Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
६४६
श्लोक- वार्तिक
माने गये भोगपरिभोगसंख्यान के अतीचार हैं ( साध्य ) क्योंकि उस छठे शील की विराधना करने के कारण हो रहे हैं ( हेतु ) तिसी प्रकार अर्थात् जैसे अहिंसादि व्रतों का एक देश रक्षण और एक देश भंग कर देने वाले दोष उन व्रतों के अतीचार हैं उसी प्रकार व्रत का एक अंशरूप से भंग कर देने वाले सचित्त संबन्धाहार आदिक पांच इस छठे शील के अतीचार हैं ( दृष्टान्त ) ।
सप्तमस्य शीलस्य केऽतिक्रमा इत्याह-
अब सात अतिथि संविभाग शील के अतोचार कौन हैं ? ऐसी तीव्रनिर्णिनीषा प्रवर्तने पर सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराज अग्रिम सूत्र को सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमासर्त्यकालातिक्रमाः ॥ ३६ ॥
कह रहे हैं।
सचित्तनिक्षेप १ सचित्तापिधान २ परव्यपदेश ३ मात्सर्य ४ और कालातिक्रम ५ ये पांच अतिथिसंविभाग शील के अतीचार हैं । अर्थात् सचित्त यानी सजीव हो रहे कमलपत्र, पलाशपत्र, कदलीपत्र आदि में खाद्य, पेय पदार्थ को घर देना अथवा गीली पृथिवी की बनी हुई चूलि पर भोज्य, पेय पदार्थों को रांधना, सचित्त जल से आर्द्र हो रहे बर्तनों में खाद्यपदार्थ रख देना आदि सचित्तनिक्षेप है । कोई तुच्छबुद्धि पुरुष विचारता है कि सचित्त पर धरे हुये पदार्थ को संयमीजन ग्रहण नहीं करते हैं यों दान नहीं देना पड़े इस अभिप्राय से वह देय पदार्थ को सचित्त पर धर देता है जैसे कि आजकल भी कतिपय धनपतियों के वैज्ञानिक रसोइया परोसने में कृपणता करते हैं। सचित्त पदार्थ करके ढक देना तो सचित्तापिधान है | संयमी ग्रहण नहीं करेंगे तो भी मुझे लाभ है ऐसा मान रहा यह तुच्छ पुरुष भोज्य पदार्थ को
चित्त से ढक देता है अथवा उस भोज्य पदार्थ को त्वरा वश मैंने सचित्त से ढक दिया है संयमी तो इस बात को जानते नहीं हैं यों विचार कर उस सचित्तपिहित वस्तु का संयमी के लिये दान कर देना भी सचित्तापिधान हो सकता है। दूसरे दाता के देय द्रव्य का अर्पण कर देना अर्थात् दूसरे के पदार्थ को लेकर स्वयं दे देना अथवा मुझे कुछ कार्य है तू दान कर देना यह परव्यपदेश है । अथवा यहाँ दूसरे दाता विद्यमान हैं मैं यहां दाता नहीं हूं यह कह देना भी परव्यपदेश हो सकता है। धनलाभ या किसी प्रयोजन सिद्धि की अपेक्षा से द्रव्यादिक के उपार्जन को नहीं त्यागता सन्ता योग्य हो रहा भी दूसरे के हाथ से दान दिलाता है इस कारण यह परव्यपदेश महान् अतीचार है जो कार्य स्वयं किया जा सकता है किसी रोग, सूतक, पातक आदि का प्रतिबंध नहीं होते हुये भी उस को दूसरों से कराते फिरना अनुचित है। दान को देता हुआ भी आदर नहीं करता अथवा अन्य दाताओं के गुणों को नहीं सह सकता है वह उसका मात्सर्य दोष है । संयमियों के अयोग्यकाल में दान करने का अभिप्राय रखना कालातिक्रम है, ये पांच अतीचार अतिथि संविभाग शील के हैं ।
सचित्ते निक्षेपः, प्रकरणात् सचित्तेनापिधानं, अन्यदातृदेयार्पणं परव्यपदेशः, प्रयच्छतोप्यादराभावो मात्सर्य, अकाले भोजनं कालातिक्रमः । कुत एतेऽतिचारा इत्याह
- मुनिदान योग्य अचित्तपदार्थों का सचित्तपदार्थ पर घर देना सचित्तनिक्षेप है " सचित्त निक्षेपः " यों विग्रह कर लिया जाय । प्रकरण के वश से सचित्त करके अपिधान यों विग्रह कर “ सचित्तापिधान" शब्द बना लिया जाय " अर्थवशाद्विभक्तिविपरिणामः” इस परिभाषा अनुसार सप्तमी विभक्ति वाले सचित शब्द का अपिधान पद के साथ अन्वय करने पर प्रकरणवश तृतीयान्त सचित्तेन पद के साथ विग्रह करना चाहिए, अन्यथा पहिले अधिकरणपने से कहे गये सचित्त का तृतीयान्त पद रूप से अनुवृत्ति