Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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सप्तमोऽध्याय ठानवत् , अर्थादिभिः परगुह्यप्रकाशनं साकारमन्त्रभेदः अर्थप्रकरणादिभिरन्याकूतमुपलभ्यासूयादिना तत्प्रकाशनवत् ॥ कथमेते अतीचारा इत्याह
जिस प्रकार बौद्ध धर्म का पक्ष लेकर सर्वथा क्षणिक एकान्त में प्रवृत्ति करा दी जाती है एवं सर्व को नित्य मानने का पक्ष ले रहे एकान्तीपण्डित के अनुसार सर्वथा नित्यैकान्त में प्रवृत्ति करा दी जाती है। आदि, या समीचीन शास्त्र का अन्य प्रकारों से निरूपण करा दिया जाता है । तथा दूसरों की धन आदि के लिये वंचना कराने वाले शास्त्रों का उपदेश दे दिया जाता है उसी प्रकार मिथ्या यानी अन्यथा प्रवृत्ति करा देना, अथवा दूसरों के अभिप्राय को सुमार्ग से हटाकर कुमार्ग पर लगा देना मिथ्यो. पदेश है । ढके हुये यानी गुप्त हो रहे क्रिया विशेष का जो दूसरों की हानि करने के लिये प्रकाशित कर देना है वह रहोभ्याख्यान है, जैसे कि स्त्री पुरुषों करके एकान्त में की गई क्रियाविशेषको प्रकट कर दिया जाता है। दूसरों करके नहीं कहे गये किन्तु पर प्रयोग से इङ्गितों द्वारा समझ कर ठगने के लिये लेखन क्रिया के मार्ग को पकड़ना कूटलेखक्रिया है। जैसे कि उस मनुष्य ने मरते समय यों अमुक को भाग देने के लिये कहा था, इस प्रकार अंगचेष्टा करी थी इस प्रकार ठगने के अभिप्राय अनुसार लिख दिया जाता है। सोना, चांदी आदि की धरोहर किसी महाजन के यहां रख देने पर पुनः संख्या भूल गये स्वामी का अल्पसंख्यक द्रव्य मांगने पर थोड़ी संख्यावाले हीन द्रव्य के धरोहर की स्वीकारता को कह देना न्यासापहार है। जैसे कि किसी बोहरे के यहां सौ मोहरों की धरोहर जमा कर देने वाले भोले जीव का संख्या भूल कर अपनी कुल नब्बे मोहरों को ले रहे भोले जीव के प्रति तुम्हारी नब्बे ही मोहरें थीं यों कह कर अधिक जान कर भी नब्बे मोहरों के देने का उस बोहरे करके अनुष्ठान कर दिया जाता है । अर्थ, प्रकरण, अंगविकार, भ्रूविक्षेप आदि करके दूसरों के गुह्य इतितृत्तों का प्रकाश कर देना साकारमन्त्रभेद है। जैसे कि अर्थ, प्रकरण आदि करके दूसरों की चेष्टा को दक्षता पूर्वक जान कर ईर्ष्या, द्वेष आदि करके उस गुप्त क्रिया को प्रकाश में ला दिया जाता है। यहाँ कोई पूछता है कि सत्यव्रत के ये पांच अतीचार भला किस प्रकार हो जाते हैं इस में युक्ति भी क्या है ? बताओ ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर प्रन्थकार समाधान कारक अग्रिम वार्तिक को कहते हैं।
तथा मिथ्योपदेशाद्या द्वितीयस्य व्रतस्य ते ।
तेषामनृतमलत्वात्तद्वत्तेन विरोधतः ॥१॥ . जिस प्रकार अहिंसावत के संक्लेश वश पांच अतीचार दोष लग जाते हैं उसी प्रकार दूसरे सत्याणुव्रत के वे मिथ्योपदेश आदिक पांच का अतीचार संम्भव जाते हैं ( प्रतिज्ञा ) क्यों कि प्रमाद युक्त झूठ बोलने के मूल मानकर वे मिथ्योपदेश आदि उपजते हैं ( हेतु ) जैसे कि वंचक शास्त्रों का उपदेश या दम्पतियों की रहस्य क्रिया का प्रकाश करना आदि अनृतमूलक होने से सत्य का दोष है ( पक्षान्त
ाप्तिपूर्वक दृष्टान्त ) उस सत्यव्रत या आत्मविशुद्धि के साथ मिथ्योपदेश आदि का उसी प्रकार विरोध है जैसे अहिंसा व्रत का बन्ध आदि के साथ विरोध ठन रहा है। अतः एकदेश भंग और एकदेश रक्षण हो जाने से उक्त अतीचार सम्भव जाते हैं । अर्थात् अतीचार वाला विचारता है कि जैसे जैन पण्डित अपनी आम्नाय अनुसार जैन शास्त्रों का उपदेश सुनाते हैं उसी प्रकार मैंने यजुर्वेद अनुसार हिंसा का या बौद्ध मत अनुसार क्षणिक एकान्त पक्ष का अथवा “वाराङ्गना राजसभा प्रवेशः" इस नीति शास्त्र के अनुसार वेश्या के यहां जाने का एवं डाकुओं के अभिप्राय अनुसार सभी पापों के मूलभूत धनिकों के धन को मार पीट कर के भी हड़प लेने का उपदेश दे दिया है कोई मनमानी बातें नहीं कह दी हैं । इसी .