Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 668
________________ सप्तमोऽध्याय ६४७ करना कठिन पड़ जाता है । अन्य दाता हैं ही मैं क्यों दान देने की चिन्ता करूं अथवा यह देने योग्य पदार्थ किसी दूसरे का है ऐसा अभिप्राय कर अर्पण कर देना परव्यपदेश है । बड़े समारोह से दान कर रहे सन्ते भी अन्तरंग में पात्र का आदर नहीं करना या देने में हर्ष नहीं मनाना मात्सर्य है । अकाल में भोजन करना कालातिक्रम है । यों ये दान के अतीचार हुये । यहाँ कोई पूंछता है कि ये अतीचार भला किस प्रमाण से सिद्ध किये जा सकते हैं ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अग्रिम वार्त्तिक को कह रहे हैं। स्मृताः सचित्तनिक्षेपप्रमुखास्ते व्यतिक्रमाः । सप्तमस्येह शीलस्य तद्विघातविधायिनः ॥ १ ॥ सचितनिक्षेप आदिक यहाँ कहे गये पाँच अतीचार ( पक्ष ) सातवें अतिथिसंविभाग शीलके माने गये हैं सर्वज्ञोक्त विषय का गुरुपरिपाटी अनुसार अबतक यों ही स्मरण होता चला आ रहा है ( साध्य ) क्योंकि ये दोष उस अतिथि संविभाग का एकदेश से विघात करने वाले हैं ( हेतु ) । इस अनुमान प्रमाण से सूत्रोक्त आगमगम्य विषय की पुष्टि हो जाती है । अथ सल्लेखनायाः केsतिचारा इत्याह; अचारों का प्रकरण होने पर लगे हाथ अब सल्लेखना के अतीचार कौन से हैं ? ऐसी विनीत शिष्य की बुभुत्सा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं । जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबंधनिदानानि ॥ ३७॥ जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबंध, और निदान, ये पाँच सल्लेखना के अतीचार हैं । अर्थात् यह प्रकृत शरीर में आत्मा का निवास करना स्वरूप जीवित नियम से अध्रुव है । यह बबूले के समान अनित्य शरीर अवश्य हैय है ऐसा जानकर भी मेरा जीवन बना रहे ऐसी लोलुपतापूर्णं सादर आकांक्षा करना जीविताशंसा है । रोग, टोटा, उपद्रव, अपमान आदि से आकुलित होकर मरण में संक्लेश पूर्वक अभिप्राय रखना मरणाशंसा है । बाल्य अवस्था में साथ खेले अथवा संपत्ति और विपत्ति में युगपत् साथ रहे मित्रों के साथ हुई क्रीड़ा आदि का स्मरण करना मित्रानुराग है । मैंने पहिले सुन्दर भोजन, पान, का बड़ा अच्छा भोग किया था, मनोहर, गुलगुदी, सजी हुई शय्याओं पर शयन किया था, अनेक इन्द्रियों के भोग भोगे थे, यों रागवर्धक सुखों का पुनः पुनः स्मरण करना सुखानुबंध कहा जाता है। भविष्य में भोगों की आकांक्षा के वश होकर वैषयिक सुखों की उत्कट प्राप्ति के लिये मनोवृत्ति करना निदान है यों पांच अतीचार सल्लेखना के हैं । आकांक्षणमाशंसा, अवश्य हेयत्वे शरीरस्यावस्थानादरो जीविताशंसा, जीवित संक्लेशन्मरणं प्रति चित्तानुरोधो मरणाशंसा, पूर्व सुहृत्सहपांशुक्रीडनाद्यनुस्मरणं मित्रानुरागः, पूर्वानुभूतप्रीतिविशेषस्मृतिसमन्वाहारः सुखानुबंधः, भोगाकांक्षया नियतं दीयते चित्तं तस्मिंस्तेनेति वा निदानं । त एते संन्यासस्यातिक्रमाः कथमित्याह आकांक्षा यानी अभिलाषा करना आशंसा है, यह बिजली के समान क्षणिक शरीर अवश्य ही त्यागने योग्य है ऐसा जानते हुये भी शरीर की अवस्थिति बने रहने में आदर करना जीविताशंसा है । ८२

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