Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 6
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 649
________________ ६२८ श्लोक-वार्तिक पाये जा रहे सामायिक व्रत और सामायिक शील में जैसे विशेषता है उसी प्रकार यहां गृहस्थ के सात शील भी पांच व्रतों के रक्षक मात्र समझे जाते हैं। व्रतों की रक्षा करते हुये शीलों का परिपालन गौण भी हो जाय तो कोई विशेष क्षति ( परवाह ) नहीं है । हां व्रतों को भी गौण कर शीलों के ही नियम बनाये रखने का लक्ष्य नहीं रखना चाहिये । सामर्थ्याद्गृहिसंप्रत्ययः, बन्धनादयो ह्यतीचारा वक्ष्यमाणा नानगारस्य संभवंतीति सामर्थ्याद्गृहिण एव व्रतेषु शीलेषु पंच पंचातीचाराः प्रतीयते । पंच पंचेति वीप्सायां द्वित्वं व्रतशीलातीचाराणामनवयवेन पंचसंख्यया व्याप्यत्वात् । पंचश इति लघुनिर्देशे संभवत्यपि पंच पंचेति वचनमभिव्यक्त्यर्थ, यथाक्रमवचनं वक्ष्यमाणातीचारक्रमसंबंधनार्थे । सूत्र में बिना कहे ही वक्ष्यमाण सूत्रों की सामर्थ्य से यहाँ गृहस्थ का समीचीन बोध हो रहा है, कारण कि बंध आदिक अतीचार जो भविष्य में कहे जाने वाले हैं वे गृहस्थ के ही संभवते हैं गृहत्यागी संयमी के नहीं संभवते हैं इस कारण प्रकरण सामर्थ्य से गृहस्थ के ही व्रतों और शीलों में पाँच पाँच अतीचार क्वचित् पाये जा रहे निर्णीत कर लिये जाते हैं। इस सूत्र में "पंच पंच" यों वीप्सा में दोपना किया गया है क्यों कि व्रत और शीलों के अतीचारों को पूर्ण रूप से पाँच संख्या करके व्याप लिया जाता है "अनवयवेन द्रव्याणां अभिधानमेव वीप्सार्थः" यद्यपि वीप्सा अर्थ में शस् प्रत्यय कर पंचशः इस प्रकार लघुरूप से निर्देश करना संभव था तो भी सूत्रकार का पंच पंच यों बड़े रूप से कथन करना तो अभियक्ति के लिये है अर्थात् लघुबुद्धि शिष्यों को पंच पंच कहने से सुलभतया स्पष्ट अर्थ की प्रकटता हो जाती है। सूत्र में यथाक्रम शब्द का कथन करना तो भविष्य में कहे जाने वाले अतीचारों का क्रम अनुसार संबन्ध कराने के लिये है अर्थात् पूर्व सूत्रों में व्रत और शीलों का जिस क्रम से निरूपण किया गया है उस क्रम का उल्लंघन नहीं कर वक्ष्यमाण सूत्रों में उनके अतीचार कहे जायंगे। अत एवाह___ इस ही कारण से उक्त सूत्र का अभिप्राय प्रकट करते हुये ग्रन्थकार इस अग्रिम वार्तिक को कह रहे हैं। पंच पंच व्रतेष्वेवं शीलेषु च यथाक्रम। वक्ष्यतेऽतः परं शेष इति सूत्रति दिश्यताम् ॥१॥ इस प्रकार व्रतों में और शीलों में क्वचित् पाये जा रहे पाँच पाँच अतीचार भविष्य में सूत्रों द्वारा यथाक्रम से कहे जायंगे ऐसी सूत्रकार प्रतिज्ञा करते हैं । इस सूत्र का वाक्यार्थ बनाने में "अतः परं वक्ष्यन्ते" यानी इस सूत्र से परली ओर सूत्रों में कहे जावेंगे इतना पद शेष रह गया आया ततः अन्विः । हो रहा समझ लेना चहिये । “सोपस्काराणि वाक्यानि भवंति" वाक्यों को यहां वहां से आवश्यक पदों को खींच लेनेका अधिकार प्राप्त है । आवश्यक हो रहे अनुपात्त पद का प्रयोजन वश अन्यत्र संबन्ध कर लेना अतिदेश है । “अतः परं व्रतशीलेषु पंच पंच यथाक्रमं वक्ष्यंते" यों सूत्र का वाक्य बना लिया जाय बड़ा सुन्दर जंचता है। तत्राद्यस्याणुव्रतस्य केऽतीचारा इत्याह;उन व्रत और शीलों में सब के आदि में कहे गये या प्रधान हो रहे अहिंसाणुव्रत के अतीचार

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