Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक धतूरे आदि के रस की लहरों का सद्भाव होने पर ही उन द्रव्यों से किये गये उन्माद आदि की सन्तान बड़ी देरतक बनी रहती है । एक रोग से और भी कई रोग उपज जाते हैं यहां भी अभ्यन्तर पौद्गलिक वात, पित्त, कफ, दोषों से ही उन रोगों की उत्पत्ति हुई मानी जाती है। भूख से भूख और उससे भी अधिक भूख अथवा प्यास के उपर प्यास जो लगती है इनमें भी उत्तरोत्तर पौद्गलिक पित्ताग्नि का संधुक्षण होते रहना अन्तरंग कारण है। पुनरपि कोई व्यभिचार दोष उठाता है कि कामिनी, सम्पत्ति, सिंह, आदि भावों में हुये राग, द्वेष, परिणामों करके उत्पन्न हुये उन्माद ईर्षा, भय, आदि करके व्यभिचार हुआ। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि वे उन्माद आदिक भीपरम्परा करके सुन्दरी, तन्वी, स्त्री के मनोहर अंगों का समोह निरीक्षण करना आदि को कारण मान कर उपजे हैं। उन मनोहर अंगों के सकषाय निरीक्षण आदि का अभाव होने पर उन उन्माद आदि की उत्पत्ति होना नहीं बन पाता है। मुनियों या बालकों के स्त्री, सर्प, धन, आदिसे वे भाव नहीं उपजते हैं अतः उन्मत्तक पुरुष को भले ही हृदय हारिणी कामिनी में हुई अभिलाषासे साक्षात् उन्माद, चिन्ता, गुण कथन, उद्वेग, सम्प्रलाप, आदिक होवे किन्तु उनका परम्परया कारण पौद्गलिक कामिनीपिण्ड ही है। जैन सिद्धान्त तो यहाँ इस प्रकार है कि अनेक कार्यों को चलाकर आत्मा अपने प्रमादों अनुसार करता है उससे कर्मबन्ध होता है । कामिनी को देखने पर कामुक के पूर्वोपार्जित कर्मों का उदय आजाने से उन्माद आदि कामचेष्टायें होने लग जाती हैं। संसारी जीव के प्रतिक्षण पूर्वोपार्जित शुभ अशुभ कर्मों का उदय बना रहता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, इन निमित्तों को पाकर पौद्गलिक कर्मों की वैसी वैसी रस देने योग्य परिणतियां होजाती हैं जैसे कि भोजन, पान, पदार्थों का पित्ताग्नि, स्वच्छवायु वाला प्रदेश, नीरोग शरीर, व्यायाम, पाचनचूर्ण, अथवा दूषित जल, वात, पित्त, कफ, के दोष, निकृष्टवायु, रुग्ण शरीर, विषमकाल, रोगस्थान, चिन्ता, आदि निमित्तों अनुसार नाना प्रकार के विपाकों को धार रहा परिणमन होजाता है। अतः ज्ञान आदि के विरोधी पौद्गलिक द्रव्य ही आवरण मानने पड़ते हैं अविद्या नहीं। नैयायिक या वैशेषिक के यहां माने गये धर्म, अधर्म संज्ञक गुण भी आत्मा को परतंत्र नहीं कर सकते हैं जो जिसका गुण है वह उसको परतंत्र नहीं कर सकते हैं । तिस कारण उक्त सूत्र द्वारा श्रीउमास्वामी महाराज का यह निरूपण करना युक्त ही है कि उन ज्ञान या दर्शन में हुये प्रदोष, निह्नव आदिक उन उन ज्ञान दर्शनों का आवरण करने वाले कर्मों के आस्रव हैं क्योंकि सूत्रकार के इस सिद्धान्तवचन में युक्तियों का सद्भाव है तथा बाधक प्रमाणों का अभाव है जैसे कि तिस प्रकार के युक्त और निर्बाध अन्य वचनों का कहना समुचित है। ग्रन्थकार ने अपनी विद्वत्ता से यह भी एक अनुमान बना दिया है कि सूत्रकार के अन्य वचनों समान (दृष्टान्त) इस सूत्र का निरूपण भी (पक्ष) युक्ति पूर्ण और निर्बाध होने के कारण (हेतु) समुचित ही है (साध्य)॥
अथासवेद्यास्रवसूचनार्थमाह ।
ज्ञानावरण और दर्शनावरण के पश्चात् वेदनीय कर्म का नाम निर्देश है । वेदनीय कर्म के सद्वेद्य और असद्वेद्य दो भेद हैं । अनुकूलवेदनीय होरहे लौकिक सुख का कारण सद्वेद्य है और असद द्य का उदय होने पर जीवों के प्रतिकूल वेदनीय दुःख उपजते हैं अब असद द्य कर्म के आस्रव की सूचना देने के लिये श्रीउमास्वामी महाराज उस अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं।
दुःखशोकतापानंदनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य ॥११॥