Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 680
________________ ६५९ सप्तमोऽध्याय सफल रहा और कदाचित् संक्लेशों अनुसार किया गया पात्रदान भी अदान समझा गया। ये सर्व अंतरंग परिणामों के वश हुई व्यवस्थायें अनेकान्तवादियों के यहां तो सुशृंखलित बन जाती हैं । यहाँ ग्रन्थकार ने अनेकान्तवादी पण्डित को धार्मिक क्रिया और लौकिक कर्तव्यों के प्रकृष्ट उपकारक सूर्य का रूपक दिया है। सूर्य का प्रकाशमण्डल हजारों योजन इधर उधर फैलता है उसी प्रकार स्याद्वादसिद्धान्त के अनेक नय और प्रमाणों की प्रचुरता विश्व में विस्तृत हो रही है । सूर्य जैसे अन्धकार को नष्ट कर देता है उसी प्रकार अनेकान्तवादी विद्वान् भी क्षणिकत्व, कूटस्थ नित्यत्व आदि एकान्तों का प्रतिपादन कर रही कुनयों को निराकृत कर देता है । जिन पुद्गल स्कन्धों का अन्धकारमय परिणमन हो रहा था सूर्य का सन्निधान मिलने पर उन्हीं पुद्गलस्कन्धों का प्रकाशमय ज्योतिःस्वरूप परिणाम होने लग जाता है । इस ही ढंग से क्षणिकत्ववादी बौद्ध या पच्चीस तत्त्वों को कह रहे कपिल मतानुयायी एवं षोडशपदार्थवादी नैयायिक तथा सात पदार्थों को मान रहे वैशेषिक आदि के कुनय गोचरों का कथंचित् अनेकान्त सूर्य करके सुनय गोचरपना प्राप्त हो जाता है तभी तो सिद्धचक्रविधान के मन्त्रों में कपिल, वैशेषिक, षोडशपदार्थवादी, आदि को सिद्धस्वरूप मान कर नमस्कार किया है। भगवान के सहस्रनामों में भी इस का आभास पाया जाता है। भूतप्रज्ञापननय अनुसार अथवा सुनययोजना से, पच्चीस, सोलह, सात, एक अद्वैतब्रह्म, शब्दाद्वैत. ज्ञानाद्वैत, आदि तत्त्वों की भी सव्यवस्था हो जाती है। तभी तो देवागम स्तोत्र के अन्त में श्री समन्तभद्र आचार्य महाराज ने “जयति जगति क्लेशावेशप्रपंचहिमांशुमान् विहत विषमैकान्तध्वान्तप्रमाणनयांशुमान् । यतिपतिरजो यस्या धृष्यान्मताम्बुनिघेलवान् , स्वमतमतयस्तीर्थ्या नाना परे समुपासते" इस पद्य द्वारा जिनेन्द्रमतरूप समुद्र के ही छोटे छोटे अंशों को अपना मत मान कर उपासना कर रहे अनेक दार्शनिकों को बताया है। श्री अकलंक देव ने भी आठवें अध्याय में “सुनिश्चितं नः परतन्त्रयुक्तिषु" इत्यादि पद्य का उद्धरण कर एकान्तवादियों के तत्त्वों को जिनागम का ही अंश स्वीकार किया है । जिस प्रकार भांग पीनेवाला भांग पीने की यों पुष्टि कर देता है कि गधा ही भांग को नहीं पीता है यानी गधे से न्यारे जीव भांग को पीते ही हैं, उसी प्रकार भांग को नहीं पीने वाला उसी दृष्टान्त से यों अपने व्रत को पुष्ट करता है कि गधा भी भांग नहीं पीता है तो अन्य लोग भांग को कथंचित् भी नहीं पियेंगे । इत्यादि ढंगों से एवकार और अपिकार मात्र से एकान्त अनेकान्त का अन्तर है। वस्तुतः समीचीन एकान्तों का समुदाय ही तो अनेकान्त है । इस ग्रन्थ में अनेक बार अनेकान्त प्रक्रिया को कहा जा चका है। अष्टसहस्री तो अनेकान्तसिद्धि का घर ही है। जगत्प्रसिद्ध निर्दोष स्याद्वादसिद्धान्त को समझाने के लिये थोड़ा संकेतमात्र कर देना पर्याप्त है । स्याद्वादसिद्धान्त से सम्पूर्ण तत्त्वों की यथायोग्य विभाग करके विचारणा कर ली जाती है। हां, कुनयों के गाढ़ अन्धकार में उद्भ्रान्त हो रहे एकान्तवादी मुग्ध जीव विचारा उसी प्रकार सिद्धान्त रहस्य का पता नहीं लगा सकता है जिस प्रकार कि दो तीन हाथ तक ही उछलने की शक्ति को धार रहा कुंये का दीन मेंढक अनेक योजनों लम्बे, चौड़े, गहरे समुद्र जल की सीमा को नहीं पा सकता है। अनेक भङ्गोंवाली प्रक्रिया को नय विशारद पुरुष शीघ्र समझ लेता है। श्री अमृतचंद्र स्वामी ने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में “एकेनाकर्षन्ती इलथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण, अन्तेन जयति जैनी, नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी” इस पद्य द्वारा अनेकान्त सिद्धान्त पर प्रकाश डाला है । परिशुद्ध प्रतिभावालों को सुलभता से अनेकान्त की प्रतीति कर लेनी चाहिये। . इति सप्तमाध्यायस्य द्वितीयमाह्निकम् । यहाँ तक तत्त्वार्थाधिगम मोक्षशास्त्र के सातवें अध्याय के प्रकरणों का दूसरा आह्निक समाप्त हो चुका है।

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