Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
६४२
श्लोक-वार्तिक इस सूत्र को बखानते हुये हो चुका है । दुःप्रणिधान शब्द में दुर् उपसर्ग का अर्थ दुष्टता अथवा अन्य सावध प्रकारों से परणतियां करना है । दुष्टक्रियाओं का प्रणिधान अथवा अन्य पापव्यापारों में चित्त को लगाना दुःप्रणिधान है। इतिकर्तव्य यानी अवश्य यों यह शुभ कर्म करना है इस शुभ प्रयत्न के प्रति पूर्णरूप से उत्साह नहीं करना अथवा ज्यों त्यों टाल कर अनुत्साह रखना अनादर है। एकाग्रपने से चित्त का समाधान नहीं रख सकना स्मृत्यनुपस्थान है। यदि यहां कोई यों शंका करे कि वह स्मृत्यनुपस्थान तो मनोदुःप्रणिधान ही ठहरा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्योंकि उस प्रकरणप्राप्त सामायिक व्रत से अन्य का चिन्तन कर देने से तो मनोदुष्प्रणिधान है। और भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है। यहां कोई तर्क उठाता है कि चौथे सामायिक शील के ये सूत्रोक्त अतीचार भला किस युक्ति से सिद्ध हुये समझ लिये जांय ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर ग्रन्थकार अगली वार्तिक में समाधान वचन कहते हैं ।
योगदुःप्रणिधानाद्याश्चतुर्थस्य व्यतिक्रमाः।
शीलस्य तद्विघातित्वात्तेषां तन्मलतास्थितेः ॥१॥ योगदुःप्रणिधान आदि पांच ( पक्ष ) चौथे सामायिक शील के व्यतिक्रम हैं ( साध्य ) क्योंकि एकदेश करके उस सामायिक के विघातक होने से उन पांचों को उस सामायिक व्रत का मलपना व्यवस्थित है ( हेतु ) इस अनुमान से उक्त सूत्र के विषय को पुष्टि दी गई है। अर्थात् सामायिक का एकदेश भंग होते हुये भी इनसे सामायिक व्रत का अभाव नहीं हो सका है । अतः व्रत के विशोधक या सर्वाङ्ग घातक भी नहीं होसकने से ये पांच सामायिक व्रत के मलमात्र हैं पोषक या विनाशक नहीं हैं।
पंचमस्य शीलस्य केऽतीचारा इत्याह
पांचवें प्रोषधोपवास शील के अतीचार कौन कौन हैं ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्र को कहते हैं। अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मत्यनपस्थानानि ॥३४॥
अप्रत्यवेक्षिता प्रमार्जितोत्सर्ग १ अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान २ अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जित संस्तरोपक्रमण ३ अनादर ४ स्मृत्यनुपस्थान ५ ये पांच प्रोषधोपवास शील के अतीचार हैं। अर्थात् यहां प्राणी विद्यमान हैं ? या नहीं इस प्रकार विचार पूर्वक अपनी चक्षु से दया के पालने का उद्दश्य कर जो पुनः पुनः निरीक्षण करना है वह प्रत्यवेक्षण है। कोमल वस्त्र मयूरपिच्छ आदि करके जीवों को हटाकर प्रतिलेखन करना प्रमार्जन है। प्रत्यवेक्षण और प्रमार्जन नहीं कर चुकने पर प्रमादयोग से झट भूमि में मूत्र आदि छोड़ देना यानी मूतना, हंगना, नाक छिनक देना, आदि सावध व्यापार करना पहिला अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्ग नाम का अतीचार है। देखे बिना और आधार शुद्धि किये बिना ही जिन पूजा, आचार्यपूजा के उपकरण हो रहे जल, चंदन, आदि पदार्थ अथवा अपने पहिनने, ओढ़ने, वस्त्र, पात्र, मूढ़ा, आदि को झट खींचकर ग्रहण कर लेना, अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान है। बिना देखे और बिना शुद्ध किये हुये ही डुपट्टा, बिछौना, आदि का उपयोग करने के लिये स्वीकार कर लेना अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जित संस्तरोपक्रमण है । दूर की ओर देखते रहना अथवा निकृष्ट प्रतिलेखन से मार्जन करना भी अतीचार इन्हीं में गर्भित हो जाता है । नत्र का अर्थ खोटा भी है जैसे कि कुत्सित विद्यार्थी को अविद्यार्थी कह दिया जाता