Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सप्तमोऽध्याय दाता विशिष्ट पुण्य का भाजन है उक्त गुणों में जितनी कमी होगी वही दाता की त्र टि है पात्र की विशेषता प्रसिद्ध ही है, मुनिमहाराज उत्तम पात्र हैं श्रावक मध्यम है और सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र है । मुनियों में भी तीर्थंकर, गणधर, ऋद्धिधारी, आचार्य, उपाध्याय, आदि भेद हो सकते हैं । इसी प्रकार श्रावक और सम्यग्दृष्टियों में भी अवान्तर भेद हैं । सम्यग्दर्शन आदि की शुद्धि, अशुद्धि, अपेक्षा पात्रों में विशेषता हो जाती है । यों विधि आदि की विशेषताओं से दान और उसके फल में तारतम्य अनुसार विशेषतायें हो जाती हैं।
प्रतिग्रहादिक्रमो विधिः विशेषो गुणकृतः तस्य प्रत्येकमभिसंबंधः । तपःस्वाध्यायपरिवृद्धिहेतुत्वादिद्रव्यविशेषः, अनसूयाऽविषादादि विशेषः, मोक्षकारणगुणसंयोगः पात्रविशेषः । एतदेवाह
- अतिथि का प्रतिग्रह करना, अतिथि को ऊँचे देश में स्थापन करना आदि क्रिया विशेषों का नवधाभक्ति स्वरूप क्रम तो विधि है । गुणों की अपेक्षा की गई परस्पर में विशिष्टता का हो जाना विशेष है। द्वंद्व समास के अन्त में पड़े हुये विशेष का विधि, द्रव्य, दाता, और पात्र इन चारों में प्रत्येक के साथ पिछली ओर संबंध कर देना, जिससे कि विधिविशेष, द्रव्यविशेष, दातृविशेष, पात्रविशेष, यों सूत्रोक्त पद समझ लिये जाँय, पात्र के तपश्चरण करना, स्वाध्याय करना इन आवश्यक क्रियाओं की परिवृद्धि का हेतुपना, गमन, धर्मोपदेश में आलस्य नहीं करावना आदिक तो द्रव्य की विशेषतायें हैं । पात्र में ईर्ष्या, असूया नहीं करना, दान देने में विषाद नहीं करना, देते हुये प्रीति रखना, कुशल होने का अभिप्राय रखना, भोगों की आकांक्षा नहीं रखना, इत्यादिक तो दाता की विशेषताय है । मोक्ष के कारण हो रहे सम्यग्दर्शन आदि गुणों के साथ संयोग विशेष होना तो पात्रों की विशेषता है इस ही मन्तव्य को ग्रन्थकार अग्रिम वार्त्तिक द्वारा कह रहे हैं।
तद्विशेषः प्रपंचेन स्याद्विध्यादिविशेषतः ।
. दातुःशुद्धिविशेषाय सम्यग्बोधस्य विश्रुतः॥१॥ विधि, द्रव्य, आदि की विशेषताओं से उस दान का विस्तार करके विशेष हो जाता है जो कि दाता के सम्यग्ज्ञान की विशेष शुद्धि के लिये हो रहा प्रसिद्ध है अर्थात् विधि आदि को विशेषताओं से दाता को दान के फल में बड़ा अन्तर पड़ जाता है । भूमि, जल, वायु, वृष्टि, आदि बिशेष कारणों करके जैसे बीज फल की विशेषतायें हो जाती हैं।
कुतोऽयं विध्यादीनां यथोदितो विशेषः स्यादित्याह;__ यहाँ कोई प्रश्न करता है कि आम्नाय अनुसार चला आया यह विधि आदिकों का सूत्रोक्त विशेष भला किस कारण से हो जाता है ? बताओ। ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार उत्तर वात्तिक को कह रहे हैं।
विध्यादीनां विशेषः स्यात् स्वकारणविशेषतः।
तत्कारणं पुनर्वाह्यमांतरं चाप्यनेकधा ॥२॥ ___ विधि, द्रव्य आदिकों की विशेषता तो अपने अपने कारणों की विशेषता से हो जायेगी उन विधि आदिकों के कारण तो फिर बहिरंग और अंतरंग अनेक प्रकार के हैं। अर्थात् घट, पट, आदिक