Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 644
________________ ६२३ सप्तमोऽध्याय अधिकार निवृत्त नहीं हुआ है अतः अगारी के ही या अनगार के ही ये दोनों अवधारण उचित नहीं हैं। दर्शनमोहोदयादतिचरणमतीचारः तत्त्वार्थश्रद्धानातिक्रमणमित्यर्थः । दर्शन मोहनीय कर्म के मिथ्यात्व, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये तीन भेद हैं "जतेण कोहवं वा पढमुवसमसम्मभाव जंतेण, मिच्छं दव्वं तु तिधा असंखगुणहीणदव्वकमा” इन में से पहिला सर्वघाती है, दूसरा जात्यन्तर सर्वघाती है, तीसरी सम्यक्त्व प्रकृति देशघाती है। सम्यक्त्व नामक दर्शनमोह कर्म का उदय हो जाने से जो अतिचरण यानी अतिक्रमण करना है वह अतीचार है। तत्त्वार्थश्रद्धान का अतिक्रमण हो जाना इस का अर्थ है चल, मल, अगाढ़ता ये तीन दोष क्षयोपशम सम्यक्त्व में कदाचित् पाये जाते हैं । उक्त सूत्र में मलों को दिखला दिया है। ननु च न पंचातिचारवचनं युक्तमष्टांगत्वात् सम्यग्दर्शनस्यातिक्रमणानां तावत्वमितिचेन्न, अत्रैवान्तर्भावात्, निःशंकितत्वाद्यष्टांगविपरीतातिचाराणामष्टविधत्वप्रसंगे त्रयाणां वात्सल्यादिविपरीतानामवात्सल्यादीनामन्यदृष्टिप्रशंसादिना सजातीयानां तत्रैवान्तर्भावात् । व्रतायतीचाराणां पंचसंख्याव्याख्यानप्रकाशाणामपि पंचसंख्याभिधानात् । यहाँ कोई शंका उठाता है कि सम्यग्दर्शन के निशंकितत्व १, निःकांक्षितत्वर, निर्विचिकित्सा ३, अमूढ़दृष्टि४, उपगूहुन५, स्थितीकरण६, वात्सल्य७, प्रभावना८, ये आठअंग हैं तो सम्यग्दर्शन के अतिक्रमण भी उतने परिमाण वाले आठ ही होने चाहिये, केवल पाँच ही अतीचारों का कथन करना तो सूत्रकार को उचित नहीं है, युक्ति रहित है । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना क्यों कि इन पाँचों में ही उन आठों का अन्तभोव हो जाता है। निःशंकित आदि आठों अंगों के विपरीत हो रहे अतीचारों को भी आठ प्रकारपने का प्रसंग होना चाहिये तो भी वात्सल्य आदिक से विपरीत हो रहे अवात्सल्य आदिक तीन का उन पांच में ही अन्तर्भाव हो जाता है। क्योंकि अवात्सल्य आदिक तीन तो अन्यदृष्टिप्रशंसा आदि की जाति के समान जाति को धारने वाले सजातीय हैं। अर्थात् आद्य तीन गुणों के प्रतिपक्ष हो रहे तीन शंका, कांक्षा, विचिकित्सा दोषों को तो कण्ठोक्त सूत्र में कह दिया ही है शेष रहे मूढदृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितीकरण, अवात्सल्य, अप्रभावना इन पाँच दोषों को अन्यदृष्टिप्रशंसा, संस्तव, इन दो दोषों में गर्भित कर लेना चाहिये, देखिये जो पुरुष मिथ्यादृष्टियों की मन से प्रशंसा करता है, और वचन से स्तुति करता है वह मूढदृष्टि दोष वाला है। वैसा मूढदृष्टि जीव उन रत्नत्रयमंडित पुरुषों के दोषों का उपगूहन नहीं करता है, दर्शन या चारित्र से डिगते हुओं का स्थितीकरण भी नहीं कर पाता है वात्सल्यभाव तो उस के निकट आता ही नहीं है। जिनशासन की प्रभावना करना तो कथमपि उसको अभीष्ट नहीं है। तिसकारण षे पाँच दोष सूत्रोक्त चौथे, पाँचवें, दोषों के सजातीय होने से उन्ही में गर्भित कर लिये जाते हैं । एक बात यह भी है कि व्रत आदि यानी पाँच व्रतों, सात शीलों और सल्लेखना के भी पांच संख्या वाले पाँच प्रकार अतीचारों का व्याख्यान किया जावेगा। अतः सभी के पाँच अतीचारों की विवक्षा रखने वाले सूत्रकार ने सम्यग्दर्शन के भी अतीचारों को पांच संख्या में कथन कर दिया है। विशेष यह है कि शंका आदि पांच सूत्रोक्त दोष बड़े बलवान हैं। जो सर्वज्ञ या आगम में ही शंका कर रहा है अथवा वीतराग धर्म का श्रद्धालु होकर भी भोगोपभोगों की आकांक्षा कर रहा है, मुनियों के पवित्र शरीर में भी घृणा उपजाता है, जैनमतबाह्य दार्शनिकों के गुणाभासों की प्रशंसा स्तुतियों के पुल बांधता है वह दीन पुरुष, मूढदृष्टि या अनुपगृहन तथा अस्थितीकरण तथा अवात्सल्य और अप्रभावना को तो बड़ी सुलभता से आचरेगा इतना लक्ष्य रखना कि क्षयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव इतनी

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