Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 673
________________ ६५२ श्लोक- वार्तिक अनेक कार्यों की विशेषतायें अपने अपने अंतरंग, बहिरंग कारणों अनुसार हो रही देखी जाती हैं लोक में भी ऐसी प्रसिद्धि है कि "पाग, भाग, वाणी, प्रकृति, सूरत ( मूरत ) अर्थ विवेक । अक्षर मिलें न एक से ढूंढो नगर अनेक” भूत, भविष्य, वर्तमान काल के या देशान्तरों के अनेकानेक मनुष्यों की सूरतें, मूरतें, एक सी नहीं मिलतीं हैं । एक मनुष्य की भी बाल्य, कुमार, युवा, अर्धवृद्ध और वृद्ध अवस्थाओं की आकृतियों में महान् अन्तर है सूक्ष्मदृष्टि से विचारने पर प्रत्येक वर्ष, मास, दिन, घंटाओं की सूरतें न्यारी जचेंगी। हर्ष, विषाद, क्रोध, क्षमा, भूख, तृप्ति, टोटा, लाभ, रोग, आरोग्य आदि अवस्थाओं में झट न्यारी न्यारी आकृतियां हो जाती हैं। ये ही दशायें पशु, पक्षी, मक्खियां, चींटे, चीटियां, वृक्ष, आदि में समझ लीं जाय । स्थूलदृष्टि से मक्खियाँ एक सी दीखती हैं किन्तु उनमें अंतरंग बहिरंग, कारण वश अन्तर पड़े हुये हैं। भले ही एक साँचे में ढले हुये, रुपये, पैसे, खिलौनों में अन्तर नहीं है किन्तु सदृश परिणाम स्वरूप सामान्यवाले मनुष्य, घोड़ा, आदि उक्त दृष्टान्तों से चना, गेहूँ, चावलों प्रभृति में भी व्यक्तिशः अन्तर मानने की इच्छा हो जाती है। इसी प्रकार द्रव्य आदि में बहिरंग, अन्तरंग कारणों अनुसार विशेषतायें हो जाती हैं । पूर्ण आदर उत्साह के साथ प्रतिग्रह आदि के करने में और मन्द उत्साह के साथ विधि करने में अन्तर पड़ जाता है । गरिष्ठ पदार्थ, अति उष्ण, औषधि, रूक्ष भोजन, आदि द्रव्यों की अपेक्षा, लघुपाच्य, अनुष्णाशीत द्रव्यों का दान करने में अन्तर है, शुद्धहृदय, निष्कपट, दाता में और ईर्ष्यालु, अनुत्साही, दाता में महान् अन्तर है । तीर्थकर, मुनि, ऋद्धिधारी मुनि, सामान्यद्रव्यलिंगी, उत्तम श्राचक, पाक्षिक श्रावक, आदि पात्रों के अन्तर अनुसार दान फल की विशेषतायें हो जातीं है । विधिद्रव्यदातृपात्राणां हि विशेष; स्वकारणविशेषात् । तच्च कारणं बाह्यमनेकधा द्रव्यक्षेत्र कालभावभेदात् । आन्तरं चानेकधा श्रद्धाविशेषादिपरिणामः । कः पुनरसौ विध्यादीनां विशेषः प्रख्यातो यतो दानस्य विशेषतः फलविशेषसंपादनः स्यादित्याह -- अपने अपने कारणों की विशेषताओं से विधि, द्रव्य, दाता और पात्रों का विशेष हो रहा नियमित है और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, इनके भेद से वे बहिरङ्ग कारण अनेक प्रकार के हैं। उन के अनुसार कार्यों में भेद पड़ जाता है। तथा श्रद्धाविशेष, उत्साह विशेष, क्षयोपशम, विशुद्धि, आदिक परिणाम स्वरूप अंतरंग कारण भी अनेक प्रकार हैं इन अंतरंग कारणों से भी कार्यों में अनेक अन्तर पड़ जाते हैं । जैसे कि विद्यालय, अध्यापक, भोजन, श्रेणी, पुस्तकों, समय, परिश्रम आदि के समान होने पर भी छात्रों की अन्तरंग कारण वश अनेक प्रकार व्युत्पत्तियां देखी जाती हैं । कारणों की बड़ी अचिन्तनीय शक्ति है । जिस से कि कार्यों में वस्तु भूत अनेक विशेषतायें उपज बैठती हैं । यहाँ कोई प्रश्न उठाता है कि वह विधि आदिकों की विशेषता फिर कौन सी प्रसिद्ध हो रही है ? जिस से कि सूत्रोक्त अनुसार दान की विशेषता से वह विधि आदिकों का विशेष भला फलविशेषों का सम्पादन करनेवाला हो सके ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अग्रिम वार्त्तिकों को कह रहे हैं । पात्रप्रतिग्रहादिभ्यो विधिभ्यस्तावदात्रवः । दातुः पुण्यस्य संक्लेशर हितेभ्यो ऽतिशायिनः ॥३॥ किंचित्संक्लेशयुक्त ेभ्यो मध्यमस्योपवर्णितः । बृहत्संक्लेशयुक्त ेभ्यः स्वल्पस्येति विभिद्यते ॥४॥

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