लक्षण सूत्र में पड़े हुये पदों की सार्थकता करते हुये विधि आदि की विशेषता से दान की हो रही विशेषता को युक्ति पूर्वक साथ दिया है पश्चात् अनेकान्त सिद्धान्त की लगे हाथ "जयदुंदुभि" बजाई गई है जिस प्रकार अनेकान्त की पुष्टि करने के लिये सूर्य का पश्चिम में भी उदय होना या जल की उष्णता एवं अभिकी शीतता आदि को पुष्ट कर दिया जाता है। उसी प्रकार दान में स्याद्वादसिद्धान्त को जोड़ते हुये क्वचित् अपात्रों के लिये भी दिये गये किसी ज्ञान, पुस्तक, भक्ष्य, पेय औषधि आदि के दान को सफल बताया है जब कि कदाचित् पात्रों के लिये भी दिया गया किसी अनुपयोगी या संक्लेशकारक पदार्थ का दान निष्फल समझा गया है। यों दान, अदान के दो मूलभंगों अनुसार सप्तभंगी प्रक्रिया का अयोजन कर अनेकान्तवादी विद्वान् को सूर्य का प्रतिरूपक बनाते हुये एकान्ती पण्डितों को कूपमण्डूक के समान जताकर अनेकान्त सिद्धान्तसागर की प्रतिपत्ति कर लेने के लिये तत्त्वान्वेषी जिज्ञासुओं को उत्साहित किया गया है। एक दन्तकथा वृद्ध विद्वानों से सुनी जा रही है कि समुद्र तट का निवासी एक हंस किसी समय एक कुएँ के पास उड़ कर जा बैठा कुएँ के मेढ़क ने प्रसंग पा कर हंस से पूछा कि आपका समुद्र कितना बड़ा है ? हंस ने हंसकर उत्तर दिया कि प्रिय
त! समुद्र बहुत बड़ा है। मेढक हाथपांव पसार कर कहता है कि क्या सागर इतना बड़ा है ? राजहंस उत्तर देता है कि नहीं इस से कहीं बहुत बड़ा है । पुनः झुंझलाता हुआ मेंढक सविस्मय हो कर कुएँ के एक तट से दूसरे तट पर उछल कर समझाता है कि क्या इस से भी बड़ा है ? हंसराज गम्भीर होकर
कहता है कि भाई ! समुद्र इस से भी अत्यधिक लम्बा, चौड़ा है, तब मेंढक उस हंसोक्ति को असत्य समझ कर हंस की प्रतारणा करता कि कोई भी जलाशय कुएँ से बड़ा नहीं हो सकता है। हंस उस मेंढक को हठी समझ कर स्वस्थान को चला जाता है और कदाचित् मेंढक को ले जाकर समुद्र का दर्शन कराता है तब कहीं मेंढक को अगाध पारावार का परिज्ञान होता है और उस का मिथ्या अभिनिवेश नष्ट हो जाता है। इसी दृष्टान्त अनुसार एकान्तवादियों को कूपमण्डूक की उपमा दी गई है । परमपूज्य श्री विद्यानन्दी आचार्य स्याद्वादसिद्धान्त के उद्भट प्रतिपादक हैं। श्री विद्यानन्द स्वामी के अष्टसहस्री प्रन्थ का यह अतिशय विख्यात है कि " अष्टसहस्री को हृदयंगत करने वाला विद्वान् अवश्य ही स्याद्वाद सिद्धान्त का अनुयायी हो जाता है। वस्तुओं के अंतरंग बहिरंग कारणवश अथवा स्वाभाविक हुये अनेक धर्मों की योजना अनुसार अनेकान्त की व्यवस्था है और शब्दों के वाच्यार्थ अनुसार कहे गये वस्तु के धर्मों में सप्तभंग नय की विवक्षा द्वारा स्याद्वाद सिद्धान्त की प्रतिष्ठा है । यों अनेकान्त की भित्ति पर सध रही स्याद्वाद सिद्धान्त की जयपताका को फहराते हुए ग्रन्थकार ने सातवें अध्याय के द्वितीय आह्निक को समाप्त कर दिया है ।