Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

View full book text
Previous | Next

Page 645
________________ ६२४ श्लोक - वार्तिक व्यक्त शंका आकांक्षायें आदि नहीं करता है कि सर्वज्ञ कोई है या नहीं, मुझे परभव में स्त्री, पुत्र, धन बहुत मिले, मुनिशरीर बहुत घिनामना है, वाममार्गी, हिंसक, व्यभिचारी आदि बड़े अच्छे होते हैं, नदी, सागारस्नान से मुक्ति हो जाती है धर्मात्माओं की वाच्यता की जानी चाहिये, धर्मच्युत को और भी गिरा देना चाहिये, किसी से वत्सलता करने की आवश्यकता नहीं है, अज्ञान अन्धकार को क्यों हटाया जाय इत्यादि । सच बात तो यह है कि ये शंकादिक प्रकट दोष मिथ्यादृष्टियों के ही पाये जाते हैं। हां सम्यग्दृष्टि के तो अव्यक्त रूप से क्वचित् कदाचित् संभव जाते हैं। बड़े पुरुष का यत्किंचित् भी दोष बहुत खटकता है, छोटा ही परिपाक में बड़ा हो जाता है अतः निर्दोष उपशमसम्यक्त्व या क्षायिकसम्यक्त्व को धारने का लक्ष्य कराने के लिये अनुद्भूत शंकादिक छोटे दोषों का संभवना सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से क्षयोपशमसम्यक्त्व में कदाचित् हो जाता है। नाना प्रकार संकल्पविकल्पों में फंसे हुये प्राणियों के आजकल सम्यक्त्व होना अतीव दुर्लभ है हां असंभव तो नहीं है जब कि असंख्यात योजन चौड़े अन्तिम स्वयंभूरमण द्वीप की परलो ओर के अर्धभाग में असंख्याते तिर्यञ्च देशव्रती पाये जाते हैं। तो जिनालय, जिनागम, तीर्थस्थान, गुरुसंगति, संयमिसत्संग, आदि अनेक अनुकूलताओं के होते हुये यहां भरतक्षेत्रसंबंधी आर्यखण्ड के मध्यप्रान्तों में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाना दुर्लभ नहीं है। सूक्ष्मविचार के साथ पर्यवेक्षण किया जाय तो लाखों करोड़ों जीवों में से एक दो जीव के ही शंकायें करना नहीं मिलेगा शेष सभी जीव प्रायः हृदय में व्यक्त, अव्यक्त, रूप शंका पिशाचियों से ग्रसित हो रहे परलोक है या नहीं ? बड़े बड़े स्नेही जीव भी मरकर पुनः अपने प्रेमपात्रों को आकर नहीं सम्हालते हैं । तीव्रक्रोधी भी परलोक से आकर अपने शत्रुओं को त्रास देते नहीं सुने जाते हैं । कचित् भवस्मरण कर पूर्व भव की कुछ कुछ बातों को कहने वाले लड़का, लड़की, देखे सुने जाते हैं । किन्तु उन से भरपूर संतोष नहीं होता है। कई पुरुष अभिमान के साथ उपकार या अपकार करने की प्रतिज्ञा कर मरते हैं वे भी भूतकाल में लीन हो जाते हैं। यों अनेक जीव परलोक के विषय में या सर्वज्ञ, ज्योतिश्चक्र भूभ्रमण में शंकित रहना, चींटी मक्खी भौंरी मकड़ी आदि के मानसिक विचार पूर्वक किये गये चमत्कार कार्यों की आलोचना कर नैयायिकों के अभिमत समान चींटी आदि में मन इन्द्रिय के होने की शंका बनाये रखते हैं इसी प्रकार जैन धर्मात्माओं या तीर्थस्थानों अथवा जिनबिम्ब, जिनागम आदि के ऊपर कई प्रकार की विपत्तियाँ आ रही जानकर भी असंख्याते सम्यग्दृष्टि देव या जिन शासन रक्षक देवों के होते हुये भी कोई एक भी देव यहाँ आर्य खण्ड में आकर दिगम्बर जैन धर्म का प्रकाण्ड चमत्कार क्यों नहीं दिखाता है ? स्वर्ग, मोक्ष, असंख्यात द्वीप समुद्र भला कहाँ हैं ? कुछ समझ में नहीं आता है जब पुण्य पाप की व्यवस्था है तो अनेक पापी जीव सुखपूर्वक जीवन बिताते हुये और अनेक धर्मात्मापुरुष क्लेशमय जीवन को पूरा कर रहे क्यों देखे जाते हैं ? वेश्याओं की अपेक्षा कुलीन विधवायें महान दुःख भोग रही हैं, शिकार खेलने वाले या धीवर, वधक, बहेलिया, शाकुनिक, मांसिक आदि को कोई भी जीव पुनः आकर नहीं सताता है । कतिपय बड़े बड़े धर्मात्मा मरते समय अनेक क्लेशों को भुगतते हैं जब कि अनेक पापी जीव सुख पूर्वक मर जाते हैं। धर्म का रहस्य अन्धकार में पड़ा हुआ है। इसी प्रकार बड़े बड़े धर्मात्माओं को भी आकांक्षायें हो जाती हैं। नीरोग शरीर, दृढ़ सुन्दर शरीर पुत्र स्त्री धन कुल प्राप्ति, प्रभुता, यश, लोकमान्यता का मिलना, प्रकृष्टज्ञान, बल राजप्रतिष्ठा की पूर्णता आदि में से जिस किसी भी महत्त्वाधायक पदार्थ की त्रुटि रह जाती है उसी की आकांक्षा आजकल के जीवों के क्वचित्कदाचित् हो ही जाती है, दिनरात कलह करने वाली स्त्री से भले मनुष्य का भी जी ऊब जाता है बिचारा कहां तक संतोष करे । कुरूप, रोगी, क्रोधी, आजीविकाहीन, दरिद्र, मूर्ख, पति में सुन्दर युवती का चित्त कहाँ तक रमण कर सकता है उसको स्वानुकूल पति की आकांक्षा कदाचित् हो ही जाती है, चक्रवर्ती विद्याधर, देव, इन्द्र, अहमिन्द्रों के

Loading...

Page Navigation
1 ... 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692