Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सप्तमोऽध्याय
६३७ ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यंतराधानानि ॥३०॥
____ व्यतिक्रम शब्द को पहिले तीन शब्दों में जोड़ दिया जाय यों ऊर्ध्व व्यतिक्रम १ अधोव्यतिक्रम २ तिर्यग्व्यतिक्रम ३ क्षेत्रवृद्धि ४ स्मृत्यन्तराधान ५ ये पांच अतीचार दिग्विरमणव्रत के हैं। पर्वत, वृक्ष, मीनार आदि पर ऊपर चढ़ जाना, नीचे कूँआ बावड़ी आदि में उतरना, और तिरछे बिल , गुहा, आदि में प्रवेश करना ये नियत प्रदेश से परली ओर किये जाय तो इनका उल्लंघन करना यों तीन अतीचार हो जाते हैं। प्रयोजन बिना या अज्ञानसे इनका अतिक्रम किया जायेगा तब तो अतीचार हैं अन्य प्रकारों से अतिक्रम करने पर तो अनाचार ही हैं । अज्ञानवश ये अतिक्रम हो जाय तो पुनः संभल कर व्रतों की रक्षा कर ली जाती है पीछे वहां अतिक्रान्त स्थल में जाने का सर्वथा त्याग कर दिया जाता है अन्य को भी नहीं भेजा जाता है वहां अतिक्रान्त स्थान से किसी वस्तु का लाभ किया जाय तो उसका त्याग कर दिया जाता है । क्षेत्र की वृद्धि कर लेना अथवा पूर्व देश की अवधि में से घटाकर उसको पश्चिम देश की अवधि में लाभवश जोड़ देना यह क्षेत्र वृद्धि है। नियत सीमा को भूल कर अन्य न्यूनाधिक स्मृतियों का अभिप्राय रखना स्मृत्यन्तराधान है । अज्ञान, अचातुर्य, सन्देह, अतिव्याकुलता, अन्यमनस्कता, अतिलोभ आदि करके स्मृति का भ्रश हो जाता है। किसी ने पूर्व दिशा में सो योजन का परिमाण किया था, गमन करते समय स्पष्टरूप से स्मरण नहीं रहा कि मैंने सौ योजन का परिमाण किया था, या पचास योजन का नियम किया था, उस व्रतापेक्षी का पचास योजन से आगे जाने पर तो अतीचार है और सौ योजन का अतिक्रम करने पर अनाचार हो जायेगा यों ये पांच दिग्विरति शील के अतीचार हैं।
परिमितदिगवधिव्यतिलंघनमतिक्रमः, स त्रेधा ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्विषयभेदात् । तत्र पर्वताद्यारोहणावा॑तिक्रमः, कूपावतरणादेरधोऽतिवृत्तिः, बिलप्रवेशादेस्तिर्यगतीचारः, अभिगृहीताया दिशो लोभावेशादाधिक्याभिसंधिः क्षेत्रवृद्धिः। इच्छापरिमाणेऽतर्भावात्पौनरुक्त्यमिति चेन्न, तस्यान्याधिकरणत्वात् । तदतिक्रमः प्रमादमोहव्यासंगादिभिः । अननुस्मरणं स्मृत्यंतराधानं ।
परिमाण की जा चुकी दिशा की अवधि का उल्लंघन कर देना अतिक्रम कहा जाता है । विशेषरूप से अतिक्रम करना व्यतिक्रम है । वह व्यतिक्रम ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा, और तिर्यग्दिशा के विषयों की भिन्नता से तीन प्रकार का है उन तीनों में पर्वत, स्तूप, टीला आदि के ऊपर चढ़ जाने से ऊर्ध्वातिक्रम संभव जाता है । कुँआ में उतर जाना, दर्रा में नीचे आ जाना आदि क्रियाओं से अधोअतिक्रम हो जाता है। बिल में घुस जाना, सुरंग में प्रवेश कर जाना आदिक से तिर्यक् अतिक्रम स्वरूप अतीचार हो जाता है। चारों ओर ग्रहण कर ली गई दिशा का लोभ के आवेश से अधिकपने का अभिप्राय रखना क्षेत्रवृद्धि है । यहाँ कोई शंका करता है कि "धनधान्यादिग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु ।निस्पृहा, परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामापि" इस प्रमाण अनुसार पांचवें अणुव्रत माने गये परिमित परिग्रह का दूसरा नाम इच्छापरिमाण भी है । फैली हुई इच्छाओं का संकोच कर नियत परिमाण कर लेना पांचमा अणुव्रत है । जब क्षेत्र के अतिक्रम को पांचवें व्रत के अतीचारों में गिन लिया है उस में क्षेत्रवृद्धि का अन्तर्भाव हो सकता है तिस कारण यहां उस को पुनः कथन करना तो पुनरुक्त दोष है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना क्योंकि वह इच्छा परिमाण तो अन्य क्षेत्र, वास्तु, आदिक अधिकरणों में हो रहा है और यह दिग्विरति अन्य के लिये है। वहाँ परिग्रहबुद्धि से क्षेत्र के प्रमाण का अतिक्रम कर दिया जाता है किन्तु यहां दिग्विरमण में मात्र दिशा के परिमाण का लक्ष्य है अतः उस क्षेत्र को बढ़ाकर अतिक्रम रूप से गमन कर लिया है यों अर्थ में अन्तर है । प्रमाद, मोह, अन्यगतचित्तपना, उद्भ्रान्ति, आदि करके ये