Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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ઘૂંટ
श्लोक-वार्तिक
रोगों के उपद्रव से आकुलित होने के कारण जीवित में महान् संक्लेश हो जाने से मरने के लिये एकाग्र हो कर मानसिक विचार करना मरणाशंसा । पूर्व अवस्थाओं में किये गये मित्रों के साथ धूलि कीड़ा, उद्यान भोजन, नाटक प्रदर्शन, सहभोजन, सहविहार आदि का पुनः स्मरण करना मित्रानुराग है । पहिले अनुभवे गये प्रीतिविशेषों की स्मृतियों की बारबार अभ्यावृत्ति करना सुखानुबंध है । विद्याधर, चक्रवर्ती, देव, इन्द्र, अहमिन्द्र आदि के भोगों की आकांक्षा करके नियत हो रहा चित्त उस निदान में दिया जाता है अथवा उस भोगाभिप्राय करके चित्त की टकटकी लगी रहती है इस कारण वह निदान कहा जाता
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। करण या अधिकरण में युदप्रत्यय कर दिया गया है " करणाधिकरणयोश्च युटु” । ये पांच सिद्ध हो रहे संन्यास के अतीचार हैं । कोई समाधिमरण करने वाला यदि अभक्ष्य औषधियों का भक्षण, प्रत्याख्यात पदार्थों का निरर्गल सेवन, आकुलित होकर पुकारना, तीव्ररौद्रध्यान, इत्यादि परिणतियां करे तो अनाचार है । केवल अज्ञान या प्रमादवश होकर मन्दरूप से यह जीवित की आशा आदि करता है अतः ये पांच कुछ संक्लेश सम्पादन के हेतु होने से अतीचार माने गये हैं। यहां कोई पूंछता है कि किस प्रकार सिद्ध हुये ये पांच अतीचार मान लिये जाँय ? बताओ । ऐसी तर्क अग्रिम वार्त्तिक द्वारा समाधान वचन कहते हैं ।
प्रबर्तने पर ग्रन्थकार
विज्ञेया जीविताशंसाप्रमुखाः पंच तत्त्वतः । प्रोक्तसल्लेखनायास्ते विशुद्धिक्षतिहेतवः ॥ १ ॥
लक्षण कर भले कर कह दी गई सल्लेखना के जीविताकांक्षा प्रभृति पांच वास्तविक रूप से अतीचार समझाने चाहिये ( प्रतिज्ञा ) कारण कि वे समाधिमरण के उपयोगी हो रही उत्कृष्ट आत्म विशुद्धि की क्षति के कारण हैं ( हेतु) ये जीविताशंसा आदिक दोष न तो समाधिपूर्वक मरण का समूलचूल घात करते हैं और न उस समाधिमरण में कुछ विशुद्धि उत्पन्न करते हैं अतः समाधिमरण का एक देश घात और एक देश संरक्षण करने वाले होने से इन का अतीचार मान लिया है ।
तदेवं शीलव्रतेष्वनतिचारस्तीर्थकरत्वस्य परमशुभनाम्नः कर्मणो हेतुरित्येतस्य पुण्यास्रवस्य प्रपञ्चतो निश्वयार्थं व्रतशीलसम्यक्त्वभावनातदतिचारप्रपंचं व्याख्याय संप्रति शक्तितस्त्यागतपसी इत्यत्र प्रोक्तस्य व्याख्यानार्थमुपक्रम्यते;
तिस कारण इस प्रकार यहां तक “शीलव्रतेष्वनतीचारः" यानी सात शील और पांच व्रतों के अतीचार नहीं लगने देना यह परमशुभ नाम कर्म हो रहे तीर्थकरत्व का तृतीय आस्रव हेतु है । यों इस पुण्यास्रव का विस्तार से निश्चय करने के लिये इस सातवें अध्याय में पांच व्रत, सात शील, सम्यक्त्व, सल्लेखना, पच्चीस भावनायें, और उन चौदहों के अतीचारों के प्रपंच का व्याख्यान किया जा चुका है । अब वर्तमान में उन्हीं षोडश कारण भावनाओं में जो शक्ति से त्याग और तपश्चरण करना सूत्रित किया है "शक्तितस्यागतपसी " इस प्रकार यहाँ भले प्रकार कहे जा चुके त्याग यानी दान का व्याख्यान करने के लिये सूत्रकार महाराज उपक्रम यानी जानकर प्रारंभ करते हैं । भावार्थ - तीर्थकर नामकर्म के आस्रवों को कहते हुये सूत्रकार ने शील व्रतों में अतीचार नहीं लगने देना कहा था । तदनुसार व्रतों का लक्षण उन व्रतों की पोषक सामान्य विशेष भावनायें व्रतों के प्रतियोगियों के लक्षण व्रतधारियों के भेद तथा सात शील और सल्लेखना एवं व्रत और शीलों की नींव हो रहे सम्यक्त्व के अतोचार तथैव व्रत शीलों के अतीचार एवं व्रत प्रासाद के कलशस्वरूप सल्लेखना के अतीचारों का स्वयं सूत्रकार ने निरूपण कर दिया है । अब सोलह कारण भावनाओं में जो शक्ति अनुसार त्याग ( दान ) कहा गया था तथा