Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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श्लोक-वार्तिक उपज जाते हैं। क्षणस्थायी और कालान्तरस्थायी स्वभावों के साथ तदात्मक हो रहा आत्मा उन हिंसा, अहिंसाणुव्रत, अहिंसामहाव्रत, परिणामों के फलस्वरूप नारकी, देव, मोक्ष, अवस्थाओं को भोगता है। यदि आत्मा को सर्वथा नित्य माना जायगा तो वह सदा एक सा ही रहेगा। हिंसक है तो सदा हिंसा ही करता रहेगा और हिसक आत्मा सदा अहिंसक ही रहेगा। इसी प्रकार क्षणिक पक्ष में हिंसक आत्माको नरक नहीं मिला दूसरे ने ही नारकीय दुःखों को भोगा आदि अनेक दोष आते हैं । हाँ अनेकान्त सिद्धान्त में कोई दोष नहीं है इसी बात को उपसंहार कर दिखलाते हुये ग्रन्थकार वसंततिलका छन्द में गूंथे हुये पद्य को कह रहे हैं।
नानानिवृत्तिपरिणामविशेषसिद्धरेकस्य नुर्बहुविधव्रतमर्थभेदात् । युक्त क्रमाक्रमविवर्तिभिदात्मकस्य
नान्यस्य जातु नयवाधितविग्रहस्य ॥१॥ कथञ्चिद्भिन्न होरहो क्रमभावी और अक्रमभावी विशेष पर्यायों के साथ तदात्मक हो रहे नित्यानित्यात्मक एक परिणामी आत्मा के तो अनेक प्रकार के निवृत्तिरूप परिणाम विशेषों की सिद्धि है अतः उसी आत्मा के सर्वरूप से या एक देश से हिंसादिकों की विरति करना रूप प्रयोजनों के भेद से बहुत प्रकार के व्रतों का धारण युक्ति सिद्ध हो जाता है । किन्तु अन्यवादियों के यहाँ नयों से बाधित हो रह सर्वथा क्षणिकत्व, नित्यत्व, आदि कल्पित शरीरों को धारने वाले आत्मा के कदाचित् भी व्रतों का पालन नहीं हो सकता है। भावार्थ-सत्त्वं अर्थक्रियया व्याप्तं, अर्थक्रिया च क्रमयोगपद्याभ्यां व्याप्ता, क्षणिके नित्ये वा क्रमयोगपद्ये न स्तः। क्रम और युगपत्पने करके अर्थक्रियाओं को कर रहा पदार्थ ही जगत् में सत् है सर्वथा नित्य या क्षणिक पदार्थ तो आकाशपुष्पसमान असत् है। पहिले प्रवृत्ति परिणाम को हटाकर पुरुषार्थ पूर्वक निवृत्ति परिणाम करना ये सब अर्थक्रियायें अनेकान्तसिद्धान्ती स्याद्वादियों के यहाँ ही सुघटित होती हैं। इसका विस्तार अष्टसहस्री में विशेष आनन्द के साथ समझ लिया जाता है।
इति सप्तमाध्यायस्य प्रथममाह्निकम् । इस प्रकार सातमें अध्याय का प्रकरणों का समुदाय स्वरूप पहिला आह्निक समाप्त हुआ।
चिद्रूपसिद्धपरमात्ममयान्यहिंसा,दीनि व्रतानि पुरुषार्थभरात्प्रपन्नः। मैत्री-प्रमोद-करुणादिसुभावनाढ्यः, स्वर्गापवर्ग सुखमेति गृही यतिश्च ॥
अथ सदर्शनादीनां सन्लेखनान्तानां चतुर्दशानामप्यतीचारप्रकरणे सम्यक्त्वातिचारप्रतिपादनार्थ तावदाह
____ अब इस के अनन्तर सम्यग्दर्शन को आदि लेकर सल्लेखना पर्यंत चौदहों भी गुणों के अतिचारों के निरूपण का प्रकरण प्राप्त होने पर सबसे प्रथम सम्यक्त्व गुण के अतीचारों की प्रतिपत्ति कराने के लिये सूत्रकार अग्रिम सूत्र को कहते हैं। अर्थात्-सम्यक्त्वममलममलान्यणुगुणशिक्षाव्रतानि मरणान्ते । सल्लेखना च विधिना पूर्णः सागारधर्मोऽयम् । सम्यग्दर्शन, अहिंसाव्रत, सत्यव्रत, अचौर्यव्रत, शीलवत, परि