Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सप्तमोऽध्याय
६३५ योग्य परिणाम ही उस चौथे व्रत के अतीचार हैं किन्तु फिर उस ब्रह्मव्रत का ही सर्वांग विघात करने वाले तो अतीचार नहीं हो सकते हैं यों इस कारिका में कहे गये अनुमान के व्यतिरेकदृष्टान्त तो ब्रह्मव्रत के विशोधक स्त्रीराग कथा श्रवण त्याग, नवधा ब्रह्मचर्यव्रतपालन आदि और ब्रह्मविघातक परस्त्रीरमण, वेश्यामैथुन आदि हैं तथा परविवाहकरण आदिक अन्वयदृष्टान्त हो सकते हैं। अन्तर्व्याप्ति को मानने वाले पण्डित पक्ष के भीतर भी व्याप्ति ग्रहण कर उसको अन्वयदृष्टान्त बना लेते हैं। अन्यथा सभी हेतु साध्य वालों को पक्ष कोटि में धर देने पर अन्वयदृष्टान्त का मिलना असंभव है।
अथ पंचमव्रतस्य केऽतीचारा इत्याह:
व्रत और शोलों में पांच पांच अतीचार हैं इस प्रतिज्ञा अनुसार पहले चार व्रतों के अतिचार ज्ञात कर लिये इनके अनन्तर अब पांचवें परिग्रहपरिमाण व्रत के अतीचार कौन हैं ? ऐसी तत्त्व बुभुत्सा प्रवर्तने पर सूत्रकार अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं।
क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमारणातिक्रमाः ॥२९॥
क्षेत्र-वास्तु, आदिक पांच परिग्रहपरिमाणवत के अतीचार हैं अर्थात् क्षेत्र और वास्तु का अतिक्रमण कर लेना पहिला अतोचार है । धान्यों की उत्पत्ति के स्थान को क्षेत्र कहते हैं । कुटिया, डेरा, कोठी, हवेली, घर, प्रासाद, ग्राम , नगर आदि ये वास्तु कहे जाते हैं । इनका लोभ के आवेश से अतिक्रम करलिया जाता है। सीमा करने वाली भीत या बाढ़ आदि को हटाकर दूसरे घर या खेत को मिला लेने से यह अतीचार संभव जाता है। मैनं घर आदि को बढ़ा लिया है उनकी परिमित संख्या का अतिक्रम नहीं किया है यों इस ब्रती के व्रत की एकदेश रक्षा का अभिप्राय है। रूपा, चांदी, मोहर, गिन्नी, पै
पैसा. सिक्का आदि व्यवहार में क्रय विक्रय उपयोगी यानी वस्तु के अदल बदल का विनिमय करने वाले पदार्थ हिरण्य हैं । और सोना तो प्रसिद्ध ही है। परिमित किये गये हिरण्य, सुवर्णों, का अतिक्रमण कर लेना दूसरा अतीचार है। अपने व्रत के समाप्त हो जाने पर तुम से इतना सिक्का या सोना ले लूगा इस अभिप्राय कर के अधिक लब्ध को अन्य के लिये अर्पण करदेने से लोभवश यह अतीचार संभव जाता है। गाय, भैंस, हाथी, घोड़ा, ऊंट, छिरिया आदिक धन हैं। और गेहूं, चावल आदिक धान्य हैं। परिमित धन और धान्य का अतिक्रम करना तीसरा अतीचार है । यह अतीचारी विचारता है कि अपने घर में प्राप्त हो रहे धनधान्यों का विक्रय या व्यय कर देने पर पुनः तुम आसामियों से ले लूगा इस भावना करके नियन्त्रण कर देने से यह दोष संभव जाता है। संख्या किये गये दासीदासों का अतिक्रम करना चौथा अतीचार है। गाय, घोड़ी, तोता, मैना, सिपाही, दासियां, चाकर, इनमें गर्भवाली की अपेक्षा अथवा कुछ काल पश्चात् अपने व्रत को यथावस्थित कर लूगा । यों विचार कर नियत संख्या का अतिक्रम कर देने से यह अतीचार संभवता है। वस्त्र, भाण्ड, गाड़ी, पलंग, हल, आदिक सभी कुप्य में गर्भित हो जाते हैं। नियत काल के पश्चात् मैं तुम से ले लूगा या अन्य को दिला दगा इस अभिप्राय से यह कुप्यों काअतिक्रमण संभव जाता है यो क्षेत्र वास्तुओं की सीमा को बढ़ाना १ हिरेण्य सुवर्णों का अतिक्रम २ धनधान्यों की मर्यादा का उल्लंघन ३ दासीदासों की संख्या का अतिरेक ४ और कुप्यपदार्थों की मर्यादा का उल्लंघन ये पांच परिमित परिग्रहव्रत के अतीचार हैं।
क्षेत्रवास्त्वादीनां द्वयोद्वयोर्द्वन्द्वः प्राक् कुप्यात्, तीव्रलोभाभिनिवेशात् प्रमाणाविरे